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उत्तराखण्ड के गठन के 18 वर्ष बीत जाने के बाद भी राज्य स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखकर किये जाने वाले विकास से मीलों दूर है। राज्य के डेढ़ दशक का सफरनामा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण बावत निराशा भरा ही कहा जाएगा। पानी, पेड़ और कृषि आदि का पिछले डेढ़ दशक में संरक्षण के बजाय बेरहमी से दोहन हुआ है।
राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये जवाबदेह राजनेता आपसी झगड़ो में उलझे रहे। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह रहा कि 18 वर्षों में यहाँ नौ मुख्यमंत्री बनाए गए। इस राजनीतिक अस्थिरता के कारण राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन हुआ। विकास के नाम पर पेड़-पौधों का विनाश तो हुआ ही, राज्य की अकूत जल सम्पदा के दोहन में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। इसी का परिणाम है कि वर्तमान में राज्य में दर्जनों छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएँ प्रस्तावित अथवा निर्माणाधीन हैं।
इतना ही नहीं निर्माणाधीन परियोजनाओं में से अधिकांश विभिन्न वजहों के कारण विवादों के घेरे में हैं। विवाद की मुख्य वजह इन योजनाओं के विकास से राज्य के जल संसाधन के साथ ही पर्यावरण और जनसंख्या बसावट पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव है। उदाहरणस्वरूप एशिया के सबसे बड़े बाँध, टिहरी के निर्माण से उसके आस-पास की बसावट पर बुरा असर पड़ा है हजारों लोग बेघर हुए और पर्यावरण पर भी नकारात्मक असर पड़ा। परन्तु स्थापना के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इस परियोजना द्वारा अपनी उत्पादन क्षमता की आधी बिजली भी पैदा नहीं की जाती है।
राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण लगता है कि आने वाले दशक में राज्य में विकास की डगर काफी कठिन होगी। यहाँ की सवा करोड़ जनसंख्या के बीच अपने फायदे के लिये राजनीतिक पार्टियों ने जिस तरह से प्रतिद्वंदिता की संस्कृति कायम की है वह कहीं-न-कहीं विकास में बाधा बनकर सामने आएगी।
उत्तराखण्ड में विकास की संकल्पना को साकार करने के लिये राजनीतिक दलों को सत्ता का मोह छोड़कर राज्य के लोगों को एक सूत्र में बाँधना होगा ताकि वे इसके विकास में एकजुट होकर अपना सहयोग दे सकें। राज्य को विकास भी चाहिए और राजस्व भी। राजस्व बढ़ाने के लिए यहाँ सबसे बड़ा स्रोत पर्यटन तो है लेकिन इसका स्वरूप कैसा हो इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
प्रकृति के विभिन्न रंगों से भरपूर इस राज्य में पाँच सितारा पर्यटन को विकसित करने की कल्पना करना बेईमानी होगी क्योंकि दुनिया के जिन-जिन देशों में ऐसे पर्यटन का विकास हुआ है वे आज स्वच्छ पर्यावरण को तरस रहे हैं। उत्तराखण्ड में मौजूद हरियाली, प्राकृतिक सुन्दरता आदि पर्यटकों को बरबस ही अपने ओर आकर्षित कर लेती हैं।
राज्य में पर्यटन के समुचित विकास के लिये ग्रामीण इलाकों का विकास अति-आवश्यक है। इस हेतु गाँव के युवकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे एडवेंचर टूरिज्म से लेकर प्रदेश की विभिन्न प्राकृतिक विविधताओं से पर्यटकों को रूबरू करवा सकें। इससे राज्य के राजस्व में वृद्धि तो होगी ही रोजगार की तलाश में भटक रहे युवाओं को स्वरोजगार भी मिलेगा।
राज्य में तीन घाटियाँ- रामगढ़ घाटी, बद्री-केदार घाटी, यमुना घाटी ऐसी हैं जो फलोत्पादन के लिये विख्यात है। इन क्षेत्रों में आड़ू, खुबानी, माल्टा, सेब की फसलों का उत्पादन होता है। राज्य की आधी आबादी का स्वरोजगार फल उत्पादन पर ही निर्भर है परन्तु बाजार और रख-रखाव की सुविधा के अभाव में कई काश्तकारों को अपनी फसल को कम कीमत पर ही बेचने को मजबूर होना पड़ता है। ये तीनों घाटियाँ पर्यटन के दृष्टि से भी अति महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन पर्यावरण में तेजी से हो रहे बदलाव के कारण इनकी इस खूबी पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है।
पहाड़ के आर्थिक विकास की रीढ़ कही जाने वाली महिलाओं के लिये पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण के सिवाय विकास की शायद ही कोई योजना सामने आई है। पहाड़ी महिलाओं का बोझ कैसे कम हो इस हेतु पहाड़ की भूमि को चकबन्दी का रूप देना अनिवार्य है ताकि महिला काश्तकार कृषि कार्य को एक ही जगह पर निष्पादित कर सकें।
पहाड़ के दूरस्थ गाँवों में आज भी पशुपालन से लोग जुड़े हैं। इतना ही नहीं इन इलाकों में पशुपालन ही जैविक खेती को सुरक्षित रखने का जरिया है। सरकार को इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है। उद्यान विभाग की हॉर्टीकल्चर मिशन योजना भी परवान नहीं चढ़ पाई। बताया जा रहा है कि यह भी राज्य के बड़े घोटालों में से एक है जिसका पर्दाफाश होना अभी बाकी है।
समुचित विकास के लिये ऊर्जा उत्पादन के विभिन्न साधनों का विकास आवश्यक है लेकिन इसके लिये केवल जल-विद्युत परियोजनाओं पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। ऊर्जा उत्पादन के अन्य विकल्पों पर भी गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर उत्तराखण्ड में लगभग 16 हजार पनचक्कियाँ ऐसी हैं जिनकी सहायता से 25 किलोवाट तक बिजली पैदा की जा सकती है। बूढ़ाकेदारनाथ, गोपेश्वर, पिथौरागढ़ में संचालित माइक्रोहाईडल विद्युत उत्पादन के मॉडल को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी विकसित किया जा सकता है।
यही नहीं राज्य जब उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत था तो यहाँ 16 हजार नहरों का विकास किया गया था। इन नहरों को यदि बहुउपयोगी बनाया जाये तो ये सिंचाई के साथ ही विद्युत उत्पादन क्षमता में अभूतपूर्व वृद्धि कर सकती हैं। सरकारी आँकड़े के अनुसार इन नहरों में उपलब्ध पानी के इस्तेमाल से माइक्रोहाईडल पद्धति द्वारा लगभग 35,000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है। इसके अलावा पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा जैसे वैकल्पिक स्रोत ऊँचाई एवं जंगलों के बीच बसे गाँवों में विद्युत आपूर्ति के लिये कारगर सिद्ध हो सकते हैं।
यह राज्य जहाँ प्राकृतिक सुन्दरता को समेटे है वहीं इसका कोई भी कोना प्राकृतिक आपदा से वंचित नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये पुख्ता नीति की आवश्यकता है। उदाहरणस्वरूप 1818 में जब नैनीताल भूस्खलन से ध्वस्त हो गया था तब अंग्रेजों ने उसे पुनः सुरक्षित करने के पुख्ता इन्तजाम किये थे। यही वजह है कि आज भी नैनीताल आपदा की दृष्टि से सुरक्षित है। इस ओर सरकार को विशेष ध्यान देने के साथ ही प्रभावित लोगों के लिये पुनर्वास नीति का भी निर्माण करना चाहिए।
ऐसा कहना भी गलत होगा कि इस राज्य में इस दिशा में कोई चिन्तन अथवा अभियान ना चला हो लेकिन उनके प्रभाव अब सीमित हैं। रक्षासूत्र आन्दोलन, नदी बचाओ अभियान आदि इसके मुख्य उदाहरण हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व विधायक प्रीतम सिंह पंवार, चकबंदी के प्रणेता एवं उत्तरकाशी के पूर्व जिला पंचायत के अध्यक्ष स्व. श्री राजेन्द्र सिंह रावत ने भी राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये अलग-अलग प्रारूप तैयार कर सरकार को सौंपा है। परन्तु किसी भी सरकार ने इन मसौदों पर गौर करना उचित नहीं समझा।
राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये जवाबदेह राजनेता आपसी झगड़ो में उलझे रहे। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह रहा कि 18 वर्षों में यहाँ नौ मुख्यमंत्री बनाए गए। इस राजनीतिक अस्थिरता के कारण राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन हुआ। विकास के नाम पर पेड़-पौधों का विनाश तो हुआ ही, राज्य की अकूत जल सम्पदा के दोहन में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। इसी का परिणाम है कि वर्तमान में राज्य में दर्जनों छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएँ प्रस्तावित अथवा निर्माणाधीन हैं।
इतना ही नहीं निर्माणाधीन परियोजनाओं में से अधिकांश विभिन्न वजहों के कारण विवादों के घेरे में हैं। विवाद की मुख्य वजह इन योजनाओं के विकास से राज्य के जल संसाधन के साथ ही पर्यावरण और जनसंख्या बसावट पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव है। उदाहरणस्वरूप एशिया के सबसे बड़े बाँध, टिहरी के निर्माण से उसके आस-पास की बसावट पर बुरा असर पड़ा है हजारों लोग बेघर हुए और पर्यावरण पर भी नकारात्मक असर पड़ा। परन्तु स्थापना के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इस परियोजना द्वारा अपनी उत्पादन क्षमता की आधी बिजली भी पैदा नहीं की जाती है।
राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण लगता है कि आने वाले दशक में राज्य में विकास की डगर काफी कठिन होगी। यहाँ की सवा करोड़ जनसंख्या के बीच अपने फायदे के लिये राजनीतिक पार्टियों ने जिस तरह से प्रतिद्वंदिता की संस्कृति कायम की है वह कहीं-न-कहीं विकास में बाधा बनकर सामने आएगी।
उत्तराखण्ड में विकास की संकल्पना को साकार करने के लिये राजनीतिक दलों को सत्ता का मोह छोड़कर राज्य के लोगों को एक सूत्र में बाँधना होगा ताकि वे इसके विकास में एकजुट होकर अपना सहयोग दे सकें। राज्य को विकास भी चाहिए और राजस्व भी। राजस्व बढ़ाने के लिए यहाँ सबसे बड़ा स्रोत पर्यटन तो है लेकिन इसका स्वरूप कैसा हो इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
प्रकृति के विभिन्न रंगों से भरपूर इस राज्य में पाँच सितारा पर्यटन को विकसित करने की कल्पना करना बेईमानी होगी क्योंकि दुनिया के जिन-जिन देशों में ऐसे पर्यटन का विकास हुआ है वे आज स्वच्छ पर्यावरण को तरस रहे हैं। उत्तराखण्ड में मौजूद हरियाली, प्राकृतिक सुन्दरता आदि पर्यटकों को बरबस ही अपने ओर आकर्षित कर लेती हैं।
राज्य में पर्यटन के समुचित विकास के लिये ग्रामीण इलाकों का विकास अति-आवश्यक है। इस हेतु गाँव के युवकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे एडवेंचर टूरिज्म से लेकर प्रदेश की विभिन्न प्राकृतिक विविधताओं से पर्यटकों को रूबरू करवा सकें। इससे राज्य के राजस्व में वृद्धि तो होगी ही रोजगार की तलाश में भटक रहे युवाओं को स्वरोजगार भी मिलेगा।
राज्य में तीन घाटियाँ- रामगढ़ घाटी, बद्री-केदार घाटी, यमुना घाटी ऐसी हैं जो फलोत्पादन के लिये विख्यात है। इन क्षेत्रों में आड़ू, खुबानी, माल्टा, सेब की फसलों का उत्पादन होता है। राज्य की आधी आबादी का स्वरोजगार फल उत्पादन पर ही निर्भर है परन्तु बाजार और रख-रखाव की सुविधा के अभाव में कई काश्तकारों को अपनी फसल को कम कीमत पर ही बेचने को मजबूर होना पड़ता है। ये तीनों घाटियाँ पर्यटन के दृष्टि से भी अति महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन पर्यावरण में तेजी से हो रहे बदलाव के कारण इनकी इस खूबी पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है।
पहाड़ के आर्थिक विकास की रीढ़ कही जाने वाली महिलाओं के लिये पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण के सिवाय विकास की शायद ही कोई योजना सामने आई है। पहाड़ी महिलाओं का बोझ कैसे कम हो इस हेतु पहाड़ की भूमि को चकबन्दी का रूप देना अनिवार्य है ताकि महिला काश्तकार कृषि कार्य को एक ही जगह पर निष्पादित कर सकें।
पहाड़ के दूरस्थ गाँवों में आज भी पशुपालन से लोग जुड़े हैं। इतना ही नहीं इन इलाकों में पशुपालन ही जैविक खेती को सुरक्षित रखने का जरिया है। सरकार को इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है। उद्यान विभाग की हॉर्टीकल्चर मिशन योजना भी परवान नहीं चढ़ पाई। बताया जा रहा है कि यह भी राज्य के बड़े घोटालों में से एक है जिसका पर्दाफाश होना अभी बाकी है।
समुचित विकास के लिये ऊर्जा उत्पादन के विभिन्न साधनों का विकास आवश्यक है लेकिन इसके लिये केवल जल-विद्युत परियोजनाओं पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। ऊर्जा उत्पादन के अन्य विकल्पों पर भी गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर उत्तराखण्ड में लगभग 16 हजार पनचक्कियाँ ऐसी हैं जिनकी सहायता से 25 किलोवाट तक बिजली पैदा की जा सकती है। बूढ़ाकेदारनाथ, गोपेश्वर, पिथौरागढ़ में संचालित माइक्रोहाईडल विद्युत उत्पादन के मॉडल को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी विकसित किया जा सकता है।
यही नहीं राज्य जब उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत था तो यहाँ 16 हजार नहरों का विकास किया गया था। इन नहरों को यदि बहुउपयोगी बनाया जाये तो ये सिंचाई के साथ ही विद्युत उत्पादन क्षमता में अभूतपूर्व वृद्धि कर सकती हैं। सरकारी आँकड़े के अनुसार इन नहरों में उपलब्ध पानी के इस्तेमाल से माइक्रोहाईडल पद्धति द्वारा लगभग 35,000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है। इसके अलावा पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा जैसे वैकल्पिक स्रोत ऊँचाई एवं जंगलों के बीच बसे गाँवों में विद्युत आपूर्ति के लिये कारगर सिद्ध हो सकते हैं।
यह राज्य जहाँ प्राकृतिक सुन्दरता को समेटे है वहीं इसका कोई भी कोना प्राकृतिक आपदा से वंचित नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये पुख्ता नीति की आवश्यकता है। उदाहरणस्वरूप 1818 में जब नैनीताल भूस्खलन से ध्वस्त हो गया था तब अंग्रेजों ने उसे पुनः सुरक्षित करने के पुख्ता इन्तजाम किये थे। यही वजह है कि आज भी नैनीताल आपदा की दृष्टि से सुरक्षित है। इस ओर सरकार को विशेष ध्यान देने के साथ ही प्रभावित लोगों के लिये पुनर्वास नीति का भी निर्माण करना चाहिए।
ऐसा कहना भी गलत होगा कि इस राज्य में इस दिशा में कोई चिन्तन अथवा अभियान ना चला हो लेकिन उनके प्रभाव अब सीमित हैं। रक्षासूत्र आन्दोलन, नदी बचाओ अभियान आदि इसके मुख्य उदाहरण हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व विधायक प्रीतम सिंह पंवार, चकबंदी के प्रणेता एवं उत्तरकाशी के पूर्व जिला पंचायत के अध्यक्ष स्व. श्री राजेन्द्र सिंह रावत ने भी राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये अलग-अलग प्रारूप तैयार कर सरकार को सौंपा है। परन्तु किसी भी सरकार ने इन मसौदों पर गौर करना उचित नहीं समझा।
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