जैविक खेती

Submitted by Hindi on Sat, 03/10/2018 - 13:16
Source
ग्राविस, जोधपुर, 2006

 

जैविक खेती ऐसी कृषि कार्यशाला है जो कि रसायनों के ऊपर निर्भरता को कम करती है। रासायनिक खेती की अपेक्षा सस्ती है क्योंकि इस पद्धति के अन्तर्गत वनस्पति व जीवों के द्वारा भूमि व भूमि तत्वों का उपयोग किया जाता है व भूमि के वनस्पति, प्राणी व अन्य जैविक वस्तुओं द्वारा बनी खाद भूमि को लौटाई जाती है। अब भविष्य में देश की निर्बाध गति से बढ़ती जनसंख्या का पेट भर भोजन उपलब्ध कराने के लिये खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में स्थायित्व लाने के लिये सिमटते प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को अधिक तर्क संगत बनाने के साथ-साथ उनकी उपयोग क्षमता में भी सुधार लाना होगा।

जैविक खेती प्राचीन भारतीय कृषि प्रणाली है और यह आधुनिक रसायन प्रधान युग में भी प्रासंगिक है। ‘पर्यावरण में स्वच्छता तथा प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखकर मृदा, जल और वायु को प्रदूषित किये बिना, भूमि को स्वस्थ एवं सक्रिय रखकर दीर्घकालिक उत्पादन प्राप्त करने को ही जैविक खेती या प्राकृतिक खेती कहते है।’ इस पद्धति में उर्वरकों व रसायनों का कम-से-कम उपयोग किया जाता है, इसलिये यह सस्ती और टिकाऊ है तथा सबसे महत्त्वपूर्ण पर्यावरण के अनुकूल है।

मृदा भौतिक माध्यम न होकर जैविक माध्यम है जिसकी सुरक्षा परमावश्यक है, टिकाऊ खेती से तात्पर्य प्राकृतिक एवं कृत्रिम वृद्धि निवेशों के ऐसे सम्भावित प्रबन्ध से है जिसके तहत प्राकृतिक स्रोतों की गुणवत्ता, वर्तमान व भविष्य में उत्पादकता में वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण के सन्तुलन को बनाए रखते हुए किया जाये। ऐसी तकनीकें जो लम्बे एवं कम समय तक दोनों दशाओं में अधिक सुदृढ़ एवं पर्यावरण सम्मत हो, वही टिकाऊ हो सकती है। प्राकृतिक स्रोत केवल भोजन, चारा, कपड़ा, ईंधन आदि ही नहीं देते बल्कि ये पर्यावरण सन्तुलन भी विभिन्न क्रियाओं द्वारा बनाये रखते हैं।

जैविक खेती ऐसी कृषि कार्यशाला है जो कि रसायनों के ऊपर निर्भरता को कम करती है। रासायनिक खेती की अपेक्षा सस्ती है क्योंकि इस पद्धति के अन्तर्गत वनस्पति व जीवों के द्वारा भूमि व भूमि तत्वों का उपयोग किया जाता है व भूमि के वनस्पति, प्राणी व अन्य जैविक वस्तुओं द्वारा बनी खाद भूमि को लौटाई जाती है।

अब भविष्य में देश की निर्बाध गति से बढ़ती जनसंख्या का पेट भर भोजन उपलब्ध कराने के लिये खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में स्थायित्व लाने के लिये सिमटते प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को अधिक तर्क संगत बनाने के साथ-साथ उनकी उपयोग क्षमता में भी सुधार लाना होगा। जैविक व कृषि पद्धतियों का प्रयोग कर खरपतवार, कीट व रोगों का नियंत्रण करना ताकि भूमि में पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ मृदाक्षरण व जल ह्रास को रोकना टिकाऊ खेती या प्राकृतिक खेती ये एक दूसरे में पर्याय हैं। मृदा की उर्वरा शक्ति कार्बनिक पदार्थों के बेहतर प्रबन्धन से बढ़ाई जा सकती है।

विश्व व्यापार समझौते के अनुसार कृषक अब उन्हीं उत्पादों का निर्यात कर सकेंगे जो किसी प्रकार से प्रदूषित नही हो एवं केवल जैविक विधियों से ही उत्पादित हो और जो मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव नही डालें। इस प्रकार जैविक खेती से जहाँ ग्रामीण स्तर की स्वच्छता बढ़ाई जा सकती है, वहीं खेतीहर मजदूरों, लघु, सीमान्त कृषकों की स्वमेव आमदनी बढ़ेगी तथा बाहरी आदान सामग्री खाद, बीज, दवा नहीं खरीदने पर लागत में कमी और मुनाफा अधिक होगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा।

 

जैविक खेती के गुण


1. सरल, सस्ती, स्वावलम्बी और स्थायी है।
2. मृदा संरचना में अद्भुत सुधारक पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाकर पौधों की सन्तुलित पैदावार एवं भूमि की निरन्तरता बनाए रखती है।
3. प्रदूषण विहीन भूमि, जल, वायु एवं पर्यावरण से जन स्वास्थ्य को रोग-मुक्त रखती है।
4. ग्राम स्वावलम्बन पर आधारित स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा मिलेगा।
5. इसे अपनाना सम्भव है व उसकी आज के सन्दर्भ में आवश्यकता निर्विवाद है।
6. यह कृषि उत्पादन की वह कार्यशाला है जिसमें कई उपायों के मध्य समन्वय स्थापित किया जाता है।
7. इसे किसान भाई आसानी से अपना सकते हैं।
8. यह परम्परागत प्राचीन खेती है जिसे मध्य युग की कृषि पद्धति ने बिगाड़ दिया है जिसे पुनः स्थापित किया जाना है।
9. भूमि को बंजर होने से रोकना है।
10. इसमें रसायनों का उपयोग कम-से-कम होता है।
11. पर्यावरण पारिस्थितिकीय मित्र भी है।
12. जैविक खेती से वर्षा आधारित खेती में विपुल उत्पादन सम्भव है।
13. भारत की खाद्य समस्या का समाधान जैव पौध पोषण को मुख्य आधार बनाकर सम्भव है।
14. वर्षा आधारित व सिंचित कृषि में उत्पादकता बढ़ाना सम्भव है। यदि उत्पादन तकनीकी में परिवर्तन, जो कम खर्च व सदाबहार टिकाऊ तकनीकी पर आधारित है, को शीघ्रता से अपनाया जा सकता है।
15. कृषि की प्रत्येक योजना का लक्ष्य कृषि उत्पादन को स्थायित्व देने में जैविक खेती की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
16. इस प्रणाली में उत्पादन लागत कम की जा सकती है और उत्पाद की गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है जिससे हमारा देश वैश्वीकरण के दौर में विश्व बाजार में प्रतियोगिता कर सकता है।

जैविक खाद


पादप अवशेष, पशु और मानव अवशिष्ट पदार्थ से बनी खादों को जैविक खाद कहते हैं। स्थूल कार्बनिक खादों में गोबर की खाद, कम्पोस्ट और हरी खाद व सान्द्रित कार्बनिक खाद में खलियाँ, पशु जनित व मछली की खादें आती हैं। जैव उर्वरकों राइजोबियम नीली हरी शैवाल व फास्फोटिक बैक्टीरिया आते हैं।

जैविक खादों से पोषक तत्व प्रबन्धन का प्रमुख उद्देश्य


1. उर्वरकों की उपयोग क्षमता में वृद्धि करना।
2. फसलों की उत्पादकता बढ़ाना।
3. मृदा उर्वरता को बढ़ाना एवं उसे स्थिर रखना।
4. किसानों की सामाजिक तथा आर्थिक दशा को बदलना।
5. पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाना।

जैविक खादों का मृदा गुणों पर प्रभाव

मृदा के भौतिक गुणों पर प्रभाव


1. मृदा में जावांश स्तर में वृद्धि के कारण भुरभुरापन एवं वायु संचार में वृद्धि होती है।
2. मृदा की जलधारण एवं जल सोखने की क्षमता में सुधार (35-40 प्रतिशत) होता है।
3. मृदा ताप को भी नियंत्रित रखती है।
4. जडों का विकास अच्छा होने के कारण मृदा क्षरण की सम्भावना कम होती है।
5. मृदा दानेदार बनती है।
6. मृदा से जल ह्रास कम होता है।
7. मिट्टी की सुघटयता (Plasicity) तथा संसंजन (Cohesion) को घटाना है।
8. भू-क्षरण कम होता है।
9. चिकनी काली मिट्टी (Friable) भुरभुरा बनती है।

मृदा के रासायनिक गुणों पर प्रभाव


1. प्रमुख पोषक तत्वों (प्राथमिक पोषक तत्वों) की पूर्ति के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों, हारमोंस एवं एंटीबायोटिक्स की मात्रा भी प्राप्त होती है जो विशेष लाभकारी है।
2. ताजे कार्बनिक पदार्थ सड़ने पर साइट्रेट आक्सलेट ट्राइप्लेट व लैक्ट्रेट पैदा करते हैं। जो लौह व एल्युमीनियम को बाँधकर फॉस्फेट की उपलब्धता को बढ़ाते हैं।
3. पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ने के कारण कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है।
4. मृदा में अनुपलब्ध तत्वों की उपलब्धता जीवांश में वृद्धि के कारण अपने आप बढ़ जाती है।
5. मिट्टी की उभय प्रतिरोधी क्षमता (Buffering Capacity) बढ़ती है।
6. अमोनियम आयन को अपने साथ संयुग्मित कर अमोनियम के निक्षालन (Leaching) को कम होता है।
7. मृदा के लवणीयता एवं क्षारीयता में सुधार होता है।
8. मृदा में घनापन अतिशोषण क्षमता (Cation adsorption Capacity) बढ़ती है।
9. मृदा में पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम को विनिमय योग्य रूप में संचित रखती है।
10. इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश व गंधक कार्बनिक रूपों में पाये जाते है।
11. इनके अपघटन से जो अम्ल उत्पन्न होते है, वे खनिजों को घोलकर पोषक तत्वों को मुक्त करते हैं।

मृदा के जैविक गुणों पर प्रभाव


1. मृदा में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
2. लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता में वृद्धि होती है।
3. सूक्ष्म जीवों के लिये भोजन व ऊर्जा प्रदान करती है। ये सूक्ष्मजीव अमोनीकरण, नाइट्रीकरण, नाइट्रोजन यौगिकीकरण आदि से योग सम्पन्न करते हैं।
4. जीवाणु जटिल पदार्थों को विच्छेदित कर आयनिक रूप में पौधों को उपलब्ध कराते हैं।
5. अनेक जीवाणु मृदा से पोषक तत्व लेकर पौधों को प्रदान करते हैं।

जैविक खादों से पोषक तत्व प्रबन्धन के प्रमुख घटक

जैविक खादों से पोषक तत्व प्रबन्धन


गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, गोबर गैस की खाद, खलियाँ की खाद, तालाब की मिट्टी की खाद, मुर्गी की खाद व पशु जनित खाद।

हरी खाद से पोषक तत्व प्रबन्धन


हरी खाद व फसल अवशेष प्रबन्धन।

जीवाणु उर्वरकों से पोषक तत्व प्रबन्धन


राईजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, नील हरित काई, एजोला, स्फुिरघोलक, सूक्ष्म जीवाणु, माइकोराइजा।

दलहन फसलों से पोषक तत्व प्रबन्धन


फसल चक्रों में दलहनों का समावेश अन्तरवर्ती खेती में दलहनों का समावेशन।

जैविक खाद प्रबन्धन


जैविक खाद जैसे गोबर की खाद, गोबर गैस की खाद, खलियाँ, प्रेसमड, शीरा व पशुजनित खाद के बारे में विस्तृत विवरण यहाँ दिया जा रहा है। अन्य जैविक खाद जैसे कम्पोस्ट, वर्मीकमोस्ट, हरी खाद तथा जैव उर्वरकों के बारे में विस्तृत विवरण में दिया गया है।

1. गोबर की खाद


हमारे प्रदेश में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र में ईंधन की कमी होने के कारण गोबर के कण्डे लाकर जलाते हैं और बहुमूल्य खाद नष्ट कर देते हैं। आज हमारा देश वैज्ञानिक दृष्टि से प्रगतिशील माना जाता है लेकिन गाँव में आज भी किसान बहुमूल्य खाद को आम रास्ता, घर के आसपास एवं खेत की मेड़ पर प्रतिदिन घर के कूडा-करकट व गोबर को खुले वातावरण में इकट्ठा करता है उसकी कोई उपयोगिता नहीं की जाती है। परिणामस्वरूप कुछ खाद तेज हवा से व जानवर निकलने से इधर-उधर बिखरकर नष्ट हो जाता है। खुले में पड़े रहने से तेज गर्मी के कारण पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। वर्षा होने से जल में पोषक तत्व घुलकर बह जाते हैं। इस खुले पड़े खाद से वातावरण दूषित होता है और उसमें कई तरह के रोग भी फैलते हैं। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसान गोबर की खाद का उपयोग कैसे व कब करें से अनभिज्ञ है। किसान गर्मी के महीनों में गोबर की खाद को खेत में छोटे-छोटे ढेर के रूप में खेत में डाल देते हैं। लेकिन इस विधि से खाद का उपयोग करने से कोई लाभ नहीं होता है, क्योंकि तेज गर्मी के कारण पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। गोबर की खाद में 50 प्रतिशत अंश पशुमूत्र से प्राप्त होता है लेकिन कोई भी किसान पशुमूत्र को इकट्ठा कर खाद के गड्ढे तक नहीं डालते। पशुओं के नीचे मिट्टी, भूसा, गन्ने की पत्ती व धान की पुआल का बिछावन करना चाहिए ओर बिछावन हर दूसरे और तीसरे दिन खाद के गड्ढे में पहुँचाना चाहिए।

खाद बनाने की विधि


किसान भाई गोबर को जमीन के ऊपर ढेर लगाकर इकट्ठा करते हैं और गोबर बनाने की यह विधि वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नही है अतः खाद बनाने के लिये आवश्यकतानुसार गड्ढे किसी ऊँचे स्थान पर खोद लेना चाहिए जहाँ पानी नही भरता हो। गड्ढे की गहराई 1.25 मीटर से अधिक नही रखें क्योंकि विघटन करने वाले जीवाणुओं को अधिक गहराई पर ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है और सड़न प्रक्रिया सुचारू रूप से नहीं चलती है। गड्ढे की लम्बाई-चौड़ाई आवश्यकतानुसार 3x4 मीटर रखना चाहिए। गड्ढे का फर्श पक्का हो तो अच्छा रहता है, इससे पोषक तत्व रिसकर नीचे नहीं जा पाते। गड्ढा तैयार हो जाने पर उसमें मलमूत्र गोबर व बिछावन प्रतिदिन डालते रहना चाहिए। जब गड्डा भरकर भूमि से आधा मीटर ऊँचा हो जाये तो 15 सेमी. मिट्टी की मोटी तह से ढँक देना चाहिए। इस प्रकार 6 महीने में गोबर की खाद बनकर तैयार हो जाएगी। अच्छे गोबर की खाद में नाइट्रोजन (नत्रजन), स्फुर व पोटाश क्रमशः 0.5, 0.25 व 0.5 होती है। गोबर की खाद की गुणवत्ता बढ़ाने हेतु खाद प्रति टन 20 किग्रा फॉस्फोरस मिलाना चाहिए इससे खाद में अमोनिया के रूप में होने वाली हानि कम होगी तथा फॉस्फोरस की उपलब्धता बढ़ेगी।

खाद डालने का समय


खेत में खाद काफी पहले डालने से उसका प्रभाव काफी कम हो जाता है। हवा व तेज धूप द्वारा पोषक तत्व नष्ट हो जाते है। लिचिंग द्वारा पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं और कुछ पोषक तत्व घुलनशील अवस्था में भूमि में स्थिर हो जाते हैं। अतः गोबर की खाद को फसल बोने से लगभग 2 सप्ताह पहले खेत में डालकर मिला देना चाहिए।

खाद की मात्रा


गोबर की खाद की मात्रा खाद की उपलब्धता, मिट्टी की किस्म, फसल, उसकी किस्म, वर्षा, नमी तथा किसान की खाद खरीदने की क्षमता पर निर्भर करती है। साधरणतः 10 टन प्रति एकड़ खाद फसलों के लिये तथा 20 टन प्रति एकड़ खाद सब्जियों के लिये पर्याप्त होती है।

2. घरेलू कचरे से खाद


आपने देखा होगा कि हमारे देश के कस्बों व शहरो में कचरा सफाई व निष्पादन की विकट समस्या है, यदि कचरा सफाई पर एक दिन भी ध्यान नहीं दिया गया तो कचरे के ढेर लग जाते हैं और स्थिति अत्यन्त भयानक होने लगती है क्योंकि कचरे के ढेर पर मक्खियाँ, मच्छर एवं अन्य हानिकारक कीटाणु पनपने लगते हैं जो रोग फैलाने में सहायक होते हैं। पेयजल भी प्रदूषित होने लगता है या सम्भावना बनी रहती है। गाँवों की स्थिति तो और भी खराब है, क्योंकि यहाँ पर कचरे के साथ पशु के मलमूत्र भी रास्ते व गलियों में फैले रहते हैं, सब्जियों व फलों के छिलके, अण्डों के छिलके, आम की गुठलियाँ, रसोई की जूठन, बासी रोटी, चावल, दाल, उबली चाय की पत्ती, आटे का छना हुआ चोकर, घर के बगीचे व आँगनबाड़ी से पेड़-पौधों की सड़ी पत्तियाँ, गोबर व पशु मूत्र आदि है। इस प्रकार के कचरों को जीवांश कचरा कहते हैं। निम्नलिखित प्रक्रियाओं द्वारा वर्मी (केंचुआ) खाद तैयार कर सकते हैं।

वर्मी कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया


वर्मी कम्पोस्ट बनाने हेतु मुख्य सामग्री घास, पत्तियाँ, रसोईघर की जूठन, सब्जियों के छिलके व गोबर हैं। घर के पिछवाड़े में ईंट-चूना की एक टंकी बनाएँ स्थान के अनुसार टंकी की लम्बाई 2 मीटर, ऊँचाई व चौड़ाई 1 मीटर रखें। टंकी के पेंदे में ईंट के टुकड़े, मध्यम आकार की मिट्टी एवं बजरी की 5 सेमी तह बनाएँ। यह जल निकास में सहायक होती है। इसके ऊपर 10 सेमी की दोमट मिट्टी की तह बिछाएँ इसके बाद ऊपर 5 किलो मिट्टी को पानी में घोलकर छिड़के। अपने क्षेत्र में उपलब्ध स्रोतों से 400-500 केंचुए इकट्ठे करके क्यारियों मे रख दें। बाजार में वर्मीकल्चर केंचुए भी उपलब्ध हैं, इसका भी उपयोग किया जा सकता है। ऊपर से भूसा, पेड़ों की पत्तियाँ, सब्जियों के छिलके, रसोईघर की जूठन इत्यादि बिछा दें। अब इसके ऊपर थोड़ा सा गोबर का पानी छिड़क कर इसे बड़े पत्ती या अनुपयोगी कागज, गत्ते आदि से ढँक दें। आवश्यकतानुसार समय-समय पर पानी का छिड़काव करें। एक माह पश्चात गत्ते, अखबार, हटाकर पुनः उपलब्ध जीवांश कचरे की 5-6 सेमी की तह एक दो दिन के अन्तराल से बिछाते रहें। प्रत्येक बिछावन के साथ उसे जल से सीचें। एक माह में पोषण पदार्थ जैसे- नत्रजन, स्फुर, पोटाश अन्य पोषक तत्व, वृद्धिवर्धक तत्व व रोग रोधक गुणों वाला वर्मीकम्पोस्ट उपलब्ध होता है। इस प्रकार की 2 मीटर लम्बी टंकी से दो माह में लगभग 65 किग्रा कम्पोस्ट उपलब्ध होता है। इस खाद को हमारे घर के बगीचे में, सब्जियों में, फल वृक्ष में, फूल के पौधों में, गमलों में या सजावट के पत्तीदार पौधों के लिये उपयोग कर सकते हैं। पौधों में जहाँ यह खाद देंगे वहाँ खाद के साथ केंचुओं के अंडे भी होंगे जिनसे बाद में केंचुए निकलकर अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं। नमी बनाए रखें और जैव कचरा पौधों की क्यारियों मे देते रहें इससे केंचुए उसे भी खाद में परिवर्तित करते रहेंगे। इस विधि से प्राप्त कम्पोस्ट के उपयोग से फल-फूल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं जो उच्च गुणवत्ता वाले होंगे। वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग से पेड़ पौधों की कीट आदि जैसे हानिकारक कारकों के प्रति प्राकृतिक निरोधकता में वृद्धि होती है, अतः रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च में कटौती के साथ-साथ पौध संरक्षण कार्य हेतु कीट व्याधि रसायनों के उपयोग में भी कटौती सम्भव हो जाती है।

3. गोबर गैस स्लरी की खाद


गोबर गैस संयंत्र एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा स्थूल कार्बनिक अवशिष्टों से ज्वलनशील गैसों के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस गैस संयंत्र में पशुओं के गोबर और अन्य सैल्यूलोज युक्त सामग्रियों को कुछ दिनों के लिये अवायुवीय दशाओं अर्थात ऑक्सीजन के अभाव में सड़ने दिया जाता है। इन दशाओं में मुख्य रूप से मिथेन, हाइड्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड का मिश्रण तैयार होता है। जिसका उपयोग खाना बनाने के लिये ईंधन और अन्य कार्यों के लिये किया जाता है। ऊर्जा प्राप्त करने के उपरान्त बचे अवशिष्ट पदार्थ से पोषक खाद प्राप्त होती है।

बायोगैस संयंत्र में गोबर की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रुपान्तर गैस के रूप में होता है और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रुपान्तर खाद के रूप में होता है। 2 घनमीटर के गैस संयंत्र में जिसमें करीब 50 किलो गोबर प्रतिदिन एवं 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है, उस गोबर से नमीयुक्त करीब 9.2 टन बायोगैस स्लरी का खाद प्राप्त होता है।

यह खाद खेती के लिये अति उत्तम खाद होती है। इसमें नाइट्रोजन 1.5 से 2 प्रतिशत, फास्फोरस 1.0 प्रतिशत एवं पोटाश 1.0 प्रतिशत तक होता है। बायोगैस संयंत्र से जब स्लरी के रूप में खाद बाहर आता है तब जितना नाइट्रोजन गोबर में होता है उतना ही नाइट्रोजन स्लरी में होता है, परन्तु संयंत्र में पाचन क्रिया के दौरान कार्बन का रुपान्तर गैसों में होने से कार्बन की मात्रा कम होने से कार्बन नाइट्रोजन अनुपात कम हो जाता है व इससे नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ी हुई प्रतीत होती है।

बायोगैस संयंत्र से निकली पतली स्लरी में 20 प्रतिशत नाइट्रोजन, अमोनिया के रूप में होता है। अतः यदि इसका तुरन्त उपयोग खेत में नालियाँ बनाकर अथवा सिंचाई के पानी में मिलाकर खेत में छोड़कर किया जाये तो इसका लाभ रासायनिक खाद की तरह से फसल पर तुरन्त होता है और उत्पादन में 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़त हो सकती है। स्लरी खाद को सुखाने के बाद उसमें से नाइट्रोजन का कुछ भाग हवा में उड़ जाता है। यह खाद सिंचाई रहित खेती में एक हेक्टेयर में करीब 5 टन व सिंचाई वाली खेती में 10 टन प्रति हेक्टेयर मात्रा में डाला जाता है। बायोगैस स्लरी खाद में भी नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश इन मुख्य तत्वों के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व एवं ह्ययूमस होता है जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होता है, जलधारण क्षमता बढ़ती है और सूक्ष्म जीवाणु बढ़ते हैं। इस खाद के उपयोग से भी अन्य जैविक खाद की तरह 3 वर्षों तक अन्य उपयोगी तत्व पसलों को उपलब्ध होते रहते हैं व एक बार खाद देने से 3 वर्ष तक अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है।

स्लरी का संग्रहण


यदि गोबर गैस संयंत्र घर के पास व खेत से दूर है तब पतली स्लरी का संग्रहण करने के लिये बहुत जगह लगती है व पतली स्लरी का स्थानान्तरण भी कठिन होता है ऐसी अवस्था में स्लरी को सुखाना अत्यन्त आवश्यक है। इसमें बायोगैस को निकास कक्ष से जोड़कर 2 घनमीटर के संयंत्र के लिये 1.65 मीटर X 0.6 मीटर X 0.5 मीटर के दो सीमेंट के टैंक बनाए जाते हैं इसके दूसरी तरफ छना हुआ पानी एकत्र करने हेतु एक पक्का गड्ढा बनाया जाता है। फिल्ट्रेशन टैंक के नीचे 15 सेमी. मोटाई का कचरा, कूड़ा-कचरा, हरा-कचरा इत्यादि डाला जाता है। इस पर निकास कक्ष से जब द्रव रूप की स्लरी गिरती है तब स्लरी का पानी कचरे के तह से छनकर नीचे गड्ढे में एकत्रित हो जाता है। इस तरह एकत्रित पानी बायोगैस संयंत्र में गोबर की भराई के समय डाला जाता है उसका 2/3 हिस्सा गड्ढे में पुनः एकत्रित हो जाता है। इसे गोबर के साथ मिलाकर पुनः संयंत्र में डालने से गैस उत्पादन बढ़ जाता है इसके अलावा इसमें सभी पोषक तत्व घुलनशील अवस्था में होते हैं। अतः इसका छिड़काव पौधों पर करने से पौधों का विकास अच्छा होता है, कीड़े मरते हैं एवं फसल में वृद्धि होती है। करीब 15-20 दिन में पहला टैंक भर जाता है तब इस टैंक को ढँककर स्लरी का निकास दूसरे टैंक में खोल दिया जाता है। जब तक दूसरा टैंक स्लरी से भरता है तब पहले टैंक में स्लरी सूख जाती है व 25-30 प्रतिशत नमी वाला खाद टैंक से बाहर निकाल लिया जाता है। इसका भण्डारण अलग से गड्ढे में किया जाता है अथवा इसको बैलगाड़ी में भरकर खेत तक पहुँचाना आसान होता है।

फिल्ट्रेशन टैंक की मदद से बायोगैस की स्लरी का अधिक संग्रहण किया जा सकता है व फिल्ट्रेट पानी के बाहर निकलने व उसका संयंत्र में पुनः उपयोग करने से पानी की भी बचत होती है।

इस प्रकार बायोगैस संयंत्र से बायोगैस द्वारा ईंधन की समस्या का समाधान हो ही जाता है। साथ में स्लरी के रूप में उत्तम खाद भी खेती के लिये प्राप्त होता है। अतः बायोगैस संयंत्र से किसान को दोबारा लाभ मिलता है।

गोबर गैस के मुख्य लाभ


1. कार्बनिक-अवशिष्टों से बने पोषक तत्वों की हानि से ईंधन गैस और खाद प्राप्त होती है, इससे जलाने की लकड़ी में बचत होती है।
2. संयंत्र पूरी तरह से स्वास्थ्यप्रद और शुद्ध दशाओं में कार्य करता है। इससे गन्दी महक नहीं आती। मक्खियों और मच्छरों का जनन रुक जाता है।
3. कम्पोस्ट विधि की तुलना में इस विधि में नाइट्रोजन की हानि बहुत कम होती है।

4. खलियों के खाद


हमारे देश में अनेक किस्म की खलियाँ तैयार की जाती हैं जिनका इस्तेमाल सान्द्रित कार्बनिक खाद के रूप में किया जाता है। इसमें पोषक तत्व अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। मूँगफली की खली, तिल की खली, सरसों की खली जिसका इस्तेमाल जानवरों के आहार के रूप में किया जाता है। इसका उपयोग खाद के रूप में नहीं करना चाहिए। अन्य अखाद्य खलियाँ जैसे- अरण्डी की खली, नीम की खली, करंज की खली जो कि विषाक्त पदार्थों की उपस्थिति के कारण पशु आहार के लिये उपयुक्त नहीं होती, उनका खाद के रूप में उपयोग लाभदायक रहता है। खलियों में नाइट्रोजन की मात्रा में भिन्नता पाई जाती है।

खलियों में पाई जाने वाली नाइट्रोजन का 70-80 प्रतिशत मात्रा पौधों को शीघ्र प्राप्त होता है किन्तु इन्हें फसल की बुआई के 15-25 दिन पहले उपयोग करना चाहिए। उपयोग करने से पूर्व इन्हें अच्छी तरह पाउडर के रूप में बना लेना चाहिए, ताकि इनका एक साथ इस्तेमाल किया जा सके। लम्बे समय की फसल जैसे गन्ना में इनका उपयोग खड़ी फसल में भी कर सकते हैं। सामान्य तौर पर 10-30 क्वि./हे. खलियों का उपयोग कर सकते हैं। वैसे तो खलियों की मात्रा फसल, भूमि का प्रकार, जलवायु तथा खली की उपलब्धता पर निर्भर करती है।

5. मुर्गी की खाद


मुर्गी की खाद मे 1/3 भाग बीट, 1/3 भाग दाना, भूसा व पेशाब आदि का मिश्रण होता है, उसमें 1.1 प्रतिशत नत्रजन, 1.5 प्रतिशत स्फुर व 1.6 प्रतिशत पोटाश तत्व के अतिरिक्त अन्य आवश्यक तत्व कैल्शियम, मैग्नीशियम, आयरन व सोडियम भी पाये जाते हैं। इस खाद से पौधों में रोगरोधी क्षमता में वृद्धि होती है। 100 अंडे देने वाली मुर्गियों से एक वर्ष में 4 टन मुर्गी खाद प्राप्त होती है, जबकि मांस हेतु 100 मुर्गियों से 1 वर्ष में 1 टन खाद प्राप्त होती है। उपयोग के समय मृदा में पर्याप्त नमी हो व अन्य जीवांश खादों के साथ मिलाकर 1.5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

6. पशुजनित खादें


पशु जनित उत्पाद का खाद के रूप में भी इस्तेमाल होता है। इसमें पशु कंकाल से तैयार खाद या भूचड़खाने से प्राप्त पदार्थ जैसे- शुष्क रक्त, मांस की खाल, सींग व खुर की खाद आदि सर्वाधिक प्रचलित है। शुष्क रक्त या रक्त की खाद में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है और यह शीघ्र कारगर होती है और सभी फसलों पर लाभकारी होती है। इनका उपयोग खलियों की भाँति ही करना चाहिए। मछली भोजन के रूप में पाई जाती है। नाइट्रोजन के अलावा इसमें एक अच्छे अनुपात में फॉस्फोरस भी पाया जाता है। मछली की खाद से पोषक तत्वों की पूर्ति शीघ्र होती है और इनका उपयोग सभी फसलों में किया जा सकता है। पक्षियों द्वारा विसर्जित मल-मूत्र, मैला आदि पशु और मानव जनित अवशिष्ट पदार्थों की श्रेणी में आते हैं।

7. तालाब की सड़ी मिट्टी की खाद


पुराने तालाब की सड़ी मिट्टी का प्रयोग जीवांश खाद के स्रोत के रूप में किया जा सकता है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ उर्वरता में भी सुधार आता है। वर्षा ऋतु में शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों की सभी भूमियों से जल बहकर तालाबों में इकट्ठा होता है। पानी के साथ-साथ मल-मूत्र, खेतों के उर्वर अंश, पशु तथा पौधों के अवशेष भी तालाबों में एकत्रित होते रहते हैं। जब पानी कुछ स्थिर हो जाता है, तो घुलित मिट्टी आदि व अन्य पदार्थ नीचे पेंदी में बैठ जाते हैं। पेंदी में बैठी ऐसी मिट्टी को तालाब मिट्टी खाद अथवा टैंकेज कहते हैं। तालाबों की सतह की 12 इंच मोटी मिट्टी अधिक उर्वरक होती है। इस मिट्टी में 1.0 से 4.0 प्रतिशत तक नमी पाई जाती है तथा स्फुर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। तालाब की मिट्टी की खाद का खेत में 25-30 टन प्रति हेक्टेयर उपयोग किया जा सकता है।