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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 8 अप्रैल 2017
लाभार्थी तो वाकई सीमान्त और अति छोटे किसान हैं ही मगर इसके दूरगामी परिणाम उन्हीं के लिये घातक होंगे क्योंकि बैंक कोई-न-कोई रास्ता निकाल कर कृषि ऋणों के प्रति उदासीनता दिखाएँगे। भविष्य में कोई इस तरह की योजना, जो बैंकों के ग्राहकों के साथ सम्बन्ध में दरार पैदा करे, न लाई जाये। इस सन्दर्भ में ‘राजस्व दायित्व एक्ट’ सरीखा कुछ बनाया जाये जो राजनैतिक पार्टियों को ऐसी घोषणाएँ करने से रोके।
भारत विविधताओं से परिपूर्ण देश है। सघनता से न देखा जाये तो विविधताएँ सहज ही विरोधाभास के रूप में भी परिलक्षित होती हैं। तमाम तरह की सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं धार्मिक विविधताओं के अलावा आर्थिक विविधताएँ एवं विरोधाभास भी हमारे देश में कम नहीं हैं। हम आधुनिक मुद्रा प्रणाली लागू करने में कई विकसित देशों से आगे हैं। डिजिटल इण्डिया बनाने में, जीएसटी लागू करने में हम आधुनिकता के पुरोधा नजर आते हैं। वहीं, दूसरी ओर ‘ऋण माफी योजना’ घोषित करके हम दशकों पीछे चले जाते हैं। भारत एक ऐसा देश है, जहाँ बैलगाड़ी और रॉकेट, दोनों प्रचलन में हैं। जहाँ ऑनलाइन ऋणों की व्यवस्था भी है, और ऋण न चुकाने पर तमाम सहूलियतें भी।गरीब और सीमान्त किसान के अन्त्योदय की भावना से प्रेरित इस ऋण माफी योजना की आलोचना करने का जोखिम न उठाते हुए भी यह पूछने का मन तो करता ही है कि घोषणा को घोषणा ही रह जाने का जोखिम क्यों नहीं उठाया गया? जबकि ऐसे तमाम वादें हैं, जो जुमला भर ही थे। क्या हम यह सन्देश देना चाहते हैं कि जो हमें सत्ता में लाये उसको हम लाभ देंगे या फिर यह कि सूखे और मौसम की बेरुखी का मुआवजा दे दिया गया है और आगे भी दिया जाता रहेगा। सोचिए, जब फसल का बीमा है और उसके नष्ट हो जाने पर बीमा की रकम से ऋण चुकता हो सकता है, तो क्या यह ऋण माफी का लाभ उनको दिया गया जिनकी फसल का नुकसान नहीं हुआ था, या फिर उनको बीमा कम्पनी से क्लेम नहीं मिला?
सहायता के और भी तरीके हैं
यह सही है कि सहायता अवश्य ही दी जानी चाहिए। मगर उसके और भी कई रास्ते हो सकते हैं। ‘ऋण माफी योजना’ की जगह किसी और नाम और तरीके से भी लाभ दिया जा सकता था। उससे बैंकों के प्रति ‘ऋण अनुशासन’ में आने वाली भारी कमी को कुछ हद तक रोका जा सकता था। अब तो ‘ऋण अनुरागी’ मानस पटल पर मानो अंकित हो जाएगा कि ऋण लो। उसे चुकाओ मत। और जो भी पार्टी ऋण को माफ करने का वादा करे उसे वोट दो और सत्ता में लाओ। यह जातिवाद से भी खतरनाक रोग बनेगा ‘फायदावाद’।
दूसरी ओर, बैंकों को सिर्फ इस योजना से नुकसान ही हुआ हो ऐसा भी नहीं है। उनका परेशान होना दूरगामी चिन्ता है। फौरी तौर पर लगभग 5600 करोड़ रुपया तो पहले ही डूबा हुआ था, जो इस बहाने उनके पास वापस आ गया है। इसके अलावा, रिकवरी हेतु किये जाने वाले खर्चे में भी बचत हुई है। मानो सरकार ही उनकी रिकवरी एजेंट हो। कुछ बैंकों द्वारा एकमुश्त स्कीम के अन्तर्गत ट्रैक्टर एवं फार्म मशीनरी पर चालीस प्रतिशत तक छूट की स्कीम चल रही है। ऐसे में फसल ऋण के सौ प्रतिशत ऋण माफी को इतनी बड़ी माफी के रूप में देखना अनुचित होगा। एक अलग बात और भी देखी जाये। और वो है डीजल पर पहले दी जाने वाली सब्सिडी जो अब नहीं दी जाती। उस राशि को ही वापस किया जाता तो वो कितनी बैठती इस को भी संज्ञान में लिया जाये।
हाँ, अवश्य ही यह बात तो सौ प्रतिशत सत्य है कि यदि कृषि का विकास करना आवश्यक है, तो उसके लिये ऋण उपलब्धता को त्वरित रूप से सुनिश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है। मगर ऋण उपलब्ध करा देने के बाद यदि बैंक तो इन्तजार करें किश्तों का और किसान इन्तजार करे अगले चुनाव का तो यह बात अर्थव्यवस्था के लिये बहुत ही नकारात्मक बात होगी!
एक और सोचने वाली बात यह है कि यदि सहायता राशि देने का निर्णय गरीब किसानों, जो सीमान्त किसान हैं, को दिया गया है तो कोई-न-कोई इस सीमा के शिखर पर भी होगा। यह वो किसान हैं, जो काफी समृद्ध हैं, और शायद बहुत अधिक बैंक ऋणों पर निर्भर नहीं हैं। ऐसे समृद्ध किसानों को कब तक आयकर के दायरे से दूर रखा जाएगा? जब सरकार गरीब किसान ढूँढ लेती है 2.15 करोड़ किसानों में से तो अमीर किसान क्यों नहीं ढूँढ पाती? अब शायद समय आ गया है उनको भी चिन्हित करने का। क्या कृषि कार्य में मुनाफा है ही नहीं। अगर ऐसा है तो बैंक किस आधार पर ऋण वितरित करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं लेने वाला और देने वाला, दोनों ही ऋण माफी योजना के लाभार्थी हों बैंकों की भी सरदर्दी खत्म।
फैसला नहीं है दूरदर्शी
जैसा विदित है राज्य सरकार को यह राशि अपने संसाधनों से ही जुटानी होगी। राज्य सरकार की घोषणा के अनुसार ‘किसान राहत बांड्स’ लाये जा सकते हैं। बांड द्वारा ऋण लेकर ऋणों को माफ करना कोई बहुत दूरदर्शी निर्णय नहीं है। मगर उतना खराब भी नहीं। यदि माफ किये ऋणों के बोझ से बाहर निकले किसान पूरे मन एवं दूने उत्साह से कृषि कार्य में लग जाएँ और उनकी उपज को उचित बाजार मिल जाये। निश्चय ही ‘जीएसटी’ आने वाले समय में इस क्षेत्र में काफी मददगार सिद्ध हो सकता है, जबकि ‘कोल्ड चेन’ एवं ‘भण्डारण क्षमताओं’ का तेजी से विकास होगा। मगर शायद वो फायदा सबसे पहले कुछ वर्षों तक बड़े किसानों को होगा। तब क्यों न ‘किसान राहत बांड’ (या कोई भी नाम दिया जाये) में बड़े किसानों की प्रतिभागिता सुनिश्चित की जाये।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लाभार्थी तो वाकई सीमान्त और अति छोटे किसान हैं ही मगर इसके दूरगामी परिणाम उन्हीं के लिये घातक होंगे क्योंकि बैंक कोई-न-कोई रास्ता निकाल कर कृषि ऋणों के प्रति उदासीनता दिखाएँगे। भविष्य में कोई इस तरह की योजना, जो बैंकों के ग्राहकों के साथ सम्बन्ध में दरार पैदा करे, न लाई जाये। इस सन्दर्भ में ‘राजस्व दायित्व एक्ट’ सरीखा कुछ बनाया जाये जो राजनैतिक पार्टियों को ऐसी घोषणाएँ करने से रोके। फिलहाल, तो चुनावी वादा कुछ इस अन्दाज में पूरा हुआ मानो ‘कृषि ऋण माफी’ की गर्जना करते समय उस आखिरी लाइन, जिसमें कहा गया हो ‘मगर एक लाख तक’ पर किसी ने शंख बजा दिया हो-युद्ध जीता जा चुका है।