2. पर्यटन और विकास के मानक सन्तुलित पर्यावरण की कसौटी पर हो।
3. लोकज्ञान को नज़रअन्दाज़ करके नहीं किया जा सकता आपदाओं का सामना।
वैज्ञानिक दक्षिण एशिया के हिमालय पर्वत को युवा कहते हैं और बताते हैं कि यह पर्वत वास्तविक स्थिति से कुछ इंच ऊपर उठ रहा है। वे यह भी दलील देते हैं कि हिमालय में धरती के नीचे लगभग पन्द्रह किलोमीटर पर दरारें हैं। वैज्ञानिक यह भी दावा करते हैं कि लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले जहाँ पर आज हिमालय विराजमान है, वहाँ से भारत करीब 5 हजार किमी दक्षिण में था। भूगर्भ प्लेटों के तनाव के कारण एशिया भारत के निकट आकर हिमालय का निर्माण हुआ है।दक्षिण एशियाई हिमालय क्षेत्र में बाढ़, भूकम्प की घटनाएँ पिछले 30 वर्षों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। इससे सचेत रहने के लिये भूगर्भविदों ने प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से भी अलग-अलग जोन बनाकर दुनिया की सरकारों को बता रखा है कि कहाँ-कहाँ पर खतरे अधिक होने की सम्भावना है।
हिमालय क्षेत्र में अन्धाधुन्ध पर्यटन के नाम पर बहुमंजिलें इमारतों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, वनों का कटान, विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों, जलाशयों और सुरंगों के निर्माण में प्रयोग हो रहे विस्फोटों से हिमालय की रीढ़ काँपती रहती है। अब देर न करें तो हिमालयी प्रदेशों की सरकारों को अपने विकास के मानकों पर पुनर्विचार करने से नहीं चूकना चाहिये और हिमालयी प्रदेशों को भोगवादी संस्कृति से भी बचाना प्राथमिकता हो।
हिमालयी निवासियों के पास आपदा का सामना करने की खुद की नियमावली लोगों के पास मौजूद है। इस ‘लोकज्ञान’ को वर्तमान के आधुनिक व भोगवादी संस्कृति ने अवैज्ञानिक करार देकर यह जताया कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन मात्र से विकसित देशों के साथ कदमताल मिलाना होगा ताकि भारत भी विकसित देश कहलाए। इसी के आवेश में आकर सरकार ने आपदा प्रबन्धन नियमावली 2005 भी बना डाली।
हाल ही में उत्तराखण्ड सरकार ने हिमालय दिवस को सरकारी पर्व का रूप देकर भी यही दोहराया कि पहाड़ के चहुमुखी विकास में प्राकृतिक संसाधनों को बखूबी इस्तेमाल करना होगा। सरकार ने यह कहीं भी नहीं बताया कि प्राकृतिक संसाधनों का जितना जरूरी दोहन करना है उससे अधिक संरक्षण की कसौटी पर उतरना होगा।
सरकार की मंशा इस तरह के विज्ञापनों से साफ झलक रही थी कि ‘प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण’ लोग करें और दोहन सिर्फ सरकार के वायदे पर हो। अब सवाल खड़ा होता है कि क्या हिमालयी ‘लोकज्ञान’ के बिना प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना सुलभ होगा।
इसका जवाब सरकारों के पास तो नहीं है परन्तु वर्तमान के अन्धाधुन्ध आधुनिक विकास ने इतना जता दिया कि हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों के गलत दोहन से भविष्य में बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। अर्थात जून 2013 में आये उत्तराखण्ड जल-प्रलय, एक साल बाद नेपाल में भूकम्प के कारणों ने भी स्पष्ट संकेत दिये कि हिमालय में अनियोजित छेड़छाड़ हो रही है।
उल्लेखनीय हो कि हिमालय में आई आपदाओं में केदारनाथ (16-17 जून 2013), उत्तरकाशी और बूढ़ाकेदार नाथ में आये भूकम्प (20 अक्टूबर 1991), पशुपतिनाथ नेपाल में आये भूकम्प (25 अप्रैल 2015) में यहाँ के मन्दिरों को कोई क्षति नहीं पहुँची है। यही नहीं उत्तरकाशी के यमुना घाटी में पुरानी शिल्पकला से बनाये गए फिरोल भवनों (वुड स्टोन Wood Ston) पर खरोंच तक नहीं आई। जो भवन आज भी मौजूद हैं।
यानि कि जिस सीमेंट, बजरी से वर्तमान में भवन व मन्दिर बनते हैं, वह बहुत जल्दी आपदा में ढह सकते हैं, लेकिन इन पुराने ‘शिल्पकलाओं’ में ऐसा क्या था कि इन मन्दिरों में कोई नुकसान नहीं हुआ है। इसको सरलता से इस रूप में समझा जा सकता है कि जहाँ पर जिस तरह की भौगोलिक संरचना है, वहाँ के ही संसाधनों को धरती के अनुरूप साज-सँवारकर कुदरती रूप का सृजन की कला पुराने शिल्पकारों के पास थी। जो आज विश्व के वैज्ञानिकों के पास नहीं है।
वैज्ञानिक दक्षिण एशिया के हिमालय पर्वत को युवा कहते हैं और बताते हैं कि यह पर्वत वास्तविक स्थिति से कुछ इंच ऊपर उठ रहा है। वे यह भी दलील देते हैं कि हिमालय में धरती के नीचे लगभग पन्द्रह किलोमीटर पर दरारें हैं। वैज्ञानिक यह भी दावा करते हैं कि लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले जहाँ पर आज हिमालय विराजमान है, वहाँ से भारत करीब 5 हजार किमी दक्षिण में था।
भूगर्भ प्लेटों के तनाव के कारण एशिया भारत के निकट आकर हिमालय का निर्माण हुआ है। भारतीय हिमालयी राज्य ऐसी अल्पाइन पट्टी में पड़ते हैं जिसमें विश्व के करीब 10 फीसद भूकम्प आते हैं। पिछले 4 दशकों में वैज्ञानिकों ने दिल्ली समेत भारत के हिमालयी क्षेत्र और अन्य राज्यों के बारे में भवनों की ऊँचाई कम करने, अनियंत्रित खनन रोकने, पर्यटकों की आवाजाही नियंत्रित करने, घनी आबादियों के बीच जल निकासी आदि के विषय पर कई रिपोर्ट जारी की है। परिणामतः आपदा के समय की तात्कालिक चिन्ता ही सामने आती है।
वॉडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान देहरादून के वैज्ञानिकों का कहना है कि नेपाल जितने शक्तिशाली भूकम्प से प्रभावित है, उतना ही रिक्टर स्केल का भूकम्प उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, दिल्ली आदि क्षेत्रों में आ सकता है। संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सुशील कुमार के मुताबिक इंडियन प्लेट सालाना 45 मिमी तेजी से यूरेशियन प्लेट के नीचे से जा रही है।
इसके कारण 2,000 किमी लम्बी हिमालय शृंखला में हर 100 किमी के क्षेत्र में उच्च क्षमता के भूकम्प आ सकते हैं। ज्ञात हो कि एवरेस्ट पर्वत से भूकम्प के दौरान ग्लेशियर टूटने से ट्रेकिंग पर गए कई लोग मारे गए हैं। इससे पहले गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना भी टूट चुका है। भूकम्प के बाद पहाड़ों पर दरारें पड़ने से एक और त्रासदी का खतरा भी बरकरार है।
अतएव दुनिया में जहाँ ब्रिक्स, सार्क और जी-20 के नाम पर कई देश मिलकर हर बार बदलते पर्यावरण पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हैं वहीं नेपाल, भारत, चीन, अफ़गानिस्तान, भूटान, जापान आदि देश मिलकर हिमालय को अनियंत्रित छेड़छाड़ से बचाने की सोच विकसित क्यों नहीं करते?
भारतीय हिमालय
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत भूभाग में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है। हिमालय परिक्षेत्र के 45.2 प्रतिशत भू-भाग में घने जंगल हैं। यहाँ नदियों, पर्वतों के बीच में सदियों से निवास करने वाले लोगों के पास हिमालयी संस्कृति एवं सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने का लोक विज्ञान भी मौजूद है।
हिमालयी राज्यों का राजनीतिक ढाँचा
भारतीय हिमालय क्षेत्र में मुख्यतः 11 छोटे राज्य हैं, जहाँ से सांसदों की कुल संख्या 36 है, लेकिन अकेले बिहार में 39, मध्य प्रदेश में 29, राजस्थान में 25 तथा गुजरात में 26 सांसद है। इस सन्दर्भ का अर्थ यह है कि देश का मुकुट कहे जाने वाले हिमालयी भूभाग की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय पहुँच संसद में भी कमजोर है। सामरिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालयी राज्यों को पूरे देश और दुनिया के सन्दर्भ में नई सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से देखने की नितान्त आवश्यकता है।
हिमालय विकास पर चर्चा
16वीं लोक सभा में हरिद्वार से सांसद चुने गए डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने भी संसद में हिमालयी राज्यों के मुद्दों को मजबूती से उठाया है। 11 जुलाई 2014 को संसद में हिमालयी राज्यों के लिये अलग मंत्रालय बनाने की माँग करते हुए श्री निशंक ने एक गैर सरकारी संकल्प पत्र प्रस्तुत किया। इस संकल्प पत्र में श्री निशंक ने हिमालयी राज्यों की सामरिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति का विस्तार से उल्लेख किया। इस संकल्प पत्र के समर्थन में विभिन्न राज्यों के 17 सांसदों ने अपना वक्तव्य दिया।
भारतीय हिमालय क्षेत्र
क्र.सं. |
राज्य/क्षेत्र |
भौगोलिक क्षेत्रफल (वर्ग किमी) |
कुल जनसंख्या (2011 के अनुसार) |
अनु. जनजाति (:) |
साक्षरता दर (:) |
1. |
जम्मू एवं कश्मीर |
2,22,236 |
12548926 |
10.9 |
56 |
2. |
हिमाचल प्रदेश |
55,673 |
6856509 |
4.0 |
77 |
3. |
उत्तराखण्ड |
53,483 |
10116752 |
3.0 |
72 |
4. |
सिक्किम |
7,096 |
607688 |
20.6 |
54 |
5. |
अरुणाचल प्रदेश |
83,743 |
1382611 |
64.2 |
54 |
6. |
नागालैंड |
16,579 |
1980602 |
32.3 |
67 |
7. |
मणिपुर |
22,327 |
2721756 |
85.9 |
71 |
8. |
मिजोरम |
21,081 |
1091014 |
94.5 |
89 |
9. |
मेघालय |
22,429 |
2964007 |
89.1 |
63 |
10. |
त्रिपुरा |
10,486 |
3671032 |
31.1 |
73 |
11. |
असम |
93,760 |
31169272 |
12.4 |
63 |
स्रोत- प्लानिंग कमीशन 2006 (11वीं पंचवर्षीय योजना)
हिमालयी राज्यों में ग्लेशियर पिघलने की स्थिति
ग्लेशियर का नाम |
मापने की अवधि |
अवधि (वर्षों में) |
पिघलने की दर (मीटर में) |
औसत दर प्रति वर्ष (मीटर में) |
मिलम ग्लेशियर |
1849-1957 |
108 |
1350 |
12.50 |
पिंडारी |
1845-1966 |
12 |
2840 |
23.40 |
गंगोत्री |
1962-1991 |
29 |
580 |
20.00 |
टिपरा |
1960-1986 |
26 |
325 |
12.50 |
डोकरानी |
1962-1991 |
29 |
480 |
16.5 |
डोकरानी |
1991-2000 |
9 |
161.15 |
18.0 |
चौराबारी |
1962-2005 |
41 |
238 |
5.8 |
शंकुल्पा |
1881-1957 |
76 |
518 |
6.8 |
पोटिंग |
1906-1956 |
24 |
198 |
8.25 |
ग्लेशियर-3 अ. |
1932-1956 |
24 |
198 |
8.25 |
कोलाई |
1912-1961 |
49 |
800 |
16.3 |
सोनापानी |
1909-1961 |
52 |
899 |
17.2 |
बड़ा शिगरी |
1956-1963 |
7 |
219 |
31.28 |
छोटा शिगरी |
1987-1989 |
3 |
14 |
18.5 |
जेमू |
1977-1984 |
7 |
193 |
27.5 |
स्रोत – प्लानिंग कमीशन 2006 (11वीं पंचवर्षीय योजना), Singh, S.P. 2007. Himalayan forests Eco System Services: Incorporating in National Accounting. CHEA, Nainital