सफाई की रूपरेखा

Submitted by admin on Mon, 05/17/2010 - 13:19
Author
बल्लभस्वामी

हमें सफाई की रूपरेखा के साथ उसकी दृष्टि और तरीके को भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। अंग्रेजी में कहावत है कि ‘रोग का इलाज करने की अपेक्षा रोग न होने देना कहीं अच्छा है।’ वास्तव में सफाई का असली मतलब तो है गन्दगी न होने देना, न कि गन्दा करके उसे साफ करना।

आजकल सफाई के सम्बंध में एक विचित्र धारणा हो गयी है। जितना स्थान लोगों के आँखों के सामने आता है, उतना ही स्थान साफ रखा जाय, यह बात मनुष्य की आदत में दाखिल हो गयी है। यह धारणा इतनी संस्कारभूत हो गयी है कि हमारे घर के पीछे, असबाब के नीचे, छप्पर और मकानों के कोने अर्थात् ऐसी जगहें, जहाँ किसी की नजर एकाएक नहीं जाती, गन्दगी से हमेशा भरपूर रहती हैं। जहाँ की सफाई में थोड़ी मेहनत की ही जरूरत होती है, सामान आदि हटाने की जरूरत होती है, वहाँ भी आदमी सफाई को टालता है।

संस्कार दीर्घसूत्रता


ऐसी प्रवृत्ति हमारे देश में इतनी व्यापक हो गयी है कि हमें इस प्रश्न के मूल कारण पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा। सदियों की गुलामी के कारण हमारे देश में किसी चीज की जिम्मेदारी लेने का माद्दा प्रायः खतम हो गया है। लगातार गरीबी के कारण कुछ लोगों को होश भी नहीं है। अनेक ऐसे कारण हैं, जिनसे देश में स्फूर्ति और व्यवस्था लगभग नहीं रह गयी है। जिंदगी के प्रति दिलचस्पी न रहने के हर बात में दीर्घसूत्री बन जाना भी स्वाभाविक ही है। आलस्य, काहिली और लापरवाही इन्हीं कारणों से फैली है। वस्तुतः सफाई के बारे में जो गलतफहमी दिखलायी दे रही है, उसका मूल कारण भारत के लोगों की संस्कारभूत दीर्घसूत्रता ही मालूम पड़ती है। राष्ट्रध्वज समारोहपूर्वक फहराने के पश्चात् पुनः कभी उसकी ओर ध्यान न देने से उसकी सर्वत्र बुरी हालत दीख पड़ती है। वर्षा-आँधी में उसकी दुर्दशा देखते रहना किसी को बुरा भी नहीं लगता। कमरे में सुन्दर तस्वीर टाँगते समय जितना उत्साह रहता है, बाद में उसके कील से जैसे-तैसे लटकी रहने और बुरी मालूम होने का दोष दिमाग में भी नहीं आता। धूल से भरी वह तस्वीर भद्दी दीख पड़ती है, मगर उसे साफ करने में दिलचस्पी नहीं रहती। इसी प्रकार दूसरे अनेक कार्य भी बड़े शौक से शुरू किए जाते हैं, पर बाद में उन पर ख्याल नहीं किया जाता। ऐसी मिसालों की कमी नहीं है। संस्थाओं में टट्टी-पेशाब के स्थान ठीक बनाकर भी बाद में उनके टेड़े-मेढ़े पड़े रहने और स्त्रियों के पर्देवाली जगहों के पर्दे टूटे हुए लटकते रहने की बात तो अक्सर पायी जाती है। उसी स्थान पर स्नान भी किया जाता है, परन्तु उस पर्दे पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस प्रकार देखा जाता है कि आलस्य और दीर्घसूत्रता के कारण कोई भी काम ठीक नहीं हो पाता। सफाई के काम में हमारा यह चरित्र बहुत बड़ा बाधक है। इसलिए जो लोग सफाई के शिक्षण की बात सोचते हैं, हमारे इस जातीय दोष के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए

सफाई दो प्रकार से


ध्यान में रहे कि कूड़े में दो प्रकार की चीजें होती हैं: एक तो वे, जो अपने मूलरूप में ही काम में लायी जा सकती हैं। दूसरी वे, जिनको उपयोगी बनाने के लिए उन पर कुछ काम करके उन्हें तैयार करनी पड़ती हैं। लकड़ी, ईंट, पत्थर, जानवरों के खाने लायक घास के अंश पहले प्रकार की चीजों में हैं। पत्ते, फूस, झाड़ जंगल, कागज, रूई, सूत, चिथड़े, टट्टी, पेशाब आदि दूसरे प्रकार की चीजें हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं के द्वारा उपयोगी बनाया जा सकता है।

दूसरी बात यह है कि हमें सफाई की रूपरेखा के साथ उसकी दृष्टि और तरीके को भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। अंग्रेजी में कहावत है कि ‘रोग का इलाज करने की अपेक्षा रोग न होने देना कहीं अच्छा है।’ वास्तव में सफाई का असली मतलब तो है गन्दगी न होने देना, न कि गन्दा करके उसे साफ करना। समाज में जितनी प्रकार की गंदगियाँ दिखाई देती हैं, उनमें बहुत तो ऐसी हैं, जो स्वाभाविक हैं। बाकी सब मानव द्वारा निर्मित हैं। अगर मनुष्य में गन्दगी न करने की बुनियादी नागरिक कर्तव्य पालन करने की वृत्ति हो, तो सफाई की बुनियादी नागरिक कर्तव्य पालन करने की वृत्ति हो, तो सफाई की 75 प्रतिशत समस्या अपने-आप हल हो जाय। रास्ता चलते कागज फाड़कर फेंकना, अनावश्यक चीजों को जहाँ-तहाँ फेंक देना, कमरे में सामान को जहाँ-तहाँ रख देना, यत्र-तत्र, मल-मूत्र और थूक का त्याग करना इत्यादि गंदगी फैलानेवाली आदतें कम-से-कम भारत में कुसंस्कार बनकर बैठ गयी हैं। अतः आज सफाई मुख्यतः दो प्रकार से करनी होगीः एक तो व्यक्ति में गन्दा करने की आदत उत्पन्न करना और दूसरी, गन्दगी को साफ करना। यदि लोगों में पहले किस्म की सफाई का संस्कार पैदा हो भी जाय, तब भी प्रकृति द्वारा गन्दगी होती रहेगी और उसकी सफाई की आवश्यकता बराबर बनी रहेगी। पतझड़ के पत्ते, वर्षा के झाड़-जंगल, आँधी-तूफान की धूल, मिट्टी आदि प्राकृतिक गन्दगियाँ हैं। इस प्रकार गन्दगी दो तरह से फैलती हैः एक प्रकृति द्वारा और दूसरी, अव्यवस्थित यानी गन्दे आदमी द्वारा।

सफाई का सिद्धान्त


सफाई पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते समय हमें उपर्युक्त प्रवृत्ति का ध्यान रखना होगा। सफाई का हम जो सिद्धांत बनायें, उसमें यह क्षमता होनी चाहिए कि वह हमारे कुसंस्कारों को भी मिटा सके। सफाई का सिद्धान्त निम्न प्रकार होने से कदाचित सफलता मिल सके।

1- सफाई की शुरुआत पिछले भाग में-
सफाई का काम सबसे पहले पिछले भाग से प्रारम्भ होना चाहिए। हर चीज के पिछले भाग को साफ करने के बाद ही आगे आना चाहिए। क्योंकि वैसा करने से लोगों की जमी हुई विकृति धारणा को तोड़ने में आसानी होती है।

2- कूड़ा रखने का स्थान-
कूड़ा रखने का स्थान सबकी नजर के सामने होना चाहिए। सफाई करने के बाद कूड़ा जमा रखने का स्थान होना चाहिए, जहाँ आम लोगों का आना-जाना बराबर लगा रहे। गन्दगी को निगाह की ओट कर देने की आदत इस तरह आसानी से रोकी जा सकती है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जब वैज्ञानिक और शैक्षणिक ढंग से सफाई काम करेंगे, तो सफाई का कार्य जैसा आगे होगा, वैसा ही पीछे भी। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से हमें अपने कुसंस्कारों के कारण सफाई में होनेवाली अवहेलना की संभावनाओं को ध्यान में रखना ही होगा।

3- कूड़े द्वारा सम्पत्ति का उत्पादन-
पहले कहा जा चुका है कि सफाई की आर्थिक परिभाषा ही है, कूड़े को सम्पत्ति में परिणत करना। इसी का नाम है, सफाई की औद्योगिक प्रक्रिया। अर्थात् सफाई उद्योग का कच्चा माल है। अतः इस दिशा में भी हमारा सिद्धांत वहीं होना चाहिए, जो दूसरे उद्योगों में होता है अर्थात् पहले हमको कूड़े के ढेर की छँटाई करके प्रत्येक प्रकार की चीजें अलग-अलग कर लेनी चाहिए। उसके बाद कौन-सी वस्तु से क्या माल बनेगा, इसका निर्णय करके उन्हें अपनी-अपनी उपयोगिता के स्थान पर पहुँचा देना चाहिए। यह ध्यान में रहे कि कूड़े में दो प्रकार की चीजें होती हैं: एक तो वे, जो अपने मूलरूप में ही काम में लायी जा सकती हैं। दूसरी वे, जिनको उपयोगी बनाने के लिए उन पर कुछ काम करके उन्हें तैयार करनी पड़ती हैं। लकड़ी, ईंट, पत्थर, जानवरों के खाने लायक घास के अंश पहले प्रकार की चीजों में हैं। पत्ते, फूस, झाड़ जंगल, कागज, रूई, सूत, चिथड़े, टट्टी, पेशाब आदि दूसरे प्रकार की चीजें हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं के द्वारा उपयोगी बनाया जा सकता है।

गांधीजी ने सफाई के संबंध में मानव-समाज के लिए एक सनातन मंत्र कहा हैः
“जो मनुष्य बाह्य वस्तु का अंतर के साथ अनुसंधान करके सर्वांगीण बाह्यशुद्धि रखता है, उसके लिए अन्तःशुद्धि सहज हो जाती है। इससे उलटे, जो अन्तःशुद्धि के प्रयत्न में बाह्यशुद्ध की अवगणना करता है, वह दोनों खोता है।”

4- सफाई की विभिन्न श्रेणियाँ-
सफाई का एक सांस्कृतिक तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त भी है। ऊपर लिखा जा चुका है कि मनुष्य की प्रकृति प्रायः सामने सफाई करने की ही होती है। लोगों के सामने अपने को सुन्दर रूप में पेश करने की प्रकृति भी मनुष्य का संस्कार बन गयी है। यह संस्कार आज के समाज में पूर्ण रूप से व्याप्त है। इस संस्कार के मुकाबले में आँख के सामने चीजों को सुरुचिपूर्ण रखना सफाई की अधूरी धारणा है, फिर भी वह सफाई ही है। आज लोग अपने आँख के सामने की चीजों को गन्दा रहने देकर भी दूसरों की आँख के सामने की चीजों को साफ और सुन्दर रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। आज के समाज की इस प्रकार की प्रचलित संस्कृति और मानसिक प्रकृति को सफाई न कहकर श्रृंगार-वृत्ति कहा जा सकता है। अन्दर की बनियाइन (गंजी) गन्दी रखकर ऊपर का कुर्ता साफ करना, बिस्तर, तकिया और कमरे के और समान गन्दे रखकर साफ कपड़े पहनकर बाहर जाना इत्यादि बातें इसी सिद्धांत के अन्तर्गत आती है। ऊपर के सिद्धांत को देखते हुए सफाई को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।

(अ) गुण-सम्बन्धी-इसमें मुख्य तीन बातें आती हैं: 1. कला-सम्बन्धी, 2. स्वास्थ्य-सम्बन्धी और 3. उद्योग-सम्बन्धी। लीपना, पोतना, अल्पना निकालना, घर-द्वार सजाना आदि काम कला के अन्तर्गत आते हैं। टट्टी, पेशाब और थूक इत्यादि की व्यवस्था करना, मक्खी, मच्छर आदि से रक्षा करना, नाली-नाबदान साफ करना आदि बातें स्वास्थ्य-सम्बन्धी सफाई हैं और इन्हीं चीजों का तथा अन्य कूड़ों का इस्तेमाल करना उद्योग-सम्बन्धी बातें है।

(ब) स्थान-संबंधी- इस श्रेणी में प्रधानतः व्यक्तिगत सफाई, आसपास की सफाई और सार्वजनिक सफाई का समावेश है। दाँत, आँख, कान, नाक, नाखून आदि की सफाई, नहाना-धोना, कपड़े, बिस्तर और कमरे की सफाई तथा बर्तन और दूसरे असबाबों की सफाई व्यक्तिगत सफाई है। आँगन, मकान का सामना और पीछा गली- कूचा, नाली आदि की सफाई आसपास की सफाई है। गाँव, सड़क, बाजार, धर्मशाला, मुसाफिरखाना आदि की सफाई सार्वजनिक सफाई है।

(स) नीति-संबंधी-सत्यवादिता, सद्व्यवहार, सद्विचार आदि बातें नैतिक सफाई के अंग हैं। आवश्यक दैनिक अथवा जीवन सम्बन्धी सभी बातें इसके अन्तर्गत आती हैं।

ऊपर लिखी तीनों प्रकार की स्वच्छताएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। जो लोग इन तीनों प्रकार की सफाई के आदि नहीं है, उन्हें सफाई पसन्द कैसे कहा जा सकता है? वस्तुतः सिर्फ एक ही किस्म की सफाई टिकाऊ नहीं है। मनुष्य सिर्फ व्यक्तिगत सफाई करे और आसपास की तथा सार्वजनिक सफाई न करे, तो वह अपनी व्यक्तिगत सफाई भी कायम नहीं रख सकता। क्योंकि वह जब एक ओर से सफाई करता रहेगा, तो दूसरी ओर से गन्दगी आकर उसकी साफ की हुई चीजों को गन्दा कर देगी। अगर लोग व्यक्तिगत और आस-पास की सफाई कर लें और सार्वजनिक सफाई नहीं हुई, तो वह दूर के खेत की मक्खियों को अपनी थाली में गन्दगी छोड़ने से रोक नहीं सकते। उसी तरह मानसिक गन्दगी के रहते बाहरी सफाई नहीं हो सकती और न बाहरी गन्दगी रखकर मानसिक सफाई ही सम्भव है। गांधीजी ने इस संबंध में मानव-समाज के लिए एक सनातन मंत्र कहा हैः

“जो मनुष्य बाह्य वस्तु का अंतर के साथ अनुसंधान करके सर्वांगीण बाह्यशुद्धि रखता है, उसके लिए अन्तःशुद्धि सहज हो जाती है। इससे उलटे, जो अन्तःशुद्धि के प्रयत्न में बाह्यशुद्ध की अवगणना करता है, वह दोनों खोता है।”

अतएव सफाई की रूपरेखा को भलीभाँति समझने के लिए इस बात को समझना होगा कि सफाई किसी एक ही दिशा में नहीं हो सकती।