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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष
उत्तराखण्ड राज्य में भी सफाई को लेकर देश के अन्य भागों के जैसे ही हालात हैं। यहाँ भी कुछ अलग नहीं है। यहाँ अलग है तो सिर्फ-व-सिर्फ पहाड़, नदियाँ, ग्लेशियर व पर्यटन-तीर्थाटन। गाँव में आवासीय मकानों की नई पद्धति ने घर के ही पास या घर के भीतर शौचालय बनाना जरूरी समझा। इस राज्य में पहले कभी गाँव-घर में कोई शौचालय नहीं था।
चूँकि इस प्रदेश के पहाड़ी गाँव की पहचान थी कि गाँव की चारों तरफ की सरहदों पर कमोबेश अखरोट, चूलू (पहाड़ी खुबानी) के पेड़ बहुतायत में होते थे। जिस जगह को लोग चूलाण और अखलाण कहते थे। अर्थात शौच जाना था तो आम भाषा थी कि अखलाण या चूलाण में चले जाओ।
ये फलदार पेड़ गाँव की सरहद पर जहाँ प्रहरी का काम करते थे वहीं इनके कारण पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जाता था। अब तो गाँव में इस तरह के फलदार पेड़ कहीं यदा-कदा ही दिखाई देते हैं। काबिलेगौर यह है कि जब शौचालय का प्रचलन पहाड़ी गाँव में नहीं था तो लोग खुले में शौच जरूर जाते थे मगर शौच के बाद शौच को मिट्टी से ढँक देना लोगों के परम्परा में था।
उत्तराखण्ड राज्य के अधिकांश गाँव तीव्र ढालदार पहाड़ी एवं सीढ़ीनुमा स्थिति पर बसे हैं। जिनका सीवेज सीधे नीचे की ही तरफ बहकर आता है। गाँव में सीवेज को सोखने का कोई पुख्ता इन्तज़ाम नहीं है। लिहाजा जो भी तरल पदार्थ गाँव में छोड़ा जाता है उसका रास्ता स्वतः ही नीचे की तरफ बन जाता है।
अब तो नदियों, व बड़ी नदियों को फीड करने वाले छोटे नालों के किनारे, सड़कों के किनारे लोगों ने बसासत बना दी है। जो यहाँ पर बजारनुमा आकार ले रहे हैं। इनका सीवेज भी नीचे के ही तरफ रास्ता बनाता है। यानि कि सारा-का-सारा सीवेज अन्ततोगत्वा नदियों में ही गिर रहा है।
इस तरह का सीवेज जो नदियों में समा रहा है उसका प्रतिशत कुल में से मात्र दो प्रतिशत ही होगा। परन्तु जो शहरों का सीवेज नदियों को प्रदूषित कर रहा है उसका आँकड़ा चौंकाने वाला है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को उत्तराखण्ड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हाल ही में 396 होटल, 431 आश्रम, 256 धर्मशालाएँ हरिद्वार और ऋषिकेश में बिना अनुमति के चल रही है की एक सूची पेश की और बताया कि इनका सीवेज सीधे गंगा में ही प्रवाहित हो रहा है।
गाँव में शौचालय
राज्य के अधिकांश गाँव शौचालय विहीन हैं। सरकारी आँकड़ो पर गौर फरमाएँगे तो साल 2013 तक राज्य के 16,000 गाँवों में से मात्र 525 गाँवों में ही शौचालय बन पाये हैं। ये वे गाँव हैं जिन्हें निर्मल ग्राम पुरस्कार से नवाजा गया। उधर अब स्वजल परियोजना ग्रामीणों को रु. 1500 प्रति परिवार को आर्थिक अनुदान देकर लोगों को शौचालय बनाने के लिये प्रेरित कर रही हैं।
यानि कह सकते हैं कि 2009 से आरम्भ हुई स्वजल परियोजना ने ना तो गाँव की विधिवत पेयजल आपूर्ति कर पाई और ना ही शौचालय का आँकड़ा पिछले पाँच वर्षों में एक हजार गाँव तक कर पाई। दूसरी तरफ सरकार और स्वयं भी लोग शौचालय बनाने के लिये आतुर हैं। लोगों ने शौचालय बनाने का पूरा मन तो बना लिया परन्तु शौच के निस्तारण का अब तक कोई सलीका नहीं निकाल पाया।
स्वच्छ भारत अभियान
दो अक्टूबर को गाँधी जयन्ती के दिन ‘‘स्वच्छ भारत दिवस’’ हर साल मनाया जाएगा। इस वर्ष भी मनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री के नौ रत्न भी ‘‘स्वच्छ भारत मिशन’’ को अपने-अपने तरीके से सेलिब्रेट करेंगे।
उत्तराखण्ड में साल 2009 से अब राज्य के 16,000 गाँवों में से मात्र 525 गाँवों मे ही शैचालय बन पाये। उधर राज्य सरकार अपनी पीठ खुद ही थपथपा रही है कि सरकार ने अब तक 62,440 शौचालय निर्मित करवाएँ हैं, जबकि सरकार का लक्ष्य 56,977 शौचालय बनाने का था। राज्य में अपशिष्ट को संयोजित करने का कोई तरीका सामने नहीं आया जिससे ग्राऊण्ड वाटर की शुद्धता में इज़ाफा हो। सबसे ज्यादा गन्दगी का आलम नदियों में ही दिखाई दे रहा है।‘‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’’ भी अपने शो में लोगों को सफाई अभियान से जुड़ने की खूब अपील कर रहे हैं। हालांकि इस नाटक की टीम बहुमंजिल फ्लैटों की सीन दिखाकर आम लोगों को ‘‘स्वच्छ भारत मिशन’’ के साथ जुड़ने की बात करते हैं। जबकि इन फ्लैटों में शौचालय का होना अनिवार्य है। आश्चर्य इस बात का है कि फ्लैटों में निवास करने वाले ग्रामीणों को स्वच्छ रहने की सलाह देते हैं।
उत्तराखण्ड एक दृष्टी
2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में प्रति वर्ग किमी पर 189 लोग हैं। राज्य में जनसंख्या घनत्त्व का बढ़ना और पेड़-पौधों का कम होने से ही राज्य के पर्यावरण पर प्रदूषण का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। यही नहीं स्वच्छता के लिये लोगों की जो परम्परा थी कि प्रत्येक त्योहार के दिन सभी ग्रामीण सामूहिक रूप से सम्पूर्ण गाँव में स्वच्छता अभियान चलाते थे।
सो सहभागिता जैसे कार्यक्रम भी सरकारी योजनाओं की भेंट चढ़ गई। स्वजल, स्वैप जैसी विश्व बैंक पोषित योजनाएँ ग्रामीणों को पानी भी पिलाएगी और उनके घरों में शौचालय भी बनवाएगी। राज्य में इन योजनाओं ने अब तक अपना असर नहीं दिखा पाया है।
इकोसैन टॉयलेट की महत्ता
यह शुद्ध रूप से एक स्वस्थ परम्परा है। इस शौचालय का प्रयोग बिना पानी के ही किया जाता है। बता दूँ कि इसमें दो गड्ढे बनाए जाते हैं। प्रयोग करते वक्त पानी की जगह राख, लकड़ी का बुरा व मिट्टी को शौच के ऊपर डाला जाता है। जो छः से आठ माह में कम्पोस्ट बन जाती है। अर्घ्यम संस्था ने उत्तराखण्ड में छः और जम्मू कश्मीर में एक ‘‘इकोसैन टॉयलेट’’ बनाए हैं।
इस शौचालय की महत्ता है कि ना तो पानी की जरूरत होती है और ना ही किसी प्रकार की दुर्गन्ध आस-पास आती है। इसे जहाँ पानी की कमी हो वहाँ आसानी से प्रयोग किया जाता है। शौच करने के वक्त बाकायदा मल का निस्तारण अलग और मूत्र का निस्तारण अलग से स्वतः ही हो जाता है। इसलिये कि शौचालय को ऐसी सुविधा से बनाया गया है। जबकि आजकल के शौचालय में पानी की अधिकता, साफ-सफाई के लिये मशीन का इन्तज़ाम, और-तो-और मलमूत्र का जो निस्तारण पानी के द्वारा किया जाता है उससे ‘ग्राऊंड वाटर’ की अशुद्धता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है।
एनजीटी का फरमान
उत्तराखण्ड में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ क्या गुल खिलाएगा यह तो समय के गर्त में है, परन्तु अभी हाल ही में एनजीटी ने राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को एक फरमान जारी किया कि नदियों में सीवेज और मलमूत्र के निस्तारण की सरकार की क्या नीति है। ज्ञात हो कि अकेले ऋषिकेश और हरिद्वार में 1083 होटल-आश्रम बिना अनुमति के संचालित हो रहे हैं। इनके पास मल-मूत्र, सीवेज का कोई पुख्ता इन्तजाम नहीं है।
मसलन ये इस अपशिष्ट को सीधे गंगा में ही प्रवाहित करते हैं। इधर जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। ग्रीन बेंच ने राज्य प्रदूषण बोर्ड के साथ नगर निगमों को भी निर्देश दिया है कि वह बताएँ कि ऋषिकेश और हरिद्वार के ऊपरी क्षेत्र में बिना अनुमति के कितने होटल, धर्मशालाएँ और आश्रम चल रहे हैं। इन मामलों की अगली सुनवाई 14 अक्टूबर को होगी।
उत्तराखण्ड राज्य में भी सफाई को लेकर देश के अन्य भागों के जैसे ही हालात हैं। यहाँ भी कुछ अलग नहीं है। यहाँ अलग है तो सिर्फ-व-सिर्फ पहाड़, नदियाँ, ग्लेशियर व पर्यटन-तीर्थाटन। गाँव में आवासीय मकानों की नई पद्धति ने घर के ही पास या घर के भीतर शौचालय बनाना जरूरी समझा। इस राज्य में पहले कभी गाँव-घर में कोई शौचालय नहीं था।
चूँकि इस प्रदेश के पहाड़ी गाँव की पहचान थी कि गाँव की चारों तरफ की सरहदों पर कमोबेश अखरोट, चूलू (पहाड़ी खुबानी) के पेड़ बहुतायत में होते थे। जिस जगह को लोग चूलाण और अखलाण कहते थे। अर्थात शौच जाना था तो आम भाषा थी कि अखलाण या चूलाण में चले जाओ।
ये फलदार पेड़ गाँव की सरहद पर जहाँ प्रहरी का काम करते थे वहीं इनके कारण पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जाता था। अब तो गाँव में इस तरह के फलदार पेड़ कहीं यदा-कदा ही दिखाई देते हैं। काबिलेगौर यह है कि जब शौचालय का प्रचलन पहाड़ी गाँव में नहीं था तो लोग खुले में शौच जरूर जाते थे मगर शौच के बाद शौच को मिट्टी से ढँक देना लोगों के परम्परा में था।
उत्तराखण्ड राज्य के अधिकांश गाँव तीव्र ढालदार पहाड़ी एवं सीढ़ीनुमा स्थिति पर बसे हैं। जिनका सीवेज सीधे नीचे की ही तरफ बहकर आता है। गाँव में सीवेज को सोखने का कोई पुख्ता इन्तज़ाम नहीं है। लिहाजा जो भी तरल पदार्थ गाँव में छोड़ा जाता है उसका रास्ता स्वतः ही नीचे की तरफ बन जाता है।
अब तो नदियों, व बड़ी नदियों को फीड करने वाले छोटे नालों के किनारे, सड़कों के किनारे लोगों ने बसासत बना दी है। जो यहाँ पर बजारनुमा आकार ले रहे हैं। इनका सीवेज भी नीचे के ही तरफ रास्ता बनाता है। यानि कि सारा-का-सारा सीवेज अन्ततोगत्वा नदियों में ही गिर रहा है।
इस तरह का सीवेज जो नदियों में समा रहा है उसका प्रतिशत कुल में से मात्र दो प्रतिशत ही होगा। परन्तु जो शहरों का सीवेज नदियों को प्रदूषित कर रहा है उसका आँकड़ा चौंकाने वाला है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को उत्तराखण्ड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हाल ही में 396 होटल, 431 आश्रम, 256 धर्मशालाएँ हरिद्वार और ऋषिकेश में बिना अनुमति के चल रही है की एक सूची पेश की और बताया कि इनका सीवेज सीधे गंगा में ही प्रवाहित हो रहा है।
गाँव में शौचालय
राज्य के अधिकांश गाँव शौचालय विहीन हैं। सरकारी आँकड़ो पर गौर फरमाएँगे तो साल 2013 तक राज्य के 16,000 गाँवों में से मात्र 525 गाँवों में ही शौचालय बन पाये हैं। ये वे गाँव हैं जिन्हें निर्मल ग्राम पुरस्कार से नवाजा गया। उधर अब स्वजल परियोजना ग्रामीणों को रु. 1500 प्रति परिवार को आर्थिक अनुदान देकर लोगों को शौचालय बनाने के लिये प्रेरित कर रही हैं।
यानि कह सकते हैं कि 2009 से आरम्भ हुई स्वजल परियोजना ने ना तो गाँव की विधिवत पेयजल आपूर्ति कर पाई और ना ही शौचालय का आँकड़ा पिछले पाँच वर्षों में एक हजार गाँव तक कर पाई। दूसरी तरफ सरकार और स्वयं भी लोग शौचालय बनाने के लिये आतुर हैं। लोगों ने शौचालय बनाने का पूरा मन तो बना लिया परन्तु शौच के निस्तारण का अब तक कोई सलीका नहीं निकाल पाया।
स्वच्छ भारत अभियान
दो अक्टूबर को गाँधी जयन्ती के दिन ‘‘स्वच्छ भारत दिवस’’ हर साल मनाया जाएगा। इस वर्ष भी मनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री के नौ रत्न भी ‘‘स्वच्छ भारत मिशन’’ को अपने-अपने तरीके से सेलिब्रेट करेंगे।
उत्तराखण्ड में साल 2009 से अब राज्य के 16,000 गाँवों में से मात्र 525 गाँवों मे ही शैचालय बन पाये। उधर राज्य सरकार अपनी पीठ खुद ही थपथपा रही है कि सरकार ने अब तक 62,440 शौचालय निर्मित करवाएँ हैं, जबकि सरकार का लक्ष्य 56,977 शौचालय बनाने का था। राज्य में अपशिष्ट को संयोजित करने का कोई तरीका सामने नहीं आया जिससे ग्राऊण्ड वाटर की शुद्धता में इज़ाफा हो। सबसे ज्यादा गन्दगी का आलम नदियों में ही दिखाई दे रहा है।‘‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’’ भी अपने शो में लोगों को सफाई अभियान से जुड़ने की खूब अपील कर रहे हैं। हालांकि इस नाटक की टीम बहुमंजिल फ्लैटों की सीन दिखाकर आम लोगों को ‘‘स्वच्छ भारत मिशन’’ के साथ जुड़ने की बात करते हैं। जबकि इन फ्लैटों में शौचालय का होना अनिवार्य है। आश्चर्य इस बात का है कि फ्लैटों में निवास करने वाले ग्रामीणों को स्वच्छ रहने की सलाह देते हैं।
उत्तराखण्ड एक दृष्टी
2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में प्रति वर्ग किमी पर 189 लोग हैं। राज्य में जनसंख्या घनत्त्व का बढ़ना और पेड़-पौधों का कम होने से ही राज्य के पर्यावरण पर प्रदूषण का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। यही नहीं स्वच्छता के लिये लोगों की जो परम्परा थी कि प्रत्येक त्योहार के दिन सभी ग्रामीण सामूहिक रूप से सम्पूर्ण गाँव में स्वच्छता अभियान चलाते थे।
सो सहभागिता जैसे कार्यक्रम भी सरकारी योजनाओं की भेंट चढ़ गई। स्वजल, स्वैप जैसी विश्व बैंक पोषित योजनाएँ ग्रामीणों को पानी भी पिलाएगी और उनके घरों में शौचालय भी बनवाएगी। राज्य में इन योजनाओं ने अब तक अपना असर नहीं दिखा पाया है।
इकोसैन टॉयलेट की महत्ता
यह शुद्ध रूप से एक स्वस्थ परम्परा है। इस शौचालय का प्रयोग बिना पानी के ही किया जाता है। बता दूँ कि इसमें दो गड्ढे बनाए जाते हैं। प्रयोग करते वक्त पानी की जगह राख, लकड़ी का बुरा व मिट्टी को शौच के ऊपर डाला जाता है। जो छः से आठ माह में कम्पोस्ट बन जाती है। अर्घ्यम संस्था ने उत्तराखण्ड में छः और जम्मू कश्मीर में एक ‘‘इकोसैन टॉयलेट’’ बनाए हैं।
इस शौचालय की महत्ता है कि ना तो पानी की जरूरत होती है और ना ही किसी प्रकार की दुर्गन्ध आस-पास आती है। इसे जहाँ पानी की कमी हो वहाँ आसानी से प्रयोग किया जाता है। शौच करने के वक्त बाकायदा मल का निस्तारण अलग और मूत्र का निस्तारण अलग से स्वतः ही हो जाता है। इसलिये कि शौचालय को ऐसी सुविधा से बनाया गया है। जबकि आजकल के शौचालय में पानी की अधिकता, साफ-सफाई के लिये मशीन का इन्तज़ाम, और-तो-और मलमूत्र का जो निस्तारण पानी के द्वारा किया जाता है उससे ‘ग्राऊंड वाटर’ की अशुद्धता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है।
एनजीटी का फरमान
उत्तराखण्ड में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ क्या गुल खिलाएगा यह तो समय के गर्त में है, परन्तु अभी हाल ही में एनजीटी ने राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को एक फरमान जारी किया कि नदियों में सीवेज और मलमूत्र के निस्तारण की सरकार की क्या नीति है। ज्ञात हो कि अकेले ऋषिकेश और हरिद्वार में 1083 होटल-आश्रम बिना अनुमति के संचालित हो रहे हैं। इनके पास मल-मूत्र, सीवेज का कोई पुख्ता इन्तजाम नहीं है।
मसलन ये इस अपशिष्ट को सीधे गंगा में ही प्रवाहित करते हैं। इधर जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। ग्रीन बेंच ने राज्य प्रदूषण बोर्ड के साथ नगर निगमों को भी निर्देश दिया है कि वह बताएँ कि ऋषिकेश और हरिद्वार के ऊपरी क्षेत्र में बिना अनुमति के कितने होटल, धर्मशालाएँ और आश्रम चल रहे हैं। इन मामलों की अगली सुनवाई 14 अक्टूबर को होगी।