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कुरुक्षेत्र, जून 2012
ग्वार खरीफ ऋतु में उगायी जाने वाली एक बहु-उपयोगी फसल है। ग्वार कम वर्षा और विपरीत परिस्थितियों वाली जलवायु में भी आसानी से उगायी जा सकती है। ग्वार की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि यह उन मृदाओं में आसानी से उगायी जा सकती है जहां दूसरी फसलें उगाना अत्यधिक कठिन है। अतः कम सिंचाई वाली परिस्थितियों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। भारत विश्व में सबसे अधिक ग्वार की फसल उगाने वाला देश है। ग्वार की खेती दाने के लिए, हरे चारे हेतु, हरी खाद के लिए व हरी सब्जी के लिए की जाती है। ग्वार पशुओं के लिए भी पौष्टिक आहार है। इसके दानों से एक प्रकार का गोंद प्राप्त होता है जो संपूर्ण विश्व में ‘ग्वार गम’ के नाम से प्रचलित है। ग्वार गम का प्रयोग कई प्रकार के उद्योग-धंधों व औषधि निर्माण में किया जाता है। पेट साफ करने, रोचक औषधि तैयार करने, कैप्सूल व गोलियां बनाने में ग्वार गम का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा खनिज, कागज व कपड़ा उद्योग में भी ग्वार गम महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। खाद्य पदार्थों जैसे आइसक्रीम, सूप व सलाद बनाने में भी ग्वार गम का बड़ा महत्व है।देश के पश्चिमी भाग के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में किसानों की आय बढ़ाने के लिए ग्वार एक अति महत्वपूर्ण फसल है। यह सूखा सहन करने के अतिरिक्त अधिक तापक्रम को भी सह लेती है। भारत में ग्वार की खेती प्रमुख रूप से राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, गुजरात व उत्तर प्रदेश में की जाती है। हमारे देश के संपूर्ण ग्वार उत्पादक क्षेत्र का करीब 87.7 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान में है। सब्जी वाली ग्वार की फसल से बुवाई के 55-60 दिनों बाद कच्ची फलियां तुड़ाई पर आ जाती हैं। अतः ग्वार के दानों और ग्वार चूरी को पशुओं के खाने और प्रोटीन की आपूर्ति के लिए भी प्रयोग किया जाता है। ग्वार की फसल वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करती है। अतः ग्वार जमीन की ताकत बढ़ाने में भी उपयोगी है। फसल चक्र में ग्वार के बाद ली जाने वाली फसल की उपज हमेशा बेहतर मिलती है। इसी कारण गुजरात और राजस्थान के किसान ग्वार के बाद खाद्यान्न या मोटे अनाज की फसल लेते हैं। व्यावसायिक जागरूकता एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी बढ़ती मांग और आसमान छूती कीमतों के कारण किसान भाई इसके उत्पादन पर जोर दे रहे हैं। परंतु ग्वार की खेती के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी न मिलने के कारण किसानों को इसका पूरा लाभ नहीं मिल रहा है।
ग्वार एक बहु-उपयोगी फसल है। भारत प्रतिवर्ष हजारों टन ग्वार विदेशों को निर्यात करता है जिससे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ता है। ग्वार का आयात करने वाले देशों में अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान आदि शामिल हैं। कागज निर्माण के समय ग्वार गम को लुगदी में मिलाया जाता है जिससे कागज ठीक से फैल सके और अच्छी गुणवत्ता का कागज तैयार किया जा सके। कपड़ा उद्योग में यह मांडी लगाने के उपयोग में लाया जाता है। शृंगार वस्तुओं जैसे लिपिस्टिक, क्रीम, शेम्पू और हैण्ड लोशन में भी ग्वार गम का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा दन्त मंजन, शेविंग क्रीम जैसी वस्तुओं के निर्माण में भी ग्वार गम का प्रयोग होता है। ग्वार गम का प्रयोग विस्फोटकों को जलामेथ करने में तथा तेल ड्रिलिंग उद्योगों में डाट लगाने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
ग्वार लेग्युमिनेसी कुल का एकवर्षीय पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम साइमोपसिस टेट्रागोनोलोबा है। इसका पौधा बहु-शाखीय व सीधा बढ़ने वाला है। पौधे की लम्बाई 30-90 सेमी तक होती है। इसकी जड़ें मृदा में काफी गहराई तक जाती हैं। ग्वार के फूल आकार में छोटे व गुलाबी रंग के होते हैं। फलियां लम्बी व रोएंदार होती हैं। ग्वार एक स्वपरांगित फसल है। बुवाई के 70-75 दिनों बाद फलियां आनी शुरू हो जाती हैं। सामान्यतः 110-133 फलियां प्रति पौधा आ जाती हैं।
विश्व की 75 प्रतिशत ग्वार भारत में ही पैदा होती है।विश्व में भारत और पाकिस्तान सबसे अधिक ग्वार की फसल उगाने वाले देश हैं। विश्व की 75 प्रतिशत ग्वार भारत में ही पैदा होती है। इसके अतिरिक्त ग्वार इंडोनेश्यिा, अमेरिका, इटली और अफ्रीका में भी उगायी जाती है। भारत में ग्वार का सर्वाधिक क्षेत्रफल (23.3 मि.हे.), उत्पादन (10.2 लाख टन) एवं औसत उत्पादकता (428 किग्रा/हे.) है। भारत के संपूर्ण ग्वार उत्पादक क्षेत्र का करीब 87.7 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान में है। इसके अलावा ग्वार उत्तर-पश्चिम राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में उगायी जाती है। राजस्थान और गुजरात में यह मुख्यतया दाने के लिए, हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में हरे चारे, हरी फलियां और हरी खाद के लिए उगायी जाती हैं।
ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन, 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम और 0.15-0.20 मैग्निशियम पाया जाता है।ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन, 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम और 0.15-0.20 मैग्निशियम पाया जाता है। ग्वार की ताजा व नर्म-मुलायम फलियों को सब्जी और भुरता बनाने के काम में लाया जाता है। कच्ची सुखाकर रखी हुई फलियों का प्रयोग भी सब्जी बनाने में किया जाता है। फलियों को सुखाकर व नमक मिलाकर लम्बे समय तक उपयोग के लिए रखा जा सकता है। ग्वार की हरी फलियों में रेशे की मात्रा अधिक पायी जाती है। इसके सेवन से पाचन संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। ग्वार प्रोटीन, विटामिन-ए, लोहा व फोलिक अम्ल का अच्छा स्रोत है। हरी फलियों के 100 ग्राम भाग में 81.0 ग्राम पानी, 3.2 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, 1.4 ग्राम खनिज, 3.2 ग्राम रेशा और 10.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसके अतिरिक्त हरी फलियों में कैल्शियम (130 मि.ग्रा.), फास्फोरस (57 मि.ग्रा.), लोहा (1.08 मि.ग्रा.) तथा विटामिन-ए, थाइमिन, फोलिक अम्ल और विटामिन-सी इत्यादि भी इसमें पाए जाते हैं। ग्वार जानवरों के लिए भी एक पौष्टिक आहार है। ग्वार के दानों और ग्वार चूरी को जानवरों के खाने में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दिया जाता है। हरे चारे के रूप में इसे फलियां बनते समय पशुओं को खिलाया जाता है। इस अवस्था पर इसमें प्रोटीन व खनिज लवणों की मात्रा अधिक पायी जाती है। ग्वार के दानों का 14 से 17 प्रतिशत छिलका तथा 35 से 42 प्रतिशत भाग भ्रूणपोष होता है। ग्वार के दानों के भ्रूणपोष से ही ‘ग्वार गम’ उपलब्ध होता है।
ग्वार की उन्नतशील प्रजातियों को मुख्यतः तीन भागों — दाने, चारे व हरी फलियों के रूप में बांटा जा सकता है।
दाने के लिए- मरू ग्वार, आरजीसी-986, दुर्गाजय, अगेती ग्वार-111, दुर्गापुरा सफेद, एफएस-277, आरजीसी-197, आरजीसी-417
हरी फलियों हेतु- आईसी-1388, पी-28-1-1, गोमा मंजरी, एम-83, पूसा सदाबहार, पूसा मौसमी, पूसा नवबहार, शरद बहार
हरे चारे हेतु- एचएफजी-119, एचएफजी-156, ग्वार क्रांति, मक ग्वार, बुंदेल ग्वार-1 (आईजीएफआरआई-212-1), बुंदेल ग्वार-2, आरआई-2395-2, बुंदेल ग्वार-3, गोरा-80
1. ग्वार की अधिकांश खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों में की जाती है। जहां पर इसकी पैदावार वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है। सितम्बर माह में ग्वार में फलियां बनती हैं और उनमें दाने बनते हैं। इस समय प्रायः वर्षा की कमी के कारण पैदावार में भारी गिरावट आ जाती है।
2. ग्वार को साधारणतः उन भूमियों में उगाया जाता है जहां पर दूसरी फसलें उगाना कठिन है। इन भूमियों की फसल पैदा करने की क्षमता बहुत कम होती है। साथ ही जीवांश पदार्थों की भी इन मृदाओं में काफी कमी होती है।
3. उच्च तकनीकी एवं उन्नतशील शीघ्र पकने वाली प्रजातियों का अभाव। अभी तक किसान खेती की परंपरागत विधियों और देशी प्रजातियों को ही उगाते हैं।
4. ग्वार की खेती में किसान आमतौर पर खाद, जैविक उर्वरक एवं उर्वरक प्रबंधन को नजरअंदाज करते हैं।
5. किसानों को पर्याप्त मात्रा में उन्नतशील प्रजातियों का प्रमाणित बीज नहीं मिल पाता है।
6. किसानों में व्याप्त निर्धनता व साक्षरता का अभाव भी ग्वार की उत्पादकता को प्रभावित करता है।
ग्वार एक सूखा सहन करने वाली व गर्म जलवायु की फसल है। यह उन क्षेत्रों में आसानी से उगायी जा सकती है जहां पर औसत वार्षिक वर्षा 30-40 सेंमी तक होती है। बीजों के अंकुरण व जड़ों के विकास के लिए 25 से 300 सें. के नीचे तापमान उपयुक्त होता है। ग्वार एक प्रकाश संवेदनशील फसल है। अतः इस फसल में फूल व फलियों का निर्माण केवल खरीफ के मौसम में ही होता है। अत्यधिक बरसात व ठंड को यह सहन नहीं कर पाती है। जिन क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी पड़ती है परंतु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है वहां पर ग्वार की खेती से भरपूर पैदावार ली जा सकती है। शुष्क और अर्ध-शुष्क दोनों दशाओं में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।
ग्वार की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। यह फसल सिंचित एवं असिंचित दोनों क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। हल्की क्षारीय व लवणीय भूमि जिसका पीएच मान 7.5 से 8.5 तक हो, वहां पर ग्वार की खेती आसानी से की जा सकती है।
ग्वार की भरपूर पैदावार के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो जुताइयां ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर से करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं जिससे मृदा नमी संरक्षित रहे। जुताई जून के द्वितीय पखवाड़े में करनी चाहिए। इस प्रकार तैयार खेत में खरपतवार कम पनपते हैं। साथ ही वर्षा जल का अधिक संचय होता है। इसी समय पूर्णतया सड़ी हुई गोबर की खाद संपूर्ण खेत में बिखेर कर अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें।
ग्रीष्मकालीन फसल की बुवाई के लिए मध्य फरवरी से मार्च का प्रथम पखवाड़ा उपयुक्त समय है। देरी से बुवाई करने पर पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जबकि वर्षा ऋतु की फसल की बुवाई के लिए जून-जुलाई उपयुक्त समय है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जुलाई में वर्षा आगमन के साथ ही ग्वार की बुवाई कर देनी चाहिए। ग्वार की बुवाई मध्य अगस्त तक की जा सकती है। प्रकाश असंवेदनशील प्रजातियों के विकास और उनकी उपलब्धता के कारण ग्वार की खेती जायद में भी आसानी से की जा सकती है।
ग्वार के बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि उसे किस उद्देश्य के लिए उगाया जा रहा है। दाने एवं हरी फलियों के लिए 15 से 18 किग्रा, हरी खाद वाली फसल के लिए 30 से 35 किग्रा तथा चारे वाली फसल के लिए 35 से 40 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। खरीफ ऋतु की अपेक्षा ग्रीष्मकालीन फसल में बीज अधिक लगता है।
बीजों के अच्छे जमाव व फसल को रोगमुक्त रखने के लिए ग्वार के बीजों को सबसे पहले 2.0 ग्राम बाविस्टिन या कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा से प्रति किलो बीज की दर से अवश्य उपचारित करें। पौधों की जड़ों में गांठों का अधिक निर्माण हो व वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में अधिक यौगिकीकरण हो, इसके लिए बीजों को राइजोबियम नामक जीवाणु उर्वरक से उपचारित करना बहुत जरूरी है। बीज उपचार बुवाई के ठीक पहले कर लेना चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के 200 ग्राम के दो पैकेट पर्याप्त होते हैं। किसान भाई ध्यान रखें कि यदि उन्होंने बीज किसी विश्वसनीय संस्था से खरीदा है तो उसे फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं है। यह बीज पहले से ही उपचारित होता है।
अधिक पैदावार के लिए ग्वार की बुवाई हमेशा पंक्तियों में करें। बुवाई हल के कुड़ों में अथवा सीडड्रिल की सहायता से करें। कुड़ों में पौधों की जड़ों के पास वर्षा जल भी अधिक संग्रहित होता है। इससे पैदावार अधिक मिलती है और फसल की देखभाल करने में भी आसानी रहती है। भरपूर पैदावार हेतु पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंमी आदर्श मानी जाती है। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे बीज का जमाव शीघ्र व पर्याप्त मात्रा में हो सके। बुवाई पूरब-पश्चिम दिशाओं में करें जिससे सभी पौधों को सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में और लम्बी अवधि तक मिलता रहे। किसान भाइयों को सलाह दी जाती है कि बुवाई कभी भी छिटकवां विधि से न करें। इसमें समय तो कम लगता है परंतु उपज काफी कम मिलती है। जिन क्षेत्रों में जल निकास की समस्या रहती है वहां जलभराव होने पर पानी को तुरंत खेत से बाहर निकाल दें। सघन विधि की दशा में अंकुरण के 10-12 दिन बाद अतिरिक्त व कमजोर पौधों को निकाल देना चाहिए।
दलहनी फसल होने के कारण सामान्यतः ग्वार की फसल में उर्वरकों की कम आवश्यकता पड़ती है। ग्वार का बेहतर उत्पादन लेने के लिए 20-25 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा सल्फर की सिफारिश वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। सभी उर्वरक बुवाई के समय या अंतिम जुताई के समय देने चाहिए। फास्फोरस के प्रयोग से न केवल चारे की उपज में वृद्धि होती है बल्कि उसकी पौष्टिकता भी बढ़ती है। बहुत हल्की मृदाओं में जहां पर मिट्टी की जांच संभव न हो वहां पर 300-400 कुंतल गोबर की सड़ी खाद का प्रयोग खेत में अंतिम जुताई से पहले समान रूप से बिखेर कर करें। इससे मृदा में नमी संग्रहण व जीवांश की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलती है। इसके अलावा ग्वार के दाने व फली की गुणवत्ता बढ़ने के साथ ही मृदा की भौतिक दशा में भी सुधार होता है।
सामान्यतः खरीफ ऋतु में बोयी फसल में सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा सामान्य व समय पर न होने पर एक या दो सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। फलियों के लिए उगायी गयी फसल में सिंचाई का विशेष महत्व है। फूल आने और फलियां बनने के समय मृदा में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा फलियों की पैदावार व गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शुष्क व अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगायी जाने वाली ग्वार की फसल में समय पर वर्षा न हो तो आवश्यकतानुसार एक-दो सिंचाई देकर किसान भाई अधिक उत्पादन ले सकते हैं। ग्रीष्मकालीन फसल में आवश्यकतानुसार 6-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
ग्वार की फसल को खरपतवारों से पूर्णतया मुक्त रखना चाहिए। सामान्यतः फसल बुवाई के 10-12 दिन बाद कई तरह के खरपतवार निकल आते हैं जिनमें मौथा, जंगली जूट, जंगली चरी (बरू) व दूब-घास प्रमुख हैं। ये खरपतवार पोषक तत्वों, नमी, सूर्य का प्रकाश व स्थान के लिए फसल से प्रतिस्पर्धा करते हैं। परिणामस्वरूप पौधे का विकास व वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है। अतः ग्वार की फसल में समय-समय पर निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को निकालते रहना चाहिए। इससे पौधें की जड़ों का विकास भी अच्छा होता है तथा जड़ों में वायु संचार भी बढ़ता है। दाने वाली फसल में बेसालिन 1.0 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बुवाई से पूर्व मृदा की ऊपरी 8 से 10 सेंमी सतह में छिड़काव कर खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके अलावा पेंडिमिथेलीन का 3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के दो दिन बाद छिड़काव करना चाहिए। इसके लिए 700 से 800 लीटर पानी में बना घोल एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है।
ग्वार की फसल अन्तः फसल प्रणाली के लिए बहुत उपयोगी है। इसे खाद्यान्न फसलों जैसे ज्वार, बाजरा व मक्का के साथ अन्तः फसल के रूप में आसानी से सम्मिलित किया जा सकता है। इसके अलावा बागवानी फसलों जैसे आंवला, बेर व बेल की दो पंक्तियों के बीच खाली पड़ी जगह पर ग्वार की अन्तः फसल आसानी से ली जा सकती है। इससे न केवल प्रति इकाई क्षेत्र अतिरिक्त आय प्राप्त होती है बल्कि ग्वार दलहनी फसल होने के कारण मृदा उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक है जिसका खाद्यान्न व बागवानी वृक्षों की वृद्धि और विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
ग्वार की फसल में कीटों की समस्या कम रहती है। ग्वार में लगने वाले कीटों में एफिड़ (माहू), पत्ती छेदक, सफेद मक्खी, लीफ हापर या जैसिड़ व केटरपिलर प्रमुख हैं। भरपूर उत्पादन हेतु इन कीटों को नियंत्रित करना बहुत जरूरी है। एफिड, जैसिड़ व केटरपिलर की रोकथाम हेतु एंडोसल्फान 4 प्रतिशत पाउडर का 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए या इंडोसल्फान 35 ईसी की 0.07 प्रतिशत की दर से फसल पर 10 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव उपयोगी पाए गए हैं। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोरपिड़ 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा जहां पानी की सुविधा हो, मिथाइल पैराथियान 50 प्रतिशत 750 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों की मृदाओं में भूमिगत कीटों विशेषकर दीमक का अधिक प्रकोप होता है। इसकी रोकथाम हेतु क्लोरपायरीफास या एंडोसल्फान 4 प्रतिशत या क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत पूर्ण 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई पूर्व मिट्टी में अच्छी तरह से मिला दें।
ग्वार की फसल के प्रमुख रोगों में जीवाणुज अंगमारी, ऑल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी, जड़ गलन, चूर्णिल आसिता व ऐन्थ्रेक्नोज है। इनमें जीवाणुज अंगमारी ग्वार में लगने वाली भयंकर बीमारी है। बीमारी के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों की ऊपरी सतह पर बड़े-बड़े धब्बे के रूप में प्रकट होते हैं। ये धब्बे शीघ्र ही संपूर्ण पत्तियों को ढ़क लेते हैं। अतः पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव हेतु रोगरोधी किस्में बोएं। बुवाई से पूर्व बीज उपचार अवश्य करें। इसके लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 100-250 पीपीएम (100-250 मिलीग्राम प्रति लीटर) घोल का प्रयोग करना चाहिए। ऑल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी वर्षा होने के समय फसल को नुकसान पहुंचाती है। यह एक फफूंदजनित बीमारी है। इसमें पत्तियों के किनारों पर गहरे भूरे, गोलाकार व अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। परिणामस्वरूप पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और अन्त्ततः झड़ जाती हैं। इससे बचाव हेतु डाइथेन जेड-78 का 0.20 प्रतिशत का छिड़काव रोग के लक्षण प्रकट होने पर 15 दिन के अंतराल पर दो या तीन बार करें। ऐन्थ्रेक्नोज भी एक फफूंदीजनित रोग है। इसमें पौधों के तनों, पर्णवृन्तों और पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं। इससे बचाव हेतु डायथेन जेड-78 का 0.20 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। जड़ गलन रोग से बचाव हेतु वीटावैक्स या बाविस्टीन की दो ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने के बाद बुवाई करनी चाहिए। चूर्णिल आसिता बीमारी की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक (0.3 प्रतिशत) का एक किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 15 दिनों के अंतराल पर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।
सब्जी वाली फसल में फलियों को मुलायम अवस्था में ही हाथों से तोड़ लेना चाहिए। सब्जी वाली फसल में 55 से 70 दिनों बाद फलियां तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। नर्म, कच्ची व हरी फलियों की तुड़ाई पांच दिनों के अंतराल पर नियमित रूप से करते रहना चाहिए। देरी से तुड़ाई करने पर फलियां सख्त हो जाती हैं जिससे इनकी गुणवत्ता में कमी आ जाती है। साथ ही बाजार भाव भी कम मिलता है। जहां तक हो सके फलियों की तुड़ाई सुबह जल्दी करनी चाहिए। चारे के लिए बोयी गयी फसल 60 से 80 दिनों में फूल आने के समय या फलियां आने की अवस्था पर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं। यदि फसल दानों के लिए बोयी गयी है तो पूर्ण रूप से पकने पर ही फसल की कटाई करें। कटाई हंसिये/दरांती की मदद से करके उनको बंडलों में बांधकर सूखने के लिए धूप में छोड़ दें। इसके 7-10 दिन बाद मड़ाई कर दानों को अलग कर लेते हैं।
उन्नत सस्य प्रौद्योगिकियां अपनाकर किसान भाई ग्वार की फसल से 250-300 क्विंटल हरा चारा, 12-18 क्विंटल दाना और 70 से 120 क्विंटल हरी फलियां प्रति हेक्टेयर प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि ग्वार फली की उपज मौसम, प्रजाति, मृदा के प्रकार और सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर करती है।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।)
ई-मेलः v.kumamovod@yahoo.com
औद्योगिक महत्व
ग्वार एक बहु-उपयोगी फसल है। भारत प्रतिवर्ष हजारों टन ग्वार विदेशों को निर्यात करता है जिससे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ता है। ग्वार का आयात करने वाले देशों में अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान आदि शामिल हैं। कागज निर्माण के समय ग्वार गम को लुगदी में मिलाया जाता है जिससे कागज ठीक से फैल सके और अच्छी गुणवत्ता का कागज तैयार किया जा सके। कपड़ा उद्योग में यह मांडी लगाने के उपयोग में लाया जाता है। शृंगार वस्तुओं जैसे लिपिस्टिक, क्रीम, शेम्पू और हैण्ड लोशन में भी ग्वार गम का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा दन्त मंजन, शेविंग क्रीम जैसी वस्तुओं के निर्माण में भी ग्वार गम का प्रयोग होता है। ग्वार गम का प्रयोग विस्फोटकों को जलामेथ करने में तथा तेल ड्रिलिंग उद्योगों में डाट लगाने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
वानस्पतिक विवरण
ग्वार लेग्युमिनेसी कुल का एकवर्षीय पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम साइमोपसिस टेट्रागोनोलोबा है। इसका पौधा बहु-शाखीय व सीधा बढ़ने वाला है। पौधे की लम्बाई 30-90 सेमी तक होती है। इसकी जड़ें मृदा में काफी गहराई तक जाती हैं। ग्वार के फूल आकार में छोटे व गुलाबी रंग के होते हैं। फलियां लम्बी व रोएंदार होती हैं। ग्वार एक स्वपरांगित फसल है। बुवाई के 70-75 दिनों बाद फलियां आनी शुरू हो जाती हैं। सामान्यतः 110-133 फलियां प्रति पौधा आ जाती हैं।
वितरण एवं क्षेत्र
विश्व की 75 प्रतिशत ग्वार भारत में ही पैदा होती है।विश्व में भारत और पाकिस्तान सबसे अधिक ग्वार की फसल उगाने वाले देश हैं। विश्व की 75 प्रतिशत ग्वार भारत में ही पैदा होती है। इसके अतिरिक्त ग्वार इंडोनेश्यिा, अमेरिका, इटली और अफ्रीका में भी उगायी जाती है। भारत में ग्वार का सर्वाधिक क्षेत्रफल (23.3 मि.हे.), उत्पादन (10.2 लाख टन) एवं औसत उत्पादकता (428 किग्रा/हे.) है। भारत के संपूर्ण ग्वार उत्पादक क्षेत्र का करीब 87.7 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान में है। इसके अलावा ग्वार उत्तर-पश्चिम राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में उगायी जाती है। राजस्थान और गुजरात में यह मुख्यतया दाने के लिए, हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में हरे चारे, हरी फलियां और हरी खाद के लिए उगायी जाती हैं।
पौष्टिकता
ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन, 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम और 0.15-0.20 मैग्निशियम पाया जाता है।ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन, 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम और 0.15-0.20 मैग्निशियम पाया जाता है। ग्वार की ताजा व नर्म-मुलायम फलियों को सब्जी और भुरता बनाने के काम में लाया जाता है। कच्ची सुखाकर रखी हुई फलियों का प्रयोग भी सब्जी बनाने में किया जाता है। फलियों को सुखाकर व नमक मिलाकर लम्बे समय तक उपयोग के लिए रखा जा सकता है। ग्वार की हरी फलियों में रेशे की मात्रा अधिक पायी जाती है। इसके सेवन से पाचन संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। ग्वार प्रोटीन, विटामिन-ए, लोहा व फोलिक अम्ल का अच्छा स्रोत है। हरी फलियों के 100 ग्राम भाग में 81.0 ग्राम पानी, 3.2 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, 1.4 ग्राम खनिज, 3.2 ग्राम रेशा और 10.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसके अतिरिक्त हरी फलियों में कैल्शियम (130 मि.ग्रा.), फास्फोरस (57 मि.ग्रा.), लोहा (1.08 मि.ग्रा.) तथा विटामिन-ए, थाइमिन, फोलिक अम्ल और विटामिन-सी इत्यादि भी इसमें पाए जाते हैं। ग्वार जानवरों के लिए भी एक पौष्टिक आहार है। ग्वार के दानों और ग्वार चूरी को जानवरों के खाने में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दिया जाता है। हरे चारे के रूप में इसे फलियां बनते समय पशुओं को खिलाया जाता है। इस अवस्था पर इसमें प्रोटीन व खनिज लवणों की मात्रा अधिक पायी जाती है। ग्वार के दानों का 14 से 17 प्रतिशत छिलका तथा 35 से 42 प्रतिशत भाग भ्रूणपोष होता है। ग्वार के दानों के भ्रूणपोष से ही ‘ग्वार गम’ उपलब्ध होता है।
उन्नतशील प्रजातियां
ग्वार की उन्नतशील प्रजातियों को मुख्यतः तीन भागों — दाने, चारे व हरी फलियों के रूप में बांटा जा सकता है।
दाने के लिए- मरू ग्वार, आरजीसी-986, दुर्गाजय, अगेती ग्वार-111, दुर्गापुरा सफेद, एफएस-277, आरजीसी-197, आरजीसी-417
हरी फलियों हेतु- आईसी-1388, पी-28-1-1, गोमा मंजरी, एम-83, पूसा सदाबहार, पूसा मौसमी, पूसा नवबहार, शरद बहार
हरे चारे हेतु- एचएफजी-119, एचएफजी-156, ग्वार क्रांति, मक ग्वार, बुंदेल ग्वार-1 (आईजीएफआरआई-212-1), बुंदेल ग्वार-2, आरआई-2395-2, बुंदेल ग्वार-3, गोरा-80
ग्वार की पैदावार में कमी के प्रमुख कारण
1. ग्वार की अधिकांश खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों में की जाती है। जहां पर इसकी पैदावार वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है। सितम्बर माह में ग्वार में फलियां बनती हैं और उनमें दाने बनते हैं। इस समय प्रायः वर्षा की कमी के कारण पैदावार में भारी गिरावट आ जाती है।
2. ग्वार को साधारणतः उन भूमियों में उगाया जाता है जहां पर दूसरी फसलें उगाना कठिन है। इन भूमियों की फसल पैदा करने की क्षमता बहुत कम होती है। साथ ही जीवांश पदार्थों की भी इन मृदाओं में काफी कमी होती है।
3. उच्च तकनीकी एवं उन्नतशील शीघ्र पकने वाली प्रजातियों का अभाव। अभी तक किसान खेती की परंपरागत विधियों और देशी प्रजातियों को ही उगाते हैं।
4. ग्वार की खेती में किसान आमतौर पर खाद, जैविक उर्वरक एवं उर्वरक प्रबंधन को नजरअंदाज करते हैं।
5. किसानों को पर्याप्त मात्रा में उन्नतशील प्रजातियों का प्रमाणित बीज नहीं मिल पाता है।
6. किसानों में व्याप्त निर्धनता व साक्षरता का अभाव भी ग्वार की उत्पादकता को प्रभावित करता है।
जलवायु
ग्वार एक सूखा सहन करने वाली व गर्म जलवायु की फसल है। यह उन क्षेत्रों में आसानी से उगायी जा सकती है जहां पर औसत वार्षिक वर्षा 30-40 सेंमी तक होती है। बीजों के अंकुरण व जड़ों के विकास के लिए 25 से 300 सें. के नीचे तापमान उपयुक्त होता है। ग्वार एक प्रकाश संवेदनशील फसल है। अतः इस फसल में फूल व फलियों का निर्माण केवल खरीफ के मौसम में ही होता है। अत्यधिक बरसात व ठंड को यह सहन नहीं कर पाती है। जिन क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी पड़ती है परंतु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है वहां पर ग्वार की खेती से भरपूर पैदावार ली जा सकती है। शुष्क और अर्ध-शुष्क दोनों दशाओं में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।
भूमि
ग्वार की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। यह फसल सिंचित एवं असिंचित दोनों क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। हल्की क्षारीय व लवणीय भूमि जिसका पीएच मान 7.5 से 8.5 तक हो, वहां पर ग्वार की खेती आसानी से की जा सकती है।
खेत की तैयारी
ग्वार की भरपूर पैदावार के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो जुताइयां ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर से करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं जिससे मृदा नमी संरक्षित रहे। जुताई जून के द्वितीय पखवाड़े में करनी चाहिए। इस प्रकार तैयार खेत में खरपतवार कम पनपते हैं। साथ ही वर्षा जल का अधिक संचय होता है। इसी समय पूर्णतया सड़ी हुई गोबर की खाद संपूर्ण खेत में बिखेर कर अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें।
बुवाई का समय
ग्रीष्मकालीन फसल की बुवाई के लिए मध्य फरवरी से मार्च का प्रथम पखवाड़ा उपयुक्त समय है। देरी से बुवाई करने पर पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जबकि वर्षा ऋतु की फसल की बुवाई के लिए जून-जुलाई उपयुक्त समय है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जुलाई में वर्षा आगमन के साथ ही ग्वार की बुवाई कर देनी चाहिए। ग्वार की बुवाई मध्य अगस्त तक की जा सकती है। प्रकाश असंवेदनशील प्रजातियों के विकास और उनकी उपलब्धता के कारण ग्वार की खेती जायद में भी आसानी से की जा सकती है।
बीज की मात्रा
ग्वार के बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि उसे किस उद्देश्य के लिए उगाया जा रहा है। दाने एवं हरी फलियों के लिए 15 से 18 किग्रा, हरी खाद वाली फसल के लिए 30 से 35 किग्रा तथा चारे वाली फसल के लिए 35 से 40 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। खरीफ ऋतु की अपेक्षा ग्रीष्मकालीन फसल में बीज अधिक लगता है।
बीजोपचार
बीजों के अच्छे जमाव व फसल को रोगमुक्त रखने के लिए ग्वार के बीजों को सबसे पहले 2.0 ग्राम बाविस्टिन या कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा से प्रति किलो बीज की दर से अवश्य उपचारित करें। पौधों की जड़ों में गांठों का अधिक निर्माण हो व वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में अधिक यौगिकीकरण हो, इसके लिए बीजों को राइजोबियम नामक जीवाणु उर्वरक से उपचारित करना बहुत जरूरी है। बीज उपचार बुवाई के ठीक पहले कर लेना चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के 200 ग्राम के दो पैकेट पर्याप्त होते हैं। किसान भाई ध्यान रखें कि यदि उन्होंने बीज किसी विश्वसनीय संस्था से खरीदा है तो उसे फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं है। यह बीज पहले से ही उपचारित होता है।
बुवाई की विधि
अधिक पैदावार के लिए ग्वार की बुवाई हमेशा पंक्तियों में करें। बुवाई हल के कुड़ों में अथवा सीडड्रिल की सहायता से करें। कुड़ों में पौधों की जड़ों के पास वर्षा जल भी अधिक संग्रहित होता है। इससे पैदावार अधिक मिलती है और फसल की देखभाल करने में भी आसानी रहती है। भरपूर पैदावार हेतु पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंमी आदर्श मानी जाती है। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे बीज का जमाव शीघ्र व पर्याप्त मात्रा में हो सके। बुवाई पूरब-पश्चिम दिशाओं में करें जिससे सभी पौधों को सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में और लम्बी अवधि तक मिलता रहे। किसान भाइयों को सलाह दी जाती है कि बुवाई कभी भी छिटकवां विधि से न करें। इसमें समय तो कम लगता है परंतु उपज काफी कम मिलती है। जिन क्षेत्रों में जल निकास की समस्या रहती है वहां जलभराव होने पर पानी को तुरंत खेत से बाहर निकाल दें। सघन विधि की दशा में अंकुरण के 10-12 दिन बाद अतिरिक्त व कमजोर पौधों को निकाल देना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
दलहनी फसल होने के कारण सामान्यतः ग्वार की फसल में उर्वरकों की कम आवश्यकता पड़ती है। ग्वार का बेहतर उत्पादन लेने के लिए 20-25 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा सल्फर की सिफारिश वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। सभी उर्वरक बुवाई के समय या अंतिम जुताई के समय देने चाहिए। फास्फोरस के प्रयोग से न केवल चारे की उपज में वृद्धि होती है बल्कि उसकी पौष्टिकता भी बढ़ती है। बहुत हल्की मृदाओं में जहां पर मिट्टी की जांच संभव न हो वहां पर 300-400 कुंतल गोबर की सड़ी खाद का प्रयोग खेत में अंतिम जुताई से पहले समान रूप से बिखेर कर करें। इससे मृदा में नमी संग्रहण व जीवांश की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलती है। इसके अलावा ग्वार के दाने व फली की गुणवत्ता बढ़ने के साथ ही मृदा की भौतिक दशा में भी सुधार होता है।
सिंचाई प्रबंधन
सामान्यतः खरीफ ऋतु में बोयी फसल में सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा सामान्य व समय पर न होने पर एक या दो सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। फलियों के लिए उगायी गयी फसल में सिंचाई का विशेष महत्व है। फूल आने और फलियां बनने के समय मृदा में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा फलियों की पैदावार व गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शुष्क व अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगायी जाने वाली ग्वार की फसल में समय पर वर्षा न हो तो आवश्यकतानुसार एक-दो सिंचाई देकर किसान भाई अधिक उत्पादन ले सकते हैं। ग्रीष्मकालीन फसल में आवश्यकतानुसार 6-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
ग्वार की फसल को खरपतवारों से पूर्णतया मुक्त रखना चाहिए। सामान्यतः फसल बुवाई के 10-12 दिन बाद कई तरह के खरपतवार निकल आते हैं जिनमें मौथा, जंगली जूट, जंगली चरी (बरू) व दूब-घास प्रमुख हैं। ये खरपतवार पोषक तत्वों, नमी, सूर्य का प्रकाश व स्थान के लिए फसल से प्रतिस्पर्धा करते हैं। परिणामस्वरूप पौधे का विकास व वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है। अतः ग्वार की फसल में समय-समय पर निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को निकालते रहना चाहिए। इससे पौधें की जड़ों का विकास भी अच्छा होता है तथा जड़ों में वायु संचार भी बढ़ता है। दाने वाली फसल में बेसालिन 1.0 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बुवाई से पूर्व मृदा की ऊपरी 8 से 10 सेंमी सतह में छिड़काव कर खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके अलावा पेंडिमिथेलीन का 3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के दो दिन बाद छिड़काव करना चाहिए। इसके लिए 700 से 800 लीटर पानी में बना घोल एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है।
अन्तः फसल प्रणाली
ग्वार की फसल अन्तः फसल प्रणाली के लिए बहुत उपयोगी है। इसे खाद्यान्न फसलों जैसे ज्वार, बाजरा व मक्का के साथ अन्तः फसल के रूप में आसानी से सम्मिलित किया जा सकता है। इसके अलावा बागवानी फसलों जैसे आंवला, बेर व बेल की दो पंक्तियों के बीच खाली पड़ी जगह पर ग्वार की अन्तः फसल आसानी से ली जा सकती है। इससे न केवल प्रति इकाई क्षेत्र अतिरिक्त आय प्राप्त होती है बल्कि ग्वार दलहनी फसल होने के कारण मृदा उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक है जिसका खाद्यान्न व बागवानी वृक्षों की वृद्धि और विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
कीट एवं रोग नियंत्रण
ग्वार की फसल में कीटों की समस्या कम रहती है। ग्वार में लगने वाले कीटों में एफिड़ (माहू), पत्ती छेदक, सफेद मक्खी, लीफ हापर या जैसिड़ व केटरपिलर प्रमुख हैं। भरपूर उत्पादन हेतु इन कीटों को नियंत्रित करना बहुत जरूरी है। एफिड, जैसिड़ व केटरपिलर की रोकथाम हेतु एंडोसल्फान 4 प्रतिशत पाउडर का 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए या इंडोसल्फान 35 ईसी की 0.07 प्रतिशत की दर से फसल पर 10 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव उपयोगी पाए गए हैं। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोरपिड़ 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा जहां पानी की सुविधा हो, मिथाइल पैराथियान 50 प्रतिशत 750 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों की मृदाओं में भूमिगत कीटों विशेषकर दीमक का अधिक प्रकोप होता है। इसकी रोकथाम हेतु क्लोरपायरीफास या एंडोसल्फान 4 प्रतिशत या क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत पूर्ण 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई पूर्व मिट्टी में अच्छी तरह से मिला दें।
ग्वार की फसल के प्रमुख रोगों में जीवाणुज अंगमारी, ऑल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी, जड़ गलन, चूर्णिल आसिता व ऐन्थ्रेक्नोज है। इनमें जीवाणुज अंगमारी ग्वार में लगने वाली भयंकर बीमारी है। बीमारी के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों की ऊपरी सतह पर बड़े-बड़े धब्बे के रूप में प्रकट होते हैं। ये धब्बे शीघ्र ही संपूर्ण पत्तियों को ढ़क लेते हैं। अतः पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव हेतु रोगरोधी किस्में बोएं। बुवाई से पूर्व बीज उपचार अवश्य करें। इसके लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 100-250 पीपीएम (100-250 मिलीग्राम प्रति लीटर) घोल का प्रयोग करना चाहिए। ऑल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी वर्षा होने के समय फसल को नुकसान पहुंचाती है। यह एक फफूंदजनित बीमारी है। इसमें पत्तियों के किनारों पर गहरे भूरे, गोलाकार व अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। परिणामस्वरूप पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और अन्त्ततः झड़ जाती हैं। इससे बचाव हेतु डाइथेन जेड-78 का 0.20 प्रतिशत का छिड़काव रोग के लक्षण प्रकट होने पर 15 दिन के अंतराल पर दो या तीन बार करें। ऐन्थ्रेक्नोज भी एक फफूंदीजनित रोग है। इसमें पौधों के तनों, पर्णवृन्तों और पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं। इससे बचाव हेतु डायथेन जेड-78 का 0.20 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। जड़ गलन रोग से बचाव हेतु वीटावैक्स या बाविस्टीन की दो ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने के बाद बुवाई करनी चाहिए। चूर्णिल आसिता बीमारी की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक (0.3 प्रतिशत) का एक किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 15 दिनों के अंतराल पर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।
कटाई एवं मड़ाई
सब्जी वाली फसल में फलियों को मुलायम अवस्था में ही हाथों से तोड़ लेना चाहिए। सब्जी वाली फसल में 55 से 70 दिनों बाद फलियां तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। नर्म, कच्ची व हरी फलियों की तुड़ाई पांच दिनों के अंतराल पर नियमित रूप से करते रहना चाहिए। देरी से तुड़ाई करने पर फलियां सख्त हो जाती हैं जिससे इनकी गुणवत्ता में कमी आ जाती है। साथ ही बाजार भाव भी कम मिलता है। जहां तक हो सके फलियों की तुड़ाई सुबह जल्दी करनी चाहिए। चारे के लिए बोयी गयी फसल 60 से 80 दिनों में फूल आने के समय या फलियां आने की अवस्था पर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं। यदि फसल दानों के लिए बोयी गयी है तो पूर्ण रूप से पकने पर ही फसल की कटाई करें। कटाई हंसिये/दरांती की मदद से करके उनको बंडलों में बांधकर सूखने के लिए धूप में छोड़ दें। इसके 7-10 दिन बाद मड़ाई कर दानों को अलग कर लेते हैं।
उपज
उन्नत सस्य प्रौद्योगिकियां अपनाकर किसान भाई ग्वार की फसल से 250-300 क्विंटल हरा चारा, 12-18 क्विंटल दाना और 70 से 120 क्विंटल हरी फलियां प्रति हेक्टेयर प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि ग्वार फली की उपज मौसम, प्रजाति, मृदा के प्रकार और सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर करती है।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।)
ई-मेलः v.kumamovod@yahoo.com