उत्तर भारत के मैदानी इलाके में बसने वाले करोड़ों लोगों को जीवनयापन का साधन उपलब्ध कराने वाली गंगा नदी की स्थिति में अरबों-खरबों रुपए का सरकारी कोष झोंकने के बावजूद भी शायद ही कोई सुधार हुआ है। मौजूदा केन्द्र सरकार द्वारा गंगा को स्वच्छ बनाने के उद्देश्य से शुरू किये गए नमामि गंगे प्रोजेक्ट के चार वर्ष पूरे हो जाने के बाद भी नदी की स्थिति ज्यों-की-त्यों बानी हुई है। वहीं सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार इस प्रोजेक्ट पर अभी तक 4000 करोड़ रुपए खर्च किये जा चुके हैं।
वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह साबित किया जा चुका है कि गंगाजल में बैक्टीरिया के विनाश की अद्भुत क्षमता है। लेकिन नदी में बढ़ रहे प्रदूषण के कारण गंगाजल के इस विलक्षण क्षमता का तेजी से ह्रास होता जा रहा है। गंगा के उद्गम स्थल पर ही प्लास्टिक कचरा भारी मात्रा में दिखाई देता है। पहले लोग जब गोमुख जाते थे तो वहाँ एकत्रित कचरे का निपटारा किसी अन्य जगह पर करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।
हालात ऐसे हैं कि गंगा को स्वच्छ रखने की पहली चुनौती अपने उद्गम स्थल गंगोत्री से निकलने के बाद धर्मनगरी हरिद्वार में ही मिलती है। तमाम दावों और आदेशों के बावजूद गंगा यहाँ सर्वाधिक मैली है। हरिद्वार में 120 एमएलडी प्रतिदिन सीवर निकलता है जिसमें से 60 एमएलडी अर्थात लगभग आधे को बिना शोधन के ही गंगा में गिरा दिया जाता है। ऐसा इसलिये है कि यहाँ स्थापित सीवर शोधन यंत्र की क्षमता सिर्फ 65 एमएलडी है। नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत यहाँ अपशिष्ट जल के शोधन क्षमता का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। नदी दोनों किनारों पर कचरे का ढेर लगा रहता है। यहाँ तक कि हरकी पैड़ी सहित तमाम गंगा घाटों से बहकर गन्दगी सीधे गंगा में जा मिलती है।
गंगा नदी तंत्र से मिलने वाली जीविका के साधनों का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की कुल कृषि भूमि का 26 फीसदी हिस्सा इसी नदी तंत्र के अन्तर्गत आता है। यदि नदी जल के गुणवत्ता की अनदेखी लम्बे समय तक होती रही तो इस नदी तंत्र में फलने-फूलने वाले लाखों लोगों के जीवन पर गम्भीर संकट उत्पन्न हो जाएगा।
उल्लेखनीय है कि गंगा की अविरलता और पवित्रता के लिये स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द ने अपने प्राण तक त्याग दिये लेकिन सरकार ने उनकी माँगों पर अब तक कोई निर्णय नहीं लिया है। हाँ, इतना जरूर है कि गंगा की सफाई के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक ने गंगा की सफाई के लिये कई कदम उठाए लेकिन गंगा की स्थिति में सुधार के बजाय ह्रास ही होता जा रहा है। हालांकि, जल संसाधन सम्बन्धी संसद की स्थायी समिति ने इस योजना के विभिन्न खण्डों से सम्बन्धित रिपोर्ट पेश करते हुए कहा है कि दिसम्बर 2021 तक का समय लगेगा। बीस हजार करोड़ रुपए की लागत वाली इस परियोजना की शुरुआत वर्ष 2015 में हुई थी जिसे वर्ष 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था।
गंगा जिन पाँच राज्यों से होकर गुजरती है उनमें से चार राज्यों यानि उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल ने इस मद में आवंटित बजट का पूरा हिस्सा भी खर्च नहीं किया है। स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार इस परियोजना पर वर्ष 2017-18 के दौरान 1423 करोड़ रुपए जबकि 2017-18 के दौरान 1625 करोड़ रुपए खर्च किये गए हैं।
गंगा से जुड़े मामलों से सम्बन्धित मंत्रालय की पहली केन्द्रीय मंत्री उमा भारती के कार्यकाल के दौरान नदी के जल के गुणवत्ता में हुए ह्रास का पता लगाने के लिये इस प्रोजेक्ट से इंजीनियरिंग के छात्रों को जोड़ने का फैसला किया गया था। इस प्लान के तहत इस कार्य की जिम्मेवारी गंगा की कुल लम्बाई यानि 2500 किलोमीटर के क्षेत्र में 250 छात्रों की टीम को दी जानी थी। लेकिन इस प्लान पर कितना अमल हुआ इसकी जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है।
गंगाजल की गुणवत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सेंट्रल पॉलुशन कंट्रोल बोर्ड ने हाल में ही जारी की गई एक रिपोर्ट में देश के कई स्थानों पर इसे स्नान के लिये भी अयोग्य करार दिया है। इससे साफ है कि पिछले 32 वर्षों के प्रयास के बावजूद भी इस गंगाजल की गुणवत्ता में अभी तक कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो पाया है। गंगा सफाई का अभियान भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के कार्यकाल में शुरू हुआ था।
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