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आज वनों का दोहन, अविवेकपूर्ण विकास कार्य, खनन, बढ़ती हुई जनसंख्या, जल संरक्षण के ध्वस्त व विलुप्त होती परम्परा के कारण जल सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ता जा रहा है। जल संकट का संकेत यही है कि जिन माध्यमों से पूरे साल भर पानी की उपलब्धता में एकरूपता बनी रहती थी, वे सीमित होते जा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि जल संरक्षण व संवर्द्धन के पुरातन तरीकों को पुनः बहाल करना होगा ताकि कम-से-कम पेयजल आपूर्ति की समस्या हल हो सके। उत्तराखण्ड में जल आपूर्ति की समस्या तब से बढ़ने लगी जब से लोग जल पूजा की परम्परा को दरकिनार करने लगे। पेयजल को लेकर लोगों की निर्भरता अब पाइपलाइन पर हो चुकी है। वह पाइपलाइन जिस प्राकृतिक जलस्रोत से आती है वहाँ पर जल संरक्षण का कार्य ठेकेदारी प्रथा से हो रहा है। जिस कारण वे सभी प्राकृतिक जलस्रोत सूखने लगे हैं।
ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड को एशिया के सबसे बड़े जल भण्डार के रूप में जाना जाता है। साथ ही हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को जल मिनार कहा जाता है। चूँकि गंगा, यमुना, अलकन्दा, पिण्डर, मन्दाकिनी, काली, धौली, सरयू, कोसी, रामगंगा, आदि जीवनदायिनी नदियों का उद्गम यहीं से है, इसलिये आम धारणा है कि इस राज्य में जल की कमी नहीं हो सकती। लेकिन राज्य की अधिकांश भौगोलिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि नदियाँ घाटियों में बहती हैं और गाँव ऊपर पहाड़ियों में बसते हैं।
पीने के पानी की मुख्य आपूर्ति धारे, नौले, तालाब, झरनों, चाल-खाल व छोटे-छोटे गदेरों से ही होती है। इस पर्वतीय प्रदेश में बसे हुए विभिन्न गाँवों की स्थिति को देखने से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन समय में जहाँ-जहाँ पर ये छोटे-छोटे जलस्रोत उपलब्ध थे वहीं-वहीं पर गाँव बसे होंगे। अलबत्ता आज अधिकांश पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में जल की समस्या उभर कर सामने आ रही है।
इधर उत्तराखण्ड राज्य की जल संरक्षण के प्रति समृद्धशाली परम्पराएँ रही हैं। इसी तरह यहाँ की जल संस्कृति के विविध आयाम हैं। जल संरक्षण राज्य की पारम्परिक, सामाजिक व्यवस्था में सम्मिलित थी। इसका ठोस उदाहरण आज भी दूरदराज के गाँवों में विवाह संस्कार के दौरान देखने को मिलते हैं। जल संरक्षण की परम्परा को लोगो ने भावनाओं से जोड़ा है।
विवाह संस्कार में दूल्हा-दुल्हन अपने गाँव के पास के प्राकृतिक जलस्रोत तक जाकर ‘सत्तजल’ की उपलब्धता के लिये पूजा करते हैं और वर्ष भर इस स्रोत के संरक्षण की शपथ लेते हैं। धीरे-धीरे यह जल संरक्षण की परम्परा विलुप्ति की कगार पर आ गई है। बता दें कि जब तक इस तरह का सामाजिक ताना-बाना ठीक था तब तक गाँवों में लोगों को पेयजल जैसी समस्या नहीं होती थी।
गौरतलब हो कि उत्तराखण्ड राज्य स्थापना के 16 वर्ष पूरे हो गए हैं। पर जल संसाधन के विकास और प्रबन्धन की दिशा में अब तक जो प्रयास किये गए हैं वह काफी नहीं है, बजाय इसके जल संकट बढ़ ही रहा है। बताया जा रहा है कि जल संस्कृति के स्थायित्व विकास की दिशा में सहभागी प्रयास पंचायती राज संस्थाएँ कर रही हैं। उनका यह प्रयास भी अब तक रंग नहीं ला पाया। जबकि पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से ऐसे जल संरक्षण के सहभागी प्रयास आने वाले समय में मील का पत्थर साबित हो सकते थे। लोगों का आरोप है कि पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से जो भी जल संरक्षण के कार्य हुए हैं वे जल संस्कृति के लोक विज्ञान को ध्यान में रखते हुए नहीं किये गए। बजाय प्राकृतिक जलस्रोतों पर सीमेंट पोतकर जल संरक्षण की इतिश्री की गई है।
सामाजिक कार्यकर्ता रमेश चौहान कहते हैं कि पानी प्राकृतिक संसाधन है, वर्षा ही इसका मुख्य स्रोत है और हमारे प्रदेश में वर्षाजल के रूप में पानी की प्राप्ति लगभग छः महीने तक होती है। पानी की इस उपलब्धता में सन्तुलन बनाए रखने के लिये प्रकृति में सब व्यवस्थाएँ मौजूद हैं। हमारे वनों में यह क्षमता है कि वे वर्षाजल को उस समय अपने में समेट लेता है तथा फिर उसे धीरे-धीरे पूरे साल भर नदियों, नालों, झरनों और भूजल प्रणाली में छोड़ते रहें। दूसरा ऊँची पहाड़ियों पर विशाल बर्फ के भण्डारों के रूप में वर्षाजल बर्फ के रूप में संग्रहित रहता है, जो कि धीरे-धीरे रिसकर वर्ष भर नदियों में जल प्रवाह बनाए रखता है। उन्होंने कहा कि जब तक प्रकृति द्वारा जनित यह जलचक्र सन्तुलित था तब कम-से-कम पीने के पानी की समस्याएँ बिल्कुल नहीं थी।
आज वनों का दोहन, अविवेकपूर्ण विकास कार्य, खनन, बढ़ती हुई जनसंख्या, जल संरक्षण के ध्वस्त व विलुप्त होती परम्परा के कारण जल सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ता जा रहा है। जल संकट का संकेत यही है कि जिन माध्यमों से पूरे साल भर पानी की उपलब्धता में एकरूपता बनी रहती थी, वे सीमित होते जा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि जल संरक्षण व संवर्द्धन के पुरातन तरीकों को पुनः बहाल करना होगा ताकि कम-से-कम पेयजल आपूर्ति की समस्या हल हो सके।
जल संकट कब दूर होगा यह तो समय ही बताएगा परन्तु मौजूदा समय में सरकारी योजनाएँ बता रही हैं कि राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा प्रोत्साहित जल संरक्षण के लिये मुख्यतः वर्षाजल संग्रहित टैंक बनाए जा रहे हैं। इसी तरह वर्षाजल का संग्रहण करने की प्राचीन पारम्परिक पद्धति चाल-खाल को भी मनरेगा, वन विभाग व पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीणों के सहयोग से बनवा रही हैं।
ये विचार हालांकि वर्षाजल को इकट्ठा करके भूजल स्तर को बढ़ाया जाये और संग्रहित वर्षाजल फिर धीरे-धीरे जमीन में रिसाव होकर जलस्रोतों में पानी के प्रवाह को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ। इसके आलावा पुराने जलस्रोतों का जीर्णोंद्धार कर उसके जलागम क्षेत्र का चिन्हीकरण कर, जन सहभागिता से उन्हे संरक्षित करने के लिये सामुदायिक स्तर पर उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में उपाय किये जा रहे हैं। पुराने जलस्रोतों का रख-रखाव हेतु उसके जलागम क्षेत्र में चौड़ी पत्ती के पौधरोपण भी किया जा रहा है। इस हेतु महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना तथा उत्तराखण्ड ग्रामीण पेयजल आपूर्ति एवं स्वच्छता परियोजना (सेक्टर कार्यक्रम) के अन्तर्गत जल संरक्षण एवं संवर्धन में महत्त्वपूर्ण विकास कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है।
एक तरफ सरकार जल संरक्षण के कार्यों को अमलीजामा पहनाने के लिये कमर कस रही है वहीं दूसरी तरफ लोगों का जल संरक्षण के प्रति सवाल खड़े हो रहे हैं। लोगों का सन्देह है कि ये सहभागी प्रयास तभी फलीभूत होंगे जब ग्रामीण पूरे मनोवेग से व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर जल संरक्षण व संवर्द्धन के सहभागी कार्य परम्परानुसार आगे बढ़ाएँगे। जल संरक्षण के प्रयासों को ग्रामीण क्षेत्रों में अभियान के रूप में स्वीकार कर गाँव में जल प्रबन्धन समिति के माध्यम से जलागम क्षेत्रों में वृहद स्तर पर चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष लगाकर व खाल, ट्रेंच इत्यादि का निर्माण सकारात्मक दृष्टिकोण से सहभागी प्रयास करने होंगे।
अतएव 73वें संविधान संशोधन विधेयक की मूल भावनाओं के अनुरूप उत्तराखण्ड सरकार द्वारा जल एवं स्वच्छता के क्षेत्र में सुधार की पहल की गई है। जिसके तहत उत्तराखण्ड के सभी जिलों में पेयजल एवं स्वच्छता क्षेत्र में सुधार की व्यापक नीति लागू की गई है जिसका क्रियान्वयन पंचायत राज संस्थाओं के माध्यम से किया जा रहा है तथा पेयजल एवं स्वच्छता योजनाओं का समुदाय द्वारा नियोजन, क्रियान्वयन कर संचालन एवं रख-रखाव किया जाना अभी बाकी है।
कफनौल के ग्राम प्रधान विरेन्द्र सिंह कफोला, नौगाँव के क्षेत्र पंचायत जेष्ठ प्रमुख प्रकाश असवाल, टिहरी के जिला पंचायत सदस्य अमेन्द्र बिष्ट, चमोली जनपद के उर्गम गाँव के ग्राम प्रधान लक्ष्मण सिंह नेगी का कहना है कि स्वच्छ एवं निर्मल उत्तराखण्ड का निर्माण तभी सम्भव है जब सभी वर्गों की भागीदारी होगी। ऐसे विशाल अभियान की सफलता जन भागीदारी से ही सम्भव है। उन्होंने कहा कि जन भागीदारी को बढ़ाने में हमारी पंचायती राज संस्थाओं एवं उनके चुने हुए प्रतिनिधियों का अहम स्थान है एवं उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करने तथा प्रोत्साहित करने के लिये ‘निर्मल ग्राम’ जैसे पुरस्कार भी सरकार के स्तर पर प्रकृति-पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिये एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है। ऐसे ही जल संरक्षण के लिये कोई ठोस कार्य योजना बननी चाहिए। उनका सुझाव है कि बदलते परिवेश तथा जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से बचने के लिये जल की पुरातन संस्कृति को प्रोत्साहित किये जाने की नितान्त आवश्यकता है।