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योजना, अगस्त 1993
लेखक का कहना है कि आठवीं पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य खेती की पैदावार संबंधी प्रौद्योगिकी के लाभागों को स्थायी व सुदृढ़ करना है ताकि न केवल बढ़ती हुई घरेलू माँगों को पूरा किया जा सके अपितु निर्यात के लिये अतिरिक्त पैदावार की जा सके। काम कठिन है, परन्तु वर्षा सिंचित इलाकों के विकास, सिंचाई-सुविधाओं के कुशल उपयोग और आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक खेती की उन्नत तकनीकों की निरंतर सुलभता से हम अपने लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकते हैं।
पाँचवें दशक में वार्षिक औसत वृद्धि मात्र 5 लाख हेक्टेयर थी, जो 80 के दशक में 16 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गई। आठवीं योजना में इस वृद्धि को 27 लाख हेक्टेयर तक ले जाने का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये कृषि क्षेत्र के समग्र विकास की दृष्टि से सिंचाई के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना होगा तथा इस गिरावट की प्रवृत्ति को उलटना होगा।
महात्मा गांधी ने हमें चिंतन के लिये एक आर्थिक विचार दिया; ‘‘मेरे हिसाब से भारत की ही नहीं बल्कि विश्व की आर्थिक संरचना ऐसी होनी चाहिए कि इसमें रहने वाले किसी भी व्यक्ति को रोटी और कपड़े की परेशानी न हो। दूसरे शब्दों में प्रत्येक को पर्याप्त रोजगार मिले ताकि उसकी गुजर-बसर होती रहे और समूचे विश्व में यह आदर्श तभी स्थापित हो सकता है जब जीवन की बुनियादी जरूरतों के उत्पादन के साधन जन साधारण के नियंत्रण में हों। वे सब लोगों को इस प्रकार उपलब्ध होने चाहिए, जैसे कि परमात्मा से हमें जल और वायु मिलते हैं या मिलने चाहिए.......’’। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आर्थिक विकास की एक नियोजित प्रक्रिया शुरू की गई। कृषि के बारे में पंडित नेहरू ने कहा था कि ‘‘हरेक चीज इंतजार कर सकती है, खेती नहीं।’’भारतीय कृषि अधिकांशतया मौसम की स्थितियों पर, प्रमुख तौर पर वर्षा और समय पर व अधिकतम क्षेत्र पर वर्षा होने पर निर्भर करती है। परिणामस्वरूप हमें सूखे, बाढ़ व एक सीमा तक ओलों का सामना करना पड़ रहा है और इन्हीं से हमारी पैदावार की मात्रा तय हो रही है। इन सब प्राकृतिक कारणों के बावजूद, जिन पर मनुष्य का वश नहीं है, स्वतंत्र भारत की प्रगति के हमारे इतिहास में नियोजित कृषि विकास एक गौरवपूर्ण अध्याय है। अभावों और साधनों के लिये दूसरों पर निर्भर रहने के युग से चार वर्षों के थोड़े से ही काल में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर लेना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। ये उपलब्धियाँ उत्पादन कार्यक्रमों के नियोजन व क्रियान्वयन के साथ-साथ हमारे किसानों के कठिन परिश्रम से संभव हो सकी है तथा इसमें अनुसंधान, विस्तार और आदान-सेवा एजेंसियों का भी योगदान रहा है। इसे तालिका-1 से जाना जा सकता है:
तालिका-2 में हाल के वर्षों में रिकॉर्ड उपलब्धियों सहित उच्चतर पैदावार को दर्शाया गया है।
1991-92 और 1992-93 में अनाज, गेहूँ, मोटे अनाज, दालों, तिलहनों, गन्नों और कपास की रिकॉर्ड पैदावार हुई, जिससे देश के समग्र आर्थिक विकास में काफी मदद मिली।
जनसंख्या के मोर्चे पर, हमें चेतावनी मिल चुकी है कि 21वीं सदी के आते-आते हमारी जनसंख्या एक अरब पहुँच जाएगी। यह सभी नागरिकों के लिये चिंता का विषय होना चाहिए। हमें अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या की विशेषकर अन्न, चारे, ईंधन और कपड़े की माँग की चुनौतियों का सामना करने के लिये सामूहिक रूप से साधनों की तलाश करनी होगी और उन्हें विकसित करना होगा। अनुमान है कि 2001-2 में, उस समय की जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए साढ़े चौबीस करोड़ टन खाद्यान्नों की जरूरत पड़ेगी। खाद्यान्नों के अलावा हमें अपने विकास की गति को निरंतर बनाए रखने के लिये अपनी वाणिज्यिक फसलों, बागवानी, पशु पालन और दुग्धोत्पादन, मछली-पालन तथा सम्बद्ध क्षेत्रों का विकास करना होगा ताकि निर्यात के लिये अतिरिक्त उत्पादन किया जा सके। छठी व सातवीं योजनाओं में प्राप्त उत्पादन स्तर तथा उत्पादन के लक्ष्य तालिका-3 में दिए गए हैं। प्रमुख फसलों के क्षेत्र, उत्पादन व पैदावार के अनुमान तालिका-5 में प्रस्तुत किए गए हैं।
कृषि निवेश
कृषि क्षेत्र में पिछले चार दशकों में किए गए निवेश के कारण खेती की पैदावार में कई गुना वृद्धि हुई है। 1980-81 की कीमतों के आधार पर 1950-51 में निवेश 1,266 करोड़ रुपये का था, जो 1978-79 तक बढ़कर 5,246 करोड़ रुपये का हो गया। लेकिन, 1978-79 से कृषि क्षेत्र के निवेश में गिरावट आ रही है तथा 1990-91 में यह घटकर केवल 4,692 करोड़ रुपये पहुँच गयी थी। कृषि क्षेत्र में निवेश में आने वाली इस गिरावट का प्रमुख कारण अस्सी के दशक में सार्वजनिक निवेश में कमी का आना था। इस अवधि में इस क्षेत्र में निजी निवेश कमोबेश उतना ही रहा।
कुल निवेश में कृषि निवेश का हिस्सा 1950-51 के 22 प्रतिशत से घटकर 1980-81 में 19 प्रतिशत पर आ गया तथा 1990-91 तक इसमें और कमी आई और यह लगभग 10 प्रतिशत पहुँच गया। इससे सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा सिंचाई में किए जाने वाला निवेश प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ, क्योंकि 90 प्रतिशत से अधिक कृषि निवेश, सार्वजनिक क्षेत्र से आता है। सार्वजनिक क्षेत्र के कुल निवेश में सिंचाई क्षेत्र (केवल राज्य) का हिस्सा, जो 1980-81 में 14.7 प्रतिशत था 1990-91 में घटकर 5.6 प्रतिशत पर पहुँच गया। जबकि कुल सार्वजनिक क्षेत्र निवेश में 6.3 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि हुई है और यह 1980-81 के 11,767 करोड़ रुपये से बढ़कर 1990-91 में 21,613 करोड़ रुपये पर आ गया, सिंचाई क्षेत्र का निवेश 3.5 प्रतिशत वार्षिक की दर से घटा और 1980-81 के 1,735 करोड़ रुपये से 1990-91 में 1,215 करोड़ रुपये हो गया। सातवीं योजना में यह गिरावट और अधिक नजर आई जब यह छठी योजना की 2.2 प्रतिशत वार्षिक से घटकर 6.1 प्रतिशत वार्षिक हो गई।
साठ के दशक में उन्नत बीजों के प्रयोग से प्रारंभ हुई हरित क्रांति के बने रहने में, सिंचाई सुविधाओं का विस्तार एक महत्त्वपूर्ण घटक रहा। शुद्ध बुवाई क्षेत्र के जस के तस बने रहने और देश व विदेश दोनों में ही खेतिहर उत्पादों की मांग में तीव्र वृद्धि के कारण इस क्षेत्र का कहत्व और भी बढ़ गया है। राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) के अनुसार देश की कुल सिंचाई क्षमता 11 करोड़ 35 लाख हेक्टेयर है। जल संसाधन के राष्ट्रीय अनुमान के अनुसार, राष्ट्रीय अनुमान को बढ़ाकर 17 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर कर दिया गया है। 1951 तक केवल 2 करोड़ 6 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती थी, जो 1991-92 तक 7 करोड़ 31 लाख हेक्टेयर हो गई अर्थात वृद्धि लगभग 13 लाख हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष की औसत से हुई। पाँचवें दशक में वार्षिक औसत वृद्धि मात्र 5 लाख हेक्टेयर थी, जो 80 के दशक में 16 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गई। आठवीं योजना में इस वृद्धि को 27 लाख हेक्टेयर तक ले जाने का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये कृषि क्षेत्र के समग्र विकास की दृष्टि से सिंचाई के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना होगा तथा इस गिरावट की प्रवृत्ति को उलटना होगा।
आठवीं योजना के अंतर्गत खेती की पैदावार की प्रौद्योगिकी के लाभों को स्थायी व सुदृढ़ करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ताकि घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही नहीं बल्कि निर्यात-योग्य अतिरिक्त उत्पादन करने के लिये पैदावार में भारी वृद्धि हो सके, साथ ही खेती के वाणिज्यिक उत्पादन में स्थायित्व प्राप्त करना सुनिश्चित हो सके तथा आज के प्रतिस्पर्धी ढाँचे में विज्ञान व प्रौद्योगिकी का समुचित उपयोग किया जा सके। खाद्यान्नों के सुरक्षित भंडारों को सुनिश्चित करने वाली खाद्योत्पादन में आत्मनिर्भरता हमारी प्राथमिकता है।
आठवीं योजना में कृषि सम्बद्ध क्षेत्रों में जिन बातों पर प्रमुख रूप से बल दिया जा रहा है, वे इस प्रकार हैं:
1. शुष्क भूमि/वर्षा सिंचित/समस्या क्षेत्र विकास: क. प्रमुख लक्ष्य, प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण तथा उपयोग हो; ख. खेतिहर उत्पादन व उत्पादकता में स्थायित्व लाना और उसमें अभिवृद्धि करना; ग. विलोम व प्रतिलोम (बैकवर्ड एंड फार्वर्ड) संपर्कों को विकसित करना जिनसे रोजगार व आय के साधन पैदा हों; घ. जल विभाजक प्रबंध तथा अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने को प्रोत्साहित करना; तथा ङ. क्षेत्राधारित विशेष कार्यक्रमों के जरिए क्षेत्रीय विषमताओं को कम करना।
2. पूर्वी क्षेत्र में त्वरित कृषि विकास: कृषि के विकास की इस क्षेत्र में भारी संभावनाएं हैं तथा आधारभूत सुविधाओं के लिये सहायता प्रदान की जाएगी ताकि इस क्षेत्र में, विशेषकर बागवानी और कृषि-प्रसंस्करण क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़े।
3. खेती में विविधीकरण: सीमांत व अवक्रमित भूमि को कम पैदावार देने वाली फसलों से मुक्त करके उन पर बागवानी, जैसा कि फल, सब्ज़ियाँ, मसाले और बागान फसलें करने को प्रोत्साहन किया जाएगा, जिससे फसलों की विविधीकरण प्रणाली को बढ़ावा मिलेगा। ऐसे विविधीकरण को बढ़ावा देने के लिये उपयुक्त मूल्य निर्धारण नीतियाँ बनाई जाएँगी तथा बाजार संरचना की जाएगी।
4. खेतिहर वस्तुओं को सहायता: विविधीकरण के साथ-साथ, विदेशी बाजारों को भी टटोलने के लिये उचित उत्पादन कार्यक्रम व नीतियाँ तैयार करने के प्रयास किए जाएँगे। योजना आयोग ने एक विशेषज्ञ दल गठित किया है जो उत्पादन से लेकर निर्गम बिंदुओं तक की औपचारिकताओं के बारे में सुझाव देगा तथा उनकी रूपरेखा बनाएगा। इस दल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है तथा इस दिशा में काम शुरू हो गया है।5. फसल के बाद की प्रौद्योगिकी: देशी व विदेशी दोनों ही बाजारों के लिये फसल के बाद की प्रौद्योगिकी पर और अधिक ध्यान दिया जाएगा।
6. आदान पर ऋण: किसानों को आदान व ऋण दिलाने की स्थिति में सुधार को तथा कृषि स्नातकों व पशुचिकित्सकों के लिये स्वरोजगार के जरिए आत्म-सहायता की योजनाओं से कृषि व सम्बद्ध परामर्श सेवाओं को प्रोत्साहित करने का प्रस्ताव है।
7. बागवानी: बागवानी विकास को एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र माना गया है। व्यापक महत्त्व के क्षेत्रों में शुष्क क्षेत्रों में बागवानी फसलें, उत्तर, उत्तर-पूर्व में मसाले पैदा करने तथा भूमि अवक्रमण की विशेष समस्याओं वाले शीतोष्ण व कटिबंधीय क्षेत्रों, पर्वतीय इलाकों और खार-खड्डों वाले क्षेत्रों के लिये विशेष विकास कार्यक्रम बनाने पर बल दिया जाएगा।
8. मत्स्य पालन: समन्वित मछली पालन, खारे-पानी में मछली पालन, रेशम कीट पालन, फसल के बाद की प्रौद्योगिकी के विकास, विपणन तथा आधारभूत सुविधाओं की व्यवस्था, जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जिनमें आठवीं योजना में समन्वित प्रयास किए जाएँगे।
9. पशुपालन व डेरी उद्योग: इस योजना में हमें आशा है कि यह क्षेत्र देश के लाखों छोटे किसानों को आमदनी और आजीविका के पूरक साधन उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इससे ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार हो पाएगा।
10. तिलहन उत्पादन: तिलहनों की घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करने और मूल्यवान विदेशी मुद्रा बचाने के लिये तिलहन उत्पादन में स्थायित्व बनाए रखने के लिये अल्पावधि व दीर्घावधि, दोनों ही प्रकार के उपाए किए जाएँगे। इनमें उत्पादन कार्यक्रमों से लेकर प्रसंस्करण तथा नारियल व लाल तेल पाम की खेती का क्षेत्र बढ़ाने के कार्यक्रम शामिल होंगे, ताकि हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।
कृषि का भविष्य
वर्ष 1997 तक भारत में जनसंख्या के 94 करोड़ से अधिक होने का अनुमान है। 2007 वर्ष के आते-आते यह संख्या 1 अरब 10 करोड़ से अधिक तक पहुँच जाएगी। इतनी जनसंख्या तथा आमदनी बढ़ने से उपभोक्ता स्तरों में होने वाले सुधारों को देखते हुए 1997 और 2007 में क्रमशः 20 करोड़ 80 लाख टन और 28 करोड़ 30 लाख टन खाद्यान्नों की आवश्यकता पड़ेगी। खाद्यान्नों का उत्पादन का इसके अनुरूप होना जरूरी होगा। वर्ष 1992 और 2007 के लिये खाद्यान्नों के वांछित उत्पादन स्तर क्रमशः 21 करोड़ और 28.5 करोड़ टन हैं। मुख्य अनुमान तालिका-6 में दिए गए हैं।
स्वतंत्र भारत की प्रगति के हमारे इतिहास में नियोजित कृषि विकास एक गौरवपूर्ण अध्याय है। अभावों और साधनों के लिये दूसरों पर निर्भर रहने के युग से चार वर्षों के थोड़े से ही काल में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर लेना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है।
कृषि का वांछित विकास दीर्घावधि में केवल क्षेत्रीय दृष्टि से अधिक व्यापक आधार वाले प्रगति के स्वरूप से ही सम्भव हो सकता है, जिसके लिये वर्षा सिंचित इलाकों पर और अधिक ध्यान देना होगा तथा इन इलाकों पर अधिकाधिक संसाधन लगाने होंगे, खेती के लिये विकसित सिंचाई सुविधाओं का कुशल उपयोग करना होगा और वर्षा पर आधारित व सिंचित क्षेत्रों दोनों ही के लिये आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक तकनीकों का निरंतर प्रवाह बनाए रखना होगा। समान कृषि जलवायु क्षेत्रों के संपर्क में कृषि नियोजन की अवधारणा में तेजी लानी होगी और इसे संस्थागत स्वरूप प्रदान करना होगा।पशु-पालन के उप क्षेत्र की प्रगति से रोजगार बढ़ाने में मदद मिलेगी और छोटे व सीमांत किसानों तथा भूमिहीन श्रमिकों की आय में वृद्धि हो सकेगी। दुग्ध व दुग्ध उत्पादों के उत्पादन के 5.75 करोड़ टन के वर्तमान स्तर (1991-92) में 4 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। सन 2007 तक कुल मिलाकर साढ़े दस करोड़ टन दूध की सप्लाई होने लगेगी। अंडों की आपूर्ति में 6 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। मछली-उत्पादन में भारी वृद्धि का उद्देश्य है, जिसे उचित आधारभूत सुविधाओं की सुलभता से प्राप्त किया जाएगा।
इन उपायों से मछली पालन के उप क्षेत्र में अनुमानतः 6.6 प्रतिशत की वृद्धि होगी। परिणामस्वरूप, मछली उत्पादन 1997 में 55 लाख टन और 2007 तक 1 करोड़ 5 लाख टन होने की आशा है।
ऊर्जा के प्रत्यक्ष उपयोग तथा उर्वरकों के जरिए इसके अप्रत्यक्ष उपयोग से कृषि का ऊर्जा-घनत्व बढ़ रहा है। भूमि पर दबाव और रोटी, कपड़ा व अन्य कृषि उत्पादों की बढ़ती माँग को देखते हुए उत्पादकता बढ़ाने की अनिवार्यता का मतलब है कि ऊर्जा का घनत्व और भी बढ़ेगा। इसलिये ऊर्जा के उपयोग की कुशलता में सुधार करने के लिये व्यापक प्रयास करने होंगे। जल का कुशल उपयोग और उर्वरकों का कुशल उपयोग, दो ऐसे क्षेत्र हैं जिस पर विशेष ध्यान देना जरूरी है।
जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुसंधान के लिये अधिक निवेश करना जरूरी है ताकि संवर्धनात्मक आनुवांशिकी तथा जैविक विधियों से समन्वित पोषक तत्व व कीट प्रबंध संभव हो सके।