प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने अपने बजट में अगले पाँच साल में भारतीय अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन (5 खरब) डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अभी भारत 2.8 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था है। ऐसे में यह जरूरी है कि लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें न केवल तेज आर्थिक विकास की जरूरत है, बल्कि इसका फायदा हर वर्ग को समान रूप से पहुँचाने की भी जरूरत है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि 50 फीसदी भारतीयों को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहा है। इसी तरह सरकारी खर्च पर आधारित बुनियादी ढाँचागत क्षेत्र भी ज्यादा अच्छा नहीं कर रहा है। ऐसे में 2024 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए न सिर्फ बुनियादी ढाँचे में बल्कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों को जिन्दा करने के अलावा कृषि क्षेत्र में भी भारी निवेश करना होगा। लेकिन एक अहम सवाल यह है कि आर्थिक विकास का यह लक्ष्य हासिल करने में कृषि क्षेत्र की क्या भूमिका होगी ?
निजी और सरकारी निवेश धीमा रहा है, खासकर रोजगार-सघन कृषि क्षेत्र में। 2012-13 में कृषि में निवेश 2.84 लाख करोड़ रुपए था, जो 2018-19 में घटकर 2.73 लाख करोड़ रुपए रह गया है। इसका समग्र प्रभाव उच्च बेरोजगारी के रूप में देखा जा सकता है, जो वर्तमान में 45 वर्षों के सबसे ऊँचे स्तर पर है। इस प्रकार इस बजट में ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश लाकर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की उम्मीदभर की गई थी।
आर्थिक एवं रोजगार की दृष्टि से देखें तो भारत अब एक कृषि प्रधान देश नहीं रहा। अर्थशास्त्री एवं नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद द्वारा आयोग के लिए तैयार किए गए शोध पत्र में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आए बदलाव के बारे में बताया गया है। इसमें साफ-साफ कहा गया है कि 2004-05 से भारत गैर कृषि अर्थव्यवस्था बन चुका है। अधिक-से-अधिक किसान खेती छोड़ रहे हैं और गैर कृषि कार्यों को कर रहे हैं। ऐसा वे अधिक आमदनी के लिए कर रहे हैं। यह बड़ा बदलाव 1991-92 से शुरू हुए आर्थिक सुधार के बाद से आया है। रमेश चंद का शोध बताता है कि 1993-94 और 2004-05 के दौरान कृषि विकास दर में 1.87 फीसदी की कमी आई। जबकि इसके मुकाबले गैर कृषि अर्थव्यवस्था में 7.93 फीसदी की वृद्धि हुई। यह संयोग है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि की भागीदारी में तेज गिरावट आई, जो 1993-94 में यह हिस्सेदारी 57 फीसदी थी, लेकिन 2004-05 में घटकर 39 फीसदी रह गई। इस तरह, साल 2004-05 से ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि से गैर कृषि पर आधारित हो गई। यह स्थिति अब तक बनी हुई है।
दशकों बीत चुके हैं और सभी नीतियाँ बताती हैं कि खेती छोड़ रहे लोगों के लिए देश में केवल गैर कृषि क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया है। उदाहरण के लिए, 2004-05 और 2011-12 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि क्षेत्रों में पैदा हुई नई नौकरियों में निर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 74 फीसदी रही। इसकी वजह यह है कि सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में काम की तलाश कर रहे लोगों को आकर्षित करने के लिए बुनियादी ढाँचे पर भारी निवेश किया। लेकिन यहाँ एक गड़बड़ है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव के बावजूद, गैर कृषि क्षेत्र लोगों को रोजगार देने में पूरी तरह सफल साबित नहीं हो रहे हैं। खासकर ये क्षेत्र उतना रोजगार उत्पन्न नहीं कर पा रहे हैं, जितने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आर्थिक उदारीकरण से पहले कृषि क्षेत्र में रोजगार में सालाना 2.16 फीसदी की वृद्धि हो रही थी। लेकिन उदारीकरण के बाद तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद इसमें गिरावट आई।
ऐसे में यदि 5 खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो भी जाता है और जरूरत के हिसाब से नौकरियाँ पैदा नहीं होती है तो इसे रोजगार विहीन विकास ही कहा जाएगा। खासकर तब जब लोग खेती छोड़ रहे हैं और उन्हें रोजगार देना है। वर्तमान में ये लोग न केवल बेरोजगार हैं बल्कि बेरोजगारों की संख्या बढ़ा रहे हैं। अभी वे कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं, यह जानते हुए कि यह अब फायदेमंद नहीं है, लेकिन नुकसान उठाने वाली जीविका को कितने दिन तक बनाए रखा जा सकता है ?
बजट 2019-20 से यह संकेत मिलता है कि भारत पहले ही एक गैर-कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वास्तविकता को स्वीकार कर चुका है। 2019-20 के इस ‘शुभ’ केन्द्रीय बजट ने केवल मोदी सरकार के विकास के डिजाइन को दोहराया भर है। सुविधाओं को सीधा लाभार्थियों तक पहुँचाना, एक राजनैतिक समय सीमा के साथ मोदी ने अपने पहले के कार्यकाल के साथ-साथ अपनी नई पारी में भी ने डेटा मॉनिटरिंग मैकेनिज्म के उपयोग के माध्यम से ‘सही’ लाभार्थी का चयन करने की रणनीति अपनाई है। चाहे वह स्वच्छ भारत मिशन के तहत टॉयलेट कवरेज के लिए लक्ष्य रहा हो या अपने पहले कार्यकाल में ग्रामीण परिवारों के लिए एलपीजी कनेक्शन, मोदी सरकार ने अपने विकास वितरण तंत्र को रेखांकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। और यह बजट उनकी रणनीति को एक नए स्तर पर ले गया। इस वर्ष का बजट भी भारत के आर्थिक संकट पर एक बैंड-एड से अधिक कुछ भी नही है।
निजी और सरकारी निवेश धीमा रहा है, खासकर रोजगार-सघन कृषि क्षेत्र में। 2012-13 में कृषि में निवेश 2.84 लाख करोड़ रुपए था, जो 2018-19 में घटकर 2.73 लाख करोड़ रुपए रह गया है। इसका समग्र प्रभाव उच्च बेरोजगारी के रूप में देखा जा सकता है, जो वर्तमान में 45 वर्षों के सबसे ऊँचे स्तर पर है। इस प्रकार इस बजट में ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश लाकर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की उम्मीदभर की गई थी।
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