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जनसत्ता रविवारी, 18 सितंबर 2011
सरस्वती नदी के अस्तित्व और उसकी जलधारा को लेकर भूगर्भ वैज्ञानिकों, पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों में लंबे अरसे से मतभेद बना हुआ है। केंद्र में आने वाली सरकारों का नजरिया भी इस मुद्दे पर स्थिर और बेबाक नहीं रहा है। ऐसे में कुछ नई खोजों, प्रमाणों और विश्लेषणों पर आधारित एक पक्ष सामने रख रहे हैं बिशन टंडन
दस बारह साल पहले ऐसे ही एक इतिहासकार, रामशरण शर्मा, ने अपनी पुस्तक ‘एडवेंट ऑफ दि आर्यंस इन इंडिया’ में सरस्वती को सिंधु नदी की एक सहायक नदी बताते हुए यहां तक कहा कि ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह अफगानिस्तान की ‘हेलमंड’ है, जिसे ‘अवेस्ता’ में हरखवती कहा गया है। उनका तर्क है- ‘ऐसा लगता है कि कई सरस्वती नदियां हैं और प्राचीनतम सरस्वती को हाकड़ा और घग्गर के रूप में नहीं देखा जा सकता। सरस्वती को ऋग्वेद में सबसे बड़ी नदी (नदीतम) कहा गया है...। हाकड़ा और घग्गर इसकी तुलना में कहीं नहीं ठहरते। प्राचीनतम सरस्वती अफगानिस्तान की हेलमंड नदी ही है।’
इस पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद शर्मा ने ‘आलोचना’ (त्रैमासिकः अप्रैल-जून 2001) में एक साक्षात्कार में यह भी कहा कि सरस्वती किसी नदी का नाम न होकर नदियों की देवी भी हो सकती है। इससे भी अजीब बात उन्होंने यह कही कि सरस्वती को इतना महिमा-मंडित करने के पीछे हिंदू सांप्रदायिक सोच है। उनके शब्दों में ‘रूढ़िवादी सांप्रदायिक कारणों से सरस्वती को सिंधु से अधिक महान सिद्ध करना चाहते हैं। हड़प्पा के संदर्भ में वे (रूढ़िवादी) सोचते हैं कि (देश के) विभाजन के बाद सिंधु तो मुसलमानों की हो गई और केवल सरस्वती ही हिंदुओं के लिए बची है।’
इस विचारधारा के पुरोधा इरफान हबीब ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के बावनवें अधिवेशन (1991-92) में ‘भारत का ऐतिहासिक भूगोलः 1800-800 ई.पू.’ पर सरस्वती के संबंध में ऋग्वेद के दसवें मंडल की एक ऋचा का संदर्भ देते हुए यह कहा कि सिंधु और सरयू के बीच में बहने वाले नदी सरस्वती वास्तव में हेलमंड है। उनके अनुसार ‘यह लगता है कि हेलमंड का अरघनादाब से संगम के ऊपर नाम सरस्वती/हरखवती था। तभी सरस्वती को सिंधु और सरयू के बीच रखा जा सका है।’ इरफान हबीब और फैज हबीब ने यह भी कहा है कि सरस्वती नाम की तीन नदियां थीं: अफगानिस्तान की हेलमंड, दूसरी सिंधु और तीसरी जो हरियाणा और राजस्थान में सरस्वती नाम से आज भी बहती है।
हुआ यह है कि हबीब ने जिस ऋचा का संदर्भ दिया है, उसका गलत अनुवाद देखा है, ग्रिफिथ के अनुवाद में यह गलती है। ऋचा इस प्रकार हैः
‘सरस्वती’ सरयुः सिंधुरुर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी’।
ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में नदियों का क्रम सिंधु, सरस्वती और सरयू कर दिया है। इसी मंडल की एक और ऋचा में (10,75.5) में नदियों का क्रम पूर्व से पश्चिम बिल्कुल ठीक दिया गया है और इसमें सरस्वती यमुना और शुतुद्री (सतलुज) के बीच में हैः
इमं दृह्य गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि...’
हबीब का यह विचार भी कि सरस्वती सिंधु नदी ही थी, ग्रिफिथ से ही लिया लगता है। ग्रिफिथ ने ऋग्वेद के अपने अनुवाद के एक पाद-टिप्पणी (1995 पुनर्मुद्रण पृ 631) में सरस्वती के विषय में लिखा हैः ‘(ऋग्वेद के) पाठ में जो विवरण दिया गया है वह इस नाम की छोटी-सी नदी से मेल नहीं खाता और इससे व अन्य उद्धरणों से... यह लगता है कि सरस्वती सिंधु (इंडस) का ही दूसरा नाम है।’ हेलमंड संबंधी विचार, लगता है, विटजैल से प्रभावित है।
सरस्वती के संबंध में ये जो धारणाएं व्यक्त की गई हैं, इनकी जांच ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों के पाठ से की जानी आवश्यक है। पहले यह चर्चा की जा चुकी है कि सरस्वती न हेलमंड हो सकती है न सिंधु क्योंकि यह ग्रिफिथ के गलत अनुवाद और एक गलत अनुमान के आधार पर आश्रित है। लेकिन ऋग्वेद में इसका सशक्त प्रमाण मौजूद है। इस वेद में सरस्वती और सिंधु की अलग-अलग बड़ी स्पष्ट चर्चा है। ऋचा 10.75.5 में, जैसा पहले कहा जा चुका है कि-
इमं द्धह्य गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि...
केवल सरस्वती की चर्चा है, पर इसके ठीक बाद वाली ऋचा 10.75.6 में केवल सिंधु का वर्णन है।
सिंधु को ‘नदियों में सबसे तेज बहने वाली’ कहा गया है। एक अन्य ऋचा में सिंधु से अनुरोध किया गया है कि वह भूमि के उपजाऊ भागों की ओर बहे; एक अन्य ऋचा में कहा गया है कि जैसे कोई राजा सेना के साथ आगे बढ़ता है वैसे ही सिंधु अपनी सहायक नदियों के साथ आगे जाती है। उसकी सहायक नदियां जो पश्चिम से आकर उसमें मिलती हैं, उनके नाम भी दिए गए हैं- तुष्टामा, सुर्सतु, स्वेती (स्वात), कुर्रमा (क्रुमु), गोमल (गोमती) व काबुल (कुभा) (तुष्टामया प्रथमम... त्वम सिंधु...).....।
यहां यह भी कह दिया जाए कि कुछ ऋचाओं में सरस्वती और सिंधु दोनों नदियों का नाम है। ऋग्वेद में चौथे मंडल को छोड़कर सभी मंडलों में सरस्वती का एक महान नदी के रूप में वर्णन है। इसको दूसरे मंडल में (2.41.16) नदीतमा, अम्बीतमा, देवीतमा (सर्वोत्तम नदी, सर्वोत्तम मां, सर्वोत्तम देवी) कहा गया है; इसको तीन या अधिक नदियों का जल मिलता है और ‘पर्जन्य औषधियों से हमारे लिए सुखकारी/अग्नि सुश्लाध्य सुहवनीय हमारे लिए पिता के समान’ है (6.52.6); ‘इसका अनंत और अवक्र/तेज है गतिशील तरंगित/पथ प्रदर्शित करता घोष के साथ’ (6.61.8) और ‘जो अपनी महिमा से महान नदियों में प्रसिद्ध होती है/चमकीली शोभा से जो नदियों में सर्वोत्तम/विम्वा के द्वारा निर्मित रथ के समान ऊंची/जानकार के द्वारा स्तवनीय है वह सरस्वती (6.61..13) इस प्रकार ऋग्वेद में दोनों का अलग-अलग रूप में वर्णन है। (यहां संस्कृत ऋचाएं न देकर आचार्य गोविंद चंद्र पांडेय द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद दिया गया है)’
यह तो सरस्वती की महिमा का गान है पर ऋग्वेद में सरस्वती के संबंध में ठोस भौगोलिक तत्व भी दिए गए हैं। कुछ का वर्णन ऊपर दिया भी जा चुका है पर सबसे महत्वपूर्ण बात सातवें मंडल की ऋचा में कही गई है (7.95.2)। इस ऋचा का अनुवाद इस प्रकार हैः नदियों में अकेली सरस्वती ही पहचानी जाती अपनेपन से/स्वच्छ चमकती चली जाती है वह पर्वतों से समुद्र तक (एकांचेनत्सरस्वती नदीनां शुचिंर्यती गिरित्य आ संमुद्रात)/ समस्त भुवन के लिए विपुल संपदा जताती हुई/ मनुष्य के लिए दुहती वह भी घी सा स्निग्ध जल।’ इस ऋचा से दो बातें तो बिल्कुल स्पष्ट हैं: एक यह कि हिमालय के पहाड़ों से निकलने वाली सरस्वती समुद्र में जाकर गिरती थी, अतः उसका सिंधु नदी का सहायक होना, जैसा शर्मा ने कहा है, संभव नहीं है और दूसरी यह कि ऋग्वेद के रचयिता सरयू और सिंधु को बड़ी नदी तो मानते हैं (10.64.9) पर सरस्वती को सिंधु से अधिक महिमा-मंडित करते हैं। निश्चय ही यदि सरस्वती छोटी नदी होती और सिंधु की केवल सहायक नदी ही होती तो सिंधु को सरस्वती से महान बताया गया होता।
इस संदर्भ में एक बात की चर्चा करना आवश्यक है। कुछ विद्वान (क्लॉज और विटजैल) यह नहीं मानते कि सरस्वती समुद्र में गिरती थी। उनका कहना है कि यहां ‘समुद्रात’ का अर्थ समुद्र (ओशन) नहीं है, बल्कि संगम (कन्फुलएंस), विशेषकर जब कोई सहायक नदी सिंधु में मिलती है, से है। सिंधु की सहायक नदी को इस शब्द के अर्थ में लाना हास्यास्पद लगता है। पर विटजैल ने समुद्रात का अर्थ असीमित झील (टर्मिनल लेक) भी लगाया है (2001) निकोलस क़जानस (ग्रीक पुरातत्ववेत्ता) ने विटजैल की मान्यता का तर्क-संगत उत्तर अपनी पुस्तक ‘इंडोआर्यन अंरिजिंस एंड अदर वैदिक इश्यूज’ (2009) में विभिन्न पक्षों की जांच के बाद दिया है। समुद्रात का अर्थ समुद्र से ही है. विटजैल के सरस्वती संबंधी अधिकतर विचारों से सहमत होना कठिन है। संस्कृत और पुरातत्व के भारतीय विद्वान (और अब तो विदेश के भी) विटजैल की सोच से भली भांति परिचित हैं।
रही सरस्वती की देवी होने की बात तो उस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। पहले लिखा जा चुका है कि ऋग्वेद के पाठ में ही सरस्वती को देवीतमा कहा गया है। पर साथ ही उसको ‘अम्बीतमा’ और ‘नदीतमा’ भी कहा गया है। ऋग्वेद में सरस्वती से संबंधित लगभग साठ ऋचाएं हैं: तीस ऋचाओं से अधिक में नदी के रूप में इसकी महिमा बखानी गई है और अन्य में इसका अन्य प्रकार से वर्णन किया गया है। यह पहले इंगित किया जा चुका है कि नदियों में इसको सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसलिए उसे देवी के रूप में मान्यता देना कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। ऋग्वेद के रचयिता उन सब को देवता-देवी मानते थे जिनसे उन्हें अपने कल्याण की अपेक्षा और आशा होती थी। नदी से जल और अन्न की प्राप्ति होती है। अतः पहले ही मंडल में सरस्वती की देवी के रूप में स्तुति की गई हैः
‘इला सरस्वती मही तिस्तो देवीर्मयो भवः बर्हि सीदन्त्व स्निधः।’ (1013.9)
कई अन्य ऋचाओं में भी इस प्रकार की स्तुति की गई है: (5.4.6.2), (7.15.5), (7.95.6), (7.96.3) आदि। लेकिन ध्यान देने की बात है कि ऐसी कई ऋचाओं में भी सरस्वती का नदी रूप अंतर्निहित है। गंगा को भी देवी माना गया है, हरिद्वार में उसका मंदिर है, गंगा और यमुना के संगम के नगर प्रयाग को प्रयागराज कहा जाता है। यह जनमानस की भावनाओं से जुड़ी अभिव्यक्ति है। अतः रामशरण शर्मा का इस आधार पर सरस्वती को नदी न मानना अटपटा ही लगता है। प्रसंगवश यह बताना भी उचित होगा कि सरस्वती नदी को देवी का रूप देने के अतिरिक्त ऋग्वेद में उसे आप्री देवी (यज्ञ में स्थान दिए जानी वाली देवी) भी माना गया है।
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल में सरस्वती एक महान नदी थी जो पहाड़ों से निकलकर कच्छ में समुद्र में मिलती थी। ऋग्वेद का क्षेत्र मुख्यतः सप्त सिंधु का प्रदेश है जो आज के पाकिस्तान और हिंदुस्तान का पंजाब और उसका समीपवर्ती क्षेत्र है। सप्तसिंधु नाम उस क्षेत्र की सात नदियों पर पड़ा था- सरस्वती, शतद्रु (सतलुज), विपासा (व्यास), असकिनी (चेनाब), परुष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम) और सिंधु (एवेस्ता) के श्रोतों में भी इस क्षेत्र का यही नाम था- हप्त हेंदु। हरियाणा और राजस्थान में इसे अब घग्गर के नाम से जाना जाता है। यहां से यह पाकिस्तान के चोलिस्तान (बहावलपुर) में जाती है, जहां इसका नाम हाकड़ा है। फिर दक्षिण की ओर मुड़कर सिंध में बहती थी, जहां इसके कई नाम हैं- रैनी वहिंदा और नरारा। वहां से यह कच्छ में समुद्र में मिलती थी।
ऋग्वेद के अतिरिक्त सरस्वती का उल्लेख अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी है। सरस्वती के सूखने की बात वैदिक ऋचाओं में तो नहीं है महाभारत में इसकी चर्चा हैः 30.1.30.3; 6.7.47; 6.37.1-4.9.3.81; 9.36.1-2। ऋग्वेद की यह विशाल नदी सरस्वती महाभारत के समय में समुद्र तक नहीं जाती। मरुस्थल में विनसन (आजकल के सिरसा के पास) में ही लुप्त हो जाती है। महाभारत में पृथु कथा संक्षिप्त रूप से दी गई है, पर भागवत पुराण (चतुर्थ स्कन्धः उन्नीसवां अध्याय) और विष्णु पुराण में उसका कुछ विस्तृत रूप उपलब्ध है। इस कथा में कवष नाम के एक निषाद का उल्लेख है, जो की ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है। जब ऋषियों ने कवष को अपने यज्ञ से निकाल दिया था तो उसने मरुस्थल में जाकर सरस्वती के जल की स्तुति की। सरस्वती का जल उसके चारों ओर प्रकट हो गया। इस पर ऋषियों ने कवष को अपने यज्ञों में सम्मिलित कर लिया। भागवत में सरस्वती तट पर ऋषि-मुनियों के आश्रमों का बार-बार उल्लेख हुआ है।
आधुनिक काल में सरस्वती की खोज की कहानी बहुत रोचक है। अट्ठारहवीं सदी के अंत में विद्वानों को वैदिक सरस्वती से संबंधित समस्याओं की जानकारी होने लगी थी। 1830 तक सरस्वती घाटी की सामान्य पुरातात्विक संभावनाओं और सक्षमता की समझ भी काफी बढ़ गई थी। फ्रांस के एक भूगोल शास्त्री ल. विवियेन द सेंट मार्टिन ने 1860 में वैदिक भूगोल की अपनी पुस्तक में घग्गर-हाकड़ा की पहचान भी कर ली थी। बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में 1886 में भारत के भू-विज्ञान सर्वेक्षण के उप अधीक्षक आरडी ओल्ढम ने पहली बार सरस्वती के प्राचीन नदीतल (रिवरबेड) और सतलुज और यमुना को उसकी सहायक नदियां होने पर भूवैज्ञानिकों का ध्यान खींचा था। सात वर्ष बाद (1893) एक और प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक सीएफ ओल्ढम ने उसी पत्रिका में इस विषय की विस्तृत व्याख्या करते हुए सरस्वती के पुराने नदीतल की पुष्टि की। उनके अनुसार सरस्वती पंजाब की एक अन्य नदी हाकड़ा के सूखे नदीतल पर ही बहती थी। स्थानीय जन-मान्यता की चर्चा करते हुए उसने कहा कि प्राचीन काल में हाकड़ा रेगिस्तानी क्षेत्र में होती हुई समुद्र तक जाती थी।
ओल्ढम (1893) की यह धारणा भी थी कि यह सूखा नदीतल उस समय सतलुज और यमुना से पानी पाता था। महाभारत काल में सरस्वती समुद्र तक पहुंचने से पहले की विनसन (अनुमानतः वर्तमान सिरसा के पास) में लुप्त हो गई। ओल्ढम ने अपने आलेख में यह भी कहा कि सरस्वती नदी का वेदों में दिया गया विवरण कि वह समुद्र में जाकर गिरती थी और महाभारत का विवरण कि यह पवित्र नदी मरुस्थल में खो गईं, अपने-अपने समय का ठीक वर्णन है।
ओल्ढम के बाद सरस्वती के नदीतल की खोज में टैसीटोरी (1918), औरेल स्टाइन (1940-41) और अमलानंद घोष (1951-53) महत्वपूर्ण कार्य किया, जिसका विस्तृत विवरण केटी फीरोज दलाल ने पूना विश्वविद्यालय में प्रेषित अपनी शोध पत्र में किया है (1972)। टैसीटोरी ने बीकानेर राज्य के उत्तरी भाग में पुरातात्विक खोज में सरस्वती के नदीतल के किनारे अनेक ठेरों की पहचान की। लेकिन आगे कुछ काम करने से पहले उनकी मृत्यु हो गई। पर पहली वास्तविक खोज सर औरेल स्टाइन ने की। अस्सी वर्ष की आयु में, जब उनकी दृष्टि काफी क्षीण हो चुकी थी इस अनोखे पुरातत्ववेत्ता ने 1940-41 में सरस्वती के किनारे-किनारे राजस्थान और बहावलपुर (अब पाकिस्तान में) में यह खोज कार्य किया। उसका कुछ वर्णन उन्होंने ‘ज्यॉग्राफिकल जर्नल’ 99 (1942) में किया। उनकी डायरी में उनकी खोज का विवरण विस्तार से मिलता है पर दुर्भाग्यवश यह सामग्री प्रकाशित नहीं हुई। दलाल ने उसका उपयोग अपनी थीसिस में किया है।
अमलानंद घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया ( 1952-53)। इन खोजों ने इस परंपरागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा/घग्गर के सूखे नदीतल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के ह्रास का मुख्य कारण सतलुज की धार बदलना था। इससे वह सरस्वती में न मिलकर सिंधु नदी में मिलने लगी। यमुना के धार बदलने को (पश्चिम में न बहकर पूर्व में गंगा से मिलना) उन्होंने इसका एक और कारण बताया।
कुछ समय बाद एक जर्मन विद्वान ने भी इस समस्या का गहन अध्ययन किया जिसके निष्कर्ष एक विद्वत पत्रिका ‘जेड जियोमोरर्फोलोजी’ में 1969 एक विस्तृत लेख में प्रकाशित हुए। भूविज्ञान शास्त्रियों के अनुसार हर्बट विलहेमी का यह अध्ययन सरस्वती नदी और उसके विकास के विभिन्न चरणों का सबसे अच्छा विवरण है। 1892 से 1942 तक के अध्ययनों का संदर्भ देते हुए उसका मुख्य निष्कर्ष है कि सिंधु नदी के उस भाग से जो उत्तर-दक्षिण बहता है 40-110 किलोमीटर पूर्व में एक बहुत पुराना सूखा नदीतल वास्तव में सरस्वती की ही नदीतली है।
पाकिस्तान में भी इस संबंध में बहुत खोज और अध्ययन किया गया है। बहावलपुर के रेगिस्तानी क्षेत्र, चोलिस्तान में जहां हाकड़ा का लगभग तीन सौ मील लंबा नदीतल है वहां पाकिस्तान के अग्रणी पुरातत्ववेत्ता रफीक मुगल ने 414 पुरातात्विक स्थलों की पहचान की है। इनमें 99 ईसापूर्व चौथी सहस्त्राब्दी (मिलेनियम), 214 तीसरी और 50 दूसरी की मानी गई है। (अमलानंद घोष ने इसके समीपवर्ती क्षेत्र बीकानेर के उत्तर में एक छोटे से हिस्से में 100 और ऐसे स्थलों की पहचान की थी)। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पूरी सिंधु नदी पर ऐसे केवल लगभग 36 स्थल चिह्नित किए गए हैं। हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ब्रायंट ने इसी आधार पर कहा है कि हाकड़ा चौथी और तीसरी सहस्त्राब्दी में अपने पूरे वैभव पर थी।
आधुनिक वैज्ञानिक शोध को सरस्वती और उसके नदीतल से संबंधित अब तक की प्राप्त सामग्री का अनुभवजन्य पराभूविज्ञान से साम्य स्थापित करने में अद्भुत सफलता मिली है। उसका पूरा विवरण और हर शोध के निष्कर्ष अलग-अलग देना यहां संभव नहीं है। केवल महत्वपूर्ण बातें दी जा रही हैं। सबसे पहले सरस्वती के हिमालय से उद्भव का प्रश्न लेते हैं। कुछ वर्ष पहले (1998) दो भूगर्भ वैज्ञानिकों, वीएमके पुरी और बीसी वर्मा ने इस विषय पर भरी-पूरी उच्चकोटि की वैज्ञानिक सामग्री देते हुए एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया है।
यमुना और मारकंडा नदियों के बीच के पर्वतीय क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण पर आधारित वैज्ञानिक साक्ष्य का विवेचन करते हुए वैज्ञानिक-द्वय के, यदि सीधी-सादी भाषा में कहें, यह निष्कर्ष है कि वैदिक सरस्वती का उद्गम सरस्वती, जामादार और सुपिन हिमनदों से, जो नैतवार के निकट आपस में मिलते हैं, हुआ था। (इसका उन्होंने एक बहुत स्पष्ट वैज्ञानिक चित्र भी प्रस्तुत किया है)। सरस्वती पहले दक्षिण-पश्चिम और फिर पश्चिमी दिशा में बहते हुए अध बद्री पर शिवालिक को तोड़ते हुए मैदानों में उतरती थी (इसका भी पूरा चित्र शोध-पत्र में दिया गया है), स्मरण कीजिए, ऋग्वेद की ऋचा ‘इयं शुष्मेंमिर्षिसुखाई वारू जत्सातुं गिरिणा तंविषेभिरुर्मिभिः’- (यह कमलनाल खोदने वालों को भग्न करती/पर्वतों के शिखर को अपनी बलवान तरंगों से)।
अमेरिका की ‘नेशनल ज्यॉग्राफिक सोसायटी’ के ‘ज्योग्राफिक इन्फॉरमेशन सिस्टम’ और रिमोट सेंसिंग यूनिट ने सैटेलाइट इमेजिंग द्वारा ऋग्वेद में दिए गए सरस्वती के विवरण की पुष्टि की है। यूरोप की रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स की रडार इमेजरी से जो जानकारी मिली है (1995), उससे स्पष्ट है कि सिंधु और सरस्वती दो अलग-अलग नदियां थीं जिनमें आपस में कोई संबंध नहीं था। अंबाला के दक्षिण में तीन सूखे पुराजलमार्ग जो पश्चिम की ओर मुड़ते दिखाई पड़ते हैं वे निश्चय ही सरस्वती/घग्गर और दृशाद्वती की सहायक धाराओं के थे।
अमेरिका की रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने भारतीय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट के माध्यम से जो चित्र प्राप्त किए हैं, उनमें भी सरस्वती का नदीतल स्पष्ट है इसके शोध से प्राप्त चित्रों की समीक्षा से यह पता लगा कि जैसलमेर क्षेत्र में समीक्षा से यह पता लगा कि जैसलमेर क्षेत्र में भूजल विद्यमान है। जहां सरस्वती नदी बहती थी वहां (चंदनलाठी) कुएं ‘बोर’ कराए गए। शोधकर्ताओं ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि बड़ी मात्रा में पानी उपलब्ध है और वह भी मीठा इसके आधार वहां दो दर्जन से अधिक कुएं खुदवाए गए। हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग ने भी ज्योतिसर और बीबीपुर के बीच साढ़े तीन किलोमीटर में इसी प्रकार सिंचाई के लिए पानी प्राप्त किया है।
दो वर्ष पहले उस सरकार ने ओएनजीसी और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय को एक योजना के लिए सरस्वती के नदीतल से पानी प्राप्त करने के लिए 10.05 करोड़ रुपए स्वीकृत किए थे। अपने देश के वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संस्थान भी इस विषय के अध्ययन शोध में बहुत सक्रिय हैं। इस संबंध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर प्रोफेसर यशपाल का कार्य (1984) बहुत महत्वपूर्ण है। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने ‘1980 में सरस्वती नदी के अस्तित्व पर एक छोटा शोध-प्रपत्र प्रकाशित किया था जिसकी ओर ध्यान आकृष्ट हुआ था।’ यशपाल ने भारतीय अंतरिक्ष शोध संस्थान (इसरो) के तत्वावधान में यह कार्य किया था। जिसने इस विषय के शोध में आधारभूत भूमिका निभाई है। यशपाल ने कहा भी है, ‘अब तक कि खोज ने सरस्वती के पथ को, जब वह बहती थी, पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है।’
यशपाल और उनके सहयोगियों का शोध कार्य लैंडसेट इमेजरी के आधार पर किया गया था। इन वैज्ञानिकों ने सरस्वती-घग्गर का इनकी सहायक नदियों शुतुद्री (सतलुज) और दृशाद्वती के प्राचीन नदीतट पर धाराप्रवाह का एक एकीकृत चित्र भी प्रस्तुत किया है। इनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि सतलुज घग्गर की मुख्य सहायक नदी थी। शतराना (पंजाब) से मरोट (पाकिस्तान) तक घग्गर के प्राचीन नदी तट की चौड़ाई लगातार छह से आठ किलोमीटर है। एक अन्य वैज्ञानिक बलदेव सहाय ने यशपाल के कार्य को आधार बनाते हुए आगे बढ़ाया है जिससे यशपाल के निष्कर्षों की पुष्टि और सुदृढ़ होती है।
भारतीय अंतरिक्ष शोध सम्मान इस कार्यक्रम से जुड़ा हुआ है। केवल यही नहीं, देश का सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान-भाभा परमाणु शोध संस्थान भी इस क्षेत्र में सक्रिय है। भौतिकी शोध संस्थान अहमदाबाद (जो कि भारतीय अंतरिक्ष शोध संस्थान का विभाग है) और राजस्थान भूजल विभाग से मिलकर भाभा संस्थान 1998 से सरस्वती के ‘अस्तित्व और संभावित स्थिति’ की पहचान निर्धारित करने के कार्य में संलग्न है और इन्हें इसमें अच्छी सफलता मिली है। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से रुक्ष क्षेत्रों का केंद्रीय शोध संस्थान, जोधपुर (काजरी) भी इस शोध से संलग्न है। केंद्रीय भूजल प्राधिकरण की सहभागिता भी ऐसे कार्यक्रमों को प्राप्त है।
ज्यॉलोजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया ने पिछली सदी के 90 के दशक में ‘वैदिक सरस्वती’ पर एक वृहद विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। बड़ौदा विश्वविद्यालय, तेल व प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) भारत सरकार के अंतरिक्ष विभाग व विज्ञान व तकनीकी विभाग, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली ने इसमें पूरी सहभागिता निभाई थी। सोसायटी का 1999 में प्रकाशित संस्मरण 42’ में 328 पृष्ठों में इस विचारगोष्ठी में पढ़े गए शोध प्रपत्र व विचार-विनिमय का सार संकलित है।
प्रख्यात वैज्ञानिक पत्रिका ‘साइंस’ के 1 अप्रैल 2011 के अंक में (ग्रंथ 332) इस प्रश्न को फिर उठाया गया है। अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की सांता फे में 21-25 मार्च 2011 की एक बैठक में ‘जलवायु, विगत भूदृश्य और संस्कृतियां’ पर एक विचार गोष्ठी हुई थी। इस पत्रिका में एंड्रयू लॉलर ने इस पर एक बहुत संक्षिप्त रिपोर्ट दी है, जिसमें कहा गया है कि इस विचार गोष्ठी में तीन वैज्ञानिकों ने इस विचार का बड़ा प्रारंभिक साक्ष्य दिया कि हाकड़ा-घग्गर बड़ी साधारण सी मौसमी लघु सरिताएं (स्ट्रीम) थीं। हालांकि अभी और साक्ष्य की आवश्यकता है पर यह लगता है कि वहां कोई बड़ी नदी नहीं थी। यह वैज्ञानिक हैं- इंपोरियल कॉलेज लंदन के संजीव गुप्ता, न्यूयार्क यूनिवर्सिटी की रीता राइट और और एबरडीन यूनिवर्सिटी (यूके) के पीटर किल्फट।
इस तीन पैरा की रिपोर्ट में अभी गंभीर साक्ष्य नहीं प्रस्तुत किया गया है। पीटर किल्फट ने स्वयं कुछ संदेह भी व्यक्त किया है लेकिन इसी अंक में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के पूर्वउपकुलपति प्रोफेसर वाल्दिया ने, जो आजकल नेहरा उच्च वैज्ञानिक शोध केंद्र, बंगलूरू में कार्यरत हैं, (पहले जियोलोजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया के एक विचार गोष्ठी का उल्लेख है, प्रोफेसर वाल्दिया उसके सह-अध्यक्ष थे) का सांता फे में व्यक्त विचारों का भरे-पूरे वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ दिए गए उत्तर को भी प्रकाशित किया है। ठोस साक्ष्य उपलब्ध होने पर ही आगे कुछ चर्चा संभव होगी।
पर लगभग सवा सौ वर्ष की खोज, शोध और अध्ययन से सरस्वती नदी के अस्तित्व के प्रश्न पर संदेह के बादल अवश्य छंट गए हैं। पूरे साक्ष्य के आधार पर हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायंट, जिनका आर्यों से संबंधित गहन अध्ययन अत्यंत निष्पक्ष माना जाता है, ने कहा है, (2011) कि “यह तो साफ मालूम होता है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे जबकि वह एक विशाल नदी थी और उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध नहीं था कि वे कहीं बाहर से आए हैं.... कम से कम यह एक ऐसा संदर्भ है कि ‘जहां शब्द प्रमाण’ (जो रचित ग्रंथों में कहा गया है) की कुछ पुष्टि प्रत्यक्ष प्रमाण-अनुभव सिद्ध प्रमाण-से होती है।”
आलेख के आरंभ में कहा जा चुका है कि 6 दिसंबर 2004 को केंद्र सरकार ने सरस्वती के अस्तित्व को मानने से मना कर दिया था। सरकार का यह दृष्टिकोण तब तक रहा जब तक वह अपने अस्तित्व के लिए वामपंथी दलों पर आश्रित थी। सरकार ही नहीं, एक दो वरिष्ठ नेता भी इस बात से दुखी थे कि कई सरकारी संस्थान इस नदी की खोज-शोध में लिप्त थे।
मंत्री के वक्तव्य के लगभग दो वर्ष बाद (2006) परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालयों की संसदीय स्थायी समिति ने भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की इस बाद के लिए निंदा भी की। उस समय उस समिति के अध्यक्ष सीताराम येचुरी थे। समिति ने कहा- ‘भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण अपने कार्यकलाप में भटक गया है और यह पुरातत्व में वैज्ञानिक अनुशासन बढ़ाने में नेतृत्व करने में असफल रहा है। इस मामले में भा.पु.स. जो कि एक वैज्ञानिक संस्थान है, ने अपना कार्य सही ढंग से नहीं किया।’
सरकारी गठबंधन से वाम दलों के हटने के बाद सरकार ने 3 दिसंबर 2009 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरस्वती नदी के अस्तित्व को ‘बिना किसी संदेह के’ स्वीकार किया। उत्तर में यह भी कहा गया कि खोज में पाए गए भूजल मार्गों का विवरण और विशालता वैदिक ग्रंथों में वर्णित सरस्वती से मेल खाते हैं।
इस प्रकार का परिवर्तन हमारे इतिहास के अध्ययन के एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष को प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों की समीक्षा राजनीतिक विचारधारा के आधार पर करने से ऐसी अनेक भ्रामक स्थितियां उत्पन्न होती हैं। इसके प्रति कैंब्रिज विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर दिलीप चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक ‘द बैटिल फॉर एंशियंट इंडिया’ (2008) में चिंता व्यक्त की है और यह स्पष्ट कहा है कि भारत में यह प्रवृत्ति इधर काफी बढ़ गई है। पर यह अपने में एक अलग विषय है।
अमलानंद घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया (1952-53)। इन खोजों ने इस परंपरागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा/घग्गर के सूखे नदीतल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के ह्रास का मुख्य कारण सतलुज की धार बदलना था।
क्या लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है? पिछले सौ साल से अधिक के भूगर्भ विज्ञान और पुरातत्व के शोध और गंभीर अध्ययन को नकारते हुए भारत सरकार के संस्कृति विभाग के मंत्री ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में बड़े विश्वास के साथ कहा था कि ‘इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था...।’ वास्तव में यह वक्तव्य मंत्री की गैर-जानकारी का उदाहरण नहीं हो सकता। यह तब के सरकार की राजनीतिक बेबसी से ग्रस्त था। वामपंथी दल गठबंधन में अहम थे और स्वभावतः वे हर मसले को अपने राजनीतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी न किसी प्रकार संबंधित इतिहासकार भी इसी नजरिए से त्रस्त हैं।दस बारह साल पहले ऐसे ही एक इतिहासकार, रामशरण शर्मा, ने अपनी पुस्तक ‘एडवेंट ऑफ दि आर्यंस इन इंडिया’ में सरस्वती को सिंधु नदी की एक सहायक नदी बताते हुए यहां तक कहा कि ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह अफगानिस्तान की ‘हेलमंड’ है, जिसे ‘अवेस्ता’ में हरखवती कहा गया है। उनका तर्क है- ‘ऐसा लगता है कि कई सरस्वती नदियां हैं और प्राचीनतम सरस्वती को हाकड़ा और घग्गर के रूप में नहीं देखा जा सकता। सरस्वती को ऋग्वेद में सबसे बड़ी नदी (नदीतम) कहा गया है...। हाकड़ा और घग्गर इसकी तुलना में कहीं नहीं ठहरते। प्राचीनतम सरस्वती अफगानिस्तान की हेलमंड नदी ही है।’
इस पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद शर्मा ने ‘आलोचना’ (त्रैमासिकः अप्रैल-जून 2001) में एक साक्षात्कार में यह भी कहा कि सरस्वती किसी नदी का नाम न होकर नदियों की देवी भी हो सकती है। इससे भी अजीब बात उन्होंने यह कही कि सरस्वती को इतना महिमा-मंडित करने के पीछे हिंदू सांप्रदायिक सोच है। उनके शब्दों में ‘रूढ़िवादी सांप्रदायिक कारणों से सरस्वती को सिंधु से अधिक महान सिद्ध करना चाहते हैं। हड़प्पा के संदर्भ में वे (रूढ़िवादी) सोचते हैं कि (देश के) विभाजन के बाद सिंधु तो मुसलमानों की हो गई और केवल सरस्वती ही हिंदुओं के लिए बची है।’
इस विचारधारा के पुरोधा इरफान हबीब ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के बावनवें अधिवेशन (1991-92) में ‘भारत का ऐतिहासिक भूगोलः 1800-800 ई.पू.’ पर सरस्वती के संबंध में ऋग्वेद के दसवें मंडल की एक ऋचा का संदर्भ देते हुए यह कहा कि सिंधु और सरयू के बीच में बहने वाले नदी सरस्वती वास्तव में हेलमंड है। उनके अनुसार ‘यह लगता है कि हेलमंड का अरघनादाब से संगम के ऊपर नाम सरस्वती/हरखवती था। तभी सरस्वती को सिंधु और सरयू के बीच रखा जा सका है।’ इरफान हबीब और फैज हबीब ने यह भी कहा है कि सरस्वती नाम की तीन नदियां थीं: अफगानिस्तान की हेलमंड, दूसरी सिंधु और तीसरी जो हरियाणा और राजस्थान में सरस्वती नाम से आज भी बहती है।
हुआ यह है कि हबीब ने जिस ऋचा का संदर्भ दिया है, उसका गलत अनुवाद देखा है, ग्रिफिथ के अनुवाद में यह गलती है। ऋचा इस प्रकार हैः
‘सरस्वती’ सरयुः सिंधुरुर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी’।
ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में नदियों का क्रम सिंधु, सरस्वती और सरयू कर दिया है। इसी मंडल की एक और ऋचा में (10,75.5) में नदियों का क्रम पूर्व से पश्चिम बिल्कुल ठीक दिया गया है और इसमें सरस्वती यमुना और शुतुद्री (सतलुज) के बीच में हैः
इमं दृह्य गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि...’
हबीब का यह विचार भी कि सरस्वती सिंधु नदी ही थी, ग्रिफिथ से ही लिया लगता है। ग्रिफिथ ने ऋग्वेद के अपने अनुवाद के एक पाद-टिप्पणी (1995 पुनर्मुद्रण पृ 631) में सरस्वती के विषय में लिखा हैः ‘(ऋग्वेद के) पाठ में जो विवरण दिया गया है वह इस नाम की छोटी-सी नदी से मेल नहीं खाता और इससे व अन्य उद्धरणों से... यह लगता है कि सरस्वती सिंधु (इंडस) का ही दूसरा नाम है।’ हेलमंड संबंधी विचार, लगता है, विटजैल से प्रभावित है।
सरस्वती के संबंध में ये जो धारणाएं व्यक्त की गई हैं, इनकी जांच ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों के पाठ से की जानी आवश्यक है। पहले यह चर्चा की जा चुकी है कि सरस्वती न हेलमंड हो सकती है न सिंधु क्योंकि यह ग्रिफिथ के गलत अनुवाद और एक गलत अनुमान के आधार पर आश्रित है। लेकिन ऋग्वेद में इसका सशक्त प्रमाण मौजूद है। इस वेद में सरस्वती और सिंधु की अलग-अलग बड़ी स्पष्ट चर्चा है। ऋचा 10.75.5 में, जैसा पहले कहा जा चुका है कि-
इमं द्धह्य गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि...
केवल सरस्वती की चर्चा है, पर इसके ठीक बाद वाली ऋचा 10.75.6 में केवल सिंधु का वर्णन है।
सिंधु को ‘नदियों में सबसे तेज बहने वाली’ कहा गया है। एक अन्य ऋचा में सिंधु से अनुरोध किया गया है कि वह भूमि के उपजाऊ भागों की ओर बहे; एक अन्य ऋचा में कहा गया है कि जैसे कोई राजा सेना के साथ आगे बढ़ता है वैसे ही सिंधु अपनी सहायक नदियों के साथ आगे जाती है। उसकी सहायक नदियां जो पश्चिम से आकर उसमें मिलती हैं, उनके नाम भी दिए गए हैं- तुष्टामा, सुर्सतु, स्वेती (स्वात), कुर्रमा (क्रुमु), गोमल (गोमती) व काबुल (कुभा) (तुष्टामया प्रथमम... त्वम सिंधु...).....।
यहां यह भी कह दिया जाए कि कुछ ऋचाओं में सरस्वती और सिंधु दोनों नदियों का नाम है। ऋग्वेद में चौथे मंडल को छोड़कर सभी मंडलों में सरस्वती का एक महान नदी के रूप में वर्णन है। इसको दूसरे मंडल में (2.41.16) नदीतमा, अम्बीतमा, देवीतमा (सर्वोत्तम नदी, सर्वोत्तम मां, सर्वोत्तम देवी) कहा गया है; इसको तीन या अधिक नदियों का जल मिलता है और ‘पर्जन्य औषधियों से हमारे लिए सुखकारी/अग्नि सुश्लाध्य सुहवनीय हमारे लिए पिता के समान’ है (6.52.6); ‘इसका अनंत और अवक्र/तेज है गतिशील तरंगित/पथ प्रदर्शित करता घोष के साथ’ (6.61.8) और ‘जो अपनी महिमा से महान नदियों में प्रसिद्ध होती है/चमकीली शोभा से जो नदियों में सर्वोत्तम/विम्वा के द्वारा निर्मित रथ के समान ऊंची/जानकार के द्वारा स्तवनीय है वह सरस्वती (6.61..13) इस प्रकार ऋग्वेद में दोनों का अलग-अलग रूप में वर्णन है। (यहां संस्कृत ऋचाएं न देकर आचार्य गोविंद चंद्र पांडेय द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद दिया गया है)’
यह तो सरस्वती की महिमा का गान है पर ऋग्वेद में सरस्वती के संबंध में ठोस भौगोलिक तत्व भी दिए गए हैं। कुछ का वर्णन ऊपर दिया भी जा चुका है पर सबसे महत्वपूर्ण बात सातवें मंडल की ऋचा में कही गई है (7.95.2)। इस ऋचा का अनुवाद इस प्रकार हैः नदियों में अकेली सरस्वती ही पहचानी जाती अपनेपन से/स्वच्छ चमकती चली जाती है वह पर्वतों से समुद्र तक (एकांचेनत्सरस्वती नदीनां शुचिंर्यती गिरित्य आ संमुद्रात)/ समस्त भुवन के लिए विपुल संपदा जताती हुई/ मनुष्य के लिए दुहती वह भी घी सा स्निग्ध जल।’ इस ऋचा से दो बातें तो बिल्कुल स्पष्ट हैं: एक यह कि हिमालय के पहाड़ों से निकलने वाली सरस्वती समुद्र में जाकर गिरती थी, अतः उसका सिंधु नदी का सहायक होना, जैसा शर्मा ने कहा है, संभव नहीं है और दूसरी यह कि ऋग्वेद के रचयिता सरयू और सिंधु को बड़ी नदी तो मानते हैं (10.64.9) पर सरस्वती को सिंधु से अधिक महिमा-मंडित करते हैं। निश्चय ही यदि सरस्वती छोटी नदी होती और सिंधु की केवल सहायक नदी ही होती तो सिंधु को सरस्वती से महान बताया गया होता।
इस संदर्भ में एक बात की चर्चा करना आवश्यक है। कुछ विद्वान (क्लॉज और विटजैल) यह नहीं मानते कि सरस्वती समुद्र में गिरती थी। उनका कहना है कि यहां ‘समुद्रात’ का अर्थ समुद्र (ओशन) नहीं है, बल्कि संगम (कन्फुलएंस), विशेषकर जब कोई सहायक नदी सिंधु में मिलती है, से है। सिंधु की सहायक नदी को इस शब्द के अर्थ में लाना हास्यास्पद लगता है। पर विटजैल ने समुद्रात का अर्थ असीमित झील (टर्मिनल लेक) भी लगाया है (2001) निकोलस क़जानस (ग्रीक पुरातत्ववेत्ता) ने विटजैल की मान्यता का तर्क-संगत उत्तर अपनी पुस्तक ‘इंडोआर्यन अंरिजिंस एंड अदर वैदिक इश्यूज’ (2009) में विभिन्न पक्षों की जांच के बाद दिया है। समुद्रात का अर्थ समुद्र से ही है. विटजैल के सरस्वती संबंधी अधिकतर विचारों से सहमत होना कठिन है। संस्कृत और पुरातत्व के भारतीय विद्वान (और अब तो विदेश के भी) विटजैल की सोच से भली भांति परिचित हैं।
रही सरस्वती की देवी होने की बात तो उस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। पहले लिखा जा चुका है कि ऋग्वेद के पाठ में ही सरस्वती को देवीतमा कहा गया है। पर साथ ही उसको ‘अम्बीतमा’ और ‘नदीतमा’ भी कहा गया है। ऋग्वेद में सरस्वती से संबंधित लगभग साठ ऋचाएं हैं: तीस ऋचाओं से अधिक में नदी के रूप में इसकी महिमा बखानी गई है और अन्य में इसका अन्य प्रकार से वर्णन किया गया है। यह पहले इंगित किया जा चुका है कि नदियों में इसको सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसलिए उसे देवी के रूप में मान्यता देना कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। ऋग्वेद के रचयिता उन सब को देवता-देवी मानते थे जिनसे उन्हें अपने कल्याण की अपेक्षा और आशा होती थी। नदी से जल और अन्न की प्राप्ति होती है। अतः पहले ही मंडल में सरस्वती की देवी के रूप में स्तुति की गई हैः
‘इला सरस्वती मही तिस्तो देवीर्मयो भवः बर्हि सीदन्त्व स्निधः।’ (1013.9)
कई अन्य ऋचाओं में भी इस प्रकार की स्तुति की गई है: (5.4.6.2), (7.15.5), (7.95.6), (7.96.3) आदि। लेकिन ध्यान देने की बात है कि ऐसी कई ऋचाओं में भी सरस्वती का नदी रूप अंतर्निहित है। गंगा को भी देवी माना गया है, हरिद्वार में उसका मंदिर है, गंगा और यमुना के संगम के नगर प्रयाग को प्रयागराज कहा जाता है। यह जनमानस की भावनाओं से जुड़ी अभिव्यक्ति है। अतः रामशरण शर्मा का इस आधार पर सरस्वती को नदी न मानना अटपटा ही लगता है। प्रसंगवश यह बताना भी उचित होगा कि सरस्वती नदी को देवी का रूप देने के अतिरिक्त ऋग्वेद में उसे आप्री देवी (यज्ञ में स्थान दिए जानी वाली देवी) भी माना गया है।
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल में सरस्वती एक महान नदी थी जो पहाड़ों से निकलकर कच्छ में समुद्र में मिलती थी। ऋग्वेद का क्षेत्र मुख्यतः सप्त सिंधु का प्रदेश है जो आज के पाकिस्तान और हिंदुस्तान का पंजाब और उसका समीपवर्ती क्षेत्र है। सप्तसिंधु नाम उस क्षेत्र की सात नदियों पर पड़ा था- सरस्वती, शतद्रु (सतलुज), विपासा (व्यास), असकिनी (चेनाब), परुष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम) और सिंधु (एवेस्ता) के श्रोतों में भी इस क्षेत्र का यही नाम था- हप्त हेंदु। हरियाणा और राजस्थान में इसे अब घग्गर के नाम से जाना जाता है। यहां से यह पाकिस्तान के चोलिस्तान (बहावलपुर) में जाती है, जहां इसका नाम हाकड़ा है। फिर दक्षिण की ओर मुड़कर सिंध में बहती थी, जहां इसके कई नाम हैं- रैनी वहिंदा और नरारा। वहां से यह कच्छ में समुद्र में मिलती थी।
ऋग्वेद के अतिरिक्त सरस्वती का उल्लेख अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी है। सरस्वती के सूखने की बात वैदिक ऋचाओं में तो नहीं है महाभारत में इसकी चर्चा हैः 30.1.30.3; 6.7.47; 6.37.1-4.9.3.81; 9.36.1-2। ऋग्वेद की यह विशाल नदी सरस्वती महाभारत के समय में समुद्र तक नहीं जाती। मरुस्थल में विनसन (आजकल के सिरसा के पास) में ही लुप्त हो जाती है। महाभारत में पृथु कथा संक्षिप्त रूप से दी गई है, पर भागवत पुराण (चतुर्थ स्कन्धः उन्नीसवां अध्याय) और विष्णु पुराण में उसका कुछ विस्तृत रूप उपलब्ध है। इस कथा में कवष नाम के एक निषाद का उल्लेख है, जो की ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है। जब ऋषियों ने कवष को अपने यज्ञ से निकाल दिया था तो उसने मरुस्थल में जाकर सरस्वती के जल की स्तुति की। सरस्वती का जल उसके चारों ओर प्रकट हो गया। इस पर ऋषियों ने कवष को अपने यज्ञों में सम्मिलित कर लिया। भागवत में सरस्वती तट पर ऋषि-मुनियों के आश्रमों का बार-बार उल्लेख हुआ है।
आधुनिक काल में सरस्वती की खोज की कहानी बहुत रोचक है। अट्ठारहवीं सदी के अंत में विद्वानों को वैदिक सरस्वती से संबंधित समस्याओं की जानकारी होने लगी थी। 1830 तक सरस्वती घाटी की सामान्य पुरातात्विक संभावनाओं और सक्षमता की समझ भी काफी बढ़ गई थी। फ्रांस के एक भूगोल शास्त्री ल. विवियेन द सेंट मार्टिन ने 1860 में वैदिक भूगोल की अपनी पुस्तक में घग्गर-हाकड़ा की पहचान भी कर ली थी। बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में 1886 में भारत के भू-विज्ञान सर्वेक्षण के उप अधीक्षक आरडी ओल्ढम ने पहली बार सरस्वती के प्राचीन नदीतल (रिवरबेड) और सतलुज और यमुना को उसकी सहायक नदियां होने पर भूवैज्ञानिकों का ध्यान खींचा था। सात वर्ष बाद (1893) एक और प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक सीएफ ओल्ढम ने उसी पत्रिका में इस विषय की विस्तृत व्याख्या करते हुए सरस्वती के पुराने नदीतल की पुष्टि की। उनके अनुसार सरस्वती पंजाब की एक अन्य नदी हाकड़ा के सूखे नदीतल पर ही बहती थी। स्थानीय जन-मान्यता की चर्चा करते हुए उसने कहा कि प्राचीन काल में हाकड़ा रेगिस्तानी क्षेत्र में होती हुई समुद्र तक जाती थी।
ओल्ढम (1893) की यह धारणा भी थी कि यह सूखा नदीतल उस समय सतलुज और यमुना से पानी पाता था। महाभारत काल में सरस्वती समुद्र तक पहुंचने से पहले की विनसन (अनुमानतः वर्तमान सिरसा के पास) में लुप्त हो गई। ओल्ढम ने अपने आलेख में यह भी कहा कि सरस्वती नदी का वेदों में दिया गया विवरण कि वह समुद्र में जाकर गिरती थी और महाभारत का विवरण कि यह पवित्र नदी मरुस्थल में खो गईं, अपने-अपने समय का ठीक वर्णन है।
ओल्ढम के बाद सरस्वती के नदीतल की खोज में टैसीटोरी (1918), औरेल स्टाइन (1940-41) और अमलानंद घोष (1951-53) महत्वपूर्ण कार्य किया, जिसका विस्तृत विवरण केटी फीरोज दलाल ने पूना विश्वविद्यालय में प्रेषित अपनी शोध पत्र में किया है (1972)। टैसीटोरी ने बीकानेर राज्य के उत्तरी भाग में पुरातात्विक खोज में सरस्वती के नदीतल के किनारे अनेक ठेरों की पहचान की। लेकिन आगे कुछ काम करने से पहले उनकी मृत्यु हो गई। पर पहली वास्तविक खोज सर औरेल स्टाइन ने की। अस्सी वर्ष की आयु में, जब उनकी दृष्टि काफी क्षीण हो चुकी थी इस अनोखे पुरातत्ववेत्ता ने 1940-41 में सरस्वती के किनारे-किनारे राजस्थान और बहावलपुर (अब पाकिस्तान में) में यह खोज कार्य किया। उसका कुछ वर्णन उन्होंने ‘ज्यॉग्राफिकल जर्नल’ 99 (1942) में किया। उनकी डायरी में उनकी खोज का विवरण विस्तार से मिलता है पर दुर्भाग्यवश यह सामग्री प्रकाशित नहीं हुई। दलाल ने उसका उपयोग अपनी थीसिस में किया है।
अमलानंद घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया ( 1952-53)। इन खोजों ने इस परंपरागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा/घग्गर के सूखे नदीतल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के ह्रास का मुख्य कारण सतलुज की धार बदलना था। इससे वह सरस्वती में न मिलकर सिंधु नदी में मिलने लगी। यमुना के धार बदलने को (पश्चिम में न बहकर पूर्व में गंगा से मिलना) उन्होंने इसका एक और कारण बताया।
कुछ समय बाद एक जर्मन विद्वान ने भी इस समस्या का गहन अध्ययन किया जिसके निष्कर्ष एक विद्वत पत्रिका ‘जेड जियोमोरर्फोलोजी’ में 1969 एक विस्तृत लेख में प्रकाशित हुए। भूविज्ञान शास्त्रियों के अनुसार हर्बट विलहेमी का यह अध्ययन सरस्वती नदी और उसके विकास के विभिन्न चरणों का सबसे अच्छा विवरण है। 1892 से 1942 तक के अध्ययनों का संदर्भ देते हुए उसका मुख्य निष्कर्ष है कि सिंधु नदी के उस भाग से जो उत्तर-दक्षिण बहता है 40-110 किलोमीटर पूर्व में एक बहुत पुराना सूखा नदीतल वास्तव में सरस्वती की ही नदीतली है।
पाकिस्तान में भी इस संबंध में बहुत खोज और अध्ययन किया गया है। बहावलपुर के रेगिस्तानी क्षेत्र, चोलिस्तान में जहां हाकड़ा का लगभग तीन सौ मील लंबा नदीतल है वहां पाकिस्तान के अग्रणी पुरातत्ववेत्ता रफीक मुगल ने 414 पुरातात्विक स्थलों की पहचान की है। इनमें 99 ईसापूर्व चौथी सहस्त्राब्दी (मिलेनियम), 214 तीसरी और 50 दूसरी की मानी गई है। (अमलानंद घोष ने इसके समीपवर्ती क्षेत्र बीकानेर के उत्तर में एक छोटे से हिस्से में 100 और ऐसे स्थलों की पहचान की थी)। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पूरी सिंधु नदी पर ऐसे केवल लगभग 36 स्थल चिह्नित किए गए हैं। हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ब्रायंट ने इसी आधार पर कहा है कि हाकड़ा चौथी और तीसरी सहस्त्राब्दी में अपने पूरे वैभव पर थी।
आधुनिक वैज्ञानिक शोध को सरस्वती और उसके नदीतल से संबंधित अब तक की प्राप्त सामग्री का अनुभवजन्य पराभूविज्ञान से साम्य स्थापित करने में अद्भुत सफलता मिली है। उसका पूरा विवरण और हर शोध के निष्कर्ष अलग-अलग देना यहां संभव नहीं है। केवल महत्वपूर्ण बातें दी जा रही हैं। सबसे पहले सरस्वती के हिमालय से उद्भव का प्रश्न लेते हैं। कुछ वर्ष पहले (1998) दो भूगर्भ वैज्ञानिकों, वीएमके पुरी और बीसी वर्मा ने इस विषय पर भरी-पूरी उच्चकोटि की वैज्ञानिक सामग्री देते हुए एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया है।
यमुना और मारकंडा नदियों के बीच के पर्वतीय क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण पर आधारित वैज्ञानिक साक्ष्य का विवेचन करते हुए वैज्ञानिक-द्वय के, यदि सीधी-सादी भाषा में कहें, यह निष्कर्ष है कि वैदिक सरस्वती का उद्गम सरस्वती, जामादार और सुपिन हिमनदों से, जो नैतवार के निकट आपस में मिलते हैं, हुआ था। (इसका उन्होंने एक बहुत स्पष्ट वैज्ञानिक चित्र भी प्रस्तुत किया है)। सरस्वती पहले दक्षिण-पश्चिम और फिर पश्चिमी दिशा में बहते हुए अध बद्री पर शिवालिक को तोड़ते हुए मैदानों में उतरती थी (इसका भी पूरा चित्र शोध-पत्र में दिया गया है), स्मरण कीजिए, ऋग्वेद की ऋचा ‘इयं शुष्मेंमिर्षिसुखाई वारू जत्सातुं गिरिणा तंविषेभिरुर्मिभिः’- (यह कमलनाल खोदने वालों को भग्न करती/पर्वतों के शिखर को अपनी बलवान तरंगों से)।
अमेरिका की ‘नेशनल ज्यॉग्राफिक सोसायटी’ के ‘ज्योग्राफिक इन्फॉरमेशन सिस्टम’ और रिमोट सेंसिंग यूनिट ने सैटेलाइट इमेजिंग द्वारा ऋग्वेद में दिए गए सरस्वती के विवरण की पुष्टि की है। यूरोप की रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स की रडार इमेजरी से जो जानकारी मिली है (1995), उससे स्पष्ट है कि सिंधु और सरस्वती दो अलग-अलग नदियां थीं जिनमें आपस में कोई संबंध नहीं था। अंबाला के दक्षिण में तीन सूखे पुराजलमार्ग जो पश्चिम की ओर मुड़ते दिखाई पड़ते हैं वे निश्चय ही सरस्वती/घग्गर और दृशाद्वती की सहायक धाराओं के थे।
अमेरिका की रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने भारतीय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट के माध्यम से जो चित्र प्राप्त किए हैं, उनमें भी सरस्वती का नदीतल स्पष्ट है इसके शोध से प्राप्त चित्रों की समीक्षा से यह पता लगा कि जैसलमेर क्षेत्र में समीक्षा से यह पता लगा कि जैसलमेर क्षेत्र में भूजल विद्यमान है। जहां सरस्वती नदी बहती थी वहां (चंदनलाठी) कुएं ‘बोर’ कराए गए। शोधकर्ताओं ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि बड़ी मात्रा में पानी उपलब्ध है और वह भी मीठा इसके आधार वहां दो दर्जन से अधिक कुएं खुदवाए गए। हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग ने भी ज्योतिसर और बीबीपुर के बीच साढ़े तीन किलोमीटर में इसी प्रकार सिंचाई के लिए पानी प्राप्त किया है।
दो वर्ष पहले उस सरकार ने ओएनजीसी और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय को एक योजना के लिए सरस्वती के नदीतल से पानी प्राप्त करने के लिए 10.05 करोड़ रुपए स्वीकृत किए थे। अपने देश के वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संस्थान भी इस विषय के अध्ययन शोध में बहुत सक्रिय हैं। इस संबंध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर प्रोफेसर यशपाल का कार्य (1984) बहुत महत्वपूर्ण है। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने ‘1980 में सरस्वती नदी के अस्तित्व पर एक छोटा शोध-प्रपत्र प्रकाशित किया था जिसकी ओर ध्यान आकृष्ट हुआ था।’ यशपाल ने भारतीय अंतरिक्ष शोध संस्थान (इसरो) के तत्वावधान में यह कार्य किया था। जिसने इस विषय के शोध में आधारभूत भूमिका निभाई है। यशपाल ने कहा भी है, ‘अब तक कि खोज ने सरस्वती के पथ को, जब वह बहती थी, पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है।’
यशपाल और उनके सहयोगियों का शोध कार्य लैंडसेट इमेजरी के आधार पर किया गया था। इन वैज्ञानिकों ने सरस्वती-घग्गर का इनकी सहायक नदियों शुतुद्री (सतलुज) और दृशाद्वती के प्राचीन नदीतट पर धाराप्रवाह का एक एकीकृत चित्र भी प्रस्तुत किया है। इनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि सतलुज घग्गर की मुख्य सहायक नदी थी। शतराना (पंजाब) से मरोट (पाकिस्तान) तक घग्गर के प्राचीन नदी तट की चौड़ाई लगातार छह से आठ किलोमीटर है। एक अन्य वैज्ञानिक बलदेव सहाय ने यशपाल के कार्य को आधार बनाते हुए आगे बढ़ाया है जिससे यशपाल के निष्कर्षों की पुष्टि और सुदृढ़ होती है।
भारतीय अंतरिक्ष शोध सम्मान इस कार्यक्रम से जुड़ा हुआ है। केवल यही नहीं, देश का सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान-भाभा परमाणु शोध संस्थान भी इस क्षेत्र में सक्रिय है। भौतिकी शोध संस्थान अहमदाबाद (जो कि भारतीय अंतरिक्ष शोध संस्थान का विभाग है) और राजस्थान भूजल विभाग से मिलकर भाभा संस्थान 1998 से सरस्वती के ‘अस्तित्व और संभावित स्थिति’ की पहचान निर्धारित करने के कार्य में संलग्न है और इन्हें इसमें अच्छी सफलता मिली है। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से रुक्ष क्षेत्रों का केंद्रीय शोध संस्थान, जोधपुर (काजरी) भी इस शोध से संलग्न है। केंद्रीय भूजल प्राधिकरण की सहभागिता भी ऐसे कार्यक्रमों को प्राप्त है।
ज्यॉलोजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया ने पिछली सदी के 90 के दशक में ‘वैदिक सरस्वती’ पर एक वृहद विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। बड़ौदा विश्वविद्यालय, तेल व प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) भारत सरकार के अंतरिक्ष विभाग व विज्ञान व तकनीकी विभाग, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली ने इसमें पूरी सहभागिता निभाई थी। सोसायटी का 1999 में प्रकाशित संस्मरण 42’ में 328 पृष्ठों में इस विचारगोष्ठी में पढ़े गए शोध प्रपत्र व विचार-विनिमय का सार संकलित है।
प्रख्यात वैज्ञानिक पत्रिका ‘साइंस’ के 1 अप्रैल 2011 के अंक में (ग्रंथ 332) इस प्रश्न को फिर उठाया गया है। अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की सांता फे में 21-25 मार्च 2011 की एक बैठक में ‘जलवायु, विगत भूदृश्य और संस्कृतियां’ पर एक विचार गोष्ठी हुई थी। इस पत्रिका में एंड्रयू लॉलर ने इस पर एक बहुत संक्षिप्त रिपोर्ट दी है, जिसमें कहा गया है कि इस विचार गोष्ठी में तीन वैज्ञानिकों ने इस विचार का बड़ा प्रारंभिक साक्ष्य दिया कि हाकड़ा-घग्गर बड़ी साधारण सी मौसमी लघु सरिताएं (स्ट्रीम) थीं। हालांकि अभी और साक्ष्य की आवश्यकता है पर यह लगता है कि वहां कोई बड़ी नदी नहीं थी। यह वैज्ञानिक हैं- इंपोरियल कॉलेज लंदन के संजीव गुप्ता, न्यूयार्क यूनिवर्सिटी की रीता राइट और और एबरडीन यूनिवर्सिटी (यूके) के पीटर किल्फट।
इस तीन पैरा की रिपोर्ट में अभी गंभीर साक्ष्य नहीं प्रस्तुत किया गया है। पीटर किल्फट ने स्वयं कुछ संदेह भी व्यक्त किया है लेकिन इसी अंक में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के पूर्वउपकुलपति प्रोफेसर वाल्दिया ने, जो आजकल नेहरा उच्च वैज्ञानिक शोध केंद्र, बंगलूरू में कार्यरत हैं, (पहले जियोलोजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया के एक विचार गोष्ठी का उल्लेख है, प्रोफेसर वाल्दिया उसके सह-अध्यक्ष थे) का सांता फे में व्यक्त विचारों का भरे-पूरे वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ दिए गए उत्तर को भी प्रकाशित किया है। ठोस साक्ष्य उपलब्ध होने पर ही आगे कुछ चर्चा संभव होगी।
पर लगभग सवा सौ वर्ष की खोज, शोध और अध्ययन से सरस्वती नदी के अस्तित्व के प्रश्न पर संदेह के बादल अवश्य छंट गए हैं। पूरे साक्ष्य के आधार पर हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायंट, जिनका आर्यों से संबंधित गहन अध्ययन अत्यंत निष्पक्ष माना जाता है, ने कहा है, (2011) कि “यह तो साफ मालूम होता है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे जबकि वह एक विशाल नदी थी और उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध नहीं था कि वे कहीं बाहर से आए हैं.... कम से कम यह एक ऐसा संदर्भ है कि ‘जहां शब्द प्रमाण’ (जो रचित ग्रंथों में कहा गया है) की कुछ पुष्टि प्रत्यक्ष प्रमाण-अनुभव सिद्ध प्रमाण-से होती है।”
आलेख के आरंभ में कहा जा चुका है कि 6 दिसंबर 2004 को केंद्र सरकार ने सरस्वती के अस्तित्व को मानने से मना कर दिया था। सरकार का यह दृष्टिकोण तब तक रहा जब तक वह अपने अस्तित्व के लिए वामपंथी दलों पर आश्रित थी। सरकार ही नहीं, एक दो वरिष्ठ नेता भी इस बात से दुखी थे कि कई सरकारी संस्थान इस नदी की खोज-शोध में लिप्त थे।
मंत्री के वक्तव्य के लगभग दो वर्ष बाद (2006) परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालयों की संसदीय स्थायी समिति ने भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की इस बाद के लिए निंदा भी की। उस समय उस समिति के अध्यक्ष सीताराम येचुरी थे। समिति ने कहा- ‘भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण अपने कार्यकलाप में भटक गया है और यह पुरातत्व में वैज्ञानिक अनुशासन बढ़ाने में नेतृत्व करने में असफल रहा है। इस मामले में भा.पु.स. जो कि एक वैज्ञानिक संस्थान है, ने अपना कार्य सही ढंग से नहीं किया।’
सरकारी गठबंधन से वाम दलों के हटने के बाद सरकार ने 3 दिसंबर 2009 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरस्वती नदी के अस्तित्व को ‘बिना किसी संदेह के’ स्वीकार किया। उत्तर में यह भी कहा गया कि खोज में पाए गए भूजल मार्गों का विवरण और विशालता वैदिक ग्रंथों में वर्णित सरस्वती से मेल खाते हैं।
इस प्रकार का परिवर्तन हमारे इतिहास के अध्ययन के एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष को प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों की समीक्षा राजनीतिक विचारधारा के आधार पर करने से ऐसी अनेक भ्रामक स्थितियां उत्पन्न होती हैं। इसके प्रति कैंब्रिज विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर दिलीप चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक ‘द बैटिल फॉर एंशियंट इंडिया’ (2008) में चिंता व्यक्त की है और यह स्पष्ट कहा है कि भारत में यह प्रवृत्ति इधर काफी बढ़ गई है। पर यह अपने में एक अलग विषय है।