देश में मध्यवर्ती भाग विशेष कर मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़, बुन्देलखण्ड, ग्वालियर, राजस्थान का कोटा, उदयपुर, गुजरात का सौराष्ट्र, कच्छ, व महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, विदर्भ व खानदेश में वर्ष 2000-2001 से 2002-2003 में सामान्य से 40-60 प्रतिशत वर्षा हुई है। सामान्य से कम वर्षा व अगस्त सितंबर माह से अवर्षा के कारण, क्षेत्र की कई नदियों में सामान्य से कम जल प्रवाह देखने में आया तथा अधिकतर कुएं और ट्यूबवेल सूखे रहे। नतीजन सतही जल स्त्रोत सिकुड़ते जा रहे है व भू-जल स्तर में गिरावट ने भीषण पेयजल संकट को उत्पन्न किया ही है। साथ में कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है वह चिंता का विषय है। बदलते मौसम के कारण पुनः पश्चिमी भारत में सामान्य से कम वर्षा के संकेत हैं। अतः यथा स्थान पर वर्षा जल संग्रह व भूजल पुनर्भरण विशेष कर ‘खेत का पानी खेत में’ की विधि को अविलंब अपनाया जाए। यह कार्य वर्षा के पूर्व या मौसम में भी किया जा सकता है। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश शासन ने पानी रोको अभियान वर्ष 2000 से छेड़ रखा है। साथ में गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान व अन्य प्रदेश भी इस कार्य में जुट गये हैं।
मध्यप्रदेश के राजीव गाँधी जलग्रहण प्रबन्ध मिशन व अन्य विभागों द्वारा किया गया कार्य वह उसके प्रभाव का विश्लेषण स्पष्टतः सिद्ध करता है। कम वर्षा-सूखे वर्षों में बनाए गए तालाब, स्टापडेम, चेक डेम इत्यादि में विशेष जल संग्रह नहीं हो सकने के कारण वर्ष 2002-03 के रबी फसलों के क्षेत्रफल में 50 से 70 प्रतिशत की कमी उज्जैन, इन्दौर, भोपाल, ग्वालियर, इत्यादि संभागो में रेकार्ड की गई है। वह चिंता का विषय है। सूक्ष्म परीक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि-सूखे वर्षों में ‘खेत का पानी खेत में’ जल संग्रह व भूजल पूनर्भरण कुएं-नलकूप द्वारा जिन क्षेत्रों के कृषकों द्वारा अपनाया गया उस क्षेत्र के कृषक रबी में पूरे रकबे में फसल ले सके। इस सफलता में खण्डवा जिला शीर्ष पर रहा तथा धार, रतलाम, मंदसौर व अन्य जिलों में आशातीत सफलता प्राप्त नहीं हुई। क्योंकि ‘खेत का पानी खेत में’ रहे, उस हेतु नाली, कुण्डी, पोखर इत्यादि को बनाने के कम प्रयास किए गये है। ‘खेत का पानी खेत में’ रहने पर खेत की मिट्टी व जीवांश-पौध पोषण भी खेत में रहने पर फसल सूखे के प्रभाव से प्रायः बच निकलती है।
नाली बनाएं –
दो खेतों के बीच मेढ़ के बजाय नाली बनाएं। भूमि में जल के रिसन बढ़ाने बरसात के पानी को खेत के आस-पास एकत्रित-संग्रहित करें। स्थान और ढ़लान के अनुसार नाली 60 से 75 सें मी. गहरी बनाकर नाली से निकाली गई मिट्टी को दोनो किनारों पर 30 से 45 से.मी. ऊँची मेढ़ बनाएं। नाली में पानी भरा रहने देने के लिए 15 से 20 मीटर के बाद लगभग आधे से एक मीटर जमीन की खुदाई नहीं करें। इस विधि को मंदसौर जिले में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है। इन नालियों में जगह-जगह गडढ़े-परकेलेशन चेम्बर बनाने से जल रिसन की गति को बढ़ाया जा सकता है।
इस विधि का इन्दौर स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के गेहूँ केन्द्र, फन्दा (भोपाल) का शासकीय प्रक्षेत्र, उज्जैन के तिलहन संघ फार्म, दार-डेल्मी का सिड कारपोरेशन फार्म पर सफल परीक्षण किया गया है।
कुण्डियां बनाएं –
खेत के आसपास कुण्डियों की वृहद श्रृंखला खण्डवा (12 लाख) खरगौन (3 लाख) व धार (18 हजार) जिले में बनाई गई हैं। कुण्डी का आकार सामान्यतः 3 मीटरx10 मीटरx0.75 मीटर रखा जाता है।
इन संरचनाओं से पानी रोकने के साथ खेत की मिट्टी खेत में व खेत का जीवांश खेत में संवर्द्धित रखना सम्भव हो जाता है। मिट्टी-जीवांश का संवर्द्धन व खेत में नमीं ही भूमि को सजीव रखकर उत्पादन सें स्थायित्व ला सकता है। इन कुण्डियों में भूनाडेप भी बनाने पर खेत का जीवांश खेत के आस-पास सवंर्द्धित रहता है। इसे निमाड़ क्षेत्र के बुराहनपुर, खरगौन, बड़वानी, धामनोद के गन्ने, केले व कपास, मालवा व महाकोशल के सोयाबीन-गेहूँ उत्पादन क्षेत्र के लिए विशेष रूप से उपयुक्त पाया गया है।
जीवांश व जल संवर्धनः-
पानी रोको अभियान के तृतीय चरण में अन्य कार्यों के अलावा खेत के आसपास नाली-डबरी-कुण्डियों के कार्य को प्रमुखता से अपनाया जाए तथा अनिवार्य रूप से सुधरे तरीकों से कम्पोस्ट बनाया जाए। इससे गांव स्वच्छ व स्वस्थ रह सकेगा, साथ में उसका खेतों में उपयोग करने से मिट्टी के आसपास अधिक जल संग्रहित करके रखा जा सकेगा। वस्तुतः जीवांश व खेत में जल संवर्धन एक दूसरे के पूरक हैं, जो सूखे के प्रभाव से बचाने में मदद करती है।
पोखर बनाएं :-
खेत में आर्द्रता, नमी और भूमि से सूक्ष्मवाहिनी, केपिलरी में जल प्रवाह बनाए रखने के लिए पोखर बनायें। खेत की नालियों को पोखर से जोड़े। पोखर का स्थान और आकार सुविधा अनुसार रखें। गोल पोखर 4-5 मीटर व्यास का या चौकोर 4.5x4.5 मी. गहराई का बनाएं। एक हेक्टयर खेत में दो-तीन पोखर बनाऐं। पोखर में जल की आवक एवं निकासी की व्यवस्था करें। पोखर में जल रुकेगा, थमेगा, रिसेगा तो भूजल भंडार भरेंगे। सड़क के दोनों ओर पोखर-स्वेत-उथली-क्यारियां, कलर्वट-छोटी पुलीय में रोक बनाकर पानी को रोकने और रिसन बढ़ाने में सहायक हैं। इससे सड़क किनारे के पेड़-पौधे तेजी से बढ़ते हैं। जिससे हरियाली व जैव विविधता बढ़ेगी। इन छोटी-सूक्ष्म तकनीकों का सम्मिलित प्रभाव मौसम को संतुलित रखने में सहायक होगा।
भूजल पुनः भरण विधियाँ :-
भूमिगत जल स्तर में लगातार गिरावट चिन्ता का विषय है। बारह मासी नदियों से दूरस्थ ऊँचे स्थानों की जल आपूर्ति प्रायः भूमिगत जल भण्डार (एक्कीफर) पर निर्भर है। भूमिगत जल भण्डार पानी की रिजर्व बैंक हैं। इसकी क्षति पूर्ति प्रत्येक वर्ष भूजल पुनर्भरण विधियों से करें। ट्यूबवेल के प्रचलन से कुए तो सूखे ही कम व मध्यम गहराई (60-80मी.) के ट्यूबवेल भी सूखने लगे हैं। गहरे ट्यूबवेल (200-300 मी.) असफल हैं। पानी की चाह में मोटे अनुमान के अनुसार 80 प्रतिशत किसान जिन्होंने गहरे ट्यूबवेल खुदवाये हैं, उन्हें भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी है। यह निश्चित है कि मालवा-निमाड़ व देश के मध्यवर्ती पेनिनशुलर भू-भाग में गहरी परतों में जल नहीं है। इस हकीकत को सब समझें। इस समस्या का एक मात्र वैज्ञानिक समाधान है, सतह व कम गहरी परतों में वर्षा जल संग्रह व भूजल पुनर्भरण की विधियों को आवश्यक रूप से अपनाना। प्रति वर्ष जितना जल जमीन से निकाला जाता है, उतना जल वर्षा के मौसम में पुनः भूजल भण्डार में जमा करें अन्यथा वह व्यक्ति भूमिगत जल के उपयोग का हक नहीं रख सकता।
गहरे ट्यूबवेल अभिशापः-
1. गहरे ट्यूबवेल का अनुभव जल की गुणवत्ता के हिसाब से भी अच्छा नहीं है। गहराई का जल क्षारयुक्त, निषाक्त व गरम रहने पर भूमि की उर्वरा शक्ति का भी ह्रास हो रहा है। ऐसा अनुभव जावरा, सांवेर, नीमच, मंदसौर क्षेत्र के कृषकों को है।
2. जल भण्डार के आंकलन सर्वे के आधार पर क्षेत्रवार नलकूपों की गहराई भी निश्चित करने व फसलों का युक्ति संगत चयन जिसे कम जल की आवश्यकता होती है, की काश्त करने का समय भी आ गया है। इस कार्य को पंचायतों द्वारा प्रमुखता से लिए जाने की आवश्यकता है।
3. वाटर बजट व जल का किफायती उपयोग की व्यवस्था को मूर्त रूप दिया जाए।
कुओं का वर्षा जल से पुनर्भरण
1. कुएं हमारे धन से बने राष्ट्रीय सम्पत्ति हैं।
2. शासकीय-अशासकीय निजी सभी कुओं की सफाई, गहरीकरण व रख-रखाव करें।
3. कुओं को अधिक पानी देने में सक्षम बनाएं।
4. वर्षा जल को कुओं में भरकर संग्रहित करें।
5. कुएं शहर, गांव, खेत की जल व्यवस्था का मुख्य अंग हैं। नये युग में भी उपयोगी हैं।
कुएं में वर्षा जल भरने की विधिः-
• तीन मीटर लम्बी नाली, 75 से. मी. चौड़ी व उतनी ही गहरी नाली से बरसात का पानी कुएं तक ले जाकर, उसकी दीवार में छेदकर, 30 से. मी. व्यास का एक मीटर लम्बा सीमेंट पाईप लगाकर, नाली से पानी कुएं में उतारें।
• पाईप के भीतरी मुहाने पर एक सेमी. छिद्रवाली जाली लगाकर, उसके सामने 75 से 100 सेंमी. तक 4 से 5 सेमी. मोटी गिट्टी, बाद में 75 से 100 सेमी. तक 2 से 3 सेमी. आकार की गिट्टी और एक मीटर लम्बाई तक बजरी रेत भरें।
• खेत से बहने वाला बरसात का पानी-जल सिल्ट ट्रेप टेंक 5x4x1.5 मी. व फिल्टर से छनकर नाली से होकर कुएं में पाईप से गिरेगा। रेत-गिट्टी में बहकर जाने से जल का कचरा भी बाहर रहता है।
इस प्रकार कुएं का जल स्तर बढ़ेगा। भूमि में पानी रिसेगा। आसपास के कुएं और ट्यूबवेल पुनः जीवित होगें। इस विधि से कुओं में भूजल पुनर्भरण का खर्च 500 से 1000 रु. लगेगा।
केसिंग पाईप से भूजल पुनर्भरणः-
नलकूप गहरे जलस्त्रोत से पानी ऊपर लाते हैं। गहरे जलस्त्रोत में वर्षा जल से पुनर्भरण हेतु केसिंग पाईप का उपयोग करें। इस विधि का उपयोग कृषि व औद्योगिक क्षेत्र में करें।
इस कार्य हेतु नलकूप के आस-पास 1.25 मी. व्यास का 3-4 गहरा खड्डा खोदकर, केसिंग पाईप में 3 से 4 सेमी. दूरी पर 8 से 10 मिमी. के छेद चारों ओर बनाएं। उस छिद्रयुक्त केसिंग पाईप पर नारियल रस्सी-कॉयर लपेटें, जो फिल्टर का कार्य करती है।
गोल गड्ढे को नीचे से तीन सम भागों में बाटें। निचले एक तिहाई भाग में बड़ी गिट्टी 4-5 सेमी., मध्य भाग में 2 से 3 सेमी. गिट्टी और ऊपरी भाग में 2 से 4 मिमी., बजरी रेत से भर दें।
• इस “सेंन्डबाथ फिल्टर” से होकर, नारियल की रस्सी, से पानी छनकर नलकूप में उतरता है। यह विधि गहरे स्त्रोत के पुनर्भरण में अधिक लाभदायक है।
• कार्य सम्पन्न करने में 3 से 4 हजार रूपये का खर्च होता है।
• मध्यप्रदेश के कृषकों ने इसे बड़े पैमाने पर अपनाना आरंभ किया है।
पानी के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता से हम सब सहमत हैं। वर्षा के रूप में जितना जल प्राप्त होता है, उसके आधार पर वर्षा जल संग्रह व जल बजट बनाकर– यानी जल की आवक व खर्च के मध्य सांमजस्य बिठाने का। इसके साथ में फसलवार युक्ति संगत उपयोग की स्त्रोतवार योजना बनाई जाए।
जल का किफायती इस्तेमालः-
शहरों में जल के अधिक उपयोग को सीमित करना होगा। इसके साथ में नई पीढ़ी कम पानी वापरे उस के लिए घर तथा स्कूलों में उन्हें शिक्षित करना होगा व बुजर्ग पीढ़ी को भी कम पानी वापर कर नई पीढ़ी के सामने उदाहरण पेश करना होगा।
कृषि तथा उद्योग के क्षेत्र में भी पानी के किफायती उपयोग तथा जल के पुर्नचक्रण की अपार सम्भावनाएं हैं, उसे नए सिरे से स्थापित करना होगा। स्थानीय स्तर पर समाज द्वारा प्रबन्धन से समाज व जीव जगत का प्रत्येक जीव लाभान्वित होगा तथा इको तन्त्र के स्थायित्व के साथ सामाजिक न्याय, स्थिरता और विकास के लक्ष्य की प्राप्ति भी सम्भव हो पाएगी। आइए हम सब मिलकर पानी को रोकें, समानता के आधार पर जल के उपयोग में सबकी भागीदारी सुनिश्चित कर भविष्य को सुरक्षित करें। सूखे से मुक्ति सिर्फ खेत का पानी खेत व खेत के आस पास रोककर संभव है। आइये आप भी इस महायज्ञ में अपनी आहूति देकर माँ वसुन्धरा के ऋणों को चुकाए।