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राज्य की कुल भूमि का रकबा 5592361 हेक्टेयर है। जिसमें 88 प्रतिशत पर्वतीय व 12 प्रतिशत मैदानी भू-भाग में है। राज्य की भूमि के कुल रकबे के 5592361 हेक्टेयर में से 3498447 हेक्टेयर भूमि पर वन हैं। कृषि भूमि मात्र 831225 हेक्टेयर ही है। इसके अलावा 1015041 हेक्टेयर ऊसर तथा अयोग्य श्रेणी की बेनाप-बंजर भूमि है। कृषि विभाग के 2013-14 के आँकड़ों पर नजर दौड़ाएँ तो कृषि योग्य भूमि घटकर 7.01 लाख हेक्टेयर पर आ गई है। वर्तमान में जिस भूमि पर खेती हो रही है उसके 3.28 लाख हेक्टेयर में ही सिंचाई की सुविधा है। विषम भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद भी उत्तराखण्ड राज्य में लोग खेती-किसानी से जुड़े थे। आधुनिक विकास ने लोगों को खेती से दूर कर दिया और हालात यह है कि एक तरफ कृषि भूमि कम हो रही है तो दूसरी तरफ पलायन के कारण पहाड़ में बंजर भूमि का रकबा भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है। नतीजन घटती उपजाऊ ज़मीन और बंजर होते खेत।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक राज्य गठन के बाद डेढ़ दशक में 1.14 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर हो गई है। अर्थात यहाँ कुल 53.48 लाख हेक्टेयर में से 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती हुआ करती थी।
कृषि विभाग के 2013-14 के आँकड़ों पर नजर दौड़ाएँ तो कृषि योग्य भूमि घटकर 7.01 लाख हेक्टेयर पर आ गई है। वर्तमान में जिस भूमि पर खेती हो रही है उसके 3.28 लाख हेक्टेयर में ही सिंचाई की सुविधा है।
जिसमें पर्वतीय क्षेत्र का हिस्सा महज 0.38 लाख हेक्टेयर है। यानि की राज्य में कृषि की जोत सर्वाधिक पर्वतीय क्षेत्र से घटा है।
ज्ञात हो कि एक तरफ कृषि विकास के लिये खोखले वायदे हो रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ रोज़गार और शिक्षा-स्वास्थ्य की उचित सुविधा के लिये पहाड़ के गाँव बड़ी तेजी से खाली हो रहे हैं। नतीजन जिसका असर सीधे कृषि कार्यों पर ही पड़ रहा है।
यदि जो गाँव आज भी आबाद हैं, वहाँ पर मौसम परिवर्तन के कारण कृषि का कार्य घाटे का सौदा बन चुका है। जबकि अन्न का उत्पादन सिर्फ राज्य के मैदानी क्षेत्रों तक ही सिमटा है, मगर वहाँ भी किसान को प्रोत्साहित करने की दिशा में ठोस पहल नजर नहीं आ रही है।
आँकड़ों की बानगी देखें तो राज्य की कुल भूमि का रकबा 5592361 हेक्टेयर है। जिसमें 88 प्रतिशत पर्वतीय व 12 प्रतिशत मैदानी भू-भाग में है। राज्य की भूमि के कुल रकबे के 5592361 हेक्टेयर में से 3498447 हेक्टेयर भूमि पर वन हैं।
कृषि भूमि मात्र 831225 हेक्टेयर ही है। इसके अलावा 1015041 हेक्टेयर ऊसर तथा अयोग्य श्रेणी की बेनाप-बंजर भूमि है। बता दें कि बन्दोबस्त के समय पहाड़ में 20 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी।
मगर सन 1865 में अंग्रेजों द्वारा वन विभाग का गठन करने और वन क़ानूनों को लागू करने के बाद किसानों की जमीनों के छिनने का सिलसिला शुरू हो गया और सन 1958 के अन्तिम बन्दोबस्त के समय पहाड़ में मात्र 9 प्रतिशत कृषि भूमि ही बची थी।
अब विकास के नाम पर स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, तकनीकी संस्थान, स्टेडियम, पंचायती भवन के अलावा जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर पहाड़ी किसानों की नाप भूमि को सरकारों ने अनुबन्धित करने का कार्य आरम्भ कर दिया।
यह इसलिये भी हो रहा है कि राज्य में अभी भी ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून’ लागू है। यहाँ तक कि राज्य का भू-उपयोग के लिये कानून ही नहीं है।
अतएव कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण लोग अब गाँव छोड़कर शहरों, कस्बों में जीवनयापन करने को मजबूर हैं। घर गाँव छोड़ चुके लोगों के खेत-खलियान बंजर में तब्दील हो रहे हैं।
कृषि क्षेत्र के लिये आधारभूत ढाँचागत सुविधाएँ उपलब्ध कराने और राज्य द्वारा पूँजी निवेश को बढ़ावा देने की नीति के उलट ऊर्जा प्रदेश, इको टूरिज़्म और औद्योगिकीकरण के नाम पर किसानों की जमीनों को कारपोरेट घरानों और पूँजीपतियों के हवाले कर उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। इसके चलते खेती लगातार अलाभप्रद और अरुचिकर होती जा रही है।
यहाँ तो महिलाओं के श्रम पर आधारित पहाड़ की यह खेती महिलाओं के सिर पर एक अलाभप्रद बोझ बनी हुई है।
व्यावसायिक खेती की तरफ पहाड़ के किसानों को प्रोत्साहित न करने, बोई गई फसल की सुरक्षा सुनिश्चित न करने और मौसम परिवर्तन के कारण कृषिकरण का चक्र बुरी तरह प्रभावित हो गया है।
बताया जा रहा है कि समय पर बरसात का ना होना, तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर, अनियोजित तरीके से वनों का व्यावसायिक कटान के कारण पहाड़ की खेती बड़ी मात्रा में ऊसर में तब्दील हो रही है। मगर सरकार है जो बड़ी आसानी से कह रही है कि पहाड़ में स्वैच्छिक चकबंदी होनी चाहिए।
सरकार को कौन बताये कि पहाड़ में बंजर होते खेतों को सरसब्ज कैसे किया जाये इस पर जनता के नुमाइन्दे सुनने को तैयार ही नहीं है। अब यहाँ का किसान खेती के प्रति लगातार उदासीन और हतोत्साहित होता जा रहा है। यही नहीं बची-खुची जमीन पर लोग बड़ी हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी वे उसे जंगली जानवरों से नहीं बचा पा रहे हैं।
अर्थात जंगली जानवरों व आवारा पशुओं के आतंक ने पहाड़ी किसानों का जीना दुश्वार कर दिया है। पहाड़ के किसानों ने बन्दर, सूअर, सेही, हिरन और आवारा गायों द्वारा फसलों को चौपट कर देने के चलते बड़े पैमाने पर खेती को बंजर छोड़ दिया है।
उल्लेखनीय हो कि राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी व अन्य सुविधाओं का लाभ पहाड़ के किसान को नहीं मिल पा रहा है। इसके अलावा अत्यन्त छोटी जोतों व व्यावसायिक उत्पादन न होने के कारण यहाँ के किसान को न तो कृषि ऋण ले पा रहे हैं और न ही वह इसके लिये उत्साहित है।
पहाड़ में कृषि के नाम पर ज्यादातर ऋण यहाँ का व्यवसायी हड़प जाता है और कृषि विभाग द्वारा भेजी जाने वाली खाद व बीज की भारी मात्रा विभाग के अधिकारियों द्वारा खुले बाजार में बेच दी जाती है।
उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा राष्ट्रीय पार्कों व अभयारण्यों के अधीन हैं। इन क्षेत्रों में रहने वाले सैकड़ों गाँवों की लाखों आबादी को राज्य सरकार उनकी पुस्तैनी जमीनों से बेदखल करने की कोशिश में लगी है।
इन राष्ट्रीय पार्कों व अभयारण्यों से सटे गाँवों की खेती और नागरिकों पर जंगली जानवरों के हमले आम घटनाओं में तब्दील हो गए हैं। तत्काल राज्य गठन के भू-आँकड़े बताते हैं कि राज्य की कुल कृषि भूमि का 50 प्रतिशत हिस्सा कुल 12 प्रतिशत लोगों के हाथ में था।
इधर जनता के दबाव से सरकार ने लीज अवधि खत्म कर चुके कुछ फार्मों की जमीनें वापस तो ली हैं परन्तु सीलिंग से निकली भूमि के आवंटन के लिय बने नियमों के विपरीत ही इन जमीनों का आवंटन किया जा रहा है। इस तरह कह सकते हैं कि राज्य में बंजर होती भूमि के लिये जितनी जिम्मेदार प्रकृति है उससे अधिक ज़िम्मेदारी हमारी भी है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक राज्य गठन के बाद डेढ़ दशक में 1.14 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर हो गई है। अर्थात यहाँ कुल 53.48 लाख हेक्टेयर में से 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती हुआ करती थी।
कृषि विभाग के 2013-14 के आँकड़ों पर नजर दौड़ाएँ तो कृषि योग्य भूमि घटकर 7.01 लाख हेक्टेयर पर आ गई है। वर्तमान में जिस भूमि पर खेती हो रही है उसके 3.28 लाख हेक्टेयर में ही सिंचाई की सुविधा है।
जिसमें पर्वतीय क्षेत्र का हिस्सा महज 0.38 लाख हेक्टेयर है। यानि की राज्य में कृषि की जोत सर्वाधिक पर्वतीय क्षेत्र से घटा है।
ज्ञात हो कि एक तरफ कृषि विकास के लिये खोखले वायदे हो रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ रोज़गार और शिक्षा-स्वास्थ्य की उचित सुविधा के लिये पहाड़ के गाँव बड़ी तेजी से खाली हो रहे हैं। नतीजन जिसका असर सीधे कृषि कार्यों पर ही पड़ रहा है।
यदि जो गाँव आज भी आबाद हैं, वहाँ पर मौसम परिवर्तन के कारण कृषि का कार्य घाटे का सौदा बन चुका है। जबकि अन्न का उत्पादन सिर्फ राज्य के मैदानी क्षेत्रों तक ही सिमटा है, मगर वहाँ भी किसान को प्रोत्साहित करने की दिशा में ठोस पहल नजर नहीं आ रही है।
आँकड़ों की बानगी देखें तो राज्य की कुल भूमि का रकबा 5592361 हेक्टेयर है। जिसमें 88 प्रतिशत पर्वतीय व 12 प्रतिशत मैदानी भू-भाग में है। राज्य की भूमि के कुल रकबे के 5592361 हेक्टेयर में से 3498447 हेक्टेयर भूमि पर वन हैं।
कृषि भूमि मात्र 831225 हेक्टेयर ही है। इसके अलावा 1015041 हेक्टेयर ऊसर तथा अयोग्य श्रेणी की बेनाप-बंजर भूमि है। बता दें कि बन्दोबस्त के समय पहाड़ में 20 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी।
मगर सन 1865 में अंग्रेजों द्वारा वन विभाग का गठन करने और वन क़ानूनों को लागू करने के बाद किसानों की जमीनों के छिनने का सिलसिला शुरू हो गया और सन 1958 के अन्तिम बन्दोबस्त के समय पहाड़ में मात्र 9 प्रतिशत कृषि भूमि ही बची थी।
अब विकास के नाम पर स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, तकनीकी संस्थान, स्टेडियम, पंचायती भवन के अलावा जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर पहाड़ी किसानों की नाप भूमि को सरकारों ने अनुबन्धित करने का कार्य आरम्भ कर दिया।
यह इसलिये भी हो रहा है कि राज्य में अभी भी ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून’ लागू है। यहाँ तक कि राज्य का भू-उपयोग के लिये कानून ही नहीं है।
अतएव कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण लोग अब गाँव छोड़कर शहरों, कस्बों में जीवनयापन करने को मजबूर हैं। घर गाँव छोड़ चुके लोगों के खेत-खलियान बंजर में तब्दील हो रहे हैं।
कृषि क्षेत्र के लिये आधारभूत ढाँचागत सुविधाएँ उपलब्ध कराने और राज्य द्वारा पूँजी निवेश को बढ़ावा देने की नीति के उलट ऊर्जा प्रदेश, इको टूरिज़्म और औद्योगिकीकरण के नाम पर किसानों की जमीनों को कारपोरेट घरानों और पूँजीपतियों के हवाले कर उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। इसके चलते खेती लगातार अलाभप्रद और अरुचिकर होती जा रही है।
यहाँ तो महिलाओं के श्रम पर आधारित पहाड़ की यह खेती महिलाओं के सिर पर एक अलाभप्रद बोझ बनी हुई है।
व्यावसायिक खेती की तरफ पहाड़ के किसानों को प्रोत्साहित न करने, बोई गई फसल की सुरक्षा सुनिश्चित न करने और मौसम परिवर्तन के कारण कृषिकरण का चक्र बुरी तरह प्रभावित हो गया है।
बताया जा रहा है कि समय पर बरसात का ना होना, तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर, अनियोजित तरीके से वनों का व्यावसायिक कटान के कारण पहाड़ की खेती बड़ी मात्रा में ऊसर में तब्दील हो रही है। मगर सरकार है जो बड़ी आसानी से कह रही है कि पहाड़ में स्वैच्छिक चकबंदी होनी चाहिए।
सरकार को कौन बताये कि पहाड़ में बंजर होते खेतों को सरसब्ज कैसे किया जाये इस पर जनता के नुमाइन्दे सुनने को तैयार ही नहीं है। अब यहाँ का किसान खेती के प्रति लगातार उदासीन और हतोत्साहित होता जा रहा है। यही नहीं बची-खुची जमीन पर लोग बड़ी हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी वे उसे जंगली जानवरों से नहीं बचा पा रहे हैं।
अर्थात जंगली जानवरों व आवारा पशुओं के आतंक ने पहाड़ी किसानों का जीना दुश्वार कर दिया है। पहाड़ के किसानों ने बन्दर, सूअर, सेही, हिरन और आवारा गायों द्वारा फसलों को चौपट कर देने के चलते बड़े पैमाने पर खेती को बंजर छोड़ दिया है।
उल्लेखनीय हो कि राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी व अन्य सुविधाओं का लाभ पहाड़ के किसान को नहीं मिल पा रहा है। इसके अलावा अत्यन्त छोटी जोतों व व्यावसायिक उत्पादन न होने के कारण यहाँ के किसान को न तो कृषि ऋण ले पा रहे हैं और न ही वह इसके लिये उत्साहित है।
पहाड़ में कृषि के नाम पर ज्यादातर ऋण यहाँ का व्यवसायी हड़प जाता है और कृषि विभाग द्वारा भेजी जाने वाली खाद व बीज की भारी मात्रा विभाग के अधिकारियों द्वारा खुले बाजार में बेच दी जाती है।
उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा राष्ट्रीय पार्कों व अभयारण्यों के अधीन हैं। इन क्षेत्रों में रहने वाले सैकड़ों गाँवों की लाखों आबादी को राज्य सरकार उनकी पुस्तैनी जमीनों से बेदखल करने की कोशिश में लगी है।
इन राष्ट्रीय पार्कों व अभयारण्यों से सटे गाँवों की खेती और नागरिकों पर जंगली जानवरों के हमले आम घटनाओं में तब्दील हो गए हैं। तत्काल राज्य गठन के भू-आँकड़े बताते हैं कि राज्य की कुल कृषि भूमि का 50 प्रतिशत हिस्सा कुल 12 प्रतिशत लोगों के हाथ में था।
इधर जनता के दबाव से सरकार ने लीज अवधि खत्म कर चुके कुछ फार्मों की जमीनें वापस तो ली हैं परन्तु सीलिंग से निकली भूमि के आवंटन के लिय बने नियमों के विपरीत ही इन जमीनों का आवंटन किया जा रहा है। इस तरह कह सकते हैं कि राज्य में बंजर होती भूमि के लिये जितनी जिम्मेदार प्रकृति है उससे अधिक ज़िम्मेदारी हमारी भी है।