हरित शौचालयः ईको फ्रैंडली टॉयलेट

Submitted by admin on Thu, 09/24/2009 - 18:32
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रोहिणी निलेकणी

पर्यावरण की सफ़ाई के लिये अपशिष्ट को उपयोगी संसाधन में बदलना ही नये युग का प्रतिमान गढ़ना है।
आजकल सामान्य तौर पर उपयोग किये जाने वाले आधुनिक शौचालय (फ़्लश वाले शौचालय) का आविष्कार हुए सम्भवतः सौ वर्ष हो चुके हैं, हालांकि इस बात पर मतभेद हो सकते हैं, क्योंकि यह पता नहीं है कि फ़्लश शौचालय का आविष्कार असल में किसने और कब किया होगा। बहरहाल, करोड़ों लोगों के लिये जिन्हें रोजमर्रा के जीवन में यह फ़्लश शौचालय की सुविधा आसानी से हासिल है, और करोड़ों ऐसे भी लोग, जिन्हें यह आधुनिक सुविधा हासिल नहीं है, उन सभी के लिये एक मिनट रुककर सोचने का अवसर है कि लाखों टन प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले “मानवजनित अपशिष्ट” के भविष्य के बारे में चिंता की जाए। क्या फ़्लश शौचालय उपयुक्त है? खासकर उस स्थिति में जबकि हमें यह पता हो कि थोड़े से अपशिष्ट को भी ठिकाने लगाने और हमारी आँखों और दिमाग से दूर हटाने के लिये बड़ी मात्रा में पानी लगाना पड़ता है।

इसका उत्तर अलग-अलग हो सकता है। सच तो यही है कि भले ही फ़्लश शौचालयों ने हमें एक अद्वितीय सुविधा प्रदान की है, लेकिन पिछली शताब्दी में ये शौचालय, पर्यावरण स्वच्छता और आर्थिक बोझ के रूप में एक बुरा सपना ही साबित हुए हैं। इस मानव अपशिष्ट को उपचार संयंत्रों तक ले जाने वाली, पानीदार विशालकाय संरचनायें एक तरफ़ जहाँ निर्माण में बर्बादी की कगार तक महंगी हैं वहीं दूसरी ओर उनका रखरखाव भी बहुत खर्चीला है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि अमेरिका और यूरोप के पुराने सीवेज पाइप लाइनों को अगर दुरुस्त करना हो अथवा बदलना हो तो तत्काल लाखों डालरों की आवश्यकता होगी। कोई नहीं जानता कि इतना पैसा कहाँ से और कैसे आयेगा?

इससे भी बदतर स्थिति यह है कि अचानक आये हुए तूफ़ानों और बाढ़ के चलते सीवेज़ ट्रीटमेंट प्लांट (मलजल उपचार संयंत्र) पानी की अधिकता के कारण काम करना बन्द कर देते हैं, उस स्थिति में मलजल को बिना उपचार के नदियों अथवा समुद्र में ऐसे ही छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं होता। इस बारे में भारत में मौजूद व्यवस्था के बारे में कहना बेकार ही है। बिना उपचारित किया हुए मलजल का प्रदूषण, ज़मीन और भूमिगत जल पर कितना गहरा असर डालता है? न सिर्फ़ यह मलजल हमारे कुँओं, बावड़ियों, नहरों और नदियों के पानी को नाइट्रेट और पैथोजन्स से प्रदूषित करता है, वरन जब यह समुद्र में पहुँचता है तब समुद्री जल-जीवन और मूंगा की चट्टानों को घातक रूप से प्रभावित करता है। सब जानते हैं कि दिल्ली के नज़दीक से बहने वाली पवित्र यमुना नदी को हमने कैसे एक “राष्ट्रीय नाला” बनाकर रख दिया है। विडम्बना यह है कि जिसे हम “अपशिष्ट” या बेकार समझकर दूर-दूर नदियों और समुद्रों में छोड़ देते हैं, बहा आते हैं, वैज्ञानिक शोधों द्वारा अब यह साबित हो चुका है कि असल में वह अपशिष्ट मिट्टी और ज़मीन के स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा के लिये उपयोगी मित्र साबित हो सकता है।

क्या अब हम पुराने चेम्बर पॉट सिस्टम पर लौट सकते हैं? क्या शहरी जनता की सुविधा को तकलीफ़ में न बदलते हुए भी इस दिशा में कुछ किया जा सकता है? आर्थिक योजनाकारों, नीतिनियंताओं और यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्यावरणविदों के लिये भी जनता को इस बारे में समझाना मुश्किल है, खासकर शहरी जनता को, कि अब वे लोग फ़्लश टायलेट का उपयोग बन्द करके पुराने तरीके पर लौटें। चाहे तरल हो या ठोस रूप में, मानव अपशिष्ट के द्वारा एक उत्तम किस्म का उर्वरक बनाया जा सकता है, इसी प्रकार मानव मूत्र जिसे वैज्ञानिक सभ्य भाषा में ALW अर्थात “एंथ्रोपोजेनिक लिक्विड वेस्ट” कहा जाता है, वह भी अपने एंटीबैक्टीरियल गुणों के लिये जाना जाता है। बजाय इसके कि इस बेहतरीन उर्वरक का उपयोग मानव प्रजाति की खाद्य सुरक्षा में किया जाये, हमने करोड़ों डालर कृत्रिम उर्वरक बनाने के कारखानों में लगा दिये हैं, ऐसे उर्वरक जो प्रकृति ने पहले से ही मानव शरीर द्वारा निर्मित करके दिये हैं।

ज़ाहिर है कि हमें इस समस्या को नये सिरे से देखने की आवश्यकता है, क्या अब हम पुराने “चेम्बर पॉट” सिस्टम पर लौट सकते हैं? क्या शहरी जनता की “सुविधा” को तकलीफ़ में न बदलते हुए भी इस दिशा में कुछ किया जा सकता है? आर्थिक योजनाकारों, नीतिनियंताओं और यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्यावरणविदों के लिये भी जनता को इस बारे में समझाना मुश्किल है, खासकर शहरी जनता को, कि अब वे लोग फ़्लश टायलेट का उपयोग बन्द करके पुराने तरीके पर लौटें।

सो अब जबकि राष्ट्र एक नई शताब्दी में प्रवेश कर चुका है, सुरक्षित रूप से कचरा निपटान नहीं करने के कारण, सार्वजनिक स्वास्थ्य की समस्याओं पर पकड़ बनाने और स्वच्छता अभियान के विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये हमें आर्थिक रूप से सक्षम और पर्यावरण की दृष्टि से स्थाई व्यवस्था का निर्माण करना होगा। सच का सामना करना ही होगा कि दुनिया की लगभग ढाई अरब से भी अधिक उस आबादी के लिये, जिसे उचित सेनिटेशन और पानी मुहैया नहीं है, हमें भी एक पहल करनी होगा, हमें समझना होगा कि इस समस्या को हल्के से नहीं लेना चाहिये।

विकल्प मौजूद हैं, बस उन पर काम करने की आवश्यकता है। “प्राकृतिक स्वच्छता” एक प्रकार का विशिष्ट प्रतिमान है जो अपशिष्ट को एक संसाधन में बदल सकता है। अधिक विस्तार में न जाते हुए सिर्फ़ यह जानें कि “ईको-सैन” पद्धति में पानी के उपयोग के बिना ही अपशिष्ट को उसके मूल स्रोत पर ही ठोस और तरल रूप में अलग-अलग कर दिया जाता है, और फ़िर उस अपशिष्ट को उपयोग करने लायक खाद में बदला जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में इस “ईको-सैन” कार्ययोजना को लागू करने और उसे लोकप्रिय करने में हमारी संस्था “अर्घ्यम” में हम इस दिशा में काम कर रहे हैं। इसी के साथ हम विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों को इस सिलसिले में शोध और ट्रेनिंग देने के लिए भी कह रहे हैं। हमारा ल्ष्यृ सामान्य तौर पर ऐसे छोटे किसान हैं जिनके पास पारम्परिक शौचालय नहीं हैं और उन्हें महंगे उर्वरक खरीदने में भी कठिनाई होती है। केले की खेती पर ALW के उत्तम उपयोग के प्रभाव को देखने के लिये आपको खुद ही देखना होगा तभी आप इस पर विश्वास करेंगे। एक किसान को आसानी से एक बार में ही इस “ईको-सैन” तकनीक के बारे में समझाया जा सकता है जो उसके उर्वरकों पर खर्च के हजारों रुपये तो बचायेगा ही साथ ही उसकी मिट्टी के उपजाऊपन को भी बरकरार रखेगा।

यदि यह इतना ही आसान और प्रभावशाली हल है तो फ़िर क्यों नहीं यह तेजी से पूरे देश में लागू किया जा सकता, बल्कि समूचे विश्व में भी? लेकिन इस राह में कई चुनौतियाँ हैं, जैसे जागरूकता, अच्छी डिजाइन, सरकार की नीतियाँ, आर्थिक और अन्य प्रोत्साहनों के साथ-साथ भारत जैसे देश में संस्कृति और जात-पात से भी जूझना पड़ेगा। “ईको-सैन” छोटे ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता प्रबन्धन का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। हालांकि इनमें से कोई भी पूर्ण नहीं है, लेकिन हमें नई “ग्रीन अर्थव्यवस्था” बनाने हेतु विजेताओं की आवश्यकता है। ऐसे विजेता जो लगातार और आशावादी तरीके से आज के मार्केट आधारित सिस्टम पर खरे उतर सकें, लोगों को समझा सकें कि पर्यावरण बदलाव क्या है और हमें लम्बे समय तक टिकाऊ स्वच्छता पाने के लिये क्या-क्या करना चाहिये।

“इन्द्रधनुषी सपनों का पीछा करने वालों को निश्चित रूप से अन्त में सोना हाथ लगता है। “

(रोहिणी नीलकेणि, एक गैर-लाभकारी संस्था “अर्घ्यम फ़ाउंडेशन” के साथ कार्य करती हैं जो विशेषकर “जल” सम्बन्धी क्षेत्रों में काम करती है)
 
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