प्राकृतिक संसाधन किसी देश की अमूल्य निधि होते हैं, परंतु उन्हें गतिशील बनाने, जीवन देने और उपयोगी बनाने का दायित्व देश की मानव शक्ति पर ही होता है, इस दृष्टि से देश की जनसंख्या उसके आर्थिक विकास एवं समृद्धि का आधार स्तंभ होती है। जनसंख्या को मानवीय पूँजी कहना कदाचित अनुचित न होगा। विकसित देशों की वर्तमान प्रगति, समृद्धि व संपन्नता की पृष्ठभूमि में वहाँ की मानव शक्ति ही है जिसने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और शासन द्वारा उन्हें अपनी समृद्धि का अंग बना लिया है, परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जनसंख्या देश की मानवीय पूँजी की श्रेणी में तभी आ सकती है जबकि वह शिक्षित हो, कुशल हो, दूरदर्शी हो और उसकी उत्पादकता उच्च कोटि की हो। कदाचित यदि ऐसा नहीं होता है तो मानवीय संसाधन के रूप में वह वरदान के स्थान पर एक अभिशाप से परिणित हो जायेगी क्योंकि उत्पादन कार्यों में उसका विनियोजन संभव नहीं हो पायेगा। स्पष्ट है कि मानवीय शक्ति किसी देश के निवासियों की संख्या पर नहीं वरन गुणों पर निर्भर करती है।
साधन सेवाओं के रूप में मानवीय संसाधन श्रम तथा उद्यमी को सेवाएँ प्रदान करते हैं, यदि मानवीय संसाधन उच्च कोटि के हैं, तो आर्थिक विकास की गति तेज हो जाती है। अत: आर्थिक विकास की दर के निर्धारण में मानवीय संसाधनों की गुणात्मक श्रेष्ठता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। उपयोग की इकाई के रूप में मानवीय संसाधन राष्ट्रीय उत्पाद के लिये मांग का निर्माण करते हैं। यदि मनुष्यों की संख्या राष्ट्रीय उत्पादन की तुलना में अधिक है तो जनसंख्या संबंधी अनेक समस्यायें उठ खड़ी होती हैं, जैसे बढ़ती जनसंख्या के कारण देश में खाद्यान्न की मांग बढ़ जाती है। इससे खाद्यान्नों की स्वल्पता की समस्या उत्पन्न हो जाती है, इसके अतिरिक्त बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण राष्ट्रीय उत्पादन के एक बड़े भाग का उपयोग, उपभोग कार्यों में कर लिया जाता है और निवेश कार्यों के लिये बहुत कम उत्पादन शेष बच पाता है इससे पूँजी निर्माण की गति धीमी पड़ जाती है, साथ ही बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न करती है जिसके आर्थिक एवं सामाजिक परिणाम बहुत दुष्कर होते हैं। सर्वाधिक महत्त्व एवं चिंता की बात यह है कि हमारे देश की जनसंख्या निरंतर तेज गति से बढ़ रही है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण जीवन को गुणात्मक श्रेष्ठता और उन्नत बनाने के सभी प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ पूँजी का अभाव है और मानवीय संसाधन की अधिकता है वहाँ जनसंख्या परिसंपत्ति के बजाय दायित्व बन गई है।
आर्थिक विकास का ऐतिहासिक अनुभव और आर्थिक विकास की सैद्धांतिक व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में प्रत्येक अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के विकास अनुभव इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के राष्ट्रीय उत्पाद, रोजगार और निर्यात की संरचना में कृषि क्षेत्र का योगदान उद्योग और सेवा क्षेत्र की तुलना में अधिक होता है। ऐसी स्थिति में कृषि का पिछड़ापन संपूर्ण अर्थव्यवस्था को पिछड़ा बनाये रखती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कमजोर वर्ग के लोग जिसमें लघु एवं अति लघु कृषक और खेतिहर मजदूर सम्मिलित हैं और जिनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है, अधिकांशत: गरीबी के दुश्चक्र में फँसे रहते हैं, इनकी गरीबी अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण होती है।
आज के विभिन्न विकसित देशों का आर्थिक इतिहास यह स्पष्ट करता है कि कृषि विकास ने ही उनके औद्योगिक क्षेत्र के विकास का मार्ग प्रसस्त किया है। कृषि क्षेत्र ने ही उनके परिवहन और गैर कृषि आर्थिक क्रियाओं के लिये अवसर उत्पन्न किये हैं। आज के विकसित पूँजीवादी और समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास के आरंभिक चरण में कृषि क्षेत्र ने वहाँ के गैर कृषि क्षेत्र के विकास हेतु श्रम शक्ति, कच्चा पदार्थ, भोज्य सामग्री और पूँजी की आपूर्ति की है। यूएसएसआर ने 1927 में सामूहिक कृषि प्रणाली अपनाकर बड़े पैमाने पर यंत्रीकरण का प्रयोग करके अपनी कृषि का विकास किया। सामूहिक कृषि फार्मों पर भारी करारोपण एवं औद्योगिक उत्पादों की कीमतें बढ़ाकर कृषि अतिरेक को गैर कृषि क्षेत्र के विकास हेतु प्रयुक्त किया गया जिससे खाद्यान्न एवं व्यापारिक फसलों का उत्पादन तेजी से बढ़ा और कृषि श्रमिकों की उत्पादकता में 1926 से 1938 की अवधि में 25 से 30 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। जापान में भी आर्थिक विकास की प्राथमिक अवस्था में कृषि अतिरेक का गैर कृषि कार्यों में प्रयोग किया। विकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के उपरोक्त अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास की पूर्वापेक्षा कृषि क्षेत्र का विकास है। कृषि क्षेत्र का विकास कृषि एवं संबंद्ध क्रियाओं में लगे लोगों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार करता ही है साथ-साथ यह गैर कृषि क्षेत्र के लिये खाद्यान्न कच्चा पदार्थ, बाजार और श्रम की आपूर्ति करता है।
अर्द्ध विकसित अर्थ व्यवस्थाओं में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की अपेक्षा खाद्यान्न उत्पादन में तीव्र वृद्धि आवश्यक है क्योंकि इन अर्थव्यवस्थाओं में जनसंख्या वृद्धि दर अत्यंत ऊँची 1.5 से 3.0 प्रतिशत तक होती है, दूसरी ओर व्यापक जनसमूह का उपभोग स्तर अत्यंत निम्न होता है। जनसंख्या वृद्धि नगरीकरण और आयवृद्धि के कारण कृषि उत्पादन की मांग बढ़ती है। जनसंख्या आयवृद्धि और आद्यान्य की मांग की लोच को ध्यान में रखकर खाद्यान्न की मांग में वार्षिक वृद्धि निम्न प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है।
| D | = P | + ng |
यहाँ | D | = | खाद्यान्न मांग की वार्षिक वृद्धि |
| P | = | जनसंख्या वृद्धि दर |
| g | = | प्रति व्यक्ति आय वृद्धि दर |
| n | = | खाद्यान्न हेतु आय मांग की लोच |
विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास के अनुभवों से स्पष्ट होता है कि उनके आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे आर्थिक विकास हेतु वित्त की प्रारंभिक अवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे आर्थिक विकास हेतु वित्त की आपूर्ति हुई है। कृषि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का प्रमुख व्यवसाय होता है क्योंकि कृषि को न केवल खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करनी होती है अपितु आर्थिक विकास हेतु अतिरेक भी सृजित करना होता है। कृषि क्षेत्र के अतिरेक से उत्पन्न बचत को विनियोग किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र की बचत से ही जापान और इंग्लैंड को अपने आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में सहयोग प्राप्त हुआ है। यदि कृषि बचत से ही जापान और इंग्लैंड को अपने आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में सहयोग प्राप्त हुआ है। यदि कृषि बचत का सम्यक उपयोग न हुआ हो तो वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। जैसा कि भारत में एक बड़ी समयावधि तक कृषि अतिरेक का उपभोग बड़े भू-स्वामियों द्वारा सुविधा एवं विलासिता युक्त जीवनयापन में किया गया। एमएल डार्लिंग ने अपने अध्ययन में इस भारतीय पद्धति पर खेद व्यक्त किया था।
1. कृषि उत्पादकता मापन विधियाँ :-
कृषि अध्ययन में कृषि उत्पादकता को निर्धारित करने क लिये विधि संबंधी पर्याप्त साहित्य मिलता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने कृषि उत्पादकता को निर्धारित करने में अलग-अलग विधियों को अपनाया है। विधि संबंधी इन सभी उपागमों का सात वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
1. कृषि उत्पादन से प्राप्त आय पर आधारित विधि।
2. प्रति श्रम लागत इकाई उत्पादन पर आधारित विधि।
3. कृषि उत्पादन से प्रतिव्यक्ति उपलब्ध अन्न पर आधारित विधि।
4. कृषि लागत पर आधारित विधि।
5. प्रति एकड़ उपज तथा कोटि गुणांक पर आधारित विधि।
6. फसल क्षेत्र तथा प्रति क्षेत्र इकाई उत्पादन पर आधारित विधि।
7. भूमि के पोषक भार क्षमता पर आधारित विधि।
उपर्युक्त विधियों से एक, दो तथा चौथे उपागम के लिये संसार के अधिकांश देशों में उपयुक्त आंकड़े नहीं मिल पाते हैं। भारत के अधिकांश राज्यों में कृषि आंकड़े इस दृष्टिकोण से अधूरे हैं। तृतीय उपागम कृषि उत्पादन से प्रति व्यक्ति उपलब्ध अन्न पर आधारित विधि को सर्वप्रथम बक महोदय ने अपनाया। बक महोदय ने अनुभव किया कि चीन जैसे देश में जहाँ जीवन निर्वहन व्यवस्था प्रचलित है, कृषि उत्पादकता का मूल्यांकन मुद्रा के रूप में उचित नहीं होगा, जबकि अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप की कृषि क्षमता का निर्धारण अन्न तुल्य विधि के आधार पर निर्धारित करना उचित नहीं होगा क्योंकि वहाँ पर अनेक मुद्रा दायिनी फसलों का उत्पादन होता है, इनको अन्न के बराबर या किसी भार इकाई के बराबर बदलना न्यायकर प्रतीत नहीं होता है।
क्लार्क तथा हैसवेल ने भी यही विधि अपनाई जो प्रतिव्यक्ति गेहूँ तुल्य पर आधारित है। इस मापक में संपूर्ण कृषि उत्पादन को प्रति व्यक्ति वार्षिक गेहूँ की मात्रा (किलोग्राम) के रूप में प्रदर्शित किया गया, इस आधार पर कृषि उन्नति का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।
प्रति एकड़ उपज तथा कोटि गुणांक पर आधारित विधि का संबंध फसलों के प्रति एकड़ उपज से है। कैंडल की कृषि क्षमता निर्धारण विधि प्रति क्षेत्र इकाई के उत्पादन पर आधारित है। इन्होंने इंग्लैंड के 48 काउंटीज की क्षमता निर्धारण में दस प्रमुख फसलों के प्रति एकड़ उपज को आधार माना तथा श्रेणी गुणांक विधि को अपनाया। भारत वर्ष में इस विधि का सर्व प्रथम प्रयोग मुहम्मद सफी ने किया। इन्होंने उत्तर प्रदेश के सभी जनपदों की कृषि क्षमता का निर्धारण आठ खाद्यान्न फसलों के प्रति एकड़ उपज के आधार पर किया। इस विधि की आलोचना इस आधार पर की गई कि फसलों के प्रति एकड़ उत्पादन के विश्लेषण के साथ उस फसल के क्षेत्र का ध्यान नहीं रखा जाता है। उदाहरण के लिये अ इकाई की श्रेणी गेहूँ के प्रति एकड़ उत्पादन के लिये प्रथम स्थान पर है लेकिन क्षेत्र केवल 1 प्रतिशत है, प्रति एकड़ उत्पादन अधिक होते हुए भी क्षेत्र के दृष्टिकोण से स्थान नगण्य हो सकता है फलस्वरूप ‘अ’ इकाई का महत्त्व कृषि उत्पादकता की दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण होगा जबकि श्रेणी गुणांक विधि के अनुसार कृषि क्षमता अधिक होगी।
श्रेणी गुणांक विधि की इस कमजोरी को सप्रे तथा देशपांडे ने दूर किया इन्होंने फसलों के अंतर्गत क्षेत्र को स्थान देकर श्रेणी गुणांक उपागम में सुधार किया। इस विधि की मूल कमी यह है कि इसमें प्रत्येक फसल की प्रतिशत की गणना कुल फसल क्षेत्र से किया गया है जबकि कृषि क्षमता निर्धारित करते समय कुल बोई गई भूमि ही उत्पादन तथा प्रति एकड़ उत्पादन को प्रभावित करती है। गांगुली ने फसल उपज सूची विधि को अपनाया। इन्होंने नौ मुख्य फसलों को चुना तथा प्रत्येक फसल की सूची की गणना की, इनका उपज सूची सूत्र निम्नलिखित है।
उपज सूची ज्ञात करने के बाद उस फसल की प्रतिशत से गुणा करके कार्यक्षमता सूची की गणना की गई है। इस अध्ययन में भी कार्य क्षमता सूची की गणना कुल फसल क्षेत्र के स्थान पर कुल बोई गई भूमि के संदर्भ में किया गया होता तो परिणाम अधिक सही होता। माटिया ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों की कृषि क्षमता निर्धारित करने में एक विशेष सूत्र का प्रयोग किया, इनका अनुमान है कि (क) प्रति एकड़ उपजल भौतिक एवं मानवीय पर्यावरण का प्रतिफल है, (ख) अनेक फसलों के अंतर्गत क्षेत्र भूमि उपयोग से संबंधित अनेक कारकों के प्रभाव को प्रदर्शित करता है, फलस्वरूप कृषि क्षमता प्रति एकड़ उत्पादन तथा फसल क्षेत्र दोनों, तथ्यों की देन है। माटिया ने निम्नलिखित सूत्र के आधार पर उत्तर प्रदेश की कृषि क्षमता को निर्धारित किया -
सिन्हा 8 ने माटिया की विधि का समर्थन करते हुए जनपद स्तरीय अध्ययन के लिये दोषपूर्ण बताया, इन्होंने भारत वर्ष स्तर पर आंकड़ों की ओर ध्यान दिलाते हुए कृषि क्षमता निर्धारण में प्रति हे. उपज को ही लाभप्रद बताया। सिन्हा ने कृषि क्षमता का निर्धारण प्रति एकड़ भूमि भार क्षमता के आधार पर किया है। इनके मतानुसार कृषि क्षमता भूमि उत्पादन जितना अधिक होगा, भूमि पोषक क्षमता भी उतनी ही अधिक होगी, फलत: फार्मिंग क्षमता भी अधिक होगी। वास्तव में भूमि भार को क्षमता विधि की मुख्य विशेषता यह है कि संसार के किसी भी भाग में फसलों की विभिन्नताओं का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। इस विधि में उत्पादन को कैलोरीज में बदल लिया जाता है इन्होंने कृषि क्षमता की सूची को इस प्रकार निर्धारित किया।
कृषि क्षमता के स्थान पर कृषि उत्पादकता शीर्षक के अंतर्गत अध्ययन करने वाले विद्वान ईनेदी 10 ने कृषि की मौलिक किस्मों का वर्णन करते समय कृषि उत्पादकता को निर्धारित करने के लिये निम्न सूत्र प्रतिपादित किया।
सफी ने भारत वर्ष के वृहद मैदान की कृषि उत्पादकता को निर्धारित करते समय ईनेदी के सूत्र में संसोधन प्रस्तुत किया। ईनेदी के सूत्र में प्रमुख दोष यह था कि उत्पादकता सूची पर फसल क्षेत्र की मात्रा का अधिक प्रभाव पड़ता था। राष्ट्रीय या जिलास्तर पर प्रति हे. पैदावार समान या कम होने पर भी राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा जिला स्तर पर उत्पादकता सूची अधिक होती है। सफी ने ईनेदी के सूत्र में सुधार किया जो इस प्रकार है -
इस सूत्र में जनपद में सभी फसलों से प्राप्त कुल उपज की सभी फसलों के कुल क्षेत्र से विभाजित किया गया है और प्रति हे. उपज मालुम की गयी है इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर सभी फसलों से प्राप्त कुल उपज को भी कुल क्षेत्र से विभाजित करके प्रति हे. उपज मालुम की गयी है। तत्पश्चात जनपद के प्रति हे. उपज में राष्ट्रीय स्तर के प्रति हे. उपज से विभाजित किया गया है। हुसैन ने सतलज गंगा मैदान की कृषि उत्पादकता प्रदेश निर्धारिण में एक नूतन विधि का सुझाव दिया है। इनका कहना है कि उत्पादकता अध्ययन में सभी उत्पादित फसलों की गणना की जानी चाहिए। ऐसा देखा जाता है कि किसी एक इकाई क्षेत्र में कुछ फसलें प्रमुख होती हैं तथा ऐसे अनेक फसलें होती हैं जो मुद्रा की दृष्टिकोण से प्रमुख होती हैं जबकि क्षेत्र न्यूनतम होता है अब तक अपनायी गयी विधियों में न्यून क्षेत्र वाली फसलों की गणना नहीं की गयी है इन्होंने सभी उत्पादित फसलों की उपज से प्राप्त मुद्रा की गणना की सूत्र इस प्रकार है –
2. अध्ययन क्षेत्र में कृषि उत्पादकता का स्तर :-
किसी भी क्षेत्र में कृषि सक्रियता कृषि गहनता एवं कृषि कुशलता को प्रदर्शित करने में कृषि उत्पादकता का विशेष स्थान है। यदि उत्पादकता क्षीण होती है तो स्वत: कृषि कुशलता घट जाती है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने में जिन कारकों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है उनमें भौतिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त सुधरे हुए बीजों, उर्वरकों सिंचन सुविधाओं कृषि यंत्रीकरण तथा कृषक प्रशिक्षण विशेष उल्लेखनीय है। कुछ विद्वानों ने उर्वरकों के आधार पर उत्पादकता बढ़ाने के प्रयासों का विश्लेषण किया है। उनके अनुसार रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग एक सीमा तक ही लाभदायक होता है उस सीमा के बाद उर्वरकों का अधिक प्रयोग हानिकारक होता है अत: उस उपयुक्त सीमा का निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है जिसपर उर्वरकों की सीमांत उत्पादकता अधिकतम हो साधारण कृषक ऐसे प्रायोगिक पक्षों से अनभिज्ञ होते हैं इसलिये कृषि प्रसार सेवाओं द्वारा कृषकों को इस संबंध में ज्ञान कराया जाना चाहिए।
कृषि उत्पादकता से कृषि उत्पादन का गहरा संबंध है क्योंकि कृषि उत्पादकता जहाँ सक्षमता का द्योतक है वहीं कृषि उत्पादन वास्तविकता का प्रतीक भी है। यदि कृषि उत्पादकता वृद्धि के सक्रिय प्रयास के बाद भी वास्तविक कृषि उत्पादन न बढ़ सके तो सारा प्रयास असफल दीखता है। अत: अध्ययन क्षेत्र में कृषि उत्पादकता तथा कृषि उत्पादन का निर्धारण भी आवश्यक हो जाता है जिससे कृषि उत्पादकता वृद्धि के प्रयासों के प्रतिफल को ज्ञात किया जा सके। कुछ विद्वानों ने इसके लिये सफल गहनता तथा फसल उपज समकक्षता संकेताकों का प्रयोग किया गया। फसल गहनता में फसलों की लागत को ध्यान में रखकर अतिरिक्त उपज का अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि फसल उपज समकक्षता द्वारा भिन्न फसलों के सापेक्ष महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है।
अ. फसल गहनता :-
फसल गहनता से आशय उस फसल क्षेत्र से है जिस पर वर्ष में एक फसल के अतिरिक्त अन्य कई फसलें उगाई जाती हैं। शुद्ध कृषि क्षेत्र तथा दोहरी या अनेक फसल क्षेत्र को मिला कर कुल फसल क्षेत्र का संबोधन होता है। किसी भी क्षेत्र में शुद्ध बोये गये क्षेत्र की अपेक्षा कुल फसल क्षेत्र का अधिक होना फसल गहनता की मात्रा को प्रदर्शित करता है। फसल गहनता वह सामयिक बिन्दु है जहाँ भूमि श्रम, पूँजी तथा प्रबंध का समिश्रण सर्वाधिक लाभप्रद होता है। भारत वर्ष की वर्तमान कृषि अर्थव्यवस्था में फसल गहनता का निर्धारण अधिक लाभप्रद होता है। भारत वर्ष की वर्तमान कृषि अर्थव्यवस्था में फसल गहनता का निर्धारण इन चरों के अनुपात में नहीं किया जाता है क्योंकि भूमि एक स्थायी कारक है। मानवीय श्रम की अधिकता तथा बेरोजगारी भी अधिक है। कृषि जीवन निर्वाह का एक माध्यम मात्र है। फार्म का आकर छोटा है और कृषि उद्यम का रूप धारण नहीं कर पायी है। वास्तव में यहाँ फसल गहनता सिंचाई के साधन बीज, उर्वरक तथा कृषि यंत्रों की उपलब्धि पर आधारित रहती है। यही कारण है कि भारतीय कृषि अर्थ व्यवस्था में बड़े कृषि फार्मों की अपेक्षा छोटे आकार के फार्मों में फसल गहनता अधिक होती है। क्योंकि कृषक पारिवारिक श्रम तथा अध्ययन लागतों का भरपूर प्रयोग करता है जबकि बड़े आकर के कृषि फार्मों में पूँजी का वितरण असमान हो जाता है। इस प्रकार फसल गहनता की संकल्पना का प्रार्दुभाव एक ही खेत में एक ही वर्ष में एक से अनेक फसलों के उत्पादन से होता है। फसल गहनता की गणना निम्नलिखित सूत्र के आधार पर की जाती है।
तालिका क्रमांक 5.1 विकासखंड स्तर पर फसल गहनता सूची 1995-96 | ||||
क्र. | विकासखंड | शुद्ध बोया गया क्षेत्र | सकल बोया गया क्षेत्र | फसल गहनता |
1 | कालाकांकर | 12391 | 20506 | 165.49 |
2 | बाबागंज | 15475 | 25829 | 166.91 |
3 | कुण्डा | 15642 | 26063 | 166.62 |
4 | बिहार | 16137 | 26868 | 166.50 |
5 | सांगीपुर | 16906 | 25629 | 151.60 |
6 | रामपुरखास | 19690 | 30656 | 155.69 |
7 | लक्ष्मणपुर | 12680 | 18470 | 145.66 |
8 | संडवा चंद्रिका | 13496 | 18700 | 138.56 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 11906 | 16417 | 137.89 |
10 | मान्धाता | 13697 | 22261 | 162.52 |
11 | मगरौरा | 17792 | 28383 | 159.53 |
12 | पट्टी | 12723 | 19958 | 156.87 |
13 | आसपुर देवसरा | 14057 | 23233 | 165.28 |
14 | शिवगढ़ | 13779 | 19599 | 142.24 |
15 | गौरा | 14671 | 24545 | 166.30 |
| ग्रामीण | 221042 | 347117 | 157.04 |
| नगरीय | 1064 | 1693 | 159.12 |
| जनपद | 222106 | 348810 | 157.05 |
सारिणी क्रमांक 5.2 फसल गहनता का स्तर | |||
फसल गहनता सूची | फसल गहनता स्तर | विकासखंडों की संख्या | विकासखंडों के नाम |
100 से 120 | अति निम्न | - | कोई नहीं |
120 से 140 | निम्न | 02 | प्रतापगढ़ सदर, संडवा चंद्रिका |
140 से 160 | मध्यम | 06 | शिवगढ़, लक्ष्मणपुर, सांगीपुर, रामपुरखास, पट्टी, मगरौरा, मांधाता, आसपुर देवसरा, बाबागंज, कालाकांकर, कुंडा, बिहार, गौरा। |
160 से 180 | उच्च | 07 | कोई नहीं |
180 से 200 | अति उच्च | - | - |
ब. प्रति एकड़ भूमि के आधार पर कृषि क्षमता :-
प्रो. सफी के सूत्र के आधार पर अध्ययन क्षेत्र की कृषि क्षमता को निर्धारित किया गया है। गणना में जनपद की 10 फसलों को सम्मिलित किया गया है। जनपद की दस फसलों से प्राप्त कुल उपज को दसों फसलों के कुल क्षेत्र से विभाजित करके प्रति हे. उपज ज्ञात की गयी है। इसकी उपज जनपद की औसत उपज में राष्ट्रीय औसत उपज का भाग देकर विकासखंड स्तर पर कृषि उत्पादकता सूची ज्ञात की गई है। उत्पादकता सूची में 100 का गुणा करके उत्पादकता गुणांक प्राप्त किया गया है।
सारिणी क्रमांक 5.3 विकासखंड स्तर पर उत्पादकता सूची तथा उत्पादकता गुणांक | |||
क्र. | विकासखंड | उत्पादकता सूची | उत्पादकता गुणांक |
1 | कालाकांकर | 1.7816 | 178.16 |
2 | बाबागंज | 1.7928 | 179.28 |
3 | कुण्डा | 1.7484 | 174.84 |
4 | बिहार | 1.8337 | 178.37 |
5 | सांगीपुर | 1.5894 | 158.94 |
6 | रामपुरखास | 1.4424 | 144.24 |
7 | लक्ष्मणपुर | 1.4276 | 142.76 |
8 | संडवा चंद्रिका | 1.1875 | 118.75 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 1.0628 | 106.28 |
10 | मान्धाता | 1.4896 | 148.96 |
11 | मगरौरा | 1.4325 | 143.25 |
12 | पट्टी | 1.5284 | 152.84 |
13 | आसपुर देवसरा | 1.4947 | 149.47 |
14 | शिवगढ़ | 1.4028 | 140.28 |
15 | गौरा | 1.8042 | 180.42 |
| ग्रामीण | 1.5645 | 156.45 |
सारिणी क्रमांक 5.3 विकासखंड स्तर पर कृषि उत्पादकता पर प्रकाश डाल रही है जिसमें जनपद की उत्पादकता सूची 1.5645 प्राप्त हुई है जिसे सामान्य से कुछ अधिक कहा जा सकता है। विकासखंड स्तर पर प्रतापगढ़ सदर वरीयता क्रम में सर्वाधिक निम्न स्तर का प्रदर्शन कर रहा है जबकि गौरा विकासखंड सर्वोच्च स्तर को दर्शा रहा है जिसकी कृषि उत्पादकता सूची 1.8042 प्राप्त हुई है। अन्य विकासखंड इन दोनों सीमाओं के मध्य में स्थित है।
सारिणी क्रमांक 5.4 विकासखंड स्तर पर कृषि उत्पादकता का स्तर | |||
फसल गहनता सूची | फसल गहनता स्तर | विकासखंडों की संख्या | विकासखंडों के नाम |
75 से 100 | अति निम्न | - | कोई नहीं |
100 से 125 | निम्न | 02 | प्रातापगढ़ सदर, संडवा चंद्रिका |
125 से 150 | मध्यम | 06 | शिवगढ़, लक्ष्मणपुर, रामपुरखास, मगरौरा, मांधाता, आसपुर देवसरा |
150 से 175 | उच्च | 03 | कोई नहीं |
175 से 200 | अति उच्च | 04 | कालाकांकर, बाबागंज बिहार तथा गौरा |
3. कृषि भूमि पर जनसंख्या का भार :-
प्राकृतिक संसाधन किसी देश की अमूल्य निधि होते हैं परंतु उन्हें गतिशील बनाने जीवन देने और उपयोगी बनाने का दायित्व देश की मानव शक्ति पर ही निर्भर करता है। इस दृष्टि से देश की जनसंख्या उसके आर्थिक विकास और समृद्धि का आधार स्तंभ होती है। जनसंख्या को मानवीय पूँजी कहना कदाचित अनुचित न होगा। विकसित देशों की वर्तमान प्रगति तथा समृद्धि व संपन्नता की पृष्ठभूमि में वहाँ की मानव शक्ति ही है। जिसने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और शासन द्वारा उन्हें अपनी समृद्धि का अंग बना लिया है। परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जनसंख्या देश की मानवीय पूँजी की श्रेणी में तभी आ सकती है जबकि वह शिक्षित हो, कुशल हो, दूरदर्शी हो और उसकी उत्पादकता उच्च कोटि की हो, यदि ऐसा न हुआ तो मानवीय संसाधन के रूप में वह वरदान के स्थान पर अभिशाप में परिणित हो जायेगी क्योंकि उत्पादक कार्यों में उसका विनियोग संभव न हो सकेगा। स्पष्ट है कि मानवीय शक्ति किसी देश की जनता की संख्या पर निर्भर नहीं वरन गुणों पर निर्भर करती है। इसलिये प्रो. हिप्पल ने लिखा है कि ‘‘एक देश की वास्तविक संपत्ति उसकी भूमि, जल वनों, खानों, पशुपक्षियों के झुंडों और डॉलरों में नहीं, वरन देश के समृद्ध एवं प्रसन्नचित पुरुषों स्त्रियों और बच्चों में निहित होती है।’’
अ. जनसंख्या वितरण :-
जनसंख्या वितरण के अध्ययन से किसी क्षेत्र में जनसंख्या संतुलन का बोध होता है। जनसंख्या वितरण को विभिन्न प्रकार के घनत्वों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है।
1. सामान्य घनत्व :-
किसी क्षेत्र की कुल जनसंख्या तथा कुल क्षेत्रफल के अनुपात को सामान्य घनत्व कहा जाता है। सामान्य घनत्व जितना अधिक होता है, जनसंख्या का उतना ही अधिक सघन वितरण होता है इसके विपरीत क्रम सामान्य घनत्व जनसंख्या के विरल वितरण का संकेत करती है। जनसंख्या का वितरण लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करती है।
सारिणी क्रमांक 5.5 विकासखंड स्तर पर जनसंख्या का सामान्य घनत्व 1996 | ||||
क्र. | विकासखंड | कुल जनसंख्या 1996 (प्रक्षेपित) | क्षेत्रफल वर्ग किमी में | घनत्व प्रति वर्ग किमी |
1 | कालाकांकर | 136460 | 210.65 | 648 |
2 | बाबागंज | 148553 | 264.87 | 561 |
3 | कुण्डा | 186008 | 277.71 | 670 |
4 | बिहार | 170468 | 269.95 | 631 |
5 | सांगीपुर | 147838 | 276.68 | 552 |
6 | रामपुरखास | 185973 | 322.03 | 577 |
7 | लक्ष्मणपुर | 137936 | 206.02 | 669 |
8 | संडवा चंद्रिका | 129507 | 218.65 | 592 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 150675 | 196.61 | 766 |
10 | मान्धाता | 166054 | 215.82 | 769 |
11 | मगरौरा | 170344 | 285.61 | 596 |
12 | पट्टी | 117893 | 196.20 | 601 |
13 | आसपुर देवसरा | 146612 | 212.50 | 690 |
14 | शिवगढ़ | 150020 | 220.29 | 681 |
15 | गौरा | 149981 | 237.96 | 630 |
समस्त विकासखंड | 2294322 | 3602.55 | 637 | |
नगरीय | 138536 | 21.68 | 6390 | |
जनपद | 2432858 | 3624.23 | 671 |
2. कायिक घनत्व :-
किसी क्षेत्र की सकल बोयी गई भूमि तथा उस क्षेत्र की कुल जनसंख्या के अनुपात को कायिक घनत्व कहा जाता है।
सारिणी क्रमांक 5.6 विकासखंड स्तर पर कायिक घनत्व 1996 | ||||
क्र. | विकासखंड | कुल जनसंख्या 1996 (प्रक्षेपित) | क्षेत्रफल वर्ग किमी में | घनत्व प्रति वर्ग किमी |
1 | कालाकांकर | 136460 | 20506 | 656 |
2 | बाबागंज | 148553 | 25829 | 575 |
3 | कुण्डा | 186008 | 26063 | 714 |
4 | बिहार | 170468 | 26868 | 634 |
5 | सांगीपुर | 147838 | 25629 | 577 |
6 | रामपुरखास | 185973 | 30656 | 607 |
7 | लक्ष्मणपुर | 137936 | 18470 | 747 |
8 | संडवा चंद्रिका | 129507 | 18700 | 693 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 150675 | 16417 | 918 |
10 | मान्धाता | 166054 | 22261 | 746 |
11 | मगरौरा | 170344 | 28383 | 600 |
12 | पट्टी | 117893 | 19958 | 591 |
13 | आसपुर देवसरा | 146612 | 23233 | 631 |
14 | शिवगढ़ | 150020 | 19599 | 765 |
15 | गौरा | 149981 | 24545 | 611 |
समस्त विकासखंड | 2294322 | 347117 | 661 | |
नगरीय | 138536 | 1693 | 8133 | |
जनपद | 2432858 | 348810 | 697 |
सारिणी क्रमांक 5.6 अध्ययन क्षेत्र में विकासखंड स्तर पर कायिक घनत्व के चित्र को प्रस्तुत कर रही है। विकासखंड स्तर पर इसमें पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। अर्थात जहाँ प्रतापगढ़ सदर विकासखंड में यह 9.18 व्यक्ति प्रति हे. अथवा 918 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर प्राप्त होता है, वहीं बाबागंज विकासखंड में न्यूनतम अर्थात 5.75 व्यक्ति प्रति हे. अथवा 575 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर निवास करते हैं। अध्ययन क्षेत्र में केवल प्रतापगढ़ सदर विकास खंड ही 918 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के स्तर को प्राप्त कर रहा है। जबकि अन्य विकासखंड 800 व्यक्ति से कम कायिक घनत्व में स्थित है जिसमें शिवगढ़ 765 व्यक्ति, लक्ष्मणपुर 747 व्यक्ति, मांधाता 746 व्यक्ति तथा कुंडा 714 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर निवास करके 700 से 800 व्यक्तियों के मध्य स्थित है। 600 से 700 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के विस्तार में संडवा चंद्रिका 693 व्यक्ति कालाकांकर 665 व्यक्ति, बिहार, 634 व्यक्ति रामपुर खास 607 व्यक्ति तथा मगरौरा 600 व्यक्ति निवास कर रहे हैं। अन्य विकासखंड 577 से 600 व्यक्तियों के मध्य स्थित है। इस प्रकार कायिक घनत्व का जनपदीय औसत 6.97 व्यक्ति प्रति हे. अथवा 697 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर निवास कर रहे हैं।
3. कृषि घनत्व :-
किसी क्षेत्र में कृषि भूमि तथा कृषि कार्य में लगी हुई जनसंख्या के अनुपात को कृषि घनत्व कहा जाता है। इससे कृषि भूमि पर जनसंख्या के भार का आभास मिलता है जिससे ग्रामीण विकास तथा नियोजन में सहायता मिलती है।
सारिणी क्रमांक 5.6 विकासखंड स्तर पर कायिक घनत्व 1996 | |||||
क्र. | विकासखंड | कुल जनसंख्या 1996 (प्रक्षेपित) | क्षेत्रफल वर्ग किमी में | घनत्व प्रति हे. | घनत्व प्रति वर्ग किमी |
1 | कालाकांकर | 39545 | 20506 | 1.93 | 193 |
2 | बाबागंज | 44317 | 25829 | 1.72 | 172 |
3 | कुण्डा | 47164 | 26063 | 1.81 | 181 |
4 | बिहार | 45728 | 26868 | 1.70 | 170 |
5 | सांगीपुर | 46036 | 25629 | 1.80 | 180 |
6 | रामपुरखास | 56142 | 30656 | 1.83 | 183 |
7 | लक्ष्मणपुर | 34318 | 18470 | 1.86 | 186 |
8 | संडवा चंद्रिका | 32429 | 18700 | 1.73 | 173 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 30727 | 16417 | 1.87 | 187 |
10 | मान्धाता | 40663 | 22261 | 1.83 | 183 |
11 | मगरौरा | 43403 | 28383 | 1.53 | 153 |
12 | पट्टी | 28757 | 19958 | 1.44 | 144 |
13 | आसपुर देवसरा | 35383 | 23233 | 1.52 | 152 |
14 | शिवगढ़ | 38510 | 19599 | 1.96 | 196 |
15 | गौरा | 39227 | 24545 | 1.60 | 160 |
समस्त विकासखंड | 601749 | 347117 | 1.73 | 173 | |
नगरीय | 10025 | 1693 | 5.92 | 592 | |
जनपद | 611774 | 348810 | 1.75 | 175 |
4. विभिन्न घनत्वों का तुलनात्मक विवेचन :-
सामान्य घनत्व, कायिक घनत्व तथा कृषि घनत्व के क्षेत्रीय वितरण का तुलनात्मक अध्ययन सारिणी क्रमांक 5.8 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी क्रमांक 5.8 जनसंख्या घनत्वों का तुलनात्मक अध्ययन | ||||||||||
क्र. | विकासखंड | घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर | स्तरीय मानों का योग | औसत स्तरीय मान | कोटि क्रम | |||||
सामान्य घनत्व | स्तरीय मान | कायिक घनत्व | स्तरीय मान | कृषि घनत्व | स्तरीय मान | |||||
1 | कालाकांकर | 648 | 7 | 665 | 7 | 193 | 2 | 16 | 5.33 | 5 |
2 | बाबागंज | 561 | 14 | 575 | 15 | 172 | 10 | 39 | 13.0 | 15 |
3 | कुण्डा | 670 | 5 | 714 | 5 | 181 | 7 | 17 | 5.67 | 6 |
4 | बिहार | 631 | 8 | 634 | 8 | 170 | 11 | 27 | 9.0 | 8.5 |
5 | सांगीपुर | 552 | 15 | 577 | 14 | 180 | 8 | 37 | 12.33 | 13 |
6 | रामपुरखास | 557 | 13 | 607 | 11 | 183 | 5.5 | 29.5 | 9.83 | 10 |
7 | लक्ष्मणपुर | 659 | 6 | 747 | 3 | 186 | 4 | 13 | 4.33 | 4 |
8 | संडवा चंद्रिका | 592 | 12 | 693 | 6 | 173 | 9 | 27 | 9.0 | 8.5 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 766 | 2 | 918 | 1 | 187 | 3 | 6 | 2.0 | 1 |
10 | मान्धाता | 769 | 1 | 746 | 4 | 183 | 5.5 | 10.5 | 3.5 | 3 |
11 | मगरौरा | 596 | 11 | 600 | 12 | 153 | 13 | 36 | 12.0 | 12 |
12 | पट्टी | 601 | 10 | 591 | 13 | 144 | 15 | 38 | 12.67 | 14 |
13 | आसपुर देवसरा | 690 | 3 | 631 | 9 | 152 | 14 | 26 | 8.67 | 7 |
14 | शिवगढ़ | 681 | 4 | 765 | 2 | 196 | 1 | 7 | 2.33 | 2 |
15 | गौरा | 630 | 9 | 611 | 10 | 160 | 12 | 31 | 10.33 | 11 |
सारिणी क्रमांक 5.9 जनसंख्या घनत्व का स्तर | ||
स्तरीय मान | जनसंख्या घनत्व का स्तर | विकासखंड |
5 से कम | उच्च घनत्व | 1. प्रतापगढ़ सदर, 2. शिवगढ़ 3. मांधाता 4. लक्ष्मणपुर |
5 से 10 | मध्यम घनत्व | 1. कालाकांकर 2. कुंडा, 3. बिहार, 4. मंडवा चंद्रिका, 5. रामपुर खास |
10 से अधिक | निम्न घनत्व | 1. गौरा, 2. मगरौरा, 3. सांगीपुर, 4. पट्टी, 5. बाबागंज |
इसके अंतर्गत चार विकासखंड प्रतापगढ़ सदर, शिवगढ़, मांधाता तथा लक्ष्मणपुर आते हैं, ये विकासखंड अधिकतम जनभार के पोषक बने हुए हैं क्योंकि इनमें उपजाऊ भूमि तथा सिंचाई के साधनों का विस्तार तथा नवीन पद्धतियों के प्रयोग के कारण अधिक जनसंख्या का पोषण हो रहा है।
ब. मध्यम घनत्व :-
इस श्रेणी के अंतर्गत कालाकांकर, कुंडा आसपुर देवसरा बिहार, संडवा चंद्रिका तथा रामपुर खास सहित 6 विकासखंड आते हैं, जहाँ पर जनसंख्या का घनत्व मध्यम श्रेणी का पाया जाता है।
स. न्यून घनत्व :-
इस श्रेणी में गौरा, मगरौरा, सांगीपुर, पट्टी तथा बाबागंज विकासखंड आते हैं जिनमें जनसंख्या का निम्न घनत्व पाया गया।
4. खाद्यान्न उत्पादन एवं जनसंख्या संतुलन :-
मानवीय संसाधन आर्थिक क्रियाओं के साधन एवं लक्ष्य दोनों होते हैं। साधन के रूप में मानवीय संसाधन श्रम शक्ति एवं उद्यमियों को सेवायें प्रदान करते हैं। जिनकी सहायता से उत्पत्ति के अन्य संसाधनों का उपभोग संभव हो पाता है। मानवीय संसाधनों की इस भूमिका पर देश में कुल उत्पादन का स्तर निर्भर करता है। इसके दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में जितना भी विकासात्मक क्रियायें संपन्न की जाती हैं इनका उद्देश्य मानव समुदाय को जीवन की अच्छी सुविधायें प्रदान करना होता है। उपभोग की इकाई के रूप में मानवीय संसाधन देश के कुल उत्पादन का उपभोग करते हैं, इस प्रकार मानवीय संसाधनों की दोहरी भूमिका होती है,
क. साधन सेवाओं के रूप में
ख. उपभोग की इकाइयों के रूप में
क. साधन सेवाओं के रूप में मानवीय संसाधन :-
साधन सेवाओं के रूप में मानवीय संसाधन श्रम तथा उद्यमी को सेवायें प्रदान करते हैं किस सीमा तक मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन करता है इस पर आर्थिक विकास का स्तर निर्भर करता है, यदि मानवीय संसाधन उत्कृष्ट कोटि के हैं तो आर्थिक विकास की गति तेज हो जाती है। अतएव आर्थिक विकास की दर के निर्धारण में मानवीय संसाधन की गुणात्मक श्रेष्ठता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिये वे सभी क्रियायें जो मानवीय संसाधनों के कौशल को बढ़ाने में सहायक होती है, उत्पादक क्रियायें कहलाती हैं, इस बात की आवश्यकता है कि मानवीय पूँजी के निर्माण हेतु निवेश का विभिन्न योजनायें प्रारंभ की जानी चाहिए। भौतिक पूँजी निर्माण और मानवीय पूँजी निर्माण सम्मिलित रूप से आर्थिक विकास की गति को तीव्रता प्रदान करते हैं।
ख. उपभोग इकाइयों के रूप में मानवीय संसाधन :-
उपभोग इकाई के रूप में मानवीय संसाधन राष्ट्रीय उत्पाद के लिये मांग का सृजन करते हैं। यदि मनुष्यों की संख्या राष्ट्रीय उत्पादन की तुलना में अधिक है तो जनसंख्या संबंधी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसको हम अति जनसंख्या के नाम से संबोधित करते हैं। अति जनसंख्या के कारण एक देश के सामने प्रमुख रूप से निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
1. बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण देश में खाद्यान्नों की मांग बढ़ जाती है। और सामान्यतया खाद्यान्नों की पूर्ति इसकी मांग की तुलना में कम रह जाती है।
2. बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण राष्ट्रीय उत्पादन के एक बड़े भाग का उपयोग उपभोग कार्यों के लिये कर लिया जाता है और निवेश कार्यों के लिये बहुत कम उत्पादन उपलब्ध हो पाता है, इससे पूँजी निर्माण की गति धीमी पड़ जाती है।
3. अति जनसंख्या के कारण बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
4. बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये देश को सामाजिक सेवाओं पर बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था के संसाधनों को भौतिक पूँजी के स्थान पर मानवीय उपभोग की ओर हस्तांतरण करना होता है।
सर्वाधिक महत्व और चिंता की बात यह है कि भारत की जनसंख्या निरंतर तीव्रगति से बढ़ती जा रही है, ऊँची जन्मदर (1991 में 30.55 प्रति हजार) तथा तेज दर से गिरती हुई मृत्युदर (1991 में 10.2 प्रति हजार) में कमी के कारण जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण योजनाओं में निर्धारित आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हुई हैं। जनसंख्या में वृद्धि के कारण जीवन को गुणात्मक श्रेष्ठता और उन्नत बनाने के सभी प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में जहाँ पूँजी का अभाव है और मानवीय संसाधनों को बहुलता है वहाँ जनसंख्या परिसंपत्ति होने के बजाय दायित्व बन गयी है। बढ़ती हुई जनसंख्या का देश की प्रगति पर निम्नलिखित प्रभाव परिलक्षित होता है।
1. बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति आय के स्तर एवं रहन सहन के स्तर में सुधार संभव नहीं होता है। इसके कारण कृषि उत्पादन तथा औद्योगिक उत्पादन में होने वाली वृद्धि का वास्तविक लाभ लोगों को नहीं मिल पाता है।
2. जनसंख्या की मात्रा में वृद्धि के कारण भूमि पर जनसंख्या का भार निरंतर बढ़ रहा है। सन 1991 में प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता 1.1 एकड़ थी, लेकिन अतिरिक्त भूमि के उपयोग के बावजूद भी 1990 में प्रतिव्यक्ति भूमि की उपलब्धता घटकर 0.25 एकड़ रह गयी है।
3. जनसंख्या वृद्धि का उपभोग के स्तर पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा, क्योंकि कार्य करने वालों की तुलना में खाने वालों की संख्या बढ़ गई परिणामस्वरूप धन एवं आय की असमनाताओं में वृद्धि हुई।
4. जनसंख्या वृद्धि के कारण खाद्यान्नों एवं अन्य भोज्य पदार्थों की मांग में वृद्धि की समस्या उत्पन्न हुई। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की उपलब्धता में कोई विशेष वृद्धि नहीं हो सकी जिससे भारत में प्रतिवर्ष 10 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं। लगभग एक तिहाई लोगों को दो वक्त का भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता।
5. जनसंख्या वृद्धि के कारण बेरोजगारी की समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है क्योंकि रोजगार के अवसर इतनी तेजी से नहीं बढ़ पाते हैं जितनी तेजी से जनशक्ति बढ़ती है।
6. अनियंत्रित जनसंख्या के कारण अनेक सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध न होने के कारण बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं जिसके कारण शहरीकरण की नई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बड़े परिवारों के भार को वहन न कर सकने के कारण लोगों के मस्तिष्क में उद्वेग व अशांति आदि उत्पन्न होने लगती है और वे अनेक कुंठाओं से घिरने लगते हैं। जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव सार्वजनिक सेवाओं की उपलब्धि पर भी पड़ता है। अधिक जनसंख्या के कारण देश में असमान वितरण के कारण राजनैतिक और सामाजिक उपद्रवों को बढ़ावा मिलता है। जिन लोगों को रोजगार प्राप्त नहीं हो पाता है वे गैर सामाजिक गतिविधियों में उलझ जाते हैं इन लोगों की क्रियाओं से सभ्य समाज के लिये असुरक्षा और संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
7. बढ़ती जनसंख्या का प्रभाव फसलों के प्रतिरूप पर भी पड़ता है। प्रत्येक कृषक ऐसी फसलों को प्राथमिकता देता है जिसमें लागत कम और जोखिम की मात्रा भी कम हो यह सर्वविदित है कि अधिक उपज वाली फसलों की लागत अधिक और जोखिम भी अधिक होता है। मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का आदि फसलों में जोखिम कम होता है। कृषक कम जोखिम वाली फसलों का उत्पादन करने को बाध्य हो जाता है क्योंकि ऐसा करने से उसे कम से कम जीवन निर्वाह के साधन तो मिल जाते हैं।
8. खेती की एक जोत पर निर्भर परिवार के सदस्यों की संख्या का एक प्रभाव यह भी पड़ता है कि किसान अपनी कृषि उपज के एक बड़े भाग को स्व उपयोग के लिये अपने पास रखने के लिये बाध्य हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार खाद्यान्न के कुल उत्पादन का 60 से 70 प्रतिशत भाग किसान द्वारा अपने पास स्व उपयोग बीज, पशुओं के चारे के वास्ते रख लिया जाता है। परिणामस्वरूप बिक्री योग्य कृषि उत्पादन के अतिरेक की मात्रा कम हो जाती है।
पर्याप्त खाद्य पदार्थ जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। खाद्य समस्या से आशय क्षेत्रीय आवश्यकता के संदर्भ में खाद्यान्न की कमी से है। यह कमी खाद्यान्न की मात्रात्मक न्यूनता के रूप में हो सकती है या सामान्य पोषण स्तर तक खाद्य पदार्थ उपलब्ध न हो सकने के रूप में हो सकती है। खाद्यान्नों की मात्रात्मक कमी का दबाव अर्थव्यवस्था पर लगातार बना हुआ है। पूर्ति पर मांग का आधिक्य बने रहने के कारण लोगों को न्यूनतम आवश्यक कैलोरी के लिये भी खाद्यान्न नहीं उपलब्ध हो सके हैं। खाद्य और कृषि संगठन के अनुमान के अनुसार सामान्य रूप से प्रति व्यक्ति दैनिक खाद्यान्न उपलब्धित 440 ग्राम होना चाहिए। खाद्य समस्या के गुणात्मक पक्ष का संबंध भारतीयों के भोजन में पोषक तत्वों की कमी से है। प्रोटीन विटामिन, खनिज, वसा, आदि संतुलित भोजन के आवश्यक घटक हैं। परंतु अधिकांश लोगों के भोजन में किसी न किसी तत्व की कमी बनी रहती है। इस कुपोषण और अल्प पोषण के कारण उनकी कार्यक्षमता घटती है। और वे कुसमय बीमारियों के शिकार होने लगते हैं। पोषण सलाहकार समिति 1958 में यह अनुमान लगाया गया था कि 20 से 30 वर्ष की आयु वर्ग के एक स्वस्थ्य पुरुष के लिये 2780 कैलोरी और इस आयुवर्ग की एक महिला के लिये 2080 कैलोरी प्रदान करने वाले भोजन की आवश्यकता है। औसत आधार पर समस्त जनसंख्या के लिये प्रतिदिन 2250 से 3000 कैलोरी और 62 ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता होती है। खाद्य एवं कृषि संगठन (F.A.O.) ने भी पुरुष और स्त्री के लिये क्रमश: 2600 और 1900 कैलोरी का आहार आवश्यक माना है। प्रोटीन, विटामिन, खनिज आदि पोषक तत्व शारीरिक विकास, सम्यक कार्यक्षमता और शारीरिक जंतुओं को स्वस्थ्य बनाए रखने के लिये आवश्यक है। अब हम उक्त दृष्टिकोणों के आधार पर अध्ययन क्षेत्र में खाद्यान्न उत्पादन तथा जनसंख्या संतुलन का विश्लेषण करेंगे।
1. परिणात्मक पहलू :-
किसी क्षेत्र में खाद्यान्नों की मांग को प्रभावित करने वाले तत्व उस क्षेत्र की जनसंख्या तथा क्षेत्र के लोगों द्वारा प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा होते हैं। क्षेत्र में खाद्यान्नों की पूर्ति खाद्यान्नों का उत्पादन एवं उसके समुचित वितरण की मात्रा पर निर्भर करती है।
सारिणी क्रमांक 5.9 अध्ययन क्षेत्र में खाद्यान्न उत्पादन तथा प्रतिव्यक्ति उपभोग की मात्रा 1996 | |||||
फसलें | क्षेत्रफल (हे. में) | कुल उत्पादन (कु. में) | औसत उत्पादन (कु. में) | प्रतिशत | प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष उपभोग की मात्रा (कि. ग्रा. में) |
1. धान | 111905 | 2313076 | 20.67 | 41.32 | 95.08 |
2. गेहूँ | 142838 | 2991028 | 20.94 | 53.42 | 122.94 |
3. जौ | 3585 | 45673 | 12.74 | 0.82 | 1.88 |
4. ज्वार | 6008 | 62363 | 10.38 | 1.11 | 2.56 |
5. बाजरा | 13997 | 153407 | 10.96 | 2.74 | 6.31 |
6. मक्का | 2082 | 33062 | 15.88 | 0.59 | 1.36 |
कुल धान्य | 280415 | 5598609 | 19.97 | 100.00 | 230.12 |
खाद्यान्न उपलब्धता के अतिरिक्त कार्यशील जनसंख्या के लिये दालों की उपलब्धता भी अनिवार्य है क्योंकि दालों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होने के कारण भारतीय भोजन में इसकी प्रमुखता होती है। और अधिकांश कार्यशील जनसंख्या दालों से प्रोटीन की अधिकांश मात्रा प्राप्त करती है। अध्ययन क्षेत्र में पाई जाने वाली दालों में अरहर, उड़द, मूंग, चना तथा मटर प्रमुख रूप में पायी जाती है।
सारिणी 5.10 अध्ययन क्षेत्र में दालों का वितरण 1996 | |||||
दलहनी फसलें | क्षेत्रफल (हे. में) | कुल उत्पादन (कु. में) | औसत उत्पादन (कु. में) | प्रतिशत | प्रतिव्यक्ति दलहन उपलब्धता (किग्रा में) |
1. उड़द | 9652 | 53472 | 5.54 | 12.97 | 2.20 |
2. मूंग | 3465 | 27235 | 7.86 | 6.61 | 1.12 |
3. चना | 8910 | 108167 | 12.14 | 26.23 | 4.45 |
4. मटर | 5121 | 66983 | 13.08 | 16.24 | 2.75 |
5. अरहर | 14679 | 156478 | 10.66 | 37.95 | 6.43 |
कुल दलहन | 41827 | 412335 | 9.86 | 100.00 | 16.95 |
सारिणी क्रमांक 5.10 जनपद में दलहनी फसलों के वितरण को दर्शा रही है। दालों के रूप में अध्ययन क्षेत्र में उड़द, मूंग तथा अरहर का ही समान्यता प्रचलन है चने की दाल का प्रयोग यदा कदा ही किया जाता है इस दृष्टि से अध्ययन क्षेत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष दालों की हिस्सेदारी 10 किलो ग्राम से भी कम है। उड़द 2.20 किलो ग्राम मूंग केवल 1.12 किलो ग्राम तथा अरहर 6.43 किलो ग्राम है। चने को भी यदि दालों के अंतर्गत सम्मिलित कर लें तो लगभग 14 किलो ग्राम प्रतिव्यक्ति उपलब्ध हो पा रही है। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन यदि दालों की उपलब्धता देखें तो यह औसत मात्रा 26.69 ग्राम आता है जो मानक से बहुत कम है। जनपद में दलहनी फसलों की भागीदारी की दृष्टि से अरहर 37.95 प्रतिशत तथा चना 26.23 प्रतिशत है जबकि मूंग मात्र 6.61 प्रतिशत न्यूनतम भागीदार कर रही है। औसत उत्पादन में मटर 13.08 क्विंटल प्रति हे. सर्वाधिक है। जबकि उड़द का औसत उत्पादन 5.54 कु. प्रति हेक्टेयर न्यूनतम है। इस प्रकार समस्त खाद्यान्न जिसमें अन्न तथा दलहन दोनों को सम्मिलित कर लिया जाये तो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष केवल 239.87 किलो ग्राम है जो मानक से अत्यंत कम है।
विकासखंड स्तर पर खाद्यान्न उपलब्धता :-
विकासखंड स्तर पर खाद्यान्नों की उपलब्धता ज्ञात करने के लिये शोधकर्ता ने प्रत्येक विकासखंड से एक-एक गाँव देव निर्देशन के आधार पर चुना। चुने हुए गाँव से पुन: दैव निर्दशन के आधार पर 20-20 कृषकों का चुनाव किया गया जिनका प्रश्नावली तथा अनुसूची के माध्यम से गहन सर्वेक्षण किया गया है। सर्वेक्षण के माध्यम से प्रत्येक गाँव के कृषकों की औसत उपज अलग-अलग ज्ञात की गयी जिसे विकासखंड की उपज का मानक मानते हुए विकासखंड स्तर पर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता की गणना की गयी है इस गणना से प्राप्त परिणाम को सारिणी क्रमांक 5.11 में प्रस्तुत किया गया है।
सारिणी क्रमांक 5.11 विकासखंड स्तर पर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता | ||||||||||
क्र. | विकासखंड | अन्न | दलहन | कुल खाद्यान्न | ||||||
कुल उत्पादन (कु. में) | प्रति व्यक्ति (किलोग्राम) | प्रतिदिन (ग्राम) | कुल उत्पादन (कु. में) | प्रति व्यक्ति (किलोग्राम) | प्रतिदिन (ग्राम) | कुल उत्पादन (कु. में) | प्रति व्यक्ति (किलोग्राम) | प्रतिदिन (ग्राम) | ||
1 | कालाकांकर | 345278 | 253.03 | 693 | 15816 | 11.59 | 31 | 361094 | 264.62 | 724 |
2 | बाबागंज | 477218 | 321.24 | 879 | 13390 | 9.01 | 25 | 490608 | 330.25 | 904 |
3 | कुण्डा | 436342 | 235.00 | 642 | 28230 | 15.17 | 42 | 464572 | 250.17 | 684 |
4 | बिहार | 518753 | 304.31 | 833 | 17076 | 10.02 | 27 | 535829 | 314.33 | 860 |
5 | सांगीपुर | 363504 | 245.88 | 673 | 45443 | 30.74 | 84 | 408947 | 276.62 | 757 |
6 | रामपुरखास | 543085 | 292.07 | 799 | 27175 | 14.61 | 40 | 570260 | 306.63 | 839 |
7 | लक्ष्मणपुर | 288448 | 209.12 | 573 | 21250 | 15.41 | 42 | 309698 | 224.53 | 615 |
8 | संडवा चंद्रिका | 229090 | 176.89 | 484 | 43892 | 33.89 | 93 | 272982 | 210.78 | 577 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 178086 | 118.19 | 324 | 40682 | 27.00 | 74 | 218768 | 145.19 | 398 |
10 | मान्धाता | 375588 | 226.18 | 619 | 22066 | 13.29 | 36 | 397654 | 239.47 | 655 |
11 | मगरौरा | 447576 | 262.75 | 719 | 29515 | 17.33 | 47 | 477091 | 280.08 | 766 |
12 | पट्टी | 363580 | 308.39 | 844 | 21396 | 18.15 | 50 | 384976 | 326.54 | 894 |
13 | आसपुर देवसरा | 380813 | 259.74 | 711 | 18400 | 12.55 | 34 | 399213 | 272.29 | 745 |
14 | शिवगढ़ | 274444 | 182.94 | 501 | 43942 | 29.29 | 80 | 318386 | 212.23 | 581 |
15 | गौरा | 387910 | 258.64 | 708 | 20882 | 13.92 | 38 | 408792 | 272.56 | 746 |
| ग्रामीण औसत | 5609715 | 244.50 | 669 | 409155 | 17.83 | 49 | 6018870 | 262.33 | 718 |
विकासखंड स्तर पर प्रति व्यक्ति अन्न उपलब्धता की दृष्टि से देखें तो बाबागंज विकासखंड 321.24 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष उत्पादन करके वरीयता क्रम में प्रथम स्थान पर है। इस विकासखंड में धान तथा गेहूँ की दो फसलें लगभग 88 प्रतिशत क्षेत्र पर उगाई जाती है। प्रति व्यक्ति अन्न उत्पादन की दृष्टि से प्रतापगढ़ सदर केवल 118.19 किलोग्राम उत्पादन करके न्यूनतम स्तर को प्रदर्शित कर रहा है। यह विकासखंड अन्न उत्पादन में केवल गेहूँ के उत्पाद में प्रमुख स्थान रखता है गेहूँ के बाद इस विकासखंड में मोटे अनाजों को विशेष स्थान प्राप्त है परंतु फिर भी यह विकासखंड अन्न उत्पादन में निम्नतम स्तर पर है। 300 किलोग्राम से अधिक प्रतिव्यक्ति अन्न उत्पादन करने वाले विकासखंडों में बाबागंज के अतिरिक्त पट्टी 308.39 किलोग्राम तथा बिहार विकासखंड 304.31 किलोग्राम हैं। 250 से 300 किलोग्राम के मध्य रामपुरखास 292.02 किलोग्राम, मगरौरा 262.75 किलोग्राम, आसपुर देवसरा 259.74 किलोग्राम, गौरा 258.64 किलोग्राम तथा कालाकांकर विकासखंड 253.03 किलोग्राम स्थित है। 200 से 250 किलोग्राम के मध्य सांगीपुर 245.88 किलोग्राम, कुंडा 235.00 किलोग्राम, मांधाता 226.18 किलोग्राम तथा लक्ष्मणपुर 209.12 किलोग्राम स्थित है। अन्य विकासखंड शिवगढ़ 182.94 तथा संडवा चंद्रिका 176.89 किलोग्राम लगभग एक समान स्तर को प्रदर्शित कर रहे हैं।
दलहन के उत्पादन में प्रति व्यक्ति उपलब्धता की दृष्टि से संडवा चंद्रिका विकासखंड 33.89 किलोग्राम उत्पादन करके प्रथम स्थान पर है। इसके विपरीत बाबागंज विकासखंड मात्र 9.01 किलोग्राम उत्पादन करके न्यूनतम स्तर पर है। अन्य विकासखंड इन दोनों विकासखंडों के मध्य स्थित है। कुल खाद्यान्न उत्पादन की दृष्टि से बाबागंज विकासखंड प्रथम स्थान पर है। जबकि प्रतापगढ़ सदर न्यूनतम स्तर पर है। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन खाद्यान्न उपलब्धता पर दृष्टिपात करने पर प्रतापगढ़ सदर मात्र 398 ग्राम ही खाद्यान्न उपलब्ध करा पा रहा है जबकि बाबागंज विकासखंड इससे दोगुने से भी अधिक 904 ग्राम प्रतिव्यक्ति उत्पन्न कर रहा है।
2. गुणात्मक पहलू :-
अध्ययन क्षेत्र में अधिकांश पोषक तत्व खाद्यान्नों से प्राप्त किये जाते हैं। यह अनुमान है कि कुल प्राप्त कैलोरी में से दो तिहाई से भी अधिक भाग खाद्यान्नों से मिलता है। खाद्य और कृषि संगठन के एक अध्ययन के अनुसार वे देश जहाँ के आहार में खाद्यान्न जड़दार सब्जियाँ और चीनी की बहुलता हो वहाँ पोषण संबंधी स्पष्ट असंतुलन पाया जाता है। भारतीय आहार में इन तत्वों का अंश दो तिहाई से अधिक है। भारत में मध्य वर्गीय परिवारों के अतिरिक्त शेष लोग संतुलित आहार नहीं पाते हैं। जिसके कारण वे कुपोषण के शिकार हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट 1992 के अनुसार प्रति व्यक्ति औसतन अपने भोजन से 1965 में प्रतिदिन 2021 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करता था जो 25 वर्षों बाद 1989 में बढ़कर 2229 कैलोरी हो गई है। जो जीवित रहने के लिये आवश्यक ऊर्जा 2250 कैलोरी से 21 कैलोरी कम है। पोष्टिक और संतुलित आहार न मिलने से गर्भवती महिलायें जिन बच्चों को जन्म देती हैं उनमें से लगभग 30 प्रतिशत बच्चे सामान्य वजन से कम होते हैं, बच्चों में तरह-तरह की कुपोषण जन्य बीमारियाँ होती हैं। तथा शिशु मृत्युदर बहुत अधिक है और जीवन प्रत्याशा अन्य देशों की तुलना में कम है।
पोषण स्तर के अध्ययन के लिये प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन तथा उपभोग के लिये प्रति व्यक्ति शुद्ध खाद्यान्न उपलब्धता दोनों भिन्न पहलू हैं। जहाँ प्रति व्यक्ति उत्पादन कृषि क्षेत्र के उत्पादन स्तर का सूचक है वहीं प्रति व्यक्ति शुद्ध खाद्यान्न उपलब्धता पोषण स्तर का प्रतीक है। यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि संतुलित आहार में केवल खाद्यान्नों की मात्रा का ही योगदान नहीं होता है बल्कि खाद्यान्नों से प्राप्त होने वाली कैलोरिक ऊर्जा पर निर्भर करता है। विकासखंड स्तर पर विभिन्न खाद्यान्नों से प्राप्त होने वाली कैलोरिक ऊर्जा तथा प्रति व्यक्ति कैलोरिक उपलब्धता को दर्शानें के पूर्व हमें इस बात का उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि कुल उत्पादन में से खाने योग्य खाद्यान्न की गणना विभिन्न विद्वानों ने की है। सिंह जसबीर (1974) ने कुल उत्पादन में से 16.80 प्रतिशत, तिवारी पीडी (1988) 15 प्रतिशत, सिंह एसपी (1991) ने 24 प्रतिशत मात्रा घटाकर उपभोग के लिये शुद्ध उत्पादन प्राप्त किया है। यहाँ पर हम विभिन्न खाद्यान्नों से उपभोग के लिये शुद्ध उत्पादन प्राप्त करने के लिये सिंह एसपी की गणना को आधार मानते हुए विकासखंड स्तर पर खाद्यान्नों से प्राप्त प्रति व्यक्ति कैलोरिक ऊर्जा की गणना कर रहे हैं। उनके अनुसार विभिन्न खाद्यान्नों में खाने योग्य मात्रा की गणना में सर्वप्रथम विभिन्न खाद्यान्नों में से 10 प्रतिशत बीज, पशु आहार तथा भंडारण क्षय घटा दिया जाता है। इसके उपरांत शेष बचे हुए शुद्ध उत्पादन में से छीजन (अखाद्य भाग) घटा दिया जाता है जो विभिन्न खाद्यान्नों के लिये अलग-अलग होता है जैसे गेहूँ के लिये 10 प्रतिशत, धान के लिये 40 प्रतिशत जौ के लिये 10 प्रतिशत, मोटे अनाज (ज्वार, बाजरा, तथा मक्का) के लिये 10 प्रतिशत, अरहर तथा चना के लिये 35 प्रतिशत, उड़द मूंग तथा मटर के लिये 30 प्रतिशत लाही के लिये 2 प्रतिशत तथा आलू के लिये 25 प्रतिशत निर्धारित किया गया है। छीजन घटाने के बाद खाने योग्य भाग को कैलोरिक ऊर्जा में परिवर्तित करके भूमि भार वहन क्षमता की गणना की गई है।
सारिणी क्रमांक 5.12 विकासखंड स्तर पर खाद्यान्नों से उपभोग योग्य मात्रा | ||||||||||
क्र. | विकासखंड | अन्न | दलहन | कुल खाद्यान्न | ||||||
उपयोग योग्य (कु. में) | प्रतिव्यक्ति (किलो ग्राम) | प्रतिदिन (ग्राम) | कुल उपयोग योग्य (कु. में) | प्रतिव्यक्ति (किलो ग्राम) | प्रतिदिन (ग्राम) | उपयोग योग्य (कु. में) | प्रतिव्यक्ति (किलो ग्राम) | प्रतिदिन (ग्राम) | ||
1 | कालाकांकर | 237357 | 173.94 | 476 | 9618 | 7.05 | 19 | 246975 | 180.99 | 495 |
2 | बाबागंज | 355331 | 225.73 | 618 | 8264 | 5.56 | 15 | 343595 | 231.29 | 633 |
3 | कुण्डा | 303784 | 163.32 | 447 | 16761 | 9.01 | 25 | 320545 | 172.33 | 472 |
4 | बिहार | 353159 | 207.17 | 567 | 10929 | 6.41 | 18 | 364088 | 213.58 | 585 |
5 | सांगीपुर | 262511 | 177.57 | 486 | 27436 | 18.56 | 51 | 289947 | 196.13 | 537 |
6 | रामपुरखास | 320482 | 172.33 | 472 | 16510 | 8.88 | 24 | 336992 | 181.21 | 496 |
7 | लक्ष्मणपुर | 205202 | 148.77 | 407 | 12747 | 9.24 | 25 | 217949 | 158.01 | 432 |
8 | संडवा चंद्रिका | 172457 | 133.16 | 365 | 26166 | 20.20 | 55 | 198623 | 153.36 | 420 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 128994 | 85.61 | 234 | 24098 | 15.99 | 44 | 153092 | 101.60 | 278 |
10 | मान्धाता | 259881 | 156.44 | 428 | 13338 | 8.03 | 22 | 273119 | 164.47 | 450 |
11 | मगरौरा | 309295 | 181.57 | 497 | 17671 | 10.37 | 29 | 326966 | 191.94 | 526 |
12 | पट्टी | 247319 | 209.78 | 574 | 12867 | 10.91 | 30 | 260186 | 220.69 | 604 |
13 | आसपुर देवसरा | 269662 | 183.93 | 504 | 11114 | 7.58 | 21 | 280776 | 191.51 | 525 |
14 | शिवगढ़ | 199228 | 132.80 | 364 | 26047 | 17.36 | 47 | 225275 | 150.16 | 411 |
15 | गौरा | 275731 | 183.84 | 503 | 12763 | 8.51 | 23 | 288494 | 192.35 | 526 |
| समग्र | 3880293 | 169.13 | 463 | 246329 | 10.74 | 29 | 4126662 | 179.86 | 492 |
विकासखंड स्तर पर खाद्यान्न उपलब्धता सारिणी क्रमांक 5.12 में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें खाद्यान्न उपलब्धता के दृष्टिकोण से बाबागंज विकासखंड वरीयता क्रम में प्रथम स्थान पर है जहाँ प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति 231.29 किलोग्राम शुद्ध खाद्यान्न उपलब्ध हो रहा है जो प्रतिदिन 633 ग्राम प्रति व्यक्ति आकलित किया गया। इस विकासखंड में धान तथा गेहूँ फसलों की प्रधानता है और जो सकल कृषि क्षेत्र के 88 प्रतिशत क्षेत्र पर अधिकार किये हैं। पट्टी विकासखंड 220.69 कि. ग्राम खाद्यान्न उपलब्ध कराकर द्वितीय स्थान पर है जहाँ प्रतिदिन 604 ग्राम शुद्ध खाद्यान्न उपलब्ध हो रहा है, इस विकासखंड में भी धान और गेहूँ की ही प्रधानता है ये फसलें 82 प्रतिशत से भी अधिक क्षेत्र पर आच्छादित है। इस दृष्टि से प्रतापगढ़ सदर मात्र 101.60 किलो ग्राम प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्ध कराकर न्यूनतम स्तर को प्रदर्शित कर रहा है। इस विकासखंड में विभिन्न फसलों में गेहूँ का क्षेत्रफल तो 32 प्रतिशत से अधिक रखते हुए गेहूँ की प्रधानता है। परंतु सिंचन सुविधाओं के अभाव के कारण मोटे अनाज भी अपना स्थान बनाये हुए हैं।
जहाँ तक दलहन की उपलब्धता का प्रश्न है तो संडवा चंद्रिका 55 ग्राम प्रतिदिन उपलब्ध कराकर सर्वोत्तम स्थिति में है जहाँ दलहनी फसलों में चना, अरहर, उड़द तथा मूंग 15 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में उगाई जाती है जबकि सांगीपुर प्रतिदिन 51 ग्राम के स्तर को प्राप्त करके द्वितीय स्थान पर है। यहाँ पर भी उक्त दलहनी फसलों का वर्चस्व है। बाबागंज विकासखंड इस दृष्टि से मात्र 15 ग्राम प्रतिदिन दलहन उपलब्ध कराकर न्यूनतम स्तर पर स्थित है। जबकि कालाकांकर तथा बिहार विकासखंड क्रमश: 17 ग्राम तथा 18 ग्राम दलहन की उपलब्धता रखकर न्यूनाधिक एक ही स्तर को प्रदर्शित कर रहे हैं। दलहन की उपलब्धता के दृष्टिकोण से लगभग सभी विकासखंड मानक स्तर से नीचे है। जो संपूर्ण जनपद के पोषण स्तर पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल रहे हैं।
(3) कैलोरिक उपलब्धता के आधार पर भूमि भार वहन क्षमता :-
किसी क्षेत्र में कृषि विकास तथा नियोजन में जनसंख्या तथा पोषण क्षमता के पारस्परिक संबंध का एक विशेष महत्त्व है। किसी क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या के पोषण स्तर को एक सामान्य स्तर पर बनाये रखने के लिये उस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन की आवश्यक मात्रा की तो आवश्यकता होती है साथ ही यह भी देखना होता है कि उस क्षेत्र की कृषि भूमि की वास्तविक भार वहन क्षमता कितनी है? अर्थात जो भी कृषि उपज प्राप्त हो रही है वह कितने व्यक्तियों का पोषण करने में सक्षम है इसके लिये हमें यह यह देखना होता है कि क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली कृषि उपज से कितनी कैलोरिक ऊर्जा प्राप्त होती है। यह कैलोरिक उपलब्धता ही उस क्षेत्र के कृषि क्षेत्र की पोषण क्षमता होती है। भूमि भार वहन की गणना के लिये डॉ. जसबीर सिंह (1974) में एक सरल मॉडल का प्रतिपादन किया जिसमें प्रति इकाई कृषि क्षेत्र के कुल उत्पादन को औसत उत्पादन के आधार पर कैलोरिक ऊर्जा में परिवर्तन किया और उसी कैलोरिक उपलब्धता को उस क्षेत्र की भूमि भार वहन क्षमता का नाम दिया है। यहाँ पर हम डॉ. सिंह के मॉडल के आधार पर अध्ययन क्षेत्र की भूमि भार वहन क्षमता का विश्लेषण कर रहे हैं।
सारिणी क्रमांक 5.13 अध्ययन क्षेत्र की भूमि भार वहन क्षमता | ||||||||||
सं. | खाद्य फसलें | प्रति हे. उत्पादन कि. ग्राम | जोती गयी भूमि का प्रतिशत | सकल उत्पादन किलोग्राम | बीज भंडारण आदि क्षय प्रतिशत | कुल शुद्ध उत्पादन किलोग्राम | खाने योग्य भाग प्रतिशत | खाने योग्य शुद्ध मात्रा किलोग्राम | प्रति किलोग्राम कैलोरी | कुल कैलोरिक उपलब्धता |
1 | धान | 2667 | 32.8 | 66309.36 | 10 | 59678.42 | 60 | 35807.05 | 3450 | 123534324 |
2 | गेहूँ | 2094 | 40.95 | 85749.30 | 10 | 77174.37 | 95 | 73315.65 | 3460 | 253672149 |
3 | जौ | 1274 | 1.03 | 1312.22 | 10 | 1181.00 | 90 | 1062.90 | 3360 | 3571344 |
4 | ज्वार | 1038 | 1.72 | 1785.36 | 10 | 1606.82 | 90 | 1446.14 | 3490 | 5047029 |
5 | बाजरा | 1096 | 4.01 | 4394.96 | 10 | 3955.46 | 90 | 3559.91 | 3610 | 12851275 |
6 | मक्का | 1588 | 0.60 | 952.80 | 10 | 857.52 | 90 | 771.77 | 3420 | 2639453 |
7 | उड़द | 554 | 2.77 | 1534.58 | 10 | 1381.12 | 70 | 966.78 | 3310 | 3200042 |
8 | मूंग | 786 | 0.99 | 778.14 | 10 | 700.33 | 70 | 490.23 | 3510 | 1720707 |
9 | चना | 1214 | 2.55 | 3095.70 | 10 | 2786.13 | 65 | 1810.98 | 3720 | 6736846 |
10 | मटर | 1308 | 1.47 | 1922.76 | 10 | 1730.48 | 65 | 1124.81 | 3150 | 3543152 |
11 | अरहर | 1066 | 4.21 | 4487.86 | 10 | 4039.07 | 70 | 2827.35 | 3350 | 9471623 |
12 | लाही | 856 | 0.62 | 530.72 | 2 | 520.11 | 35 | 182.04 | 9000 | 1638360 |
13 | गन्ना | 49674 | 0.87 | 43216.38 | 10 | 38894.74 | 12 | 4667.37 | 3830 | 17876027 |
14 | आलू | 18842 | 2.19 | 41351.58 | 25 | 31013.69 | - | 31013.69 | 970 | 30083279 |
| योग |
| 96.06 |
|
|
|
|
|
| 475585610 |
सारिणी क्रमांक 5.14 विभिन्न आयुवर्ग के लोगों की औसत वार्षिक कैलोरिक आवश्यकता | |||||
आयुवर्ग | कुल जनसंख्या | प्रतिदिन संस्तुत मात्रा कैलोरी | कुल मात्रा कैलोरी | ||
बच्चे | पुरुष | स्त्री | |||
1 वर्ष से कम | 4.98 |
|
| 700 | 3486 |
1 से तीन वर्ष | 4.42 |
|
| 1200 | 5904 |
3 से 6 वर्ष, | 5.88 |
|
| 1500 | 8820 |
6 से 9 वर्ष, | 5.24 |
|
| 1800 | 9432 |
9 से 12 वर्ष, | 5.46 |
|
| 2100 | 11466 |
12 से 15 वर्ष, |
| 4.96 |
| 2500 | 12400 |
12 से 15 वर्ष, |
|
| 4.14 | 2200 | 9108 |
15 से 18 वर्ष, |
| 5.94 |
| 3000 | 17820 |
15 से 18 वर्ष, |
|
| 4.28 | 2200 | 9416 |
18 से अधिक |
| 28.25 |
| 2800 | 79100 |
18 से अधिक |
|
| 16.49 | 2500 | 41225 |
गर्भवती महिलायें, |
|
| 4.98 | 3300 | 16434 |
स्तनपान कराती महिलायें, |
|
| 4.98 | 3700 | 18426 |
योग |
| 39.15 | 34.87 |
| 243037 |
विकासखंड स्तर पर अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता
विकासखंड स्तर पर अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता की गणना करने पर ज्ञात होता है कि अध्ययन क्षेत्र के विकासखंडों में प्रतिवर्ग किलोमीटर 419 व्यक्तियों से लेकर 612 व्यक्तियों तक का अंतर दिखायी पड़ा जिसे सारिणी 5.15 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी क्रमांक 5.15 विकासखंड स्तर पर अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता | ||||
क्र. | विकासखंड | अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता | कायिक घनत्व | भूमि भार वहन क्षमता तथा कायिक घनत्व में अंतर |
1 | कालाकांकर | 527 | 665 | + 138 |
2 | बाबागंज | 550 | 572 | + 22 |
3 | कुण्डा | 547 | 714 | + 167 |
4 | बिहार | 575 | 634 | + 59 |
5 | सांगीपुर | 501 | 577 | + 76 |
6 | रामपुरखास | 537 | 607 | + 70 |
7 | लक्ष्मणपुर | 534 | 747 | + 213 |
8 | संडवा चंद्रिका | 515 | 693 | + 178 |
9 | प्रतापगढ़ सदर | 419 | 918 | + 499 |
10 | मान्धाता | 562 | 746 | + 184 |
11 | मगरौरा | 528 | 600 | + 72 |
12 | पट्टी | 612 | 591 | - 21 |
13 | आसपुर देवसरा | 592 | 631 | + 39 |
14 | शिवगढ़ | 527 | 765 | + 238 |
15 | गौरा | 573 | 611 | + 38 |
| संपूर्ण जनपद | 558 | 697 | + 139 |
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र के पट्टी विकासखंड को छोड़कर अन्य सभी विकासखंड वहाँ के निवासियों के आवश्यक कैलोरिक ऊर्जा से कम खाद्यान्न उत्पादन कर रहे हैं जिससे उन्हें न्यूनाधिक अतिरिक्त व्यक्तियों का भार वहन करना पड़ रहा है। जिसका कारण भूमि का असमान वितरण भोजन में खाद्यान्नों की प्रमुखता, भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की न्यूनता तथा निष्कृष्ट कोटि के पोषक तत्वों से युक्त भोजन, विभिन्न पोषक तत्वों का असंतुलित समायोजन कुपोषण की समस्या को जन्म देते हैं, अध्ययन क्षेत्र कुपोषण की समस्या से मुक्त नहीं है।
सारिणी क्रमांक 5.16 भूमि भार वहन क्षमता की श्रेणी | |||
भूमिभार वहन क्षमता | श्रेणी | विकासखंडों की संख्या | विकासखंडों का नाम |
450 से कम | निम्नतम | 01 | 1. प्रतापगढ़ सदर |
451 से 500 तक | निम्न | शून्य | - |
501 से 550 तक | सामान्य | 09 | 1. कालाकांकर 2. बाबागंज 3. कुंडा 4. सांगीपुर 5. रामपुर खास 6. लक्ष्मणपुर 7. संडवा चंद्रिका 8. मगरौरा 9. शिवगढ़ |
551 से 600 तक | उच्च | 04 | 1. बिहार 2. मांधाता 3. आसपुर देवसरा 4. गौरा |
601 से अधिक | उच्चतम | 01 | 1. पट्टी |
कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन (भाग-1) पढ़ने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें
कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव |