स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार में पिछड़ गया उत्तराखण्ड

Submitted by RuralWater on Tue, 11/07/2017 - 12:45

स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार पोर्टल पर यदि अमुक विद्यालय का शिक्षक स्कूल की स्वच्छता की जानकारी अपलोड करेगा तो उन्हें लगातार स्कूल में रहना होगा, बच्चों के साथ नियमित स्कूल परिसर की स्वच्छता बनाए रखने के लिये और कई तरह की गतिविधियाँ शायद उन्हें करनी पड़े इत्यादि। जैसी समस्या स्वच्छ विद्यालय के लिये उनके साथ ना हो जाये। पर कौतुहल का विषय यह है कि प्रधानमंत्री के कहने पर भी उत्तराखण्ड राज्य के विद्यालयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता का रवैया आखिर क्यों? उत्तरखण्ड में जब स्कूलों की बात होती है तो इसमें सर्वाधिक समस्या पलायन को कहा गया है। यह एक अलग प्रकार की समस्या है। मगर जब स्कूलों की ‘स्वच्छता’ की बात हो तो इसमें कहना ही क्या है। स्कूल भवन है, लगभग स्कूलों में शौचालय बने हैं, कागजों में अध्यापक हैं परन्तु हकीकत में बच्चों की संख्या कम ही है। ऐसे में तो ये विद्यालय स्वच्छ साफ तो होने ही चाहिए। परन्तु कहानी इसके उलट है। उलट इस मायने में कि जिस राज्य के लोगों ने मोदी को भारी बहुमत दिया हो और वहीं के अध्यापक प्रधानमंत्री मोदी के सपनों पर पानी फेर रहे हों। इसलिये कि राज्य के स्कूलों में स्वच्छता अभियान की पोल सरकारी रिपोर्ट ही खोल रही है।

सरकारी आँकड़े बता रहे हैं कि 14 हजार स्कूलों में से सिर्फ 127 स्कूलों ने ‘स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार पोर्टल’ पर अपनी रिपोर्ट अपलोड की है। केन्द्रीय संयुक्त सचिव मनीष गर्ग ने इस बावत सचिव विद्यालय चन्द्रशेखर भट्ट को फोन पर खरी-खरी सुनाई। केन्द्र सरकार ने सवाल खड़ा किया कि सर्व शिक्षा अभियान के अर्न्तगत दूसरे नम्बर पर आये उत्तराखण्ड के स्कूलों की ऐसी हालत क्यों है।

साहब! यह कोई ऐसी-वैसी बात नहीं है। हालात की नजाकत ऐसी ही है कि राज्य के सर्वाधिक स्कूलों में बने शौचालय सिर्फ व सिर्फ शो-पीस हैं। क्योंकि इनमें शौचालय का दरवाजा तो है परन्तु इनमें पानी की कोई सुविधा नहीं है। यही नहीं अधिकांश शौचालय सीट व शोकपिट के अभाव में मात्र देखने भर के लिए बनाए गए हैं। ऐसे में कौन भला जो अपनी तनख्वाह से इन शौचलायों के काम को पूर्ण करे और ‘स्वच्छ विद्यालय पोर्टल’ पर रजिस्टर करें।

करें भी कैसे पोर्टल पर जो जानकारी माँगी गई है वह ये विद्यालय पूरी नहीं कर सकते हैं। वैसे भी बताया जा रहा है कि आगामी सत्र में लगभग 3000 प्राथमिक विद्यालय बन्द होने की कगार पर आ चुके हैं। इधर कैप्टन आलोक शेखर तिवारी महानिदेशक विद्यालयी शिक्षा बार-बार स्कूलों को आदेश कर चुके हैं कि सभी राजकीय प्रथमिक, माध्यमिक सहायता प्राप्त विद्यालय, सीबीएससी के विद्यालय, मदरसा और संस्कृत पाठशालाएँ समय-समय पर स्वच्छता अभियान पोर्टल पर अपनी -अपनी रिर्पोटें नियमित भेंजे। कौन भला जो इस आदेश को पढ़े और आगे बढ़ाए। खैर सरकारी मुलाजिम एक दूसरे के आदेश को कितना तवज्जो देते हैं यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि पीएम मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट ‘स्वच्छ भारत’ को ठेंगा दिखाने का काम उत्तराखण्ड से आरम्भ हो गया है। स्कूलों की माली हालत बयां कर रही है कि वे स्वच्छता पखवाड़ा के एक माह बाद भी एक कदम आगे नहीं बढ़ पाये।

ज्ञात हो कि स्कूलों में स्वच्छता अभियान चलाने के लिये केन्द्र सरकार बराबर सहयोग दे रही है। इसके लिये बाकायदा व्यवस्था की गई कि ‘स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार पोर्टल’ पर प्रत्येक विद्यालय समय-समय पर स्वच्छता सम्बन्धित जानकारी अपलोड करता रहेगा, तो वे स्वतः ही स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार की श्रेणी में आ जाएगा। ताज्जुब यह है कि 127 में से यह आँकड़ा एक भी आगे नहीं बढ़ पाया। क्या कारण है कि राज्य के अधिकांश स्कूल ‘स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार पोर्टल’ पर अपने विद्यालय से सम्बन्धित स्वच्छता की जानकारी अपलोड नहीं कर रहे हैं।

ऐसा नहीं कि अध्यापक कम्प्यूटर से अनभिज्ञ हों, सभी अध्यापक आई फोन और एंड्रॉयड फोन का इस्तेमाल करते है, इंटरनेट कनेक्ट भी रहते हैं, फिर भी अपने विद्यालय के प्रति इतने असंवेदनशील हैं। सवाल भी किया गया कि सर्व शिक्षा अभियान में देश में दूसरे नम्बर पर स्थान बनाने वाले राज्य के वे स्कूल स्वच्छता अभियान के लिये फिसड्डी क्यों हो रहे हैं।

इस पर सचिव विद्यालय दिक्षा भट्ट ने महानिदेशक कैप्टन आलोक शेखर तिवारी को आड़े हाथों लिया है। इसके बाद तो महानिदेशक ने सभी निदेशकों को ऐसी फटकार लगाई कि वे भी विद्यालयों पर आग बबूला हो उठे। और फिर से आदेश जारी करते हुए कहा कि वे नियमित स्कूल की स्वच्छता की जानकारी ‘स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार पोर्टल’ पर अपलोड करें। इतनी गरमा-गरम उठापटक में भी स्कूल प्रशासन की नींद नहीं खुली।

बता दें कि वैसे भी राजधानी में हर तीसरा जूलूस शिक्षकों का ही होता है। इन शिक्षकों की उतनी मजबूती स्कूलों में नहीं दिखती है, जितनी इनकी संगठन पर है। शिक्षक संगठनों ने कभी भी ऐसी माँग नहीं की कि उनके विद्यालय में शौचालय नहीं है, पानी नहीं है, रास्ता अच्छा नहीं है, शिक्षकों की कमी है, स्कूल में अध्ययनरत बच्चों के लिये खेल एवं अन्य पठन-पाठन की सामग्री का अभाव है, वगैरह जैसी माँगों को लेकर राजधानी की सड़कों पर उत्तराखण्ड के शिक्षक सामने नहीं आये हैं। उनकी माँग का हिस्सा उनकी निजी जिन्दगी से जुड़ा होता है। लोगों का कहना है कि यदि स्कूलों से स्वच्छता का सन्देश आये तो स्वयं ही उस गाँव में स्वच्छता अभियान आरम्भ हो जाएगा।

ग्राम प्रधान मनोज का कहना है कि शिक्षकों को स्कूल की माँग के साथ अपनी माँग भी रखनी होगी। कहा कि स्कूल की अधिकांश समस्या तो ग्राम पंचायत ही निपटा सकती है। ग्राम प्रधान लक्ष्मण सिंह नेगी का कहना है जब से शिक्षक निजी माँग को लेकर सड़कों पर आये हैं तब से स्कूलों की हालत बदतर हो गई है। उन्होंने कहा कि शिक्षकों को फिर से लोगों के विश्वास को जीतना होगा और लोग शिक्षकों की लड़ाई में आगे आएँगे। वे कहते हैं कि उनकी ग्राम पंचायत में कभी भी शिक्षकों ने ऐसी माँग नहीं की कि उनके स्कूल में स्वच्छता को लेकर कोई कठिनाई आ रही है। कहा कि स्कूल में शौचालय, पानी और अन्य छोटी-छोटी समस्या को वे अपने स्तर से निस्तारण कर सकते हैं।

उल्लेखनीय हो कि राज्य में अधिकांश विद्यालय 10 से 20 छात्रों वाले ही रह गए हैं। लगभग 3000 विद्यालय ऐसे हैं जिनमें छात्रों की संख्या 10 से कम रह गई है। इसके अलावा इन सरकारी विद्यालय में अध्ययनरत बच्चे मजदूर किसान और अनुसूचित जाति के ही हैं। इन अभिभवकों के पास नेतृत्व का अभाव है उनकी आवाज नक्कारखाने की तूती जैसी हो गई है। यह तो आँकड़ों की बानगी है। हकीकत की तस्वीर बहुत ही धुँधली है।

जागरूक लोगों का आरोप है कि स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार पोर्टल पर यदि अमुक विद्यालय का शिक्षक स्कूल की स्वच्छता की जानकारी अपलोड करेगा तो उन्हें लगातार स्कूल में रहना होगा, बच्चों के साथ नियमित स्कूल परिसर की स्वच्छता बनाए रखने के लिये और कई तरह की गतिविधियाँ शायद उन्हें करनी पड़े इत्यादि। जैसी समस्या स्वच्छ विद्यालय के लिये उनके साथ ना हो जाये। पर कौतुहल का विषय यह है कि प्रधानमंत्री के कहने पर भी उत्तराखण्ड राज्य के विद्यालयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता का रवैया आखिर क्यों?