कुशल गोबर प्रबन्धन पर्यावरण सुरक्षा के लिए जरूरी

Submitted by birendrakrgupta on Mon, 06/22/2015 - 13:44
Source
योजना, जून 2003
ऐसा माना जाता है कि गोबर में श्रीगणेश का वास है और यह शुभ होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी गोबर को 'एण्टीसेप्टिक' माना गया है। लेकिन आधुनिक कृषि और पशुपालन के दौर में जबकि जनसंख्या घनत्व तेजी से बढ़ रहा है और स्थान की कमी होती जा रही है, यही गोबर मानव स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के लिए खतरा बन सकता है।पुराने जमाने में और आज भी गाँव की औरतें पर्व-त्योहारों या शुभ अवसरों पर गाय के गोबर से समूचे घर-आंगन की लिपाई-पुताई करती हैं और गोबर की पूजा भी की जाती है। ऐसा माना जाता है कि गोबर में श्रीगणेश का वास है और यह शुभ होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी गोबर को 'एण्टीसेप्टिक' माना गया है। हानिकारक बैक्टीरिया को मारने के अलावा गोबर में मिट्टी के चिपकने का गुण है। जलावन और जैविक खाद के रूप में तो यह जगत प्रसिद्ध है। इतना ही नहीं, गोबर से बिजली, ईन्धन प्रकाश, त्वचा रक्षक साबुन, शुद्ध धूपबत्ती तथा शीत-ताप अवरोधक प्लास्टर का उत्पादन भी सम्भव हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार यदि केवल 75 प्रतिशत गोबर भारत में इकट्ठा हो तो 195 लाख मेगावाट बिजली प्रतिवर्ष निर्माण हो सकेगा एवं 236 लाख टन खाद बन सकेगी।

कुशल गोबर प्रबन्धन पर्यावरण सुरक्षा के लिए जरूरीलेकिन आधुनिक कृषि और पशुपालन के दौर में जबकि जनसंख्या घनत्व तेजी से बढ़ रहा है और स्थान की कमी होती जा रही है, यही गोबर मानव स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के लिए खतरा बन सकता है। यद्यपि मनुष्य में गोबर या अन्य उत्सर्जित पदार्थों से रोग फैलने के उदाहरण कम हैं लेकिन खतरा तो है ही। गाय के गोबर में औसत जीवाणु घनत्व 0.23-1.30×10 प्रतिग्राम और औसत योगदान 5.40×10 प्रति पशु प्रतिदिन है जो अन्य पशुओं की तुलना में सौभाग्यवश काफी कम है। लेकिन मोटे-मोटे यही आँकड़े पेयजल शुद्धता और शहरी कचरों की हद तय करने के लिए भी उपयोग में लाए जाते हैं। भारत के गोबर और इसके 'ग्रीन हाउस' प्रभाव पर तो विदेशों में भी चर्चाएँ हो चुकी हैं। जबकि सघन पशुपालन और खटालों के सड़े गोबर का सम्भवतः प्रथम हानिकारक प्रभाव मध्य-पश्चिमी देशों में ही प्रकाश में आया था जब नदियों की मछलियाँ मरने लगी थीं। वहाँ खटालों के सड़े गोबर और अन्य उत्सर्जनों के चलते नदी जल में ऑक्सीजन की कमी, अमोनिया में वृद्धि, जल का रंग काला होना और तीव्र दुर्गन्ध आदि लक्षण पाए गए थे।

अतः किसानों के पास गोबर के कुशल प्रबन्धन के लिए मुख्यतः तीन विकल्प हैं। (1) प्रदूषित तरल पदार्थों (गोबर-कचरा) का नियन्त्रित प्रवाह, (2) खटाल के अन्दर ही गोबर-कचरा का सन्धारण और (3) आबादी से दूर सुनसान जगहों पर बड़े-बड़े गड्ढों (लैगून) का निर्माण कर गोबर आदि का भण्डारण।

एक रिपोर्ट के अनुसार यदि केवल 75 प्रतिशत गोबर भारत में इकट्ठा हो तो 195 लाख मेगावाट बिजली प्रतिवर्ष निर्माण हो सकेगा एवं 236 लाख टन खाद बन सकेगी।गोबर या प्रदूषित तरल पदार्थों (स्लर्री) का नियन्त्रित प्रवाह करने की तीन विधियाँ हैं : (क) डाइवर्सन विधि के द्वारा नालियों का निर्माण कर किसी खास स्थान पर उक्त तरल पदार्थों को इकट्ठा करना। इसमें खुली नालियों का निर्माण, गोबर प्रवाह की मात्रा एवं नालियों की चौड़ाई के अनुपात में ढलान की गणना, छप्पर या छत से गिरने वाले पानी की निकासी हेतु जलमार्ग या परनाले का निर्माण, नीचे की ओर नल या टोंटी का निर्माण (डाउन स्पाउट्स) करने के पश्चात बाहर की ओर भूमिगत नालियों की संरचना करना शामिल है। (ख) अनुपयोगी चारा-दाना, कचरा या गोबर में मिले अन्य ठोस अंशों के नियन्त्रण एवं अवधारण (सेटलिंग) के लिए अवधारण टंकी, अवधारण बेसिन और अवधारण नाली (सेटलिंग चैनल) का निर्माण करते हैं, ताकि भूमिगत नालियों से स्लर्री-गोबर के गुजरते समय समस्या न पैदा हो। (ग) छोटे पशुपालकों के द्वारा गोबर-कचरा आदि तरल पदार्थों को सीधे भूमि पर प्रवाहित करने की स्थिति में सावधानी बरतने की जरूरत है। आसपास के लोगों का दिक्कत नहीं हो, इसके लिए अवधारण (सेटलिंग), निथारन (फिल्ट्रेशन) का उपाय करते हैं। जलयुक्त पतला घोल (डाइल्यूशन) हो और घास के मैदान या अनुपयोगी भूमि में अवशोषण का उपाय हो। कुछ खास चीजें जैसे घास छानने का उपकरण (ग्रास फिल्टर्स), चक्करदार या सर्पाकार जलमार्ग और निथारन चबूतरों (इनफिल्ट्रेशन टेर्रेसेज) का निर्माण भी जरूरी है। ओवरलैण्ड प्रवाह विधि कम खर्चीली और आसान होने के कारण पशुपालकों के बीच अधिक लोकप्रिय है। लेकिन यह निम्न निथारन क्षमता या संतृप्त मृदा वाले क्षेत्रों के लिए कदापि उपयोगी नहीं है और ऐसे उपाय आबादी से काफी दूरी पर ही किए जा सकते हैं।

गोबर प्रबन्धन के द्वितीय विकल्प के रूप में आजकल खटालों के अन्दर ही एनारोबिन टंकी का निर्माण बहुत प्रचलित है। एक आदर्शभूत टंकी की गहराई 8 से 10 फुट और लम्बाई-चौड़ाई पशुओं की संख्या यानी गोबर की मात्रा और डिस्पोजल के अन्तरालों पर निर्भर करती है। इसके निर्माण में लोहे की छड़, कंक्रीट या स्टील का प्रयोग किया जाता है। गोबर प्लाण्ट के लिए यही विधि उपयुक्त है।

गोबर से सड़ने के कारण अत्यधिक मात्रा में दुर्गन्ध निकलती है। यद्यपि किसी भी दुर्गन्ध और बीमारी के बीच कोई सीधा सम्बन्ध प्रमाणित नहीं हुआ है फिर भी इसके कारण मनुष्य में मिचली, वमन, सिरदर्द, कफ, चिड़चिड़ापन, अवसाद इत्यादि लक्षण दृष्टिगोचर हो सकते हैं। अतः मुख्यतः तीन उपायों के सहारे किसान भाई समाज का कोपभाजन होने से बच सकते हैं। (1) चूना (लाइम) का छिड़काव : यह गोबर से निकलने वाले हाइड्रोजन सल्फाइड गैस का पीएच. 9.5 से भी अधिक बढ़ाकर इसे हवा में जाने से रोक देता है। (2) गोबर पर पाराफार्मल्डिहाइड डाल देने से वातावरण में फैलने वाला अमोनिया गैस एक तरल पदार्थ हेक्सामिथिलीन टेट्राएमीन परमैग्नेट (1 प्रतिशत) की 9 कि.ग्रा. मात्रा प्रति एकड़ या 25 कि.ग्रा. प्रति टन गोबर पर डाल देने से गोबर की दुर्गन्ध पूरी तरह समाप्त हो सकती है। पशु उत्सर्जन का कुशल प्रबन्धन किसानों के लिए बहुमूल्य सम्पत्ति बन सकता है, जबकि इसका कुप्रबन्धन मनुष्य, समाज और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है।

(लेखक वृहत् पशुविकास परियोजना, मुजफ्फरपुर, बिहार में पशुपालन पदाधिकारी हैं)