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दैनिक भास्कर, 13 अक्टूबर, 2016
इधर हमारी समूची खेती प्रकृति के निशाने पर रही है। कभी वह सूखे का सामना करती है तो कभी बाढ़ से त्रस्त होती है। यह स्थिति तब है जबकि हम सिंचाई और जल प्रबन्धन योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च कर चुके हैं। इसलिये यह सवाल अहम है कि ये हालात बदलें तो कैसे
हमें अपनी खेती की सिंचाई और पेयजल जरूरतों की पूर्ति के लिये आसान उपलब्ध व सस्ती तकनीकों के प्रचलन को ही बढ़ावा देना चाहिए अन्यथा अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं होगा। हमें चाहिए कि हम देश के सभी शुष्क कृषि प्रक्षेत्रों में शुष्क कृषि तकनीकों के प्रचलन को व्यापक रूप से बढ़ाएँ और उसके अनुकूल संभावित परिस्थितियाँ निर्मित करें।
हमारी खेती और उससे जुड़ा समूचा समाजतंत्र और अर्थतंत्र बारहोंमास संकट से जूझ रहा है। कभी हमें सूखे का सामना करना पड़ता है, तो कभी बाढ़ का। कभी ओले का, तो कभी चक्रवाती बारिश या तूफान का। सवाल है कि पिछले सत्तर सालों से हम तमाम छोटी-बड़ी सिंचाई व जल प्रबन्धन की योजनाओं पर अरबों रुपए की राशि खर्चते रहे हैं, फिर भी ये स्थितियाँ क्यों बनी हुई हैं? वास्तव में हम अपनी तमाम कोशिशों से पिछले सात दशकों में देश की महज एक तिहाई कृषि भूमि को ही सिंचाई व जल नेटवर्क के दायरे में ला पाए हैं। शेष दो तिहाई जमीन अभी भी भगवान भरोसे है। यही नहीं, हमारी मिश्रित नेटवर्क वाली खेती भी अनिश्चित भविष्य का शिकार है या यूँ कहें कि अन्ततः वह भी बारिश बारिश पर ही निर्भर है।लब्बोलुआब यह कि हमारी खेती के सन्दर्भ में बारिश के पानी का कोई विकल्प नहीं है। वास्तव में कृत्रिम सिंचाई की व्यवस्था भी हमारे खेती की समस्याओं का सम्पूर्ण समाधान नहीं है। सवाल है और हमारे खेती संकट का हल क्या है? इस समस्या को लेकर पहली कोशिश इसके दीर्घकालीन समाधान को लेकर बनती है। यह समाधान है राष्ट्रीय नदी लिंक परियोजना। दूसरा है मध्यम अवधि समाधान परियोजना, जिसके तहत सभी शुष्क इलाकों के आस-पास जलाशयों में जल संभरण तकनीकी के मार्फत जल की बेहतर उपलब्धता बहाल करना और तीसरा समाधान है, जल संकटों का तात्कालिक समाधान। इसके तहत संकटग्रस्त इलाकों में रेल वैगनों और टैंकरों के माध्यम से जलापूर्ति संभव बनाना। खासकर पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करना।
जल प्रबन्धन के दीर्घकालीन उपायों की बात करें तो एनडीए-1 के कार्यकाल में पहली बार राष्ट्रीय नदी लिंक परियोजना का विचार लाया गया। करीब पाँच लाख करोड़ रुपए की लागत पर इस परियोजना की रूपरेखा भी तैयार की गई थी। मगर दुर्भाग्य से परवर्ती यूपीए के कार्यकाल में इस परियोजना को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। मध्यम अवधि समाधान परियोजना की बात करें तो केन्द्र और राज्य, दोनों सरकारों की तरफ से इस पर कई परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं, जो जल संचयन और संभरण परियोजना के रूप में जानी जाती हैं। इस कार्य के लिये कुछ राज्यों में लघु सिंचाई के लिये अलग से मंत्रालय भी गठित किया गया है। मगर हकीकत यह है कि वाटर हार्वेस्टिंग की कुछ परियोजनाओं को छोड़कर ये योजनाएँ शुष्क इलाकों में पानी के भूजल स्तर को बढ़ाने में कामयाब नहीं हो पाई हैं।
करोड़ों अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद जल संग्रहण का स्तर एक सीमा से ज्यादा बढ़ नहीं पाया है। नतीजतन बारिश के अभाव व सूखे की स्थिति में लोगों को राहत देने के सन्दर्भ में ऐसी परियोजनाएँ ज्यादा सफल नहीं हो पाई हैं। ऐसा नहीं हो पाने की वजह मेरी नजर में ये है कि प्रकृति पर हमारा वश ज्यादा नहीं चल सकता। दूसरा, जल संभरण की कोई सटीक तकनीक हम अभी तक ईजाद नहीं कर पाए हैं। जल संभरण पर कुछ एनजीओ और जल कार्यकर्ताओं द्वारा केवल बातें ही की जाती हैं, जलस्तर को बढ़ाने का उनके पास कोई ठोस तरीका नहीं है। इन परिस्थितियों में हमारे पास केवल एक ही बड़ा विकल्प बचता है, वह यह है कि देश में राष्ट्रीय नदी ग्रिड योजना की हम पुनर्शुरुआत करें। परन्तु यह योजना तुरन्त और आनन-फानन में नहीं शुरू की जा सकती। हमें इस बात को समझना होगा कि हमारे देश का हर हिस्सा शुष्क नहीं है।
देश में कुछ इलाके ऐसे हैं, जहाँ जल सम्पदा की प्रचुरता है। बिहार, असम और उत्तरांचल जैसे राज्यों में प्रचुर जलराशि उपलब्ध है, जो बारिश के मौसम में बाढ़ और अतिवृष्टि के कहर के रूप में सामने आती है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल वगैरह में हिमनदों के अलावा पहाड़ों पर बड़ी तादाद में बर्फ उपलब्ध है। अगर ये सभी जल संसाधन देश के शुष्क इलाकों तक पहुँचाए जा सकें तो हमें इन इलाकों में पानी की तंगी का कभी सामना नहीं करना पड़ेगा, लेकिन हमारे देश में विगत में हुए जल प्रबन्धन के कामों में पैसे की भयानक बर्बादी हुई है, चाहे वह नदी पर बाँध बनाने के रूप में हो, छोटी-बड़ी नहरों के जाल बिछाने पर हो, चाहे वह नदियों की सफाई पर हो, या नदियों पर तटबन्ध बनाने के लिये हो। योजनाएँ बनती हैं, भारी पैसे का आवंटन होता है और नतीजा वही ढाक के तीन पात।
इसने भ्रष्ट मन्त्रियों, नौकरशाहों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की जेब भरने का काम किया है। देश की ज्यादातर नदी घाटी परियोजनाएँ आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हो पाई हैं। इनकी लागत और आमदनी के बीच हमेशा असन्तुलन की स्थिति देखी गई है। अतः सबसे बेहतर नीति यही है कि प्रकृति प्रदत्त जीवनदायिनी चीजों मसलन जल, वायु और प्रकाश की उपलब्धता के साथ हम छेड़छाड़ न करें। हम प्रकृति की संरचना को नहीं बदल सकते, भगीरथ प्रयास महज एक मिथक है। यह वास्तविकता नहीं बन सकता। हम सिर्फ बेहतर तरीके से समायोजित भर ही कर सकते हैं।
हमें अपनी खेती की सिंचाई और पेयजल जरूरतों की पूर्ति के लिये आसान उपलब्ध व सस्ती तकनीकों के प्रचलन को ही बढ़ावा देना चाहिए अन्यथा अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं होगा। हमें चाहिए कि हम देश के सभी शुष्क कृषि प्रक्षेत्रों में शुष्क कृषि तकनीकों के प्रचलन को व्यापक रूप से बढ़ाएँ और उसके अनुकूल संभावित परिस्थितियाँ निर्मित करें। दूसरा, इन इलाकों में खेती के वैकल्पिक पेशे के रूप में खादी व छोटे उद्योगों की स्थापना को ज्यादा बढ़ावा दें। हालाँकि डेयरी, पशुपालन, मत्स्य और वानिकी खेती के सबसे बेहतर सहयोगी पेशे हैं, परन्तु इन पेशों के साथ भी यही विडम्बना है कि पानी और चारे के अभाव में इनका संचालन भी काफी प्रभावित होता है। वास्तव में ये सभी पेशे एक दूसरे पर निर्भर पेशे हैं। मसलन बिना खेती के पशुपालन संभव नहीं और बिना पशुपालन के खेती संभव नहीं। बिना वानिकी के बारिश संभव नहीं और बिना बारिश के वानिकी संभव नहीं। ऐसे में यह बड़ा जरूरी है कि हम ग्रामीण प्रौद्योगिकी के विकास व विस्तार पर व्यापक रूप से कार्य करें। इस पर हम निवेश बढ़ाएँ, जिससे ग्रामीण इलाकों में विनिर्माण, रोजगार और आय सृजन के ज्यादा से ज्यादा अवसर प्राप्त हों। वास्तव में इस दिशा में जमीनी स्तर पर बदलाव के लिये हमें आमूल-चूल परिवर्तन की दरकार है। सिर्फ योजनाएँ बनाने और उनके लिये करोड़ों रुपए आवंटित करने से ही बात नहीं बनने वाली। हमें इन प्रयासों को जमीन पर उतारकर दिखाना होगा। इसी स्थिति में कुछ उम्मीद की जा सकती है।