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जनसत्ता (रविवारी), 22 जून 2014
तंग गलियों में प्रतिदिन कई मन कूड़ों के ढेर की मौजूदगी। सफाई कर्मियों को गाहे-बगाहे की नालियों को साफ करते देखा जा सकता है लेकिन नासरीन जैसी महिलाओं को यह नाकाफी लगता है। कहती हैं कि अगर गंगा मइया की सफाई और शुद्धिकरण के साथ-साथ प्रधानमंत्री की नजर हमारी गलियों पर भी पड़ती तो बनारस की सुंदरता को चार चांद लग जाता।
दुनिया भर में बनारस की पहचान रही है। यहां की धार्मिक संस्कृति और साड़ियों की कारीगरी हमेशा से देश और दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। मंदिरों, गलियों और बुनकरों की इस नगरी को करीब से देखने और समझने का अवसर कम ही लोगों को नसीब होता है।कई बार ऐसा भी होता है कि करीब के लोग, यहां तक कि बनारस में रहते हुए बहुत से लोग सुबह-ए-बनारस और परंपरागत साड़ियों पर की जाने वाली बुनकरों की कारीगरी को देखने, समझने और महसूस करने से महरूम रह जाते हैं। ऐसे समय में अगर चुनावी नफा-नुकसान से अलग बनारस को नए प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के तौर पर देखा जाए तो यहां के लोगों में बेहतरी की नई उम्मीदें जरूर नजर आती हैं।
बनारस के लोग जिन समस्याओं से दो-चार रहे हैं, उनमें बिजली की कमी सर्वप्रमुख है। मई-जून में पारा चढ़ता है और कटौती होती है तो बिजली की समस्या हर ज़ुबान की कहानी बन जाती है। ऐसे में अगर शासन की ओर से चौबीस घंटे बिजली आपूर्ति की बाबत कोई पहल की जा रही है तो उम्मीद की नई किरण का रोशन होना स्वाभाविक है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दो जून को बनारस में चौबीस घंटे बिजली की आपूर्ति का आदेश जारी किया है। बेशक इसे ‘मोदी-प्रभाव’ के रूप में देखा जाना चाहिए। क्योंकि बनारस अब विशिष्ट क्षेत्र बन चुका है। फिर भी धन्नीपुर के निसार अंसारी जैसे लोगों को लगता है कि चौबीस घंटे बिजली की आपूर्ति जैसी कोई भी घोषणा तब तक बेमानी हैं, जब तक कि खंभों और तारों की स्थिति ठीक नहीं हो जाती है।
दालमंडी में इलेक्ट्रॉनिक्स के दुकानदार फहीम की बातों पर यकीन करें तो चौबीस घंटे अबाध बिजली की आपूर्ति कम से कम आज की तारीख में मुमकिन नहीं है। फहीम बताते हैं कि जर्जर हो चुके बिजली के तारों और ट्रांसफार्मर के सहारे इस काम को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता।
अगर ऐसी कोशिश होती भी है पहले ही जर्जर हो चुके ट्रांसफार्मर अपनी क्षमता से अधिक भार नहीं झेल सकते। तारों के टूटने और ट्रांसफार्मर के जलने की घटनाएं बढ़ेंगी। बनारस जैसे तंग और घने शहर में इतनी बड़ी संख्या में ट्रांसफार्मर बदलना या मरम्मत करना बिजली विभाग के लिए मुश्किल काम है। जाहिर है चौबीस घंटे बिजली की आपूर्ति तब तक मुमकिन नहीं, जब तक खंभों पर उलझन की तरह उलझे हुए तार को बदले नहीं जाते।अब बनारस की पहचान कबीर और ताना-बाना से कम, बल्कि गंगा और मोदी से अधिक होने लगी है। इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान वाले फहीम, लक्ष्मन और इस्माइल जैसे रिक्शा चालकों के अलावा इश्तियाक अंसारी जैसे कारीगरों को कभी कबीर के बारे में पढ़ने-सुनने का अवसर नहीं मिला, लेकिन हालिया चुनाव से पहले की मोदी की लहर को इन जैसों ने खूब महसूस किया।
अब तो हवा का रुख भी इधर का ही हो चुका है। मोदीजी प्रधानमंत्री बन चुके हैं और गंगा मइया को दुरुस्त रखने, इसे पर्यटन और यातायात माध्यम के रूप में विकसित करने और इसके पानी से बिजली बनाने वगैरह की कवायद शुरू हो चुकी है। ऐसे में अगर चुनाव के दौरान मोदी विरोधी रहे बहुत से बनारसियों का अकीदा चुनाव बाद मोदीमय होने लगा है, तो इसमें चौंकने की बात नहीं है।
इश्तियाक अंसारी जैसे नौजवानों पर नए प्रधानमंत्री के कामकाज की शैली का असर जरूर देखा जा सकता है। उनके मुताबिक अगर बिजली की आपूर्ति चौबीस घंटे होने लगे तो यहां के बुनकर महिला-पुरुष और बच्चों को लगातार कई-कई रात जागकर साड़ियों का ताना-बाना ठीक करने में अपनी नींद नहीं गंवानी पड़ेगी। औसत काम दिन में ही पूरा हो जाया करेगा। बिजली की अनियमित आपूर्ति से बुनकर परिवारों की स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ उनकी आजीविका का परंपरागत विकल्प भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
बुनकर बस्तियों का हाल यह है कि जैसे ही बिजली आती है, ये बस्तियां गूलजार हो उठती हैं। जैसे जिंदगी पटरी पर दौड़ने लगती है। दूसरी ओर बिजली कटते ही इन मोहल्लों में मातमी सन्नाटा छा जाता है। पेशे से अध्यापिका नासरीन बताती हैं कि तंग गलियों से प्रतिदिन होकर गुजरना, कॉलेज पहुंचना छात्र जीवन में हर दिन नई चुनौती हुआ करती थी।
जब चुनौतियों का सामना करने का हौसला किया तो जिंदगी में नए रंगों और उमंगों के दिन आए। बेशक नासरीन की जिंदगी में अच्छे दिनों की शुरुआत करीब दस बरस पहले हो चुकी थी। लेकिन जो नहीं बदला, वह तंग गलियों में प्रतिदिन कई मन कूड़ों के ढेर की मौजूदगी। सफाई कर्मियों को गाहे-बगाहे की नालियों को साफ करते देखा जा सकता है लेकिन नासरीन जैसी महिलाओं को यह नाकाफी लगता है। कहती हैं कि अगर गंगा मइया की सफाई और शुद्धिकरण के साथ-साथ प्रधानमंत्री की नजर हमारी गलियों पर भी पड़ती तो बनारस की सुंदरता को चार चांद लग जाता।
नासरीन को मालूम है कि गलियां स्थानीय निकायों का विषय है। इसीलिए वे इन निकायों में भी मोदी-प्रभाव देखना चाहती हैं। ताकि नदी और जल प्रबंधन की तरह गलियों के लिए कोई ठोस और प्रभावी गार्बेज मैनेजमेंट का उपाय ढूंढा जा सके।कहना नहीं होगा कि बुनकरों की जिंदगी न सिर्फ काम के बोझ तले दबी हुई है बल्कि ध्वनि और वायु प्रदूषण ने इनके स्वास्थ्य को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से इनकी वंचना की कहानी किसी से छिपी नहीं है।
समय पर उचित इलाज की सुविधा न मिल पाने की वजह से बहुत से बुनकरों को तो बेवक्त ही मौत का शिकार होना पड़ता है। दस्तकार फोटो पहचान पत्र और बुनकर स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी सुविधा भी इनकी जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं ला सके हैं।बनारस जितना बड़ा शहर है, यहां कि गलियां उतनी ही तंग है। गर्मी और हवा के गरमा-गरम थपेड़ों को झेलते-झेलते शाम के सात बज चुके होते हैं। बीएचयू से कैंट के लिए ऑटो में सवार हुआ तो सारथी के रूप में ज्ञानचंद्र सोनकर से मुलाकात हुई।
दुर्गाकुंड पर उन्होंने जिस वृद्ध व्यक्ति को ऑटो से उतारा, उससे किराए के पैसे नहीं लिए। पूछने पर बताया कि वे बूढ़े व्यक्तियों और पढ़ने वाले बच्चों से किराए के पैसे नहीं लेते। क्षण भर के लिए ऐसा लगा कि समाजशास्त्र और सामाजिक कार्य में बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेने के बाद भी जिन मानवीय गुणों और नागरिक जिम्मेदारियों का बोध नई पीढ़ी के बच्चों को नहीं हो पा रहा है, वह बोध मूल्य के रूप में ज्ञानचंद्र जैसे ऑटो चालकों के अंदर कूट-कूट कर भरा है।
बहरहाल, ज्ञानचंद्र की थकी हुई आंखें उनकी अधूरी रातों की पूरी कहानी बयान कर रही होती हैं। उनके घर तक बिजली की पहुंच जरूर है, लेकिन बिजली उनके घर पहुंचती रात में एक बचे के बाद है। दिन भर ऑटों चलाने के बाद जब घर पहुंचते हैं, तो वह रात एक बजे तक बिजली का इंतजार करते हैं। उन जैसा ऑटो चालक इस बात से बेखबर हैं कि बिजली का होना स्वास्थ्य और आजीविका के लिए क्या मायने रखती है। बनारस में ऐसे ऑटो चालकों की संख्या कम नहीं जो ज्ञानचंद्र सोनकर की तरह पिछले बीस बरसों या इससे भी अधिक समय से ऑटो चलाकर अपने परिवार की आजीविका चला रहे हैं। लेकिन अब तक उनके पास अपना एक अदद ऑटो नहीं हो पाया है। ज्ञानचंद्र, मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने पर अच्छा महसूस कर रहे हैं। लेकिन इनके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि बीस साल के अथक परिश्रम के बाद भी इनके पास अपना खुद का ऑटो क्यों नहीं है?
यह कहना बेमानी नहीं कि उन जैसे बनारस के ऑटो चालकों के पास जब तक अपना ऑटो नहीं हो जाता, लक्ष्मन और मोहम्मद इस्माइल जैसे रिक्शा चालकों को मुनासिब मेहनताना नहीं मिलने लगता, फहीम जैसे दुकानदारों और बुनकर बस्तियों तक नियमित रूप से बिजली नहीं पहुंचने लगती, तब तक इनके जीवन में अच्छे दिनों की शुरुआत हो ही नहीं सकती है। बेशक गलियों की तंगी को दूर करना नामुमकिन है। लेकिन गंगा सफाई और घाटों की मरम्मत के साथ ही बनारस की गलियों के लिए विशेष सफाई प्रबंधन की योजना बनाई जा सकती है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बनारस में कामकाज की गति देखकर यहां के लोगं में नई अपेक्षाएं जन्मी हैं।
अवाम के जमात में वे भी शामिल हैं जो पहले से ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ की रट लगा रहे थे और वे लोग भी जो शपथ ग्रहण के बाद मोदी-प्रभाव में आए हैं, जिन्हें मालूम है कि मोदी संघ के समर्पित सिपाही हैं और राजनाथ सिंह के शब्दों में नई सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे के इर्द-गिर्द काम करेगी।
ऐसे लोगों में वरुणा नदी के दोनों तरफ विकास की एक समान तस्वीर देखने की अपेक्षा, बजरडीहा की गलियों की दुर्दशा ठीक करने की अपेक्षा, लोहता और धन्नीपुर जैसी ग्रामीण बस्तियों के ऊपर हाइटेंशन तारों के खतरों से जनता को महफूज रखने की अपेक्षा जगी है। इसके बावजूद कि इन लोगों को यह भी पता है कि मोदी के दामन पर 2002 के गुजरात दंगों के दाग हैं। इनका अकीदा है कि न्याय, अन्याय से और पुरस्कार, दंड से बेहतर होता है। जाम और भीड़ से जूझते शहर बनारस के लोगों की उम्मीदों पर मोदी को खरा उतरने का यह अच्छा समय है।
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