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ग्लोबल वार्मिंग के कारण खिसक रहे ग्लेशियरों की वजह से उत्तराखण्ड की मध्य हिमालयी रेंज में झीलें बनने का क्रम तेज हो गया है जो भविष्य में एक बड़े खतरे का सबब बन सकता है। वैसे आपदा के बाद पहाड़ों पर बनने वाली झीलों पर नजर रखी जा रही है। झीलों का डाटा बेस तैयार किया जा रहा है, ताकि समय पर इनकी मॉनीटरिंग हो सके। यह शायद पहली बार हुआ कि राज्य सरकार ने मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड में अभी तक ग्लेशियरों के आसपास और दूसरे स्थानों पर झीलें चिन्हित की हैं।हिमालयी क्षेत्र ने सबसे अधिक प्राकृतिक आपदाएँ ‘कोल्ड इंटरवल’ में झेली हैं। वैज्ञानिकों के मतानुसार लगभग तीन हजार साल तक लगातार यहाँ आपदाओं का दौर बना रहा। इसी दौरान हिमालय से निकलने वाली पौराणिक नदी सरस्वती भी विलुप्त हुई। अध्ययन बताता है कि सरस्वती के अलावा भी चार हजार साल की बारिश में पैदा हुई कई नदियाँ सूख गईं।
यही नहीं मोहनजोदड़ो, सिन्धु घाटी की सभ्यता समेत नदियों के किनारे पनप रहीं कई और छोटी सभ्यताएँ भी विलुप्त हो गई। फलस्वरूप इसके समर (गर्मी) मानसून की कमजोरी इन आपदाओं की वजह बनी।
हिमालयी क्षेत्र में मानसून की परतें खोलने वाले गुफाओं के लाइम स्टोन के अध्ययन के आखिरी चरण ने भारतीय और अमेरिकी विज्ञानियों की टीम को चौंका दिया है। मजबूत समर मानसून ने हिमालयी क्षेत्र को पूरे चार हजार साल तर-ब-तर रखा था, लेकिन उसके बाद स्थिति उलट हो गई।
अचानक समर मानसून कमजोर पड़ने लगा और विंटर मानसून मजबूत होता चला गया। हिमालय और उत्तरी गोलार्द्ध के तापमान का सामंजस्य बिगड़ा तो हिमालय में ताबड़तोड़ आपदाएँ शुरू हो गईं। ग्लेशियर पिघले, भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ गईं। नदियों को पोषित करने वाले जलस्रोत बन्द हो गए।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में साल 2010 से लगातार घट रही प्राकृतिक आपदाएँ और 2013 में केदारनाथ सहित राज्य में अनेकों जगहों पर हुई खतरनाक प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं ने एक बार फिर से वैज्ञानिकों को सचेत कर दिया है।
हालांकि वैज्ञानिक प्रकृति पर कुछ-न-कुछ अध्ययन प्रस्तुत करते रहते हैं, परन्तु वर्तमान की प्राकृतिक आपदाओं से सम्बन्धित वैज्ञानिकों की रिपोर्टें चौंकाने वाली हैं।
ज्ञात हो कि वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान देहरादून के निदेशक डॉ. ए.के. गुप्ता की अगुवाई में ब्राउन यूनिवर्सिटी अमेरिका के विज्ञानियों की संयुक्त टीम ने लाइम स्टोन की परतों के अध्ययन में पाया कि हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की सबसे विकट स्थिति 2200 ईसा पूर्व से 500 ईसवी के बीच रही थी। इनके अध्ययन बताते हैं कि ग्लेशियर पिघले तो पहले नदियाँ एकाएक लबालब हुईं, फिर सूखती चली गईं।
चार हजार साल की बारिश के बाद लाखों की संख्या में बने ग्लेशियर पिघले तो भूस्खलन शुरू हो गया। विज्ञानियों की टीम का मानना है कि अन्य नदियों के साथ सरस्वती नदी भी इस दौर की भेंट चढ़ गई। इस दौरान वनस्पतियाँ भी प्रभावित हुईं क्योंकि विंटर मानसून वातावरण को उतनी नमी नहीं दे पा रहा था।
आज जिस हिमालयी क्षेत्र को आप हरा-भरा देख रहे हैं, उसमें पूरे दो हजार साल तक भयंकर सूखा पड़ा था और इस सूखे ने भारत ही नहीं एशिया के कई देशों में वनस्पतियों को सुखाकर रख दिया था। ऐसा नहीं कि मानसून का मूड अचानक बिगड़ा था। सूखा पड़ने के साढ़े सत्रह हजार साल पहले से ही मानसून ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया था। मानसून के मिजाज का यह सच उत्तराखण्ड और मेघालय की 50 गुफाओं के चूना पत्थर की परतों के अध्ययन से पता चला है।
भारत और अमेरिका के विज्ञानियों की संयुक्त टीम ने पहली बार गुफाओं के चूना पत्थर के माध्यम से मानसून का अब तक का सबसे लम्बा साढ़े पैंतीस हजार साल का रिकॉर्ड खोज निकाला है। गुफाओं में जमी लाइम स्टोन की परतों से हिमालयी क्षेत्र में हजारों साल पहले के मानसून की स्थिति खोजने का काम वर्ष 2013 में शुरू किया गया था।
वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान, देहरादून के निदेशक डॉ. अनिल कुमार गुप्ता की अगुवाई में अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी के विज्ञानियों की टीम ने गुफाओं के चूना पत्थर की परतों के अध्ययन की शुरुआत मेघालय की मामलुह गुफा से की थी। इसके बाद मेघालय और उत्तराखण्ड की 50 गुफाओं के लाइम स्टोन की परतों का अध्ययन किया गया।
जलवायु परिवर्तन के कारण मध्य हिमालयी क्षेत्र के पाँच फीसदी जलस्रोत पूरी तरह से सूख गए हैं और 70 फीसदी जलस्रोतों का पानी आधा रह गया है। हिमालयी क्षेत्र में बारहों मास जल देने वाली सैकड़ों नदियाँ मौसमी नाले में तब्दील हो गई हैं। जलस्रोतों की 30 वर्ष के सर्किल का अध्ययन करने के बाद वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान देहरादून के वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है।
वैज्ञानिकों द्वारा पिछले 33 सालों से हिमालयी क्षेत्र के जलस्रोतों पर अध्ययन किया जा रहा है। हिमालय की कोख से निकलने वाले ये जलस्रोत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों का ही नहीं, दूर मैदानी इलाकों की नदियों का भी परोक्ष रूप से पेट भरने में मदद करते हैं। वर्ष 1982 में नैनीताल के जलस्रोतों से शुरू हुए इस अध्ययन का नेतृत्व वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी और जलस्रोत विशेषज्ञ डॉ. एस. के. बरतरिया ने किया। इसमें गढ़वाल मंडल की दून घाटी समेत रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी आदि जिले भी शामिल किये गए।
अध्ययन के मुताबिक सैकड़ों छोटी नदियों में सिर्फ बारिश के दौरान पानी दिखता है। इन जलस्रोतों के सूखने की वजह जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश में बदलाव, पेड़ों की कटान, चट्टानों का दरकना, भूस्खलन आदि को माना जा रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बारिश अब लगातार होने के बजाय एक बार में हो जाती है जिससे जलस्रोत रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं।
यानि जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव जलस्रोतों पर ही पड़ रहा है। लिहाजा दिन-ब-दिन जल स्रोतों का पानी कम होता जा रहा है। इस गम्भीर स्थिति के सम्बध में विज्ञानियों ने सरकार को कई सुझाव भी दिये हैं कि एहतियात बरतकर जलस्रोतों को सूखने से बचाया जा सकता है।
1. संरक्षण योजना लागू की जाये।
2. जलस्रोतों वाले क्षेत्रों को संरक्षित किया जाये।
3. इन स्थानों को स्प्रिंग सेंचुरी घोषित किया जाये।
4. चेकडैम और चेकवॉल बनाई जाएँ।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण खिसक रहे ग्लेशियरों की वजह से उत्तराखण्ड की मध्य हिमालयी रेंज में झीलें बनने का क्रम तेज हो गया है जो भविष्य में एक बड़े खतरे का सबब बन सकता है। वैसे आपदा के बाद पहाड़ों पर बनने वाली झीलों पर नजर रखी जा रही है। झीलों का डाटा बेस तैयार किया जा रहा है, ताकि समय पर इनकी मॉनीटरिंग हो सके।
यह शायद पहली बार हुआ कि राज्य सरकार ने मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड में अभी तक ग्लेशियरों के आसपास और दूसरे स्थानों पर झीलें चिन्हित की हैं। बताया गया कि अलकनन्दा क्षेत्र में सबसे ज्यादा चार सौ ग्लेशियर हैं, जो वर्तमान में पाँच से 10 मीटर पीछे खिसक चुके हैं। वाडिया भूगर्भ संस्थान देहरादून ग्लेशियरों के खिसकने की वजह से बनने वाली झीलों पर काम कर रहा है। सेटेलाइट इमेजरी के माध्यम से अभी तक 1265 झीलें चिन्हित की गईं है। इसके बाद संस्थान इनका भौतिक सत्यापन करने की भी तैयारी कर चुका है।
संस्थान का मानना है कि इन झीलों के टूटने पर मध्य हिमालय क्षेत्र में एक बड़ा प्राकृतिक हादसा हो सकता है। जिसका समूचा असर उत्तर-भारत तक होगा। अब वे झीलों का डेटाबेस इस लिहाज से तैयार कर रहे हैं कि ताकि समय पर इनकी मॉनीटरिंग हो सके और इनके टूटने पर जान-माल को होने वाले नुकसान को बचाया जा सके। इसके साथ ही लोगों को पहले से इस सम्बन्ध में सचेत भी किया जा सके। वाडिया भूगर्भ संस्थान देहरादून की टीम समुद्र तल से तीन हजार मीटर की ऊँचाई तक बनी झीलों को चिन्हित कर रहे हैं।
संस्थान के ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉ. डी.पी. डोभाल ने बताया कि उत्तराखण्ड में 968 ग्लेशियर हैं जो प्रतिवर्ष अपनी जगह से पीछे खिसक रहे हैं। उनका कहना है कि ग्लेशियर के पीछे खिसकने पर मलबा रह जाता है जो तीव्र बरसात में बहकर आगे की ओर कहर ढाता है। यही नहीं ग्लेशियर से रिस कर आने वाला पानी यहाँ इकट्ठा हो सकता है। इसके अलावा बर्फ गलने से भी गड्ढे होते हैं जिनमें पानी भर जाता है। ये भी झील की शक्ल अख्तियार कर सकते हैं।
उन्होंने बताया कि अभी तक झीलों का डेटाबेस इस तरह से तैयार किया गया। जिनमें मलबा रुकने से बनने वाली मोरैन (हीमोल) झील-336, ग्लेशियर के ऊपर बनने वाली आइस झील-800, ग्लेशियर की कटान से बनने वाली सर्क झील-120 चिन्हित किये गए हैं।
हिमालयी क्षेत्र में बह रहे झरनों से सिर्फ पानी नहीं मिलेगा, बल्कि घर भी रोशन होंगे। भारत, नार्वे और आइसलैंड के संयुक्त शोध ने इसे साकार कर दिखाया है।
जम्मू-कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में बिखरे तीन सौ से अधिक गर्म झरने सिर्फ गरम पानी ही नहीं देते इनमें ऊर्जा का भण्डार भी भरा पड़ा है। इस ऊर्जा से सर्द इलाकों में, घरों के भीतर ‘हीटिंग सिस्टम’ के साथ बिजली भी पैदा की जाएगी। इस नायाब प्रयोग को पूरी तरह अमल में लाने के बाद ठंडे इलाकों में लोगों के घर बिना पावर-कट जगमग रह सकेंगे।
गर्म झरनों की ‘जियो थर्मल एनर्जी’ से लद्दाख में हीटिंग सिस्टम और आइसलैंड में बिजली बनाने का प्रयोग सफल रहा है। हिमालय क्षेत्र के भूगर्भ में जहाँ इंडियन और तिब्बती प्लेटें मिलती हैं, उसके पास 300 से अधिक गर्म झरने (हॉट स्प्रिंग) पैदा हो गए हैं। धरती की ऊर्जा के कारण इनसे गर्म पानी लगातार निकलता है।
वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. एस.के. बरतरिया की अगुवाई में डॉ. गौतम रावत, डॉ. एस.के. राय तथा नार्वे और आइसलैंड के विज्ञानियों ने दो साल पहले इस सम्बन्ध में शोध शुरू किया था जो अगस्त 2014 में पूरा हुआ।
विज्ञानियों की टीम ने लद्दाख के चुमाथांग स्थित एक होटल में हीटिंग सिस्टम बनाने में सफलता पाई है। इसी के साथ आइसलैंड में भी जियो थर्मल एनर्जी से बिजली पैदा की जा रही है। इससे उत्साहित होकर भारत में भी वैज्ञानिक गर्म झरनों की ऊर्जा से बिजली बनाने में जुटे हैं।
बिजली बनने की कार्य योजना पूरी होते ही हिमालयी क्षेत्र के प्रान्तों के अलावा आसपास के इलाके भी इसका फायदा ले सकेंगे। वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. एस. के. बरतरिया ने बताया कि वैज्ञानिकों की टीम को हिमालय क्षेत्र के गर्म झरनों से घरों में काम आने वाले हीटिंग सिस्टम चलाने में सफलता मिली है। अब उनका बिजली बनाने की दिशा में कार्य शुरू हो गया है।
गर्म झरने के पानी को हीट एक्सचेंजर से गुजारा जाता है। इसमें रेडिएटर का इस्तेमाल होता है। इनमें पानी आते ही हीट कमरे के वातावरण में आ जाती है और कमरा गर्म हो जाता है।
हिमालय में कोल्ड इंटरवल आपदाओं का दौर रहा था। गर्मी और जाड़े में आने वाले मानसून के सामंजस्य बिगड़ने से यह स्थिति हुई। सरस्वती समेत कई नदियाँ विलुप्त हुईं। नदियों में पानी न होने से सिन्धु समेत अन्य सभ्यताएँ विलुप्त हो गईं। विंटर मानसून उतनी नमी भी नहीं दे पाया। इस दौरान हिमालय, उत्तरी गोलार्द्ध के तापमान का सामंजस्य बिगड़ गया था।
डॉ. एके गुप्ता, निदेशक वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान
यही नहीं मोहनजोदड़ो, सिन्धु घाटी की सभ्यता समेत नदियों के किनारे पनप रहीं कई और छोटी सभ्यताएँ भी विलुप्त हो गई। फलस्वरूप इसके समर (गर्मी) मानसून की कमजोरी इन आपदाओं की वजह बनी।
हिमालयी क्षेत्र में मानसून की परतें खोलने वाले गुफाओं के लाइम स्टोन के अध्ययन के आखिरी चरण ने भारतीय और अमेरिकी विज्ञानियों की टीम को चौंका दिया है। मजबूत समर मानसून ने हिमालयी क्षेत्र को पूरे चार हजार साल तर-ब-तर रखा था, लेकिन उसके बाद स्थिति उलट हो गई।
अचानक समर मानसून कमजोर पड़ने लगा और विंटर मानसून मजबूत होता चला गया। हिमालय और उत्तरी गोलार्द्ध के तापमान का सामंजस्य बिगड़ा तो हिमालय में ताबड़तोड़ आपदाएँ शुरू हो गईं। ग्लेशियर पिघले, भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ गईं। नदियों को पोषित करने वाले जलस्रोत बन्द हो गए।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में साल 2010 से लगातार घट रही प्राकृतिक आपदाएँ और 2013 में केदारनाथ सहित राज्य में अनेकों जगहों पर हुई खतरनाक प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं ने एक बार फिर से वैज्ञानिकों को सचेत कर दिया है।
हालांकि वैज्ञानिक प्रकृति पर कुछ-न-कुछ अध्ययन प्रस्तुत करते रहते हैं, परन्तु वर्तमान की प्राकृतिक आपदाओं से सम्बन्धित वैज्ञानिकों की रिपोर्टें चौंकाने वाली हैं।
ज्ञात हो कि वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान देहरादून के निदेशक डॉ. ए.के. गुप्ता की अगुवाई में ब्राउन यूनिवर्सिटी अमेरिका के विज्ञानियों की संयुक्त टीम ने लाइम स्टोन की परतों के अध्ययन में पाया कि हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की सबसे विकट स्थिति 2200 ईसा पूर्व से 500 ईसवी के बीच रही थी। इनके अध्ययन बताते हैं कि ग्लेशियर पिघले तो पहले नदियाँ एकाएक लबालब हुईं, फिर सूखती चली गईं।
चार हजार साल की बारिश के बाद लाखों की संख्या में बने ग्लेशियर पिघले तो भूस्खलन शुरू हो गया। विज्ञानियों की टीम का मानना है कि अन्य नदियों के साथ सरस्वती नदी भी इस दौर की भेंट चढ़ गई। इस दौरान वनस्पतियाँ भी प्रभावित हुईं क्योंकि विंटर मानसून वातावरण को उतनी नमी नहीं दे पा रहा था।
मानसून का सबसे लम्बा रिकॉर्ड
आज जिस हिमालयी क्षेत्र को आप हरा-भरा देख रहे हैं, उसमें पूरे दो हजार साल तक भयंकर सूखा पड़ा था और इस सूखे ने भारत ही नहीं एशिया के कई देशों में वनस्पतियों को सुखाकर रख दिया था। ऐसा नहीं कि मानसून का मूड अचानक बिगड़ा था। सूखा पड़ने के साढ़े सत्रह हजार साल पहले से ही मानसून ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया था। मानसून के मिजाज का यह सच उत्तराखण्ड और मेघालय की 50 गुफाओं के चूना पत्थर की परतों के अध्ययन से पता चला है।
भारत और अमेरिका के विज्ञानियों की संयुक्त टीम ने पहली बार गुफाओं के चूना पत्थर के माध्यम से मानसून का अब तक का सबसे लम्बा साढ़े पैंतीस हजार साल का रिकॉर्ड खोज निकाला है। गुफाओं में जमी लाइम स्टोन की परतों से हिमालयी क्षेत्र में हजारों साल पहले के मानसून की स्थिति खोजने का काम वर्ष 2013 में शुरू किया गया था।
वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान, देहरादून के निदेशक डॉ. अनिल कुमार गुप्ता की अगुवाई में अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी के विज्ञानियों की टीम ने गुफाओं के चूना पत्थर की परतों के अध्ययन की शुरुआत मेघालय की मामलुह गुफा से की थी। इसके बाद मेघालय और उत्तराखण्ड की 50 गुफाओं के लाइम स्टोन की परतों का अध्ययन किया गया।
झरने सूखे, नाला बनी सैकड़ों नदियाँ
जलवायु परिवर्तन के कारण मध्य हिमालयी क्षेत्र के पाँच फीसदी जलस्रोत पूरी तरह से सूख गए हैं और 70 फीसदी जलस्रोतों का पानी आधा रह गया है। हिमालयी क्षेत्र में बारहों मास जल देने वाली सैकड़ों नदियाँ मौसमी नाले में तब्दील हो गई हैं। जलस्रोतों की 30 वर्ष के सर्किल का अध्ययन करने के बाद वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान देहरादून के वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है।
वैज्ञानिकों द्वारा पिछले 33 सालों से हिमालयी क्षेत्र के जलस्रोतों पर अध्ययन किया जा रहा है। हिमालय की कोख से निकलने वाले ये जलस्रोत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों का ही नहीं, दूर मैदानी इलाकों की नदियों का भी परोक्ष रूप से पेट भरने में मदद करते हैं। वर्ष 1982 में नैनीताल के जलस्रोतों से शुरू हुए इस अध्ययन का नेतृत्व वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी और जलस्रोत विशेषज्ञ डॉ. एस. के. बरतरिया ने किया। इसमें गढ़वाल मंडल की दून घाटी समेत रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी आदि जिले भी शामिल किये गए।
अध्ययन के मुताबिक सैकड़ों छोटी नदियों में सिर्फ बारिश के दौरान पानी दिखता है। इन जलस्रोतों के सूखने की वजह जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश में बदलाव, पेड़ों की कटान, चट्टानों का दरकना, भूस्खलन आदि को माना जा रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बारिश अब लगातार होने के बजाय एक बार में हो जाती है जिससे जलस्रोत रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं।
यानि जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव जलस्रोतों पर ही पड़ रहा है। लिहाजा दिन-ब-दिन जल स्रोतों का पानी कम होता जा रहा है। इस गम्भीर स्थिति के सम्बध में विज्ञानियों ने सरकार को कई सुझाव भी दिये हैं कि एहतियात बरतकर जलस्रोतों को सूखने से बचाया जा सकता है।
वैज्ञानिक सुझाव
1. संरक्षण योजना लागू की जाये।
2. जलस्रोतों वाले क्षेत्रों को संरक्षित किया जाये।
3. इन स्थानों को स्प्रिंग सेंचुरी घोषित किया जाये।
4. चेकडैम और चेकवॉल बनाई जाएँ।
इस ‘हलचल’ से उत्तराखण्ड को खतरा
ग्लोबल वार्मिंग के कारण खिसक रहे ग्लेशियरों की वजह से उत्तराखण्ड की मध्य हिमालयी रेंज में झीलें बनने का क्रम तेज हो गया है जो भविष्य में एक बड़े खतरे का सबब बन सकता है। वैसे आपदा के बाद पहाड़ों पर बनने वाली झीलों पर नजर रखी जा रही है। झीलों का डाटा बेस तैयार किया जा रहा है, ताकि समय पर इनकी मॉनीटरिंग हो सके।
यह शायद पहली बार हुआ कि राज्य सरकार ने मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड में अभी तक ग्लेशियरों के आसपास और दूसरे स्थानों पर झीलें चिन्हित की हैं। बताया गया कि अलकनन्दा क्षेत्र में सबसे ज्यादा चार सौ ग्लेशियर हैं, जो वर्तमान में पाँच से 10 मीटर पीछे खिसक चुके हैं। वाडिया भूगर्भ संस्थान देहरादून ग्लेशियरों के खिसकने की वजह से बनने वाली झीलों पर काम कर रहा है। सेटेलाइट इमेजरी के माध्यम से अभी तक 1265 झीलें चिन्हित की गईं है। इसके बाद संस्थान इनका भौतिक सत्यापन करने की भी तैयारी कर चुका है।
संस्थान का मानना है कि इन झीलों के टूटने पर मध्य हिमालय क्षेत्र में एक बड़ा प्राकृतिक हादसा हो सकता है। जिसका समूचा असर उत्तर-भारत तक होगा। अब वे झीलों का डेटाबेस इस लिहाज से तैयार कर रहे हैं कि ताकि समय पर इनकी मॉनीटरिंग हो सके और इनके टूटने पर जान-माल को होने वाले नुकसान को बचाया जा सके। इसके साथ ही लोगों को पहले से इस सम्बन्ध में सचेत भी किया जा सके। वाडिया भूगर्भ संस्थान देहरादून की टीम समुद्र तल से तीन हजार मीटर की ऊँचाई तक बनी झीलों को चिन्हित कर रहे हैं।
संस्थान के ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉ. डी.पी. डोभाल ने बताया कि उत्तराखण्ड में 968 ग्लेशियर हैं जो प्रतिवर्ष अपनी जगह से पीछे खिसक रहे हैं। उनका कहना है कि ग्लेशियर के पीछे खिसकने पर मलबा रह जाता है जो तीव्र बरसात में बहकर आगे की ओर कहर ढाता है। यही नहीं ग्लेशियर से रिस कर आने वाला पानी यहाँ इकट्ठा हो सकता है। इसके अलावा बर्फ गलने से भी गड्ढे होते हैं जिनमें पानी भर जाता है। ये भी झील की शक्ल अख्तियार कर सकते हैं।
उन्होंने बताया कि अभी तक झीलों का डेटाबेस इस तरह से तैयार किया गया। जिनमें मलबा रुकने से बनने वाली मोरैन (हीमोल) झील-336, ग्लेशियर के ऊपर बनने वाली आइस झील-800, ग्लेशियर की कटान से बनने वाली सर्क झील-120 चिन्हित किये गए हैं।
एक पहल: अब झरनो से विद्युत उत्पादन
हिमालयी क्षेत्र में बह रहे झरनों से सिर्फ पानी नहीं मिलेगा, बल्कि घर भी रोशन होंगे। भारत, नार्वे और आइसलैंड के संयुक्त शोध ने इसे साकार कर दिखाया है।
जम्मू-कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में बिखरे तीन सौ से अधिक गर्म झरने सिर्फ गरम पानी ही नहीं देते इनमें ऊर्जा का भण्डार भी भरा पड़ा है। इस ऊर्जा से सर्द इलाकों में, घरों के भीतर ‘हीटिंग सिस्टम’ के साथ बिजली भी पैदा की जाएगी। इस नायाब प्रयोग को पूरी तरह अमल में लाने के बाद ठंडे इलाकों में लोगों के घर बिना पावर-कट जगमग रह सकेंगे।
गर्म झरनों की ‘जियो थर्मल एनर्जी’ से लद्दाख में हीटिंग सिस्टम और आइसलैंड में बिजली बनाने का प्रयोग सफल रहा है। हिमालय क्षेत्र के भूगर्भ में जहाँ इंडियन और तिब्बती प्लेटें मिलती हैं, उसके पास 300 से अधिक गर्म झरने (हॉट स्प्रिंग) पैदा हो गए हैं। धरती की ऊर्जा के कारण इनसे गर्म पानी लगातार निकलता है।
वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. एस.के. बरतरिया की अगुवाई में डॉ. गौतम रावत, डॉ. एस.के. राय तथा नार्वे और आइसलैंड के विज्ञानियों ने दो साल पहले इस सम्बन्ध में शोध शुरू किया था जो अगस्त 2014 में पूरा हुआ।
विज्ञानियों की टीम ने लद्दाख के चुमाथांग स्थित एक होटल में हीटिंग सिस्टम बनाने में सफलता पाई है। इसी के साथ आइसलैंड में भी जियो थर्मल एनर्जी से बिजली पैदा की जा रही है। इससे उत्साहित होकर भारत में भी वैज्ञानिक गर्म झरनों की ऊर्जा से बिजली बनाने में जुटे हैं।
बिजली बनने की कार्य योजना पूरी होते ही हिमालयी क्षेत्र के प्रान्तों के अलावा आसपास के इलाके भी इसका फायदा ले सकेंगे। वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. एस. के. बरतरिया ने बताया कि वैज्ञानिकों की टीम को हिमालय क्षेत्र के गर्म झरनों से घरों में काम आने वाले हीटिंग सिस्टम चलाने में सफलता मिली है। अब उनका बिजली बनाने की दिशा में कार्य शुरू हो गया है।
ऐसे बनाया हीटिंग सिस्टम
गर्म झरने के पानी को हीट एक्सचेंजर से गुजारा जाता है। इसमें रेडिएटर का इस्तेमाल होता है। इनमें पानी आते ही हीट कमरे के वातावरण में आ जाती है और कमरा गर्म हो जाता है।
हिमालय में कोल्ड इंटरवल आपदाओं का दौर रहा था। गर्मी और जाड़े में आने वाले मानसून के सामंजस्य बिगड़ने से यह स्थिति हुई। सरस्वती समेत कई नदियाँ विलुप्त हुईं। नदियों में पानी न होने से सिन्धु समेत अन्य सभ्यताएँ विलुप्त हो गईं। विंटर मानसून उतनी नमी भी नहीं दे पाया। इस दौरान हिमालय, उत्तरी गोलार्द्ध के तापमान का सामंजस्य बिगड़ गया था।
डॉ. एके गुप्ता, निदेशक वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान