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उल्लेखनीय हो कि इस पर्वतीय राज्य में 1960-64 के दौरान एक भूमि बन्दोबस्त हुआ था जिसे फिर 40 वर्ष बाद यानि 2004 में करना था। कम से कम नये राज्य में तो पहले भूमि बन्दोबस्त होना ही चाहिए था जो नहीं हुआ। इसलिए सामूहिक और व्यक्तिगत संसाधनों पर लूट मची है। यह तो स्पष्ट होता है कि भूमि के मामलों में सैटेलाइट सर्वे झूठे आंकड़े प्रस्तुत कर रहा है।
आजकल ऐसी खबरें आ रही है कि पूरे देशभर में जमीनों को कब्जाने का काम सत्ता के नज़दीकी लोग कर रहे हैं। यह कोई धर-पकड़ नहीं अपितु संविधान की कुछ धाराओं को तोड़-मोड़कर जमीन कब्जाने का गोरखधन्धा चरम सीमा पर पहुँच गया है। यह हालात उत्तराखण्ड राज्य में भी है। इस पहाड़ी राज्य में जमीन हथियाने के कारण पहाड़ में भारी मात्रा में लोग भूमिहीन हो रहे हैं। और तो और सामूहिक जमीन तो इस राज्य में कहीं बची भी होगी? जानकारों का कहना है कि संविधान की धारा 25 के अन्तरगत जमीन कब्जाने का काम सरल बनाया जा रहा है। बता दें कि यह धारा उद्योगों को कुछ समय के लिये जमीन उपलब्ध करवाने की वकालत करती है यानि जमीन को लीज पर लेना। इस तरह राज्य की 90 फीसदी से भी अधिक जमीन भू-माफियाओं के कब्जे में आ चुकी है। यह बात पिछले दिनों नैनीताल में हुई ‘‘उत्तराखण्ड में सामूहिक संसाधनों की स्थिति’’ की बैठक में लोगों ने मुखर रूप से कही।उल्लेखनीय हो कि इधर उत्तराखण्ड सरकार ने उच्च न्यायालय में एक हलफनामा प्रस्तुत किया था कि राज्य के अनुसूचित जनजाति के लोग भूमिहीन नहीं हैं। पर उधमसिंह नगर के अनुसूचित जनजाति के लोगों की जमीन पर तो स्कॉट फार्म का कब्जा हो चुका है। और राज्य में भारी मात्रा में सीलिंग व सामूहिक जमीन पर मौजूदा समय में भू-माफियाओं का कब्जा बढ़ता ही जा रहा है। हालात ऐसी हो चुकी है कि स्कूल खोलने के लिये भी ग्राम पंचायत के पास कोई जमीन नहीं बची है। वैसे भी राज्य बनने के बाद जमीनों को खुर्द-बुर्द करने का सिलसिला इसलिए जारी है कि राज्य में 17 वर्ष बाद भी जमीन वितरण की कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाई है। प्रश्न इस बात का है कि राज्य की सरकारें उद्योगों को लगातार जमीन दे रही है। राज्य में जितने भी पार्क हैं उनके भीतर बड़े-बड़े रिजोर्ट बनाये जा रहे हैं और लोगों को एक छत भी नसीब नहीं हो पा रही है।
ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड में सर्वाधिक सामूहिक संसाधन नदियाँ और जंगल हैं। यही सामूहिक संसाधन बड़ी विकासीय परियोजनाओं जैसे बांध, पार्क, सड़क के लिये भेंट चढाई जा रही है। परम्परागत वन पंचायतों पर अध्ययन करने वाले ईश्वरी जोशी ने कहा कि उत्तराखण्ड में पिछले 10 वर्षों के अन्तराल में जो 71 प्रतिशत जंगल बढ़े हैं वह स्थिति भी स्थानीय लोगों के लिये सवाल खड़ा कर रही है। उन्होंने उदाहरण देकर कहा कि पहले पशुपालकों का जंगलों में अस्थाई आवास होते थे। एक जंगल से दूसरे जंगल तक पशुओं के साथ लोगों का रहना और इसी दौरान लोगों का आपसी लेन देन जो होता था वह एक तरह का व्यापार होता था। इस तरह कह सकते हैं कि ये जंगल लोगों के सामूहिक संसाधन होते थे, सो यह व्यवस्था अब नहीं रह गई है। कहा कि इस लोक व्यवस्था का दौर 1996 से ही लोप होता गया।
इसी तरह 1996 से 2012 तक राज्य में बेनाप भूमि को वनभूमि माना गया और तमाम तरह के वनकानून लोगों और जंगल पर लागू कर दिये गये। जबकि भूमिहीन के सवाल को लेकर कानून कहता है कि 180 गज भूमि जिलाधिकारी स्वंय के अधिकार से भूमिहीन को दे सकता है, मगर अब तक राज्य में ऐसी कोई खबर सामने नहीं आ पाई। हाँ ऐसी खबरें जरूर आई कि पिछली सरकार ने 353 नाली सामूहिक जमीन जीन्दल ग्रुप को लीज पर दे डाली। उनका आरोप है कि जीन्दल को तो जमीन वैसे ही कौड़ियों के भाव मिल जाती है परन्तु जब वन अधिनियम 2006 के तहत विनसर सेंचुरी के भीतर बसे 17 गाँव के ग्रामीणों ने जनवरी 2012 में भूमि अधिकार के दावे भरे तो उन पर सरकार ने अब तक कोई निर्णय नहीं दिया। राज्य में भूमि के सवाल पर स्पष्ट नजरिया नहीं बन पाया है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि पहाड़ में कृषि की कुल सात प्रतिशत भूमि ही बची है जबकि गैर सरकारी आंकड़े इसे चार प्रतिशत ही बता रहे हैं।
प्रयास संस्था की सुनिता शाही ने सवाल खड़ा किया कि खपराड़ (मुक्तेश्वर) का जंगल कहां गायब हो गया? मौजूदा समय में तो वहां कंक्रीट का जंगल ही दिखाई दे रहा है। सामूहिक जमीन को कब्जाने का यह जीता-जागता उदाहरण है। वनगुजरों के साथ काम करने वाले गुजरात से आये दिनेश देशाई का कहना है कि घुमन्तू पशुचारकों का प्राकृतिक संपदा जैसे गोचर, चारागाह नामों से जाने जानी वाली जगह पर सामूहिक अधिकार था। पर इनको भी कब्जा करने के लिये सरकार ने नायाब तरीका निकाला कि एक विशेष क्षेत्र को स्पेशल जोन, इको सेंसटिव जोन वगैरह घोषित कर दिया। उन्होंने गुजरात का उदाहरण देकर कहा कि गुजरात में 12000 एकड़ जमीन पर सरकार की सह पर अम्बानी ग्रुप ने कब्जा कर लिया है।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन शाह ने कहा कि अदालतें जब फैसला देती है तो प्रशासन इन फैसलों को लागू करवाने में डरता है। यही हाल सामूहिक संसाधनों के बारे में इस राज्य में हो रहा है। कहा कि उतराखण्ड में सामूहिक संपदा के रूप में जंगल ही है। पंचेश्वर बांध से एक सम्पन्न घाटी को डुबोया जा रहा है। इस अन्तराल में लोगों की व्यक्तिगत और सामूहिक संपदा बांध की भेंट चढ़ रही है और प्रशासन आँख में पट्टी बांधकर विकास का ढिंढोरा पिटवा रहे हैं। यहाँ सवाल खड़ा होता है कि इस बांध को बनाने में कितने हेक्टेयर जंगल समाप्त हो रहा है, यहाँ पर वन कानून कहाँ है? यहाँ लोगों के हक में कोई भी फैसला नहीं लिया जा रहा है सिवाय कॉरपोरेट घरानों के। उनका सुझाव है कि यदि पहाड़ में जलविद्युत परियोजनाएँ बनती है तो वे स्थानीय स्तर पर सहकारिता के आधार पर बनाया जाये। लोग ही इस कार्य के लिये शेयर धारक हों। उन्होंने कहा कि ऐसी संस्कृति से हुक्मरानों को डर लगता है।
इन्टरनेशनल लैण्ड कॉलियशन की अन्नू वर्मा ने कहा कि दुनिया में ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि जमीन मुनाफे की नहीं बल्कि घाटे का सौदा है। इस प्रकार भू-माफिया छोटे और मझौले किसानों की जमीन पर कब्जा करके ‘‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग’’ के कारोबार को बढ़ा रहे हैं। इस परिस्थिति में देश का एक बड़ा वर्ग भूमिहीन होने के कगार पर पहुँच गया है। यही वजह है कि देशभर में गरीबी बढ़ रही है और चुनिंदा लोगों की मुट्ठी में सत्ता और व्यवस्था आ चुकी है।
इतिहासकार व पद्मश्री प्रो. शेखर पाठक ने कहा कि इस देश में अंग्रेजों के आने के बाद 1853 में प्राकृतिक संसाधनों का परिदृश्य ही बदल गया है। जबकि जमीन एक मात्र संसाधन है, जिस पर तालाब, नदी, पहाड़, जंगल और लोग रहते हैं। कहा कि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सर्वाधिक जमीन रेलवे विभाग के पास है। उन्होंने बताया कि आज से 200 साल पहले ट्रेल नाम के अंग्रेज ने यहाँ भूमिबन्दोबस्त किया था। तब वन पंचायतों का प्रारम्भिक रूप लठ पंचायत ही हुआ करती थी और उन दिनों इन पंचायतों के पास सामूहिक संसाधन प्रचुर मात्रा में थे। उन्होंने सुझाया कि एक यूनिट खेती को विकसित करने के लिये छः यूनिट जमीन चाहिए। उत्तराखण्ड का इतिहास बताता है कि लोगों के आवासीय घर बेनाप भूमि पर ही बने थे। काश्त की जमीन पर उन दिनों, लोग घर नहीं बनाते थे। आज सभी प्रकार का ढाँचागत विकास काश्त की जमीन पर ही हो रहा है। इस प्रकार आंकड़े कैसे बता सकते हैं कि काश्त की भूमि है कि नहीं।
उदाहरण के तौर पर 1817 का बन्दोबस्त कहता है कि अब के उतराखण्ड में उन दिनों कृषि-भूमि 8-10 प्रतिशत थी। 2017 में सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि राज्य में 12 प्रतिशत काश्त की भूमि है। जबकि तराई-भावर को छोड़ देंगे तो पर्वतीय क्षेत्र में मात्र छः प्रतिशत ही काश्त की भूमि बची है। इसी तरह सीमान्त ब्लॉक जो हैं वहाँ तो तीन प्रतिशत ही काश्त की जमीन है। अन्तरराष्ट्रीय संस्था ईसीमोड़ की एक रिपोर्ट के अनुसार हिन्दूकुश हिमालय में पाँच प्रतिशत ही कृषि-भूमि है। बाकि पार्क, अभ्यारण्य और संरक्षित वन हैं। उन्होंने कहा कि आंकड़े इसलिए झूठे हैं कि मौजूदा समय में जंगलों पर व्यक्तिगत दबाव कम हुआ है और व्यावसायिक दबाव तेजी से बढ़ा है। तुलना कीजिए कि उत्तरप्रदेश के पास 70 प्रतिशत कृषि-भूमि है और इधर उत्तराखण्ड का 88 प्रतिशत हिस्सा पर्वतीय है। उत्तराखण्ड राज्य को पता ही नहीं है कि पिछले 55 वर्षों में कितनी कृषि-भूमि गैर कृषि-भूमि में बदल चुकी है।
उल्लेखनीय हो कि इस पर्वतीय राज्य में 1960-64 के दौरान एक भूमि बन्दोबस्त हुआ था जिसे फिर 40 वर्ष बाद यानि 2004 में करना था। कम से कम नये राज्य में तो पहले भूमि बन्दोबस्त होना ही चाहिए था जो नहीं हुआ। इसलिए सामूहिक और व्यक्तिगत संसाधनों पर लूट मची है। यह तो स्पष्ट होता है कि भूमि के मामलों में सैटेलाइट सर्वे झूठे आंकड़े प्रस्तुत कर रहा है। पद्मश्री पाठक का सुझाव है कि भूमि के मामलों में भरत सनवाल और मंगलदेव विशारद की रिपोर्ट की आज भी जरूरत है। जबकि 1924 में धर्मानन्द जोशी का सेटलमेंट की आज नितान्त आवश्यकता है।
भूमिहीनों के लिये संघर्षरत सामाजिक कार्यकर्ता विद्याभूषण रावत ने कहा कि देशभर में फॉरेस्ट कवर बढ़ रहा है, हिमालयी रीजन के उतराखण्ड राज्य में इसकी सीमाएँ बढाई जा रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर सरकारी कब्जा हो रहा है। उन्होंने कहा कि उधमसिंह नगर में कृषि उपजाऊ भूमि थी सो 1992 से स्कॉट फार्म ने वहाँ के अनुसूचित जनजाति की जमीन पर कब्जा कर रखा है। उतराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये पहले ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट अब एफडीआई नाम से है, इन दोनों योजनाओं ने सामूहिक संसाधनों पर पहले कब्जा किया है। इधर बनारस के मशाल सांस्कृतिक मंच का एक गीत फिर से ऐसा ईशारा कर रहा है कि लोग अब ‘‘गाँव छोड़ी भी नहीं, जंगल छोड़ी भी नहीं, गाँव माटी छोड़ी ही नहीं, मोर माही छोड़ी ही नहीं, लाल माटी छोड़ी ही नहीं।’’ बांध बनाएँ, सेन्चुरी लगाएँ, कारखाना लगाएँ, हो-हो-हो गाँव छोड़ी ही नहीं। अर्थात सामूहिक संसाधन लोगों की परम्परागत संपत्ति है।