एक प्रथा कलंक की

Submitted by admin on Sat, 07/24/2010 - 09:50
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जनसत्ता, 18 जुलाई, 2010

इक्कीसवीं सदी का पहला दशक अपने अंतिम पड़ाव पर है। सारी दुनिया में तकनीक का बोलबाला है। तकनीक के कारण ही कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया एक गांव में बदल चुकी है। विश्व में मानव अधिकारों की हर जगह चर्चा हो रही है। मानवीय गरिमा के साथ जीना हर मानव का अधिकार है। ऐसे समय में भारत में मैला प्रथा का जारी रहना देश की सभ्यता और तरक्की पर एक बदनुमा दाग की तरह है। यह मानवाधिकार का हनन भी है कि एक मनुष्य का मल अपने हाथों से उठाए। यह अमानवीयता का चरम है। एक ओर राष्ट्रमंडल खेल आयोजित कर भारत विश्व में चर्चा विषय बन रहा है तो दूसरी ओर ऐसी अमानवीय प्रथा देश में कायम है।

सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक नाकारेपन की वजह से भारत में आज भी तेरह लाख लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं, जिसमें नब्बे फीसद महिलाएं हैं। मैला प्रथा एक तरह से जाति व्यवस्था और पुरुषों द्वारा इन महिलाओं पर थोपी गई हिंसा है। समाज औरतों को हीनता का बोध करा कर उनका निरंतर शोषण करता रहा है। बचपन से ही जाति विशेष की बच्चियों को मैला साफ करने के लिए मजबूर किया जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर दलितों में औरतों को ही क्यों मैला उठाना पड़ता है। इसकी शुरुआत तभी हो जाती है जब वह अपनी मां के साथ शौचालय मालिकों के यहां रोटी लेने जाती है और बाद में वह जिंदगी भर इसी काम में लगी रहती है। वह पढ़ाई-लिखाई से दूर हो जाती है। इसलिए वह अपने हकों के लिए जागरूक नहीं हो पाती। उसका आत्मसम्मान खो जाता है। पिता के यहां भी और शादी के बाद ससुराल में भी वह यही काम करने के लिए मजबूर रहती है।

कानूनी तौर पर मैला ढोने की मनाही है। लेकिन सरकारी दावे के उलट देश में अभी भी यह प्रथा कमोबेश जारी है। इसके भीतरी हालात की पड़ताल कर रहे हैं राज वाल्मीकि . . . इस प्रथा के बरकरार रहने के पीछे शासन और प्रशासन की जाति आधारित बनावट को भी समझना होगा। प्रशासनिक सेवाओं में ज्यादातर उच्च जाति के लोग हैं। इन सेवाओं में दलित वर्ग के लोग भी आए हैं, लेकिन वे व्यवस्था का हिस्सा बन कर रह गए हैं। 1993 में मैला प्रथा उन्मूलन के लिए एक कानून बना, लेकिन शासन-प्रशासन की इच्छाशक्ति की कमी के कारण इनको सही तरीके से लागू नहीं किया गया। मैला प्रथा मोटे तौर पर तीन तरह की होती है। निजी शुष्क शौचालयों की सफाई, सार्वजनिक शुष्क शौचालयों की सफाई और रेलवे ट्रैक पर गिरे मानव मल की सफाई।

इस प्रथा को रोकने के लिए बना कानून क्यों सही ढंग से लागू नहीं हो पाता। इसके लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। हरियाणा में सफाई कर्मचारी आंदोलन के राज्य संयोजक के एक अधिकारी से मैला संबंधी जानकारी मांगने पर उस अधिकारी का लिखित बयान आया ‘हमारे यहां सफाई कर्मचारी शुष्क शौचालय तो साफ कर रहे हैं, लेकिन यहां सिर पर मैला उठाने का कार्य कोई नहीं करता।’ यह लिखित बयान है। यानी कि ऐसे अधिकारियों के दिमाग में यह बात रच-बस गई है कि इंसान द्वारा दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ करना घृणित और अमानवीय कार्य नहीं है।

कानून बनने के बाद इस कार्य पर प्रतिबंध लगाने की बात आती है तो वे यही कहते हैं कि पारंपरिक रूप से यानि सिर पर मैला ढोने का कार्य अब नहीं होता। ऐसे अधिकारियों के बूते ही ‘1993 अधिनियम’ को लागू करने की बात सरकार करती है। जबकि अधिनियम के अनुसार किसी भी प्रकार के शुष्क शौचालय को इंसान से साफ करवाना प्रतिबंधित है और अपराध की श्रेणी में है। अगर कोई शुष्क शौचालय मालिक इस कार्य को किसी सफाई कर्मचारी से करवाता है तो उस पर दो हजार रुपए जुर्माना या एक साल की कैद या दोनों हो सकती है। विडंबना यह है जिन अधिकारियों पर इस अधिनियम को लागू करने की जिम्मेदारी है, वे खुद इसके बारे में ठीक से नहीं जानते।

भारतीय समाज में सफाई कर्मचारियों की पहचान बचपन से ही होने लगती है। सफाई कर्मचारियों के परिवार में भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी यह पहचान स्वीकृत हो चली है कि वे सफाई कर्मचारी हैं। अगर कोई कभी उनसे सफाई से संबंधित कार्य के बारे में पूछता है तो वे बताते हैं कि यह हमारा काम है। ‘हमारा’ काम का मतलब क्या है? क्या सफाई का काम सिर्फ भंगी समुदाय का है। इसे पीढ़ी दर पीढ़ी दलित समुदाय पर किसने थोपा? इस पर विचार होना चाहिए। वे ऐसा क्यों बोलते हैं कि यह ‘हमारा काम है’ अगर इसे वे हमारा काम बोलेंगे तो इसे छोड़ेगे कैसे? ऐसा मानना भी एक प्रकार का जातिवाद है और वे अपना शोषण कराने में खुद भी शामिल हो जाते हैं।

आंबेडकर के अनुसार तो यह समुदाय जाति-व्यवस्था में शामिल ही नहीं है, बल्कि इससे बाहर और अछूत है। यह अछूतपन सिर्फ उनकी समस्या नहीं, लोकतंत्र और सभ्य नागरिक समाज की समस्या है।

मानव मल साफ करना क्या कोई रोजगार है? उसके बदले उसे दस या बीस रुपए हर महीने या एक बासी रोटी रोज मिलती है। क्या इसे मजदूरी कहा जा सकता है? क्या यह उचित है? क्या यह सफाई कर्मचारी महिला का शोषण नहीं है? क्या यह उसके आत्म-सम्मान को कुचलना नहीं है?

सरकार की उदासीनता का आलम यह है कि हरियाणा के दो जिलों को छोड़ कर अभी तक किसी भी शुष्क शौचालय मालिक को इस अधिनियम के तहत सजा नहीं मिली। सरकार का कहना है कि उसने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, जिसके लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों को करोड़ों रुपयों का अनुदान देती है। लेकिन सफाई कर्मचारियों की हालत जस की तस बनी हुई है। इतना ही नहीं, इस कानून को बनाने वाली सरकार के ही कई विभागों में यह काम चल रहा है, जैसे पंचायतों और नगर निगम और रेलवे में। एक ओर सरकार कानून बना रही हैं और दूसरी ओर स्वयं शुष्क शौचालय को साफ करने के लिए कर्मचारियों को नियुक्त कर रही है। सरकारी अफसर जान-बूझ कर मैला ढोने के कार्य से इनकार करते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर वे इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तो सजा भी उन्हें स्वयं भुगतनी होगी।

सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक नाकारेपन की वजह से भारत में आज भी तेरह लाख लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं, जिसमें नब्बे फीसद महिलाएं हैं। मैला प्रथा एक तरह से जाति व्यवस्था और पुरुषों द्वारा इन महिलाओं पर थोपी गई हिंसा है। समाज औरतों को हीनता का बोध करा कर उनका निरंतर शोषण करता रहा है। बचपन से ही जाति विशेष की बच्चियों को मैला साफ करने के लिए मजबूर किया जाता है।थोपे गए इस पेशे की वजह से लाखों महिलाएं शोषित हैं। महिला संगठनों को भी इनकी सुध नहीं है। जबकि सफाईकर्मी महिलाओं का विकास इस काम से मुक्ति के बाद ही हो सकता है। तभी समाज भी तरक्की कर सकता है। आंबेडकर का मानना था कि अगर आप किसी समाज की उन्नति देखना चाहते हैं तो पैमाना यह होना चाहिए कि उस समाज की महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। उन्होंने यह भी कहा था कि भूखे रहने पर भी यह गंदा पेशा छोड़ देना चाहिए। ऐसे में अगर सभ्य समाज के लोग स्वयं को सभ्य नागरिक कहलाना चाहते हैं तो यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे थोपे गए पेशे को बंद करवाएं और सफाईकर्मी महिलाओं का शोषण बंद करें। उन्हें कोई अच्छा पेशा दिलाया जाए ताकि वे इज्जतदार जिंदगी व्यतीत कर सकें। सुखद यह है कुछ महिलाओं में अब यह जागरूकता आई है और वे खुद कह रही हैं कि हम शोषण बर्दाश्त नहीं करेंगे और मैला भी नहीं उठाएंगे। सफाई कर्मचारी महिलाओं में से अनेक महिलाएं स्वयं आगे बढ़ कर अपने जैसी काम करने वाली महिलाओं की भी अगुआई कर रही हैं। अब वे खुद आगे आकर सरकारी कार्यालयों के सामने मैला ढोने की टोकरियां जला रही हैं और पुनर्वास के अपने अधिकार के लिए नारे लगा रहीं हैं कि “मैला प्रथा बंद करो, बंद करो। पुनर्वास का प्रबंध करो।”

सफाई कर्मचारी आंदोलन बीस सालों से अभियान चला रहा है। यह अभियान भारतीय समाज को बेहतर बनाने के लिए उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ है जहां एक इंसान दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ करने के लिए अभिशप्त है। भारत में तेरह लाख लोग सफाई कर्मचारियों का जीवन जीने को मजबूर हैं। अभियान की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दिसंबर 2004 में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को आदेश दिया कि वे मैला प्रथा निषेध अधिनियम 1993 को सख्ती से लागू करें। इसके अलावा संबंधित कानून की उपेक्षा करने और इस संबंध में उचित कदम न उठाए जाने और प्रशासनिक लापरवाही की वजह बताएं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि इस प्रथा के उन्मूलन के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बनाए जाएं और मैला ढोने के कार्य से जुड़े सफाई कर्मचारियों का पुनर्वास किया जाए।

अगर 2010 तक मैला प्रथा उन्मूलन के लक्ष्य को पाना है तो नई रणनीति, समर्पित संगठनों और लोगों की जरूरत है। सरकारें अगर राष्ट्रमंडल खेलों के लिए समयबद्ध योजना बना और लागू कर सकती हैं तो इस गंदी प्रथा के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चला सकतीं। मैला प्रथा उन्मूलन और सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सरकार ने 1990 में कुछ कदम उठाए थे। उस समय इसे मिटाने की समय सीमा 1995 तय हुई थी।

बाद में इसे बढ़ा कर 1998 कर दिया गया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वादा किया कि वे 2000 तक इस प्रथा का जड़ से खात्मा कर देंगें। तब से लेकर आज तक इसकी समय सीमा बढ़ती ही जा रही है। इस प्रथा को बनाए रखने में भ्रष्ट नौकरशाही का बड़ा हाथ है। दलितों में भी दलित इस समुदाय को लेकर कहीं से संवेदनशील नजर नहीं आते।