कालांतर में आए भूकंपों के चलते यमुना नदी गंगा की ओर खिसक गई, सतलुज सिंधु की तरफ। सरस्वती को हिमनदों का पानी मिलना बंद हुआ तो ये राजस्थान में आकर सूख गई। भारत के भूमिगत जल प्राधिकरण अध्यक्ष डॉ. डी.के. चड्ढा ने राजस्थान के जैसलमेर के पास 1999 में आठ स्थानों पर संपन्न हुए विस्तृत उपग्रहीय और भौतिकीय सर्वेक्षणों से निष्कर्ष निकाला कि भूमि में 30 से 60 मीटर नीचे सरस्वती की पुरातन जलधाराएं विद्यमान हैं।
हिसार। हरियाणा स्थित आदि बद्री, सरस्वती का उद्गम स्थल है, वेदों की रचनास्थली होने के साथ-साथ यह महाभारत का भी साक्षी रहा है। सरस्वती नदी, जो कालांतर में अलोप हो गई, के आज भी भूमिगत बहने के ताजा प्रमाण व सेटेलाइट चित्र मिले हैं। हरियाणा में यमुनानगर से करीब 40 किलोमीटर उत्तर में स्थित आदिबद्री वह स्थान जिसे सरस्वती नदी का उद्गम स्थल माना जाता है। वैदिक सरस्वती मार्ग का पता चलने के बाद सेटेलाइट से मिले चित्रों और साइंसदानों की ताजातरीन खोजों ने सरस्वती को भूमि से बाहर निकालने की संभावनाओं को बल दिया है। ये बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब हरियाणा के वित्तमंत्री कैप्टन अजय सिंह यादव यह जानकारी देते हैं कि हरियाणा सरकार सरस्वती को पुन: धरती पर लाने के लिए 10.05 करोड़ का प्रोजेक्ट तैयार कर चुकी है। इसमें से 3.75 करोड़ रुपए खर्च करके 20 एकड़ भूमि अधिगृहित की जा चुकी है।
पहले चरण में कुरुक्षेत्र में पिपली से ज्योतिसर तक 16 किलोमीटर चैनल तैयार किया जा रहा है। ऊचा चांदना से नरकातरी तक 52 किलोमीटर लंबी नहर निकालकर इसके जरिए भूगत सरस्वती का 200 क्यूसिक जल निकाला जाएगा। वास्तव में यह आशा तब जगी जब ओएनजीसी ने कलायत के पास गहराई से पानी निकालते समय महसूस किया कि यह वही जल है जिसका वर्णन पौराणिक कथाओं में होता है। पिछले दिनों सांसद प्रकाश केशव जावेदकर के प्रश्न के जवाब में केंद्रीय जल संसाधन राज्य मंत्री विंसेंट एच पाला ने संसद को बताया कि बताया कि वैज्ञानिक खोज बताती है कि सरास्वती आज भी भूमिगत बह रही है। उन्होंने कहा कि रीजनल रिमोट सेंसिंग सर्विस सेंटर, इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन, ग्राऊंड वाटर डिपार्टमेंट के वैज्ञानिकों ने मिलकर जो अध्ययन किया उसका सार यह है कि सेटेलाइट चित्रों में प्राचीन जल स्रोतों के होने और व्यापक स्तर पर जल निकासी के चिन्ह मिलने, उत्तर पूर्व क्षेत्र में पूर्व हड़प्पा काल, हड़प्पा काल और उत्तर हड़प्पा काल के पुरातत्वावशेष स्थलों के मिलने से बिना शक ये कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में वैदिक काल की सरस्वती के जल स्रोत व्यापक मात्रा में मौजूद हैं।
सेटेलाइट चित्रों से पता चला सरस्वती नदी जो पूर्व में सिंधु दरिया के समानांतर बहती थी ने कालांतर में अपना मार्ग बदल लिया। इसके प्रकटस्थल और प्राचीन धारा के सेटेलाइट पर उपलब्ध डाटा से पुरातात्विक खोज से मेल खाने के मुख्य कारण हैं इसकी भूजल गुणवत्ता और आयु। अब ये स्थापित हो चुका है कि सरस्वती का मुख्य मार्ग मौजूदा घग्गर और उससे आगे जैसलमेर, पाकिस्तान से लगते क्षेत्र से होकर कच्छ के रन क्षेत्र से गुजरते हुए खंबात की खाड़ी की ओर बढ़ना था। कालांतर में आए भूकंपों के चलते यमुना नदी गंगा की ओर खिसक गई, सतलुज सिंधु की तरफ। सरस्वती को हिमनदों का पानी मिलना बंद हुआ तो ये राजस्थान में आकर सूख गई। भारत के भूमिगत जल प्राधिकरण अध्यक्ष डॉ. डी.के. चड्ढा ने राजस्थान के जैसलमेर के पास 1999 में आठ स्थानों पर संपन्न हुए विस्तृत उपग्रहीय और भौतिकीय सर्वेक्षणों से निष्कर्ष निकाला कि भूमि में 30 से 60 मीटर नीचे सरस्वती की पुरातन जलधाराएं विद्यमान हैं। राजस्थान-हरियाणा सीमा से मिले बर्तनों मूर्तियों तथा बौध पूजा स्थलों का रेडियो कार्बन डेटिंग तथा थर्मोल्यूमिनस अध्ययन बताता है कि करीब 3000 वर्ष पूर्व यहां सभ्य मानव निवास करता था।
सरस्वती शोध संस्थान जगाधरी,1999 में इतिहासकार डॉ. वी.एस. वाकंकर ने आदिबद्री से गुजरात तक का सर्वे करने के बाद स्थापित किया था। मौजूदा अध्यक्ष दर्शन लाल जैन बताते हैं कि भूगर्भीय, उपग्रहीय, व जल सर्वेक्षण ही सरस्वती मार्ग तलाशने का आधार है, नदीतटों से मिले पुरातात्विक अवशेष इस आधार को और पुख्ता करते हैं। लोगों की धारणा है कि वेद यहीं रचे गए। पहले जैसलमेर में 550 मीटर गहरे कुंए खोदे तो बात केवल जल प्राप्ति की थी, नए प्रोजेक्ट से हम सरस्वती मार्ग से भी जुड़ेंगे। - चीफ नॉलेज आफिसर, ओएनजीसी
लक्ष्य बिंदरा कुछ साल पहले घूमते हुए आदिबद्री की तरफ गए तो उन्होंने देखा कि पानी से भूमि कटाव में प्राचीन बर्तन निकल रहे हैं। खोजी प्रवृति के बिंदरा को लगा कि यहां कोई प्राचीन सभ्यता भूमिगत है। उन्होंने आर्कियोलॉजीकल विभाग से संपर्क करने पर एक टीम ने इस क्षेत्र का दौरा किया। तीन जगह पर खुदाई में जो अवशेष मिले उनसे ये सिद्ध हो गया कि ये एक बौध विहार है जो संभवत: किसी बड़ी नदी के किनारे हुआ करते थे। पुरातत्व विभाग ने इन तीनों को एबीआर एक, दो और तीन का नाम दिया है। अभी और खुदाई की संभावना है।
इस पहाड़ी पत्थर में सोना भी है
आदि बद्री मंदिर के पास बहती सोम्ब नदी का कुछ क्षेत्र ऐसा है जहां जानकार लोग सोना निकालते हैं। नदी के पानी में कंकर रुप में बहकर आने वाला सोना इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र में कहीं सोने का भंडार है। ये महज धारणा ही नहीं बल्कि साइंटिफिक ढंग से भी सिद्ध हो चुका है। रेत कणों के रुप में मिलने वाले सोने की मात्रा भले ही कम है लेकिन पुरातत्वविद इसे प्राचीनकाल की समृद्धि का प्रतीक मानते हैं। शायद यही कारण है कि आदिकाल से जुड़ी आ रही मान्यताओं के चलते आज भी लोग यहां नदी की पूजा करके मन्नत मांगते हैं।
अष्ट वसुधारा:
नदी के पश्चिमी किनारे स्थित पहाड़ी पर पानी के सात अलग-अलग स्रोत हैं। इन सभी का तापमान भी भिन्न है और स्वाद भी। लैब टेस्ट में पता चला है कि इनमें गंधक, मैग्नीशियम, अभ्रक तांबा, शिलाजीत, स्वर्ण जैसी धातुएं मिश्रित हैं, ये पित्ते की पत्थरी के इलाज के लिए बहुत कारगर है। फिर भी पानी की धाराओं के अलग-अलग स्वाद व तापमान का कारण क्या है, ये राज भी गहराई में छिपा है।
क्या कहते हैं साइंसदान
जैसलमेर में जो पानी मिला वह पीने के लायक है, तब बात सरस्वती जल मार्ग तलाशने की थी ही नहीं, ये तो बाद में पता चला, अब नया प्रोजेक्ट पाकिस्तान-राजस्थान सीमा पर मुन्ना बाओ में शुरू करने जा रहे हैं, इससे सरस्वती तलाशने में सहायता मिलने की प्रबल संभावना है। सेटेलाइट चित्रों से अभी सर्फेस ही देखा है, डीप ड्रिलिंग करेंगे तो कुछ और परिणाम होंगे, हम ऐसी आशा करते हैं- एम.आर.राव, चीफ नॉलेज ऑफिसर ऑयल एंड नेचुरल गैस कमीशन रेत के कण, शुद्ध पानी, पुरातात्विक प्रमाण और डीप अर्थ ड्रिलिंग के नमूनों से हम सिद्ध कर चुके हैं कि वैदिक काल में जो सरस्वती नदी बहा करती थी वह राजस्थान में आकर अलोप हो गई। सेटेलाइट के चित्रों की वास्तविकता को हमने साइंटिफिक ढंग से सही पाया है। अब ये मार्ग इतनी गहराई में बसा है कि इसके भूमिगत जल के केवल नमूने ही लिए जा सकते हैं। हमने ऑक्सीजन आइसोटॉप डेटिंग के जरिए पाया कि यहां नदी बहने का काल हड़प्पा कालीन सभ्यता के काल से मिलता है। सभी सबूत सिद्ध करते हैं कि यहां कभी बड़ी नदी बहती थी। - डॉ. बी.के.भद्रा, सीनियर साइंटिस्ट, रीजनल रीमोट सेंसिंग सेंटर, जोधपुर
सरस्वती नदी यहीं बहती थी ये तो स्थापित हो गया है लेकिन यह फिर कैसे बाहर आ सकेगी, या कभी आऐगी भी, ये इस बात पर निर्भर करता है कि फिर से वैसी ही टेक्टोनिक मूवमेंट हो जैसी सरस्वती के अलोप होने के समय हुई थी। टेक्टोनिक अर्थात अंत:कृत बॉयोलॉजिकल घटना में होता यह है कि नदी किसी कारण अपना मार्ग बदल लेती है और किसी स्थान विशेष पर लुप्त हो जाती है।