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नेशनल दुनिया, 17-23 जून 2012
अंधाधुंध शहरीकरण की वजह से कोलकाता का वेटलैंड क्षेत्र तेजी से घट रहा है। एक अनुमान के अनुसार, अब यह क्षेत्र 10 हजार एकड़ तक सिमट कर रह गया है। इन दिनों सुंदरवन के इलाकों में जिस तरीके से विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों से खिलवाड़ चल रहा है, इस कवायद का खास असर होता नहीं दिख रहा। यहां के पानी में ऑक्सीजन कम हो रहा है। आर्सेनिक की मौजूदगी के संकेत भी मिले हैं। पानी में आर्सेनिक की मात्रा 15 मिली ग्राम तक मिली है।
जंगली बिल्ली, छोटे बंदर, ऊदबिलाव, सफेद गर्दन वाले किंगफिशर, तितलियां और पानी के सांपों की विशेष प्रजातियां, जैसे अभी कल की ही बात लगती हैं। कोलकाता के एक हिस्से में ये वन्य जीव ऐसे दिखते थे, जैसे प्रकृति की किसी वीरान और हरी-भरी गोद में सांस ले रहे हों। हाल तक वन्य जीवों की ये विशेष प्रजातियां कोलकाता के पूर्वी छोर के किनारे से गुजरती बड़ी सड़क यानी ‘ईस्टर्न मेट्रोपोलिटन बाईपास’ के किनारे के तालाबों, दलदलों और छोटी झीलों के इर्द-गिर्द फैली हरियाली की विशेषता हुआ करती थी। वजह वन्य जीवों की ऐसी ढाई सौ से अधिक प्रजातियां सिर्फ और सिर्फ कोलकाता के जलभूमि क्षेत्र (वेटलैंड्स) में पाई जाती थी। लेकन अब भूमि के इस्तेमाल के कानूनों को तोड़-मरोड़ कर वेटलैंड्स पाटे जा रहे है और उन पर कॉलोनियां विकसित करने की होड़ लगी है, उससे प्रकृति का यह वरदान नष्ट हो रहा है। इससे भी कहीं ज्यादा रफ्तार से यहां की लुप्तप्राय प्रजातियों का रहा-सहा अस्तित्व भी संकट में है।हाल में दलदली ऊदबिलाव की प्रजाति ‘हरपेस्टिस पैलिस्टिस’ के लुप्त हो जाने की आशंका पर वैज्ञानिकों ने मुहर लगाई है। यह ऊदबिलाव सिर्फ यहीं पाए जाते थे। पिछले आठ-दस साल में पूर्वी कोलकाता की जलभूमि (वेटलैंड्स) के कम से कम 60 फीसदी हिस्से को पाटकर उन पर कॉलोनियां विकसित की गई हैं या फिर मौजूदी कानूनों से बचते हुए अत्याधुनिक रिसॉर्ट बनाए गए हैं। भले ही इन इलाकों को संयुक्त राष्ट्र में ‘रामसर साइट’ घोषित कर रखा हो, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता न अधिकारियों को, न भवन निर्माताओं और न कॉलोनाइजरों को। पर्यावरण कानूनों के साथ बाजीगरी कर पिछले आठ-दस साल में इस इलाके की दो सौ छोटी और मध्यम आकार की जलभूमि को सरकार ने लीज पर दे दिया है।
प्रमोटरों ने स्थानीय किसानों से वेटलैंड ‘खरीदी’ है और उसे पाटकर कॉलोनी बसाई जा रही है। ये आंकड़े ऑन रिकॉर्ड हैं। विभिन्न संगठनों द्वारा समय-समय पर चिंता जताने के बावजूद इन इलाकों में शहरीकरण का काम अंधाधुंध रफ्तार से चल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संस्था ‘साउथ एशियन फोरम फॉर एनवायर्नमेंट’ (सेफ) द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, 1945 में पूर्वी कोलकाता वेटलैंड्स का क्षेत्रफल 20 हजार एकड़ आंका गया था। 2002 में 12,500 एकड़ की जानकारी उपलब्ध थी। लेकिन अंधाधुंध शहरीकरण में यह क्षेत्र भी तेजी से घट रहा है। एक अनुमान के अनुसार, अब यह क्षेत्र 10 हजार एकड़ तक सिमट कर रह गया है। इन दिनों सुंदरवन के इलाकों को भी ‘रामसर साइट’ घोषित करने की योजना पर काम चल रहा है। लेकिन वहां भी जिस तरीके से विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों से खिलवाड़ चल रहा है, इस कवायद का खास असर होता नहीं दिख रहा।
बहरहाल, कागजों में ही सही, साढ़े 12 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैले इन वेटलैंड्स को ‘कोलकाता की किडनी’ माना जाता है, जो रोजाना महानगर का 2500 लाख लीटर गंदा पानी और मल साफ करती रही हैं, वह भी बगैर किसी खर्च के। साथ ही ये कुछ ऐसे वन्य जीवों की शरण स्थली रहे हैं, जो यहां दिखते थे और अब यहीं लुप्त हो रहे हैं। ऐसे ही कुछ जीवों में दलदली ऊदबिलाव (वैज्ञानिक नाम-हरपेस्टिस पैलस्टिस) के लुप्त होने के खतरे के बारे में इन दिनों पर्यावरणविदों के चर्चा का विषय बना हुआ है।
‘जूओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ (जेडएसआई) के वैज्ञानिकों ने 1965 में ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में इस जीव को खोजा। वैज्ञानिकों की टीम के प्रमुख आर के घोष ने हावड़ा उत्तर और दक्षिण 24 परगना में भी दलदली ऊदबिलावों की प्रजाति देखी, लेकिन इनकी मूल रिहाइश कोलकाता के पूर्वी छोर पर स्थित वेटलैंड्स में मानी गई। इनकी संख्या तीन सौ से अधिक गिनी गई। लेकिन 2005-06 आते-आते यह संख्या घटकर छह रह गई। ‘नेचर एनवायर्नमेंट एंड वाइल्ड लाइफ सोसाइटी’ (न्यूज) ने सर्वे में पाया कि संरक्षित घोषित वेटलैंड्स- नलबन भेरी, सरदार भेरी, नटेर भेरी, गोपेश्वर भेरी समेत आठ वेटलैंड्स में इनका अस्तित्व मिला।
रिहाइश का क्षेत्र लगातार घटते जाने के सात ही शिकारियों और औद्योगिक कचरे से होने वाली असमय मौतों के चलते अब ऊदबिलावों की यह प्रजाति खत्म हो गई है। 60-70 में कोलकाता के पॉश साल्टलेक इलाके के अस्तित्व में आने के साथ ही कॉलोनाइजरों की नजरें वेटलैंड्स पर पड़नी शुरू हो गई थी। 80-90 के दशक में इस क्षेत्र में रंग बनाने के कई कारखाने हो गए। उन कारखानों के जहरीले कचरे से यहां की पारिस्थितिकी बिगड़नी शुरू हुई। ‘न्यूज’ के सचिव पार्थ डे के अनुसार, हाल में इनके बारे में सर्वे का काम शुरू किया गया था, लेकिन इनके अस्तित्व का कोई चिह्न नहीं मिला।
हाल में यहां की जलीय पारिस्थितिकी में बड़ा बदलाव महसूस किया गया है। पानी में ऑक्सीजन कम हो रहा है। आर्सेनिक की मौजूदगी के संकेत भी मिले हैं। पानी में आर्सेनिक की 10 मिली ग्राम प्रति लीटर की मात्रा को नुकसानदेह नहीं माना जाता। यहां के पानी में 15 मिली ग्राम तक की मात्रा मिली है। ऐसे में यहां पाया जाने वाला काई जातीय एक पौधा ‘एड्रोवांडा वेसिकुलोसा’ 1990 के बाद से नहीं दिखा। यहां जूओलॉजिकल सर्वे ने 1964-69 के बीच पंछियों की 248 प्रजातियां दर्ज की थी। इनमें से 109 जल-जातीय थी। हाल में कराए गए सर्वे में जल-जातीय किसी पक्षी के अस्तित्व का संकेत नहीं मिला है।
सर्पजातीय दर्जन भर प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। स्तनधारियों में ऊदबिलाव के अलावा जंगली बिल्ली, इंडियन सिवेट, एशियन पाम सिवेट, गोल्डन जैकाल, शॉवेलर पक्षी जैसे जीव यहां अब नहीं दिखते। जूओलॉजिकल सर्वे के वरिष्ठ वैज्ञानिक सुजीत चक्रवर्ती के अनुसार, वेटलैंड्स को भले ही संरक्षित घोषित किया गया, लेकिन वैज्ञानिक स्तर पर संरक्षण के कोई उपाय नहीं किए गए। जाहिर है, तेजी से सिकुड़ते वेटलैंड्स की जैव-विविधता पर्यावरणजनित खतरे का अरसे से संकेत दे रही है। लेकिन सवाल है कि क्या हम सुन पा रहे हैं?