जिस ग्लेशियर के आस-पास जोर से आवाज लगाना भी प्रतिबन्धित है उसी ग्लेशियर पास में ऐसे नव-निर्माण हम लोग करवा रहे हैं। इस निर्माण में रासायनिक विस्फोटक से लेकर विशालकाय मशीनी उपकरण, गाड़ी-मोटर और पेड़ों की बहुतायत में कटान तमाम तरह के अप्राकृतिक व अनियोजित कार्य हो रहे हैं तो निश्चित तौर पर गोमुख ग्लेशियर पर असर पड़ेगा। जिसका असर साल 2010 से दिखाई देने लग गया है। इस तरह कह सकते हैं कि एक तरफ इस नव-निर्माण से कार्बन उत्सर्जन हो रहा है तो दूसरी तरफ कार्बन को नष्ट करने वाले प्राकृतिक संसाधनों का अनियोजित दोहन किया जा रहा है।
वैज्ञानिको की माने तो अब फिर से हिमयुग की शुरुआत हो सकती है। यह तो समय ही बताएगा, परन्तु वर्तमान में मौसम परिवर्तन के कारण जन-धन की जो हानियाँ सामने आ रही हैं, वह अहम सवाल है। इस पर भी वैज्ञानिकों का मत अलग-अलग है। एक वैज्ञानिक समूह कहता है कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और दूसरा समूह कहता है कि फिर से हिमयुग आने वाला है। सही और गलत को यही वैज्ञानिक समझा सकते हैं पर मौजूदा वक्त यह तो स्पष्ट है कि ग्लेशियरों का पिघलना तेज हुआ है।कभी गंगोत्री से गोमुख ग्लेशियर पास था तो अब 18 किमी दूर हो गया है। इतना भर ही नहीं गोमुख ग्लेशियर का वह गाय के मुख जैसा आकार जो 18 हजार साल पहले बना था सो वर्तमान में पिघलकर टूट गया है। इसे ग्लोबल वार्मिंग कहेंगे कि ग्लेशियरों का पिघलना। कुछ भी कहें, परन्तु तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर स्थानीय स्तर पर जलवायु को प्रभावित कर रहे हैं।
अब हो यह रहा है कि बेमौसमी बारिश, बेमौसमी फूलों का खिलना जैसी समस्या आये दिन प्रकृति व लोगों के साथ खड़ी हो रही है। लोग जिस फसल की बुआई करते हैं वह समय पर तैयार इसलिये नहीं हो पा रही है कि अमुक फसल को समय पर वर्षा-पानी नहीं मिल रहा है। यहाँ तक कि गोमुख ग्लेशियर का रंग दिन-प्रतिदिन मटमैला होता जा रहा है।
इस दौरान जब गोमुख ग्लेशियर तेजी से पिघला तो उसके भ्रंश चीड़वासा और भोजवास के नालों में पट गए। जब नालों के पानी ने उफान भरा तो गंगोत्री में भागीरथी शीला तक भागीरथी नदी पहुँच गई। यह नजारा कई सौ सालों बाद गंगोत्री में देखने को मिला। इस बात की पुष्टी गंगोत्री मन्दिर के पुजारी कर रहे थे। वे बता रहे थे कि जब-जब भागीरथी शीला तक भागीरथी का पानी पहुँचा तब-तब इस क्षेत्र में खतरनाक प्राकृतिक घटनाएँ घटीं।
इस तरह के मौसम परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिक ही अच्छी तरह जवाब दे सकते हैं। वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ ग्लेशियर विज्ञानी डॉ. सुधीर तिवारी कहते हैं कि साल 2013 में केदारनाथ आपदा के कारण गोमुख ग्लेशियर पर दरारें पड़ी थीं और अत्यधिक बारिश होने से ग्लेशियर का गोमुखनुमा आकार बह गया। कहते हैं कि सियाचीन के बाद हिमालय में गंगोत्री-ग्लेशियर सबसे बड़ा है, जो 32 किमी लम्बा है।
इधर देहरादून स्थित वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के इतिहास से सम्बन्धित आँकड़े खंगाले तो उन्हे चौंकाने वाले तथ्य मिले। वैज्ञानिकों का कहना है कि उनके अध्ययन बताते हैं कि हिमालय क्षेत्र में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा घट रही है। 50 करोड़ साल पहले हिमालय में इसकी मात्रा 7500 पार्ट पर मिलियन थी, 40 करोड़ साल 3000 पार्ट पर मिलियन हुई और अब घटकर 420 पार्ट पर मिलियन पर आ गई।
वाडिया इंस्टीट्यूट के गंगोत्री प्रभारी डॉ. समीर तिवारी कहते हैं कि काराकोरम में ग्लेशियर की बढ़ने की पुष्टी हुई है। हिमयुग आने पर फिर से ग्लेशियर बढ़ेंगे। वहीं डॉ. सन्तोष राय ने ग्लेशियरों के सिकुड़ने की घटना को क्षणिक बदलाव बताया है। अध्ययन में यह भी सामने आया कि सूरज की चमक घटने बढ़ने से भी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है।
अध्ययन यह बताते हैं कि हिमालय में ही उत्सर्जित कार्बन को हिमालय का ही पर्यावरण शोधन का काम कर सकता है, मगर बाहर से उत्सर्जित कार्बन को खपाने की क्षमता अब हिमालय में नहीं है। इसलिये हिमालय के ईको सिस्टम से अनियोजित छेड़-छाड़ करना ठीक नहीं है। वाडिया भू-विज्ञान संस्थान की एक रिपोर्ट ‘जर्नल जियो थर्मिक्स 2016’ में छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार भारतीय हिमालय क्षेत्र में 340 गर्म झरने हैं, जिनमें 40 निष्क्रिय बताए जाते हैं।
इस लिहाज से भी हिमालय में पेड़ों की कटाई पर एकदम प्रतिबन्ध लगना चाहिए। हिमालय क्षेत्र में औद्योगिक व वाणिज्यिक गतिविधियों को आरम्भ करने से पूर्व एक बार सोचना होगा कि इस तरह की योजना का रोडमैप क्या है। ऐसा आज तक इस हिमालयी क्षेत्र में हुआ नहीं है। उदाहरणस्वरूप गोमुख ग्लेशियर के निचले स्तर पर यानि भैरवघाटी से लेकर उत्तरकाशी तक 80 किमी के दायरे में आधा दर्जन जलवद्यिुत परियोजनाएँ निर्माणाधीन थीं जिन पर फिलहाल रोक लगी है।
तात्पर्य यह है कि जिस ग्लेशियर के आस-पास जोर से आवाज लगाना भी प्रतिबन्धित है उसी ग्लेशियर पास में ऐसे नव-निर्माण हम लोग करवा रहे हैं। इस निर्माण में रासायनिक विस्फोटक से लेकर विशालकाय मशीनी उपकरण, गाड़ी-मोटर और पेड़ों की बहुतायत में कटान तमाम तरह के अप्राकृतिक व अनियोजित कार्य हो रहे हैं तो निश्चित तौर पर गोमुख ग्लेशियर पर असर पड़ेगा। जिसका असर साल 2010 से दिखाई देने लग गया है। इस तरह कह सकते हैं कि एक तरफ इस नव-निर्माण से कार्बन उत्सर्जन हो रहा है तो दूसरी तरफ कार्बन को नष्ट करने वाले प्राकृतिक संसाधनों का अनियोजित दोहन किया जा रहा है।
प्रकृति से छेड़-छाड़ ने बिगाड़ा ईकोसिस्टम
शोधकर्ता व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. समीर तिवारी कहते हैं कि विश्व के वैज्ञानिकों में अब तक हिमालय के कार्बन उर्त्सजन की स्थिति स्पष्ट नहीं है। अब पता चला कि हिमालय विश्व का 13 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जित करता है। शोध के नतीजों पर गौर करें तो हिमालय के ईको सिस्टम पर कदापी छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए। जबकि होता आया ऐसा ही है कि प्रकृति को वर्तमान में हम लोग उपभोग की वस्तु समझने लग गए हैं। कुल मिलाकर वाटर टैंक कहे जाने वाले हिमालय पर किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ करना ही हिमालय के ईको सिस्टम पर सीधा खतरा है।
जिम्मेदारी से मुख मोड़ते
उत्तराखण्ड में रक्षासूत्र आन्दोलन के सूत्रधार व पर्यावरणविद सुरेश भाई कहते हैं कि हिमालय में खतरे सामने से दिखाई दे रहे हैं और हम लोग उपभोगवादी प्रवृत्ति पर उतर आये हैं। संरक्षण और संवर्धन की बातें मात्र कागजों और गोष्ठियों तक सिमटकर रह गए हैं। जिम्मेदार लोग इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते। हाँ इतना जरूर है कि बयानवीरों की लम्बी सूची बन रही है। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण-संवर्धन नहीं सिर्फ दोहन और उपभोग की योजनाओं को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। यही वजह है कि आये दिन इस हिमालय में प्राकृतिक आपदाएँ घट रही हैं और हिमालय में रहने वाले लोग भी हर वक्त प्राकृतिक आपदाओं के कारण डरे-सहमें ही नहीं रहते बल्कि कई बार लोग प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हुए हैं।