राज्य के 52 प्रतिशत किसान ऋणग्रस्त हैं, साठ प्रतिशत किसानों की जमीन असिंचित है और वह भी केवल दो एकड़ में। सिर्फ दो एकड़ में की गई खेती कैसे आर्थिक रूप से फायदेमन्द हो सकती है। फिर महाराष्ट्र में गन्ने की खेती है, जो पानी बहुत पीती है। यदि गन्ने के पानी को कम किया जाये तो असिंचित जमीनों को पानी मिल सकता है। लेकिन शुगर लॉबी के होते ऐसा सोचना भी पाप माना जाता है। किसान नेता शरद जोशी ने किसानों की विकट समस्या का निदान करते हुए कहा था कि कृषि की समस्या का एकमात्र समाधान है कि कृषि उत्पादों के लिये लागत मूल्य के आधार पर दाम तय किये जाएँ। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने किसानों की कर्जमाफी का अपना वादा पूरा कर दिया। मगर इस तरह उसने महाराष्ट्र की फड़नवीस सरकार के लिये बड़ी भारी मुश्किल खड़ी कर दी है। देश भर में किसानों की आत्महत्या के मामले में पहले नम्बर पर रहने वाले इस राज्य के विरोधी दलों को ही नहीं वरन सरकार में सहयोगी पार्टी और भाजपा को भी मुश्किल में डालने का कोई मौका न चूकने वाली शिवसेना को भी लगे हाथों एक मुद्दा मिल गया।
कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पिछले कुछ समय से कर्जमाफी के लिये संघर्ष यात्रा निकाल रहे थे। उन्होंने अपनी माँग और तेज कर दी है। कुछ जगह किसानों ने माँग पूरी न होने पर हड़ताल की धमकी दी है। कुल मिलाकर यह माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि महाराष्ट्र भाजपा किसान विरोधी है। योगी सरकार ने अपनी पहली बैठक में जो कर दिखाया वह महाराष्ट्र की भाजपा सरकार पिछले ढाई साल में नहीं कर पाई। यदि कर्ज माफी नहीं हुई तो किसान तबाह हो जाएगा।
विधान परिषद में विपक्ष के नेता धनंजय मुंडे ने कहा कि पिछले ढाई साल में महाराष्ट्र में 9,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। इस बजट सत्र के शुरू होने से अब तक 100 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। ‘मुख्यमंत्री कहते हैं उचित समय पर कर्ज माफी की घोषणा करेंगे। आखिर, वह उचित समय कब आएगा? आखिर, और कितने किसानों की आत्महत्या के बाद योग्य समय आएगा?’
महाराष्ट्र में किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे पर पिछले कुछ समय से आन्दोलन चल रहा था, मगर योगी सरकार के कर्जमाफी के फैसले के बाद मामले ने अचानक तूल पकड़ लिया और भाजपा से यह मुद्दा न तो उगलते बन रहा है, न निगलते। यों तो देवेन्द्र फड़नवीस हमेशा कर्जमाफी के खिलाफ हैं। मगर अब रोजाना अपने बयान बदल भी रहे हैं।
पहले तो कहा कि हम कर्ज माफी के नहीं कर्ज मुक्ति के हक में हैं। इसका मतलब यह था कि हम कर्ज माफ करने के पक्ष में नहीं हैं वरन किसानों के लिये ऐसी स्थिति लाना चाहते हैं कि उन्हें कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े। उन्होंने कहा इस बात की क्या गारंटी है कि कर्ज माफी से किसानों की आत्महत्याएँ रुक जाएँगी। 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने कर्ज माफी की थी। मगर उसके बावजूद आत्महत्याएँ नहीं रुकीं। कर्ज माफी से बैंकों को जरूर लाभ हुआ। हम चाहते हैं कि बैंकों का यह पैसा कृषि में लगाया जाये।
फड़नवीस का नजरिया ज्यादा स्पष्ट
फड़नवीस की बातों में दम था। आर्थिक मामलों के जानकार मानते हैं कि फड़नवीस के नजरिए में आर्थिक सयानापन और दीर्घकालिक दृष्टि है। मगर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी चुनावी लाभ के लिये बहुत तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखकर फैसले ले रही है। उत्तर प्रदेश की किसान कर्ज माफी उसका ही नतीजा है। उसके बल पर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, मगर किसानों और कृषि की समस्या को हल नहीं किया जा सकता। कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि महाराष्ट्र की कृषि की समस्या बेहद पेचीदा है और वह किसानों की कर्ज माफी जैसे कदमों से हल नहीं होने वाली। मगर जैसे-जैसे कर्ज माफी की माँग जोर पकड़ने लगी फड़नवीस ने अपना सुर बदल लिया।
बताया जा रहा रहा है कि भाजपा इस बात से चिन्तित है कि उसकी सहयोगी शिवसेना इस मुद्दे पर आन्दोलन न छेड़ दे। इसलिये वे अपना रुख लचीला रखना चाहते हैं। इसलिये बाद में उन्होंने कहा कि राज्य सरकार उत्तर प्रदेश के कृषि ऋण माफी मॉडल का अध्ययन करेगी कि वह कैसे इतनी बड़ी राशि जुटाएगा। वैसे एक चर्चा यह है कि हो सकता है कि भाजपा सरकार कर्ज माफी के हक में फैसला ले और 14 अप्रैल को नरेंद्र मोदी की नागपुर यात्रा के दौरान इस बारे में फैसले की घोषणा की जाये।
कर्ज माफी की माँग उठने के बाद राज्य के किसानों की दयनीय स्थिति, कर्ज माफी की उपयोगिता पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। वह किसानों की मूल समस्या पर उँगली रखती है। महाराष्ट्र के पुढ़ारी अखबार में छपे एक लेख के मुताबिक राज्य के 52 प्रतिशत किसान ऋणग्रस्त हैं, साठ प्रतिशत किसानों की जमीन असिंचित है और वह भी केवल दो एकड़ में। सिर्फ दो एकड़ में की गई खेती कैसे आर्थिक रूप से फायदेमन्द हो सकती है। फिर महाराष्ट्र में गन्ने की खेती है, जो पानी बहुत पीती है।
यदि गन्ने के पानी को कम किया जाये तो असिंचित जमीनों को पानी मिल सकता है। लेकिन शुगर लॉबी के होते ऐसा सोचना भी पाप माना जाता है। किसान नेता शरद जोशी ने किसानों की विकट समस्या का निदान करते हुए कहा था कि कृषि की समस्या का एकमात्र समाधान है कि कृषि उत्पादों के लिये लागत मूल्य के आधार पर दाम तय किये जाएँ। स्वामीनाथन कमेटी ने गहराई से उसका अध्ययन कर रपट सरकार को सौंपी थी। लेकिन उसे किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया।
नतीजतन, किसान की मुख्य शिकायत ही यही है कि कृषि उत्पादों को सही दाम नहीं मिलता। यूँ तो सरकार ने खरीद मूल्य तय किया हुआ है। लेकिन किसान को कहीं भी यह मूल्य नहीं मिलता। व्यापारी पहले ही भाव गिराकर किसानों को खा चुका होता है। स्थिति यह है कि एक तरफ ग्राहक महंगाई से त्रस्त है, दूसरी तरफ किसान को उसके माल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा। सरकार ही कृषि उत्पादों के भाव गिराती है। कभी आयात करके कभी निर्यात बन्दी लागू करके।
मोदी ने लागत मूल्य से पचास प्रतिशत मुनाफे का आश्वासन लोकसभा चुनाव से पहले दिया था लेकिन मुनाफा तो छोड़ दीजिए लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा। अब किसान असन्तोष इतना बढ़ गया है कि पिछले दिनों पुणतांबा गाँव ने हड़ताल करने का निर्णय लिया है, जिसका तात्पर्य है कि वे खेती नहीं करेंगे। यदि उनकी देखादेखी किसान खेती से मुँह फेर लें तो महाराष्ट्र ही नहीं सारे देश के लिये समस्या पैदा हो सकती है।
हालांकि व्यावहारिक रूप से यह सम्भव नहीं है। मगर सांसद राजू शेट्टी कहते हैं, ‘आज एक गाँव ही हड़ताल की बात कर रहा है, मगर जब यह विचार जंगल की आग की तरह फैलेगा तो लोगों को कृषि का महत्त्व समझ आएगा।’ लेकिन दूसरी तरफ एक लोकप्रिय मराठी अखबार ने लिखा है कि हड़ताल करके ही देखो। असलियत पता चल जाएगी। उसकी बात सही है। ज्यादातर किसान बहुत छोटी जोत वाले किसान हैं, जो खेती करके किसी तरह पेट भर पाते हैं। वे खेती नहीं करेंगे तो खाएँगे क्या? भूखे पेट न भजन हो सकता है, न हड़ताल।