कृषि समस्याएँ : प्रयास एवं सुझाव

Submitted by Hindi on Mon, 03/06/2017 - 13:26
Source
योजना, 16-28 फरवरी 1991

हम यही कर सकते हैं कि कृषि विकास एवं ग्राम्य समस्याओं को क्षणिक मानवीय लिप्सा की भट्ठी में झोंकने वाले हाथों को मजबूती से रोका जाए। अन्यथा ‘भारत माँ ग्राम्यवासिनी’ की भावना का तो नाम मिटेगा ही साथ-साथ हरे आंचल की तरह मानव अस्तित्व भी धुएँ में उड़ जाएगा। इसमें हम सभी की परोक्ष एवं प्रत्यक्ष भूमिका अपेक्षित है।

किसी भी देश के विकास के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण बात वहाँ की मौलिक पूँजी होती है। मौलिक पूँजी का अर्थ है देश के प्राकृतिक संसाधनों द्वारा प्रदत्त उपहार। कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की मौलिक पूँजी है- कृषि उत्पाद। भारत की 1/3 जनसंख्या का आधार कृषि है। यही कारण है कि औद्योगीकरण के बढ़ते कदम में भी घरेलू उत्पाद में 30 प्रतिशत योगदान कृषि का ही है। पिछले 43 वर्षों में इस क्षेत्र में अत्यधिक विकास हुआ है। जिसके फलस्वरूप अनाज उत्पादन 17.5 करोड़ टन के स्तर तक पहुँच गया है। लेकिन इतना सब होते हुए भी सीमित खनिज स्रोतों के आधार पर खड़े बड़े-बड़े उद्योग लोगों को अधिक आकर्षित कर रहे हैं, जबकि असीमित कृषि स्रोतों से हम अपने हाथ खींच रहे हैं। बहुराष्ट्रीय संगठनों की सम्बद्धता से जहाँ हम अनायास विदेशी पूँजी के हाथों गिरफ्तार होते जा रहे हैं, वहीं कृषि की उपेक्षा कर पुनः उन्हीं देशों का मुँह ताकना पड़ रहा है। अपने खेतों का श्रम व पूँजी दोनों का हस्तान्तरण सम्भवतः कृषि की उपेक्षा का ही दुष्परिणाम है। इसके निम्न कारण हो सकते हैं :

असंतुलित समाज व्यवस्था


शक्ति के आधार पर वर्गान्तरित सामाजिक व्यवस्था अर्थात एक विशेष वर्ग ने प्रत्येक स्थान पर हावी होकर न केवल कृषि भूमि का लगभग 85 प्रतिशत भाग हथिया लिया है, बल्कि लोगों को तुच्छ मजदूरी पर काम करने को भी बाध्य करता है।

निरक्षरता


निरक्षरता एवं अज्ञानता सम्पूर्ण समाज के लिये अभिशाप है। परन्तु ग्रामीण समाज में साधन विहीन जीवनवृत्ति में इसकी भूमिका और भी दुर्भाग्यशाली है। अनेक सीमांत कृषक तथा भूमिधर अज्ञानता एवं निरक्षरता की वजह से आज न केवल भूमिहीन हो गये वरन व्यर्थ की मुकद्दमेबाजी से आर्थिक स्थिरता भी खो चुके हैं। कर्जे में ब्याज की दरें कर्जदार पर पीढ़ी दर पीढ़ी अपना आधिपत्य बनाए रखती हैं। निरक्षरता का नूतन अभिशाप ही है कि सुविधाओं का उपभोग वास्तविक सेवार्थी नहीं कर पा रहा है।

औद्योगीकरण


औद्योगीकरण के कारण श्रम प्रवर्जन की जो प्रवृत्ति फैली है उससे न केवल गाँव वीरान हुए हैं बल्कि ‘श्रमकार’ की अनुपस्थिति में व्यर्थ जनसंख्या भार से कृषि समाज निरन्तर पिछड़ता जा रहा है। काम न करने वाली यह जनसंख्या काम करने वाली जनसंख्या का दोगुना-तिगुना अनाज एवं प्राप्त सुविधाएँ उपभोग करता है और बदले में खेतों की उर्वरता पर ‘परती’ की चादर डालता जाता है, जिससे खेतों की ऊसर बनने की प्रक्रिया तेज होती जाती है। इस प्रक्रिया से आने वाले 50 वर्षों में देश की कृषि योग्य भूमि का 1/4 भाग ऊसर हो जाएगा।

शहरी संस्कृति का प्रभाव


विकास क्रम में सड़कों का जाल बढ़ता गया। आज 80 प्रतिशत गाँव सड़कों से जोड़ दिये गये हैं। इससे जहाँ गाँवों को देश की मुख्य धारा से जोड़ने में सफलता मिली, वहीं गाँवों के युवकों की व्यर्थ की विचरणवादिता में बढ़ोत्तरी हुई। गाँव और सड़कों के मिलान बिन्दु पर स्थापित दुकानों में कृषि उपयोगी श्रम सिगरेट का धुआँ बनकर उड़ जाता है। भविष्य चाय के कुल्हड़ों की तरह टूटन की नियति लिये लुढ़क जाता है। अनावश्यक विचार-विमर्श से वे अपने श्रम समय का दुरुपयोग तो करते ही हैं, साथ-साथ देश में एक वृहत्त नकारी भीड़ खड़ी कर रहे हैं।

इन कारणों के अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है- स्वतंत्रता के इतने वर्षों तथा विकास के इतने चरणों के बावजूद कृषि को उद्योग का दर्जा न दिया जाना। बड़े-बड़े फार्महाउस की स्थापना से सामान्य कृषि समाज सुविधाओं से विरत रहकर उत्पादन क्षमता से भी दूर हो रहे हैं। सामान्य किसान आधुनिक संसाधनों को प्राप्त कर भी इन फार्महाउसों की उत्पादन क्षमता को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। अनिर्देशित कृषक पैदावार के तमाम संकट को झेलकर जब अपना अनाज काटता है तो उसे विक्रय के लिये न तो बाजार प्राप्त हो पाता है और न ही उचित मूल्य। इस सम्बन्ध में सहकारी समितियाँ एवं स्थानीय निकाय भी अपनी स्वच्छ भूमिका निष्पादित नहीं कर पा रहे हैं।

हमारा जल प्रबन्ध भी दोषपूर्ण है। इसमें किसान फसल को घण्टों के हिसाब से सींचता है न कि फसल की आवश्यकता के अनुसार। इससे उत्पादन एवं भूमि उर्वरता प्रभावित होती है। भूमि उर्वरता के नष्ट होने के अन्य कारण है- कृषि के आधुनिकतम तरीकों से अनभिज्ञता, भूमि की सतहवार पोषक तत्वों का उचित स्तर बनाए न रख पाना, भूमि कटाव रोकने की जानकारी न होना। यही कारण है कि हमारी कुल भूमि का 52 प्रतिशत भाग बंजर है। यह नहीं है कि हमारे योजना निर्माता एवं सामान्य उपभोक्ता इन बातों से अनभिज्ञ हैं। सरकारी एवं सहकारी अभिकरण अपने प्रचार एवं प्रसार माध्यमों से इन दोषों की तरफ ध्यान दिलाते रहते हैं, परन्तु जनता की अभिरुचि संवर्द्धन की प्रवृत्ति नकारात्मक ही रही। उदाहरणतः विकासखण्ड एवं जनपद स्तर पर भूमि मृदा परिक्षण की सुविधाएँ हैं, परन्तु कितने किसान मृदा परीक्षण करवाते हैं, यह सर्वविदित है। यही अज्ञानता व अरुचि कृषकों के दुर्भाग्य का वाहक बन गया है। सरकारी प्रयास भी दोषपूर्ण है किन्तु वास्तविक प्रश्रय इन्हें सामान्य किसान की भूमिका से ही मिलता है। स्वतंत्रता के पश्चात के प्रयासों, जिनसे कृषि समाज की सामाजिक व आर्थिक स्थिति सुधर सकती थी, का विश्लेषण हम निम्न रूप में कर सकते हैं :

योजना आयोग की स्थापना एवं उसके कार्यान्वयन की मुख्य नीति कृषि नीति ही रही, क्योंकि कृषि विकास से ही देश में सामाजिक समतुल्यता एवं गरीबी निवारण के कार्यक्रम प्रमुखता से मुखरित हो सकते थे। हरितक्रांति एवं खाद्यान्न प्रगति आदि कार्यक्रमों ने कृषि उत्पादन को निखारा किन्तु कृषि से जुड़े लोगों में 25 प्रतिशत की कमी एवं कृषि योग्य भूमि में लगभग 33 प्रतिशत की कमी ने विकास के सभी कार्यों को दिवास्वप्न बना दिया।

नदियों एवं वर्षाजल को संचित कर असिंचित भूमि के आंचल को हरीतिमा बनाने के प्रयास ने देश में नहरों एवं बहुउद्देशीय परियोजनाओं को जन्म दिया, किन्तु इनका गलत उपयोग उद्देश्य प्राप्ति में बाधक रहा। प्रायः नहरों में पानी तभी आता है, जब या तो फसल सूखने लगती है या खेत लबालब भरे रहते हैं। विश्व बैंक द्वारा प्रायोजित नलकूप आज महज मूक साधना कर रहे हैं। विद्युतीकरण पर विद्युत आपूर्ति एवं भ्रष्टाचार (नागरिक एवं प्रशासनिक) ने पर्दा डाल दिया है।

राष्ट्रीय बीज परियोजना भी 1976 में संचालित विश्व बैंक की महत्वाकांक्षी परियोजना थी। विभिन्न चरणों की यह योजना भी जनजागरण के अभाव एवं प्रशासनिक दोषों के कारण सफल न हो सकी। इसी तरह तिलहन एवं दलहन के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी भारतीय कृषि भी विकास के समानान्तर न चल सकी। संकर फसल क्रान्ति के द्वारा नकदी फसलों में वृद्धि निःसन्देह दृष्टव्य है तथा कपास एवं गन्ने के उत्पादन ने सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति से अपने शीर्षस्थ उत्पादन क्षमता को अवश्य प्राप्त किया परन्तु यथार्थ में सामान्य किसान के हाथ सूने ही रहे।

भारत में सहकारी बैंक का विकास सहकारी समिति अधिनियम के अन्तर्गत 1904 में प्राथमिक कृषि साख समितियों की स्थापना से हुआ। वर्तमान में इन साख समितियों द्वारा दिए जाने वाले ऋणों की राशि में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। इस सन्दर्भ में केन्द्रीय सहकारी बैंक व राज्य सहकारी बैंकों की भूमिका अति सराहनीय रही। दीर्घकालीन सहकारी साख को ध्यान में रखकर भूमि विकास बैंक की स्थापना की गयी जो किसानों को भूमि खरीदने, जीर्ण ऋण चुकाने, कृषि सुधार एवं विकास तथा भूमि छुड़ाने में मदद करती है। इसी क्रम में चौथी योजनाकाल में भूमि बन्धक बैंक को भूमि विकास बैंक में परिवर्तित कर दिया गया। इसके माध्यम से न केवल कृषि अपितु अन्य सम्बद्ध तन्त्रों तथा मुर्गीपालन, दुग्ध उत्पादन आदि में आशातीत सुधार हुआ, परन्तु विडम्बना है कि इन माध्यमों ने भी बड़े किसानों पर ही अपनी कृपा दृष्टि रखी, फलस्वरूप अपनी प्रशासनिक दुर्बलता के कारण वे यथार्थ से दूर हो गये।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इन तमाम योजनाओं के सहयोग एवं तकनीकों के विकास के होते हुए भी सामान्य किसान आज अपने जीवन-स्तर में सुधार नहीं कर पा रहे हैं। उत्पादकता के अनेक झण्डे पकड़ने वाले हाथ आज भी क्यों विकलांग हैं? यह विचारणीय है। इस दिशा में सुधार करके ही हम विकास के धरातल को प्राप्त कर सकते हैं तथा छोटी सी भूमि से जुड़ा किसान भी अपनी अपरिहार्य आवश्यकताओं को हस्तगत कर सकता है। इसके लिये निम्न सुझाव लाभप्रद हो सकते हैं:

1. सर्वप्रथम तो जन-जागरण एवं आत्मचेतना का वह मंच तैयार हो जो सामान्य किसान को उसकी वास्तविक जीवन रेखा दिखा सके। विशेषकर युवाओं में खेतों से जुड़ने के लिये प्रेरक कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।

2. सामाजिक न्याय के सामान्य ढाँचे को वास्तविक एवं सबल बनाने के प्रयास होने चाहिए।

3. किसानों का प्रतिनिधित्व किसान ही करे तथा कृषि नीतियों के लिये गाँवों से ईमानदारी से जनसमर्थन एकत्रित कर के ही योजना फलीभूत कराने की सोचना चाहिए।

4. सरकारी योजनाओं में प्रशासनिक दोषी की कड़ाई से जाँच हो।

5. पानी का भण्डारण कर समय पर उन क्षेत्रों में पानी दें जहाँ इसकी आवश्यकता हो। नलकूपों को पुनर्चालित कर इसकी समुचित देखरेख हो।

6. सहकारी बैंक नियोजित कृषि विकास कार्यक्रमों के लिये ग्रामीण किसानों को सस्ते ब्याज की दर पर आवश्यकतानुसार अल्पकालीन, मध्यकालीन व दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बैंकों के कुशल सहयोग ही कृषि विकास को मजबूत आधार दे सकती है।

7. ग्रामवासी अपने अधिकार को समझें। स्थानीय निकायों एवं समितियों को कृषि हितों की निष्ठापूर्वक मदद करनी चाहिए।

8. कृषि उत्पादों के अतिरिक्त कुटीर उद्योगों एवं कुक्कुट पालन आदि व्यवसायों को समृद्ध किया जाए। नकद-पूँजी के इन उत्पादों की प्रदर्शनी लगाकर अथवा नजदीकी बाजार उपलब्ध कराकर श्रम का सही मूल्य निर्धारित किया जाए।

सारांश
हम यही कर सकते हैं कि कृषि विकास एवं ग्राम्य समस्याओं को क्षणिक मानवीय लिप्सा की भट्ठी में झोंकने वाले हाथों को मजबूती से रोका जाए। अन्यथा ‘भारत माँ ग्राम्यवासिनी’ की भावना का तो नाम मिटेगा ही साथ-साथ हरे आंचल की तरह मानव अस्तित्व भी धुएँ में उड़ जाएगा। इसमें हम सभी की परोक्ष एवं प्रत्यक्ष भूमिका अपेक्षित है।

प्रवक्ता, अर्थशास्त्र, स.ब. महाविद्यालय, बदलापुर, जौनपुर-उत्तर प्रदेश