कर्मकांड से आगे जाए पर्यावरण की फिक्र

Submitted by Shivendra on Fri, 07/26/2019 - 18:36
Source
नव भारत टाइम्स, 5 जून 2019

कर्मकांड से आगे जाए पर्यावरण की फिक्र।कर्मकांड से आगे जाए पर्यावरण की फिक्र।

पर्यावरण को लेकर अब भी हम जुबानी जमाखर्च और कुछ प्रतीकात्मक गतिविधियों से आगे नहीं बढ़ पाए हैं जबकि और देशों में यह केन्द्रीय एजेंडा बन चुका है। अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में सम्पन्न हुआ चुनाव हवा, मिट्टी और पानी जैसे मुद्दों पर केन्द्रित था। इसका कारण यह था कि इस देश में शताब्दी का सबसे बड़ा सूखा इस बार ही पड़ा है। यहाँ के मरे-डार्लिंग नदी तंत्र में सूखे के कारण दस लाख मछलियाँ बेमौत मारी गईं। दूसरी तरफ क्वींसलैंड में जंगल की आग ने वनों का बड़ा नुकसान किया और कुछ समय बाद आई बाढ़ में पाँच लाख मवेशी बह गए। करीब एक लाख 90 हजार हेक्टेयर में फैले जंगल आग में तबाह हो गए। यही कारण था कि चुनाव में जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा रहा और राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में पर्यावरण संरक्षण जैसे मसले प्रमुखता से उछले।

ग्लोबल एयर रिपोर्ट ने विश्व में बढ़ते वायु प्रदूषण पर बड़ी चिन्ता जताई है। इस रपट के अनुसार दुनिया की 91 फीसदी आबादी किसी-न-किसी रूप में वायु प्रदूषण की चपेट में है। हर दिन 800 लोग किसी-न-किसी रूप में इसके शिकार होते हैं। खासकर भारत और चीन में अकेले वर्ष 2017 में 30 लाख लोगों ने वायु प्रदूषण के कारण अपनी जान गंवाई। इसकी गिरफ्त में बच्चे और बुजुर्ग ज्यादा आते हैं।

समाज की उदासीनता

ऑस्ट्रेलिया की लेबर पार्टी ने अपने कैंपेन में वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 45 फीसदी तक घटाने का दावा किया है। ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन  द्वारा वोटरों के बीच किए गए एक सर्वे के मुताबिक वहाँ आम चुनाव में पर्यावरण ही नम्बर एक मुद्दा रहा। इसकी रेटिंग 20 फीसदी रखी गई जो कि वर्ष 2016 में 9 फीसदी ही थी। ऑस्ट्रेलिया ही नहीं, हाल में ब्रिटिश पार्लियामेंट में भी वायु प्रदूषण को लेकर जमकर खींचतानी हुई। कहा गया कि इसे आपातकालीन स्थिति माना जाए और तत्काल इसे रोकने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं। वर्ष 1952 के बहुचर्चित लंदन स्मॉग ने 4000 लोगों की जान ली थी और उस समय ब्रिटेन की सरकार ने वायु प्रदूषण रोकने के लिए कई अहम फैसले किए थे। हालांकि आज भी ब्रिटेन की कुल मौतों में 8.3 फीसदी के लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार माना जाता है। चीन में बढ़ते वायु प्रदूषण को लेकर नए सिरे से कमर कसी गई और ग्लोबल एयर की पिछली रिपोर्ट के बाद से वहाँ हालात बेहतर हुए हैं। चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था विश्व के लिए मिसाल बनी लेकिन आर्थिक विकास के साथ ही उसने प्रदूषण दूर करने के गम्भीर उपाय भी किए। आज पेइचिंग और शांघाई जैसे शहर काफी हद तक वायु प्रदूषण मुक्त हो चुके हैं।

 हमारे देश में परिस्थितियाँ पूरी तरह विपरीत हैं। हवा, मिट्टी, पानी और जंगल के हालात न तो समाज को विचलित करते हैं न ही सरकार को। यही कारण है कि देश में पर्यावरण कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन सका। हमने तो ग्लोबल एयर रपट को ही नहीं माना और यह जताया कि इसमें कोई ज्यादा दम नही है। सरकार का यह रवैया बहुत आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि प्रायः होता यही है कि रपटें अगर सरकारों के पक्ष में न हो तो फर्जी करार दे दी जाती हैं। वहीं दूसरी तरफ सरकार की प्रशंसा का मुद्दा हो तो ऐसी रपटों का बढ़-चढ़ कर प्रचार किया जाता है। लेकिन इस पर समाज का रुख जरूर चिन्ताजनक है। इस मुद्दे को उसे एक बड़ी चुनौती के रूप में लेना चाहिए। सरकारें आती जाती रहेंगी पर अगर जीवन बदतर होता रहा तो उससे उदासीन रहना हमारी मूर्खता का प्रमाण होगा। वैसे यह भी उतना ही बड़ा सच है कि जब तक पर्यावरण एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में जगह नहीं बना पाएगा तब तक यह माननीयों की प्राथमिकता नहीं बनेगा।
 
अगर जनता का जबर्दस्त दबाव होगा तो पार्लियामेंट पर्यावरण और पारिस्थितिकी को लेकर संजीदा होगी और सरकार इस पर कदम उठाने के लिए विवश होगी। दुनिया भर में यही हुआ है जो की तारीख में पर्यावरण संयुक्त राष्ट्र का एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। यूएन ने इस बार का पर्यावरण दिवस को वायु प्रदूषण से जोड़ा था। अभी हाल में ग्लोबल एयर रिपोर्ट ने विश्व में बढ़ते वायु प्रदूषण पर बड़ी चिन्ता जताई है। इस रपट के अनुसार दुनिया की 91 फीसदी आबादी किसी-न-किसी रूप में वायु प्रदूषण की चपेट में है। हर दिन 800 लोग किसी-न-किसी रूप में इसके शिकार होते हैं। खासकर भारत और चीन में अकेले वर्ष 2017 में 30 लाख लोगों ने वायु प्रदूषण के कारण अपनी जान गंवाई। इसकी गिरफ्त में बच्चे और बुजुर्ग ज्यादा आते हैं।
 
गुड़गाँव, गाजियाबाद, फरीदाबाद, नोएडा, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जोधपुर, मुजफ्फरपुर, वाराणसी, मुरादाबाद और आगरा इस मामले में सबसे घातक शहर हैं। अजीब बात है यह सब जानकर भी हम सचेत नहीं हो रहे। असल में पारिस्थितिकी पर आर्थिकी भारी पड़ रही है। हमने पश्चिम का विकास मॉडल तो ले लिया, पर पर्यावरण के प्रति उनकी जागरूकता को नहीं अपना सके। हम वह सब करने पर उतारू हैं जो उन देशों ने विकास के नाम पर अब तक किया, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश का अर्थतंत्र और समाज उनके जैसा नही है। हम चीन भी नही बन पाए जिसकी आबादी हमसे ज्यादा है, पर जिसने विकास से जुडे विनाश को समझना शुरू करके इस ओर कुछ अहम कदम भी उठा दिए हैं। जरूरत इस बात की है कि हम पर्यावरण के संकट को समझें।
 
वैकल्पिक मॉडल

हमें इस बात को समझना होगा कि पर्यावरण का नुकसान करके उपभोग के साधन जुटा लेने से कुछ नहीं होने वाला। जब हम स्वस्थ ही नहीं होंगे तो तमाम साधनों के होने का भला क्या अर्थ ? समाज उपभोग के साधनों का इस्तेमाल करने लायक ही नहीं बचेगा। इसलिए हमें विकास का एक वैकल्पिक मॉडल तैयार करना होगा, जिसमें पर्यावरण की रक्षा करते हुए सुख के सारे साधन उपलब्ध हो सकें। इसके लिए उत्पादन पद्धति में भी बदलाव करना होगा, जो कोई असम्भव काम नही है। कई मुल्कों ने ऐसा करके दिखाया है। क्यों न हम भी उस रास्ते पर बढ़ें। लेकिन शुरुआत तो जनता को ही करनी होगी। सरकार पर इसके लिए दबाव उसी को बनाना होगा।

 

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