सारांश
जम्मू और कश्मीर तीन अलग-अलग भौतिक क्षेत्रों में विभाजित देश का उत्तरी राज्य है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख, क्रमशः चिनाब, झेलम और सिंधु नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में आते हैं। कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र जल संसाधनों की पर्याप्त मात्रा के साथ संपन्न हैं, जो ज्यादातर हिमनद, हिमपात, झीलों और आर्द्रभूमि के रूप में हैं। जम्मू क्षेत्र में उपोष्णकटिबंधीय, मध्यवर्ती और समशीतोष्ण क्षेत्र शामिल हैं। उपोष्णकटिबंधीय बेल्ट के अधिकांश भाग में जल की आपूर्ति वर्षा द्वारा ही होती है, इस क्षेत्र को स्थानीय रूप से कंडी बेल्ट कहा जाता है। राज्य में कंडी बेल्ट पूर्व में रावी नदी और जम्मू और कठुआ जिलों के भीतर पश्चिम में मुनव्वरतवी के बीच विस्तारित है। कंडी बेल्ट का कुल क्षेत्रफल लगभग 811 वर्ग किलोमीटर माना जाता है, जिनमें से ऊपरी भाग 610 वर्ग किलोमीटर एवं निचला भाग 201 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का है। कंडी बेल्ट का अधिकांश भूभाग उदिनीय स्थलाकृति का है जिसमें मुख्य रूप से तीव्र एवं अनियमित ढलान हैं एवं कटाव प्रवरत मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता बहुत ही कम है। क्षेत्र में भूजल का स्तर भी गहरा है। मिट्टी के ढीले स्वरूप के चलते अत्यंत कटाव होता है जिससे कृषि एवं जल संबंधी समस्याएँ आए दिन उत्पन्न होती हैं। बरसाती नालों के आकस्मिक और तेज प्रवाह के कारण ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी का निरंतर कटाव होता रहता है। यह क्षेत्र मानसून के अलावा वर्ष भर जल की भीषण कमी से गुजरता है।
अर्ध पहाड़ी कंडी बेल्ट आम तौर पर चश्मों, बाओली से रहित है जबकि स्थानीय बहने वाले नालो में बरसात में तो बहुत ज्यादा पानी रहता है परन्तु वर्ष के अन्य समय ये बिल्कुल सूख जाते हैं। पानी की ऐसी गंभीर कमी के चलते ‘परम्परागत तालाब’ पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत थे और लगभग 60 के दशक तक स्थानीय समुदाय की पानी की जरूरतों को पूरा करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। अधिकांश तालाबों की रचना इस तरह से करी गयी थी कि आसपास के नालों से अपवाह का एक हिस्सा तालाबों में आ जाता था। समय के साथ सामुदायिक संस्थाओं में आयी गिरावट के कारण इनके रखरखाव में निरंतर कमी आयी साथ ही स्थानीय लोगों द्वारा जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण के कारण इस पौराणिक जल भंडारण प्रणाली को गंभीर रूप से बाधित किया है। 20 वीं शताब्दी के मध्य तक घरों में पाइप द्वारा पेयजल की पूर्ति के कारण इन तालाबों की उपेक्षा होने लगी। जल संचयन की इस पारंपरिक प्रणाली का अभी तक कोई विकल्प नहीं है, इस प्रणाली को जीवंत करने के लिए पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रीय केंद्र-जम्मू, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान-रुड़की ने कंडी क्षेत्र के विभिन्न तालाबों की एक सूची तैयार कर इनके विभिन्न पहलुओं जैसे की जल गुणवत्ता, भौतिक-रसायनिक अध्ययन, जीवाणु विज्ञानीय विश्लेषण एवं जलीय सर्वेक्षण आदि का अध्ययन किया। स्थानीय योजनाकारों को व्यापक आकड़े प्रदान करने के लिए, कंडी बेल्ट में स्थित तालाबों की एक विस्तृत सूची तैयार की गई है। सर्वे ऑफ इंडिया टॉपोशीट (पैमाना 1: 50,000) से कुल 365 तालाबों के क्षेत्र विस्तार का अंकीकरण किया गया है, जिसमें 249 तालाब जम्मू जिले एवं 116 तालाब कठुआ जिले में पाये गए। इन 365 तालाबों में केवल 165 तालाब ही ऐसे पाये गए जो की साल के 12 माह में जल से पूरित रहते हैं। यह पाया गया है कि कंडी क्षेत्र के सभी तालाबों का कुल जल फैलाव क्षेत्रफल 1.5 वर्ग किलोमीटर का है जिनमें से की 16 तालाब ऐसे पाये गए जिनका क्षेत्रफल 1 हेक्टेयर से ज्यादा का है, 4 तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 2 हेक्टेयर से ज्यादा का है। इनमें सर्वाधिक क्षेत्रफल ‘सुंगवाल’ तालाब का पाया गया जोकि सांबा तहसील में है। कुल 71 ऐसे तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 0.5 से 1 हेक्टेयर के बीच है।
मुख्य रूप से घरेलू कार्यों के लिए तालाब के पानी की उपयुक्तता को देखने के लिए 32 तालाबों की जल गुणवत्ता का आंकलन किया गया है। BIS और WHO मानकों के संदर्भ में भौतिक-रसायनिक और जीवाणुविज्ञानीय आकड़ों का विश्लेषण किया गया है। सभी भौतिक-रासायनिक घटकों की सांद्रता वांछनीय सीमा के भीतर पाई गई, जबकि तालाब के पानी का बैक्टीरियोलॉजिकल विश्लेषण सभी तालाबों का बैक्टीरिया से दूषित होने का संकेत देता है। तालाबों में बैक्टीरिया के संदूषण के लिए तालाब के आस-पास अनुचित स्वच्छता और फैली गन्दगी जिम्मेदार हो सकती है और यह बहुत चिंता का विषय है। ऐसे स्रोतों से निकले गए पानी को घरेलू उद्देश्य में काम लाने से पहले विसंक्रमित करने की अति आवश्यकता है।
मासिक आधार पर ग्राम बड़होरी (तहसील सांबा, जिला जम्मू) में एक तालाब के जलविज्ञानीय जल संतुलन अध्ययन से पता चलता है कि प्रचलित जलवायु और मिट्टी की स्थिति के तहत केवल एक तिहाई क्षमता का उपयोग किया जा रहा है। यदि वाष्पीकरण और अन्य नुकसानों को उपयुक्त उपायों के माध्यम से कम किया जा सकता है, तो स्थानीय खपत के लिए अधिक पानी उपलब्ध होगा, और तालाब की उपलब्ध क्षमता का उपयोग मवेशियों और बागवानी प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है। सोहल तालाब के एक अन्य जलविज्ञानीय अध्ययन से पता चलता है कि यदि तालाब के जल का प्रयोग न किया जाये तो वर्ष भर इसमें 0.5 मीटर गहरा जल बना रह सकता है। मानसून के मौसम में, तालाब से काफी मात्रा में प्रवाह निकलता है। यदि इस तरह के अधिशेष अवधि के दौरान तालाब के पानी को सिंचाई या अन्य घरेलू उपयोग के लिए मोड़ दिया जाता है, तो तालाब के भंडारण का उपयोग बेहतर तरीके से किया जा सकता है।
संक्षेप में, गांव के तालाबों के माध्यम से जल संचयन की सदियों पुरानी प्रणाली के विलुप्त होने के परिणामस्वरूप गैर-मानसून महीनों के दौरान पानी की अत्यंत कमी होने लगी है। यद्यपि इस क्षेत्र में 1200 मिमी से अधिक की औसत से वर्षा होती है, फिर भी इस पानी के संचय में कमी है, जो जल संकट के मूल कारणों में से एक है। कंडी-बेल्ट के गावों के तालाबों के कायाकल्प के लिए एक योजना की आवश्यकता है, जो पारंपरिक लोक ज्ञान और आधुनिक तकनीके जैसे रिमोट सेंसिंग और जीआईएस, भूविज्ञान और भूभौतिकी, मृदा विज्ञान आदि के कौशल का उपयोग करके इन तालाबों को पुनर्जीवित करे। कुंजीशब्दः कंडी बेल्ट, परम्परागत तालाब, जलविज्ञानीयअध्ययन
Abstract
Jammu and Kashmir is the northern state of the country divided into three distinct physiographic regions, i.e., Jammu, Kashmir and Ladakh which are drained by three distinct River basins, namely Chenab, Jhelum and Indus River. Kashmir and Ladakh regions are endowed with ample amount of water resources mostly in the form of glaciers, snowmelt, lakes and wetlands. Jammu region comprises of subtropical, intermediate and temperate areas.Maximum of area under tropical belt is rain-fed, locally known as Kandi belt. The Kandi belt in the state is extended between River Ravi in the east and Munawar Tawi on the west within the Jammu and Kathua Districts. Total area of the Kandi belt is estimated to be 811 km2, of which the upper and lower Kandi belts constitute 610 km2 and 201 km2, respectively. Most of the terrain of Kandi belt has undulating topography, steep and irregular slopes, erodible and low water retentive soils and badly dissected terrain by numerous gullies. Ground water table is deep.The soil loss has affected the agricultural production and hydrological regime to a large extent. Flashy flows of the streams and rivulets in the Kandi belt has denudedmost of the top fertile soil, and due to excess runoff, the area remains devoid of water except in the monsoon months.
The semi hilly kandi belt is generally devoid of any spring or baolies and the number of Choes (torrential streams) pass through the Kandi-belt, manifesting “too little or too high” syndrome. In such severe water scarcity situation, ponds were single vital source of water and played a crucial role for meeting local community water needs till 1960. Most ponds were so designed that a part of the runoff from adjoining rivulets could be trapped. Over the years, poor maintenance due to decline in community institutions and encroachment in the catchment area by local persons have severely hampered this old-age water storage system. By the middle of 20thcentury, introduction of piped drinking water supply speeded the negligence of these ponds. To rejuvenate this traditional system of water harvesting, not having any substitute yet, Western Himalayan Regional Centre-Jammu, a regional centre of National Institute of Hydrology-Roorkee, conducted a series of studies comprisingdifferent aspect of Kandi ponds, such as hydrological problems of the area, mapping and inventory of Kandi ponds, physico-chemical and bacteriological analysis of pond waters and hydrological evaluation of selected ponds of the Kandi belt.
To provide comprehensive data for the local planners, a detailed inventory of ponds located in the Kandi belt has been prepared. A total of 365 ponds have been delineated from SOI toposheet (scale 1:50000), 249 ponds are located in the Kandi belt falling in Jammu district and remaining 116 in Kathua district. Among 365 ponds, only 165 ponds are perennial in nature. It is found that the total water spread area of all ponds in the Kandi belt comes to 1.5 km 2. Sixteen ponds, with water spread area greater than 1 hectare, were mapped in the study area. Four ponds have a water spread area of more than 2 ha. The largest pond is located at Sungwal in Samba tehsil of Jammu district. Seventy one ponds have water spread area between 0.5 hectare and 1 hectare.
The water quality of thirty two ponds has been assessed to see the suitability of pond water mainly for domestic purposes. The physico-chemical and bacteriological data wereanalyzed with reference to BIS and WHO standards. Concentrations of all physico-chemical constituents were found within the desirable limits, whereas the bacteriological analysis of the pond water indicates bacterial contamination in all the ponds. Improper sanitation and unhygienic conditions around the structure may be responsible for bacterial contamination in theses ponds and is a cause of great concern. It is recommended that the water drawn from such sources should be properly disinfected before use for drinking and other domestic purposes.
Hydrological water balance study of a pond in village Badhori(Tehsil Samba, district Jammu) on monthly basis shows that only about one third capacity is being utilised under the prevailing climatic and soil conditions. If evaporation and other losses can be reducedthrough suitable measures, more water will be available for local consumption, and the available capacity of pond can be successfully used for cattle and horticulture purposes.Another hydrological study of Sohal pondreveals that pond remains perennial throughout the year with minimum water depth of 0.5 meter by considering no consumptive use from the pond. In the monsoon season, the spill from the pond is also appreciable. If the water of the pond is diverted for irrigation or other domestic use during such surplus periods, the storage of the pond can be optimally utilised.
In a nutshell, extinction of the age-old system of water harvesting through village ponds has resulted in the water scarcity during non-monsoon months. Though the area receives a fairly high average annual rainfall of more than 1200 mm, yet harvesting of this water is lacking, which is one of the root-causes for water crisis. A long-term solution to solve the water scarcity problem in the Kandi-belt lies in the rejuvenation of the existing village ponds and construction of new ponds at suitable sites by considering the present hydro-geology of the area and their water could be utilized for domestic purposes and, to a limited extent, for irrigation purposes (e.g. in horticulture, agro-forestry). These ponds would also help in improving the ground water regime in the region. A sound scheme for rejuvenation of the village ponds is required, which should use the traditional folk wisdom and the skills of the modern techniques, e.g. inputs from the hydrology, geology and geophysics, soil sciences, remote sensing and GIS.
परिचय
जम्मू और कश्मीर तीन अलग-अलग भौतिक क्षेत्रों में विभाजित देश का उत्तरी राज्य है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख, क्रमशःचिनाब, झेलम और सिंधु नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में आते हैं। कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र जल संसाधनों की पर्याप्त मात्रा के साथ संपन्न हैं, जो ज्यादातर हिमनद, हिमपात, झीलों और आद्र्रभूमि के रूप में हैं। जम्मू क्षेत्र में उपोष्ण कटिबंधीय, मध्यवर्ती और समशीतोष्ण क्षेत्र शामिल हैं। उपोष्ण कटिबंधीय बेल्ट के अधिकांश भाग में जल की आपूर्ति वर्षा द्वारा ही होती है, इस क्षेत्र को स्थानीय रूप से कंडी बेल्ट कहा जाता है। राज्य में कंडी बेल्ट पूर्व में रावी नदी और जम्मू और कठुआ जिलों के भीतर पश्चिम में मुनव्वरतवी के बीच विस्तारित है। कंडी बेल्ट का कुल क्षेत्रफल लगभग 811 वर्ग किलोमीटर माना जाता है, जिनमें से ऊपरी भाग 610 वर्ग किलोमीटर एवं निचला भाग 201 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का है। कंडी बेल्ट का अधिकांश भूभाग उदिनीय स्थलाकृति का है जिसमे मुख्य रूप से तीव्र एवं अनियमित ढलान हैं एवं कटाव प्रवरत मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता बहुत ही कम है। क्षेत्र में भूजल का स्तर भी गहरा है। मिट्टी के ढीले स्वरूप के चलते अत्यंत कटाव होता है जिससे कृषि एवं जल संबंधी समस्याएँ आए दिन उत्पन्न होती हैं। बरसाती नालों के आकस्मिक और तेज़ प्रवाह के कारण ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी का निरंतन कटाव होता रहता है। यह क्षेत्र मानसून के अलावा वर्ष भर जल की भीषण कमी से गुज़रता है।
कंडी बेल्ट के तालाब
अर्ध पहाड़ी कंडी बेल्ट आम तौर पर चश्मों, बाओली से रहित है जबकि स्थानीय बहने वाले नालो में बरसात में तो बहुत ज्यादा पानी रहता है परंतु वर्ष के अन्य समय ये बिलकुल सूख जाते हैं। पानी की ऐसी गंभीर कमी के चलते परंपरागत तालाब पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत थे और लगभग 60 के दशक तक तक स्थानीय समुदाय की पानी की जरूरतों को पूरा करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। कंडी-बेल्ट में स्थित तालाब मुख्य रूप से जम्मू और कठुआ जिलों में केंद्रित हैं। उधमपुर जिला मुख्यतः पहाड़ी है और इसमें कम तालाब हैं। जम्मू क्षेत्र में तीन प्रकार के तालाब हैं- छपरिस, बड़े तालाब और पक्के टैंक। छपरिस छोटे उथले तालाब हैं जिनमें कोई चिनाई का काम नहीं होता है, वे एक ही बौछार में भरते हैं और मवेशियों और चरवाहों की जरूरतों को पूरा करते हैं, और गर्मियों के दौरान सूख जाते हैं। लगभग सभी कंडी गाँवों में साल भर घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए एक बड़ा तालाब होता है। इन बड़े तालाबों का निर्माण तीन तरफ से चिनाई के काम के साथ किया गया था, चौथा हिस्सा पानी के बहने के लिए खुला छोड़ दिया। पक्के टैंकों में चार तरफा बाड़े हैं और अक्सर मंदिरों, किलों या राजमागोर्ं के पास पाए जाते हैं। लगभग सभी कंडी तालाबों के किनारे बरगद और पीपल के पेड़ थे। इन पेड़ों ने यात्रियों और जानवरों को आश्रय प्रदान किया, और वाष्पीकरण मंदक के रूप में भी भूमिका निभाई।
वर्तमान अध्ययन की अनिवार्यता
अधिकांश तालाबों की रचना इस तरह से की गयी थी कि आसपास के नालों से अपवाह का एक हिस्सा तालाबों में आ जाता था। सामुदायिक संस्थानों में गिरावट और स्थानीय लोगों द्वारा जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण के कारण खराब रखरखाव ने इस पौराणिक जल भंडारण प्रणाली को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। 20 वीं शताब्दी के मध्य तक घरों में पाइप द्वारा पेयजल की पूर्ति के कारण इन तालाबों की उपेक्षा होने लगी। भूमि पर दबाव और सामुदायिक संस्थानों में गिरावट ने भी इनकी हालत को और गंभीर बना दिया। कंडी-बेल्ट में अधिकांश तालाब आज पूरी तरह से निर्जन और अनुपयोग्य स्थिति में हैं। गाँव की संस्थाएँ, जो की सामुदायिक श्रम-दान के माध्यम से वार्षिक गाद निष्काशन का आयोजन किया करती थी और प्रदूषण से तालाबों की रक्षा करती थी वह एकाएक खत्म होने लगी। कई जगह पर नालियों के गंदे पानी को भी इन तालाबो में छोड़ा जाने लगा। ज्यादा गाद जमा होने के कारण इनकी भंडारण क्षमता में भी भरी गिरावट आने लगी, गाँव के लोग जो की इस गाद का प्रयोग अपने घरों की लिपाई में करते थे वह भी पक्के मकान बनने के कारण इस गाद को निकालना अब ज़रूरी नई समझते थे।
जल संचयन की इस पारंपरिक प्रणाली का अभी तक कोई विकल्प नहीं है, इस प्रणाली को जीवंत करने के लिए पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रीय केंद्र-जम्मू, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान-रुड़की ने कंडी क्षेत्र के विभिन्न तालाबों में विभिन्न पहलुओं जैसे की जल गुणवत्ता, तालाब के पानी का भौतिक-रसायनिक अध्ययन एवं जीवाणुविज्ञानीय विश्लेषण एवं जलीय संरक्षण आदि का अध्ययन किया गया। साथ ही साथ इन तालाबों को सूचीवद्ध कर उनका मानचित्रण भी किया गया। एक वर्ष तक वार्षिक औसत वर्षा के आधार पर एक बड़े तालाब के लिए दैनिक प्रवाह श्रृंखला का मूल्यांकन किया गया है और जल संतुलन समीकरण विकसित किया गया है।
अध्ययन का वर्णन
स्थानीय योजनाकारों को व्यापक आकड़े प्रदान करने के लिए, कंडी बेल्ट में स्थित तालाबों की एक विस्तृत सूची तैयार की गई है। सर्वे ऑफ इंडिया टॉपोशीट (पैमाना 1: 50000) से कुल 365 तालाबों के क्षेत्र विस्तार का अंकीकरण किया गया है, जिसमें 249 तालाब जम्मू जिले एवं 116 तालाब कठुआ जिले में पाये गए। इन 365 तालाबों में केवल 165 तालाब ही ऐसे पाये गए जो की साल के 12 माह में जल से पूरित रहते हैं। यह पाया गया है कि कंडी क्षेत्र के सभी तालाबों का कुल क्षेत्रफल 150 हेक्टेयर का है जिनमें से की 16 तालाब ऐसे पाये गए जिनका क्षेत्रफल 1 हेक्टेयर से ज्यादा का है, 4 तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 2 हेक्टेयर से ज्यादा का है। इनमे सर्वाधिक क्षेत्रफल ‘सुंगवाल’ तालाब का पाया गया जो के सांबा तहसील में है। कुल 71 ऐसे तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 0.5 से 1 हेक्टेयर के बीच का है।
मुख्य रूप से घरेलू कायोर्ं के लिए तालाब के पानी की उपयुक्तता को देखने के लिए 32 तालाबों की जल गुणवत्ता का आकलन किया गया है। BIS और WHO मानकों के संदर्भ में भौतिक-रसायनिक और जीवाणुविज्ञानीय आकड़ो का विश्लेषण किया गया है। सभी भौतिक-रासायनिक घटकों की सांद्रता वांछनीय सीमा के भीतर पाई गई, जबकि तालाब के पानी का बैक्टीरियोलॉजिकल विश्लेषण सभी तालाबों का बैक्टीरिया से दूषित होने का संकेत देता है। तालाबों में बैक्टीरिया के संदूषण के लिए संरचना के आसपास फैली गन्दगी जिम्मेदार हो सकती है और यह बहुत चिंता का विषय है। ऐसे स्रोतो के पानी को घरेलू उद्देश्य में प्रयोग करने से पहले विसंक्रमित करने की अति आवश्यकता है।
मासिक आधार पर ग्राम बड़होरी (तहसील सांबा, जिला जम्मू) में एक तालाब के जलविज्ञानीय जल संतुलन अध्ययन से पता चलता है कि प्रचलित जलवायु और मिट्टी की स्थिति के तहत केवल एक तिहाई क्षमता का उपयोग किया जा रहा है। यदि वाष्पीकरण और अन्य नुकसानों को उपयुक्त उपायों के माध्यम से कम किया जा सकता है, तो स्थानीय खपत के लिए अधिक पानी उपलब्ध होगा, और तालाब की उपलब्ध क्षमता का उपयोग मवेशियों और बागवानी प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है। सोहल तालाब के एक अन्य हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन से पता चलता है कि तालाब न्यूनतम 0.5 मीटर की गहराई के साथ पूरे वर्ष भर बना रहता है यदि इसका जल उपयोग में ना लाया जाए। मानसून के मौसम में, तालाब से काफी मात्रा मे प्रवाह निकलता है। यदि इस तरह के अधिशेष अवधि के दौरान तालाब के पानी को सिंचाई या अन्य घरेलू उपयोग के लिए मोड़ दिया जाता है, तो तालाब के भंडारण का उपयोग बेहतर तरीके से किया जा सकता है।
निष्कर्ष
संक्षेप में, गांव के तालाबों के माध्यम से जल संचयन की सदियों पुरानी प्रणाली के विलुप्त होने के परिणामस्वरूप गैर-मानसून महीनों के दौरान पानी की अत्यंत कमी होने लगी है। यद्यपि इस क्षेत्र में 1200 मिमी से अधिक की औसत से वर्षा होती है, फिर भी इस पानी के संचय में कमी है, जो जल संकट के मूल कारणों में से एक है। कंडी-बेल्ट में पानी की कमी की समस्या को हल करने के लिए एक दीर्घकालिक समाधान मौजूदा गाँव के तालाबों को जीवंत करने और क्षेत्र के वर्तमान जल-भूविज्ञान पर विचार करके उपयुक्त स्थलों पर नए तालाबों के निर्माण में निहित है। उनके पानी का उपयोग सिंचाई के लिए (जैसे बागवानी, कृषि वानिकी में) अथवा एक सीमित सीमा तक घरेलू उद्देश्य में किया जा सकता है। ये तालाब इस क्षेत्र में भूजल व्यवस्था को सुधारने में भी मदद करेंगे। गाँव के तालाबों के कायाकल्प के लिए एक योजना की आवश्यकता है, जो पारंपरिक लोक ज्ञान और आधुनिक तकनीके जैसे कि रिमोट सेंसिंग और जीआईएस, भूविज्ञान और भूभौतिकी, मृदा विज्ञान आदि के कौशल का उपयोग करके इन तालाबों को पुनर्जीवित करे।
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