कम्पोस्ट टॉयलेट (शौचालय खाद) : आज की गांधीगिरी

Submitted by admin on Wed, 09/10/2008 - 15:51

इकोजैनइकोजैनमल एक ऐसी वस्तु है जो हमारे पेट में तो पैदा होती है पर जैसे ही वह हमारे शरीर से अलग होती है हम उस तरफ देखना या उसके बारे में सोचना भी पसंद नहीं करते।

पर आंकडे बताते हैं कि फ्लश लैट्रिन के आविष्कार के 100 साल बाद भी आज दुनिया में सिर्फ 15% लोगों के पास ही आधुनिक विकास का यह प्रतीक पहुंच पाया है और फ्लश लैट्रिन होने के बावज़ूद भी इस मल का 95% से अधिक आज भी नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंचता है बगैर किसी ट्रीटमेंट के।

दुनिया के लगभग आधे लोगों के पास पिट लैट्रिन है जहां मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है और आंकडों के अनुसार इनमें से अधिकतर से मल रिस रिस कर ज़मीन के पानी को दूषित कर रहे हैं। छत्तीसगढ में बिलासपुर जैसे शहर इसके उदाहरण हैं।

और शहरों का क्या कहें, योजना आयोग के आंकडे के अनुसार राजधानी दिल्ली में 20% मल का भी ट्रीटमेंट नहीं हो पाता शेष मल फ्लश के बाद सीधे यमुना में पहुंच जाता है। यूरोप में 540 शहर में से सिर्फ 79 के पास आधुनिक ट्रीटमेंट प्लांट हैं। 168 यूरोपियन शहरों के पास कोई ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। आधुनिक विकास का प्रतीक लंदन भी 1997 तक अपने मल को सीधे समुद्र में प्रवाहित किया करता था। 2004 में जब एकदिन आंधी आई तो लंदन का ट्रीटमेंट प्लांट बैठ गया और लंदन ने एक बार फिर सारा मल टेम्स नदी में प्रवाहित कर दिया।पर कोई इस बारे में बातचीत नहीं करना चाहता कि अगर लंदन का यह हाल है तो और शहरों का क्या हाल होगा ?

इस दुनिया ने बहुत तरक्की कर ली है आदमी चांद और न जाने कहां कहां पहुंच गया है पर हमें यह नहीं पता कि हम अपने मल के साथ क्या करें। क्या किसी ने कोई गणित लगाया है कि यदि सारी दुनिया में फ्लश टॉयलेट लाना है और उस मल का ट्रीटमेंट करना है तो विकास की इस दौड में कितना खर्च आयेगा ?

दक्षिण अफ्रीका में 1990 के एक विश्व सम्मेलन में यह वादा किया गया था कि सन 2000 तक सभी को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिया जायेगा। अब सन 2000 में वादा किया गया है कि 2015 तक विश्व के आधे लोगों को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिये जायेंगे। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों ने इस वचनपत्र पर हस्ताक्षर किये हैं और इस दिशा में काम भी कर रहे हैं।

भारत के आंकडों को देखें तो ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 3% लोगों के पास फ्लश टायलेट हैं शहरों में भी यह आंकडा 22.5% को पार नहीं करता।

स्टाकहोम एनवायरनमेंट इंस्टीट्यूट दुनिया की प्रमुखतम पर्यावरण शोध संस्थाओं में से एक है। इस संस्था के उप प्रमुख योरान एक्सबर्ग कहते हैं फ्लश टायलेट की सोच गलत थी, उसने पर्यावरण का बहुत नुकसान किया है और अब हमें अपने आप को और अधिक बेवकूफ बनाने की बजाय विकेन्द्रित समाधान की ओर लौटना होगा।

सीधा सा गणित है कि एक बार फ्लश करने में 10 से 20 लीटर पानी की आवश्यकता होती है यदि दुनिया के 6 अरब लोग फ्लश लैट्रिन का उपयोग करने लगे तो इतना पानी आप लायेंगे कहां से और इतने मल का ट्रीटमेंट करने के लिये प्लांट कहां लगायेंगे ?

हमारे मल में पैथोजेन होते हैं जो सम्पर्क में आने पर हमारा नुकसान करते हैं। इसलिये मल से दूर रहने की सलाह दी जाती है। पर आधुनिक विज्ञान कहता है यदि पैथोजेन को उपयुक्त माहौल न मिले तो वह थोडे दिन में नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य का मल उसके बाद बहुत अच्छे खाद में परिवर्तित हो जाता है जिसे कम्पोस्ट कहते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार एक मनुष्य प्रतिवर्ष औसतन जितने मल मूत्र का त्याग करता है उससे बने खाद से लगभग उतने ही भोजन का निर्माण होता है जितना उसे सालभर ज़िन्दा रहने के लिये ज़रूरी होता है।

यह जीवन का चक्र है। रासायनिक खाद में भी हम नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम का उपयोग करते हैं। मनुष्य के मल एवं मूत्र उसके बहुत अच्छे स्रोत हैं।

एक आधुनिक विकसित मनुष्य के लिये यह सोच भी काफी तकलीफदेय है कि हमारा भोजन हमारे मल से पैदा हो पर सत्य से मुंह मोडना हमें अधिक दूर नहीं ले जायेगा।

विकास की असंतुलित अवधारणा ने हमें हमारे मल को दूर फेंकने के लिये प्रोत्साहित किया है, फ्लश कर दो उसके बाद भूल जाओ। रासायनिक खाद पर आधारित कृषि हमें अधिक दूर ले जाती दिखती नहीं है। हम एक ही विश्व में रहते हैं और गंदगी को हम जितनी भी दूर फेंक दे वह हम तक लौट कर आती है।

गांधी जी अपने आश्रम में कहा करते थे गड्ढा खोदो और अपने मल को मिट्टी से ढक दो। आज विश्व के तमाम वैज्ञानिक उसी राह पर वापस आ रहे हैं।

वे कह रहे हैं कि मल में पानी मिलाने से उसके पैथोजेन को जीवन मिलता है वह मरता नहीं। मल को मिट्टी या राख से ढंक दीजिये वह खाद बन जायेगी।

इसके बेहतर प्रबंधन की ज़रूरत है दूर फेंके जाने की नहीं। हमें अपने सोच में यह बदलाव लाने की ज़रूरत है कि मल और मूत्र खजाने हैं बोझ नहीं। यूरोप और अमेरिका में ऐसे अनेक राज्य हैं जो अब लोगों को सूखे टॉय़लेट की ओर प्रोत्साहित कर रहे हैं। चीन में ऐसे कई नए शहर बन रहे हैं जहां सारे के सारे आधुनिक बहुमंजिली भवनों में कम्पोस्ट टायलेट ही होंगे।

भारत में भी इस दिशा में काफी लोग काम कर रहे हैं। केरल की संस्था www.eco-solutions.org ने इस दिशा में कमाल का काम किया है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों ने केरल में उनके कम्पोस्ट टॉयलेट का दौरा किया है। छत्तीसगढ के नेता, अधिकारियों को भी उनसे सीख लेने की ज़रूरत है।

विज्ञान की मदद से आज हमें किसी मेहतरानी की ज़रूरत नहीं है जो हमारा मैला इकट्ठा करे। कम्पोस्ट टॉयलेट द्वारा मल मूत्र का वैज्ञानिक प्रबंधन बहुत सरलता से सीखा जा सकता है। गांवों में यह सैकडों नौकरियां पैदा करेगा, कम्पोस्ट फसल की पैदावार बढाएगा और मल के सम्पर्क में आने से होने वाली बीमारियों से बचायेगा।

मल को नदी में बहा देने से वह किसी न किसी रूप में हमारे पास फिर वापस आती है। यह शतुरमुर्गी चाल हमें छोडनी होगी वर्ना हमारी बरबादी का ज़िम्मेदार कोई और नहीं होगा।

गांधी जी ने एक बार कहा था शौच का सही प्रबंधन आज़ादी से भी अधिक महत्वपूर्ण विषय है। कम्पोस्ट टॉयलेट आज की गांधीगिरी है। यह छत्तीसगढ के गांवों का कायाकल्प करने की।