यह जो बनारस है

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जनसत्ता (रविवारी), 11 मई 2014
कहा जाता है कि बनारस अलबेला शहर है। भौतिक रूप से वह जितना संपन्न है, उससे कहीं ज्यादा सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से। पुराणों, मिथकों, किंवदंतियों में धड़कता यह शहर अब अपना चोला उतार और नया बाना धारण कर रहा है। यह परिवर्तन है या पथ-भटकन, प्रगति है या अवगति। इस बदलाव की दिशा क्या है, इसकी पड़ताल कर रहे हैं अभिषेक श्रीवास्तव।

तो यह जो शहर है बनारस; यह आज देश के राजनीतिक नक्शे पर सबसे ज्यादा चमक रहा है। एक चुनाव हो रहा है। यह इसे बदलने और न बदलने के बीच का है। फैसला यहां के लोगों को करना है। इसे न बदलने की बात करना राजनीतिक रूप से सही नहीं है, इसलिए मुख्यधारा का विमर्श और प्रतिविमर्श बनारस को बदलने पर ही केंद्रित है। एक समांतर विमर्श, जो कि इस शहर के ताने-बाने को बचा ले जाना चाहता है, वह भी दरअसल यहां की संरचना में बदलाव का ही हामी है। शहर का अर्थ अपनी मूल भाषा में चाहे जो होता हो, बनारस के लिए कभी भी यह शब्द उपयुक्त नहीं रहा है। जैसे डालडा ने घी का, कॉलगेट ने टूथपेस्ट का और सर्फ ने डिटर्जेंट का अर्थ एक समय में हिंदुस्तानी मध्यवर्ग के मानस में पैठा दिया था, बनारस कुछ वैसा ही आदिम पर्याय है एक शहर का। हालांकि, न तो वह कानपुर है, न कोलकाता और न ही इंदौर। बनारस, बनारस है। इसलिए वह एक शहर की कल्पना है।

ऐसे शहर की, जो बनारस जैसा होता है। यह कल्पना एक आदिम धारणा से उपजती है। वह धारणा सुनी-सुनाई, कभी-कभार देखी हुई और कभी पढ़ी हुई बातों की निर्मित है। यह धारणा ‘होमोजीनियस’ (समरूप) नहीं है, क्योंकि समान रूप से बनारस से बाहर और बनारस में रहने वालों, बनारस को जानने वालों और उसे अपना मानने वालों पर, यह लागू तो होती है, लेकिन सबके लिए बनारस का अर्थ अलग-अलग बना रहता है।

बनारस में रहने वाला खुद को बनारसी कह सकता है, कहता भी है, लेकिन बनारसीपन के तत्वों को जरूरी नहीं कि वह जाने, समझे या अपनाता हो। ऐसे ही, बनारस से बाहर रहने वाला व्यक्ति किसी भी बनारसी से कहीं ज्यादा बनारसी हो सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बनारस, एक शहर कभी नहीं रहा। उसे परिभाषित करने वाली कोई एक प्रवृत्ति नहीं है जिसमें उसके होने को एकांगी तरीके से समेटा जा सके। इसी वजह से बनारस किसी के लिए सत्य है, किसी के लिए मिथ्या, किसी के लिए भ्रम है तो किसी और के लिए महज एक शहर।

तो यह जो शहर है बनारस; यह आज देश के राजनीतिक नक्शे पर सबसे ज्यादा चमक रहा है। एक चुनाव हो रहा है। यह इसे बदलने और न बदलने के बीच का है। फैसला यहां के लोगों को करना है। इसे न बदलने की बात करना राजनीतिक रूप से सही नहीं है, इसलिए मुख्यधारा का विमर्श और प्रतिविमर्श बनारस को बदलने पर ही केंद्रित है। एक समांतर विमर्श, जो कि इस शहर के ताने-बाने को बचा ले जाना चाहता है, वह भी दरअसल यहां की संरचना में बदलाव का ही हामी है। लेकिन बुनियादी सवाल है कि जिस बनारस को बचा ले जाने की बातें हो रही हैं, क्या वह वास्तव में नहीं बदला है बीते दिनों में और अगर बदला है तो किसी रूप में?

यह जो शहर है बनारस, उसके शहर बनने की कहानी, इस देश के अन्य हिस्सों के शहर बनने की कहानी से कोई अलहदा नहीं है। यह बदला है। इसे शहर बनते महज ढाई दशक हुए हैं, उतना ही वक्त जितनी इसके नाते-रिश्तेदारों के शहरीकरण की उम्र कही जा सकती है। देश संकट में फंसा था, विदेशी दानदाता बांहें फैलाए खड़े थे कि कैसे कर्ज के उपकार से इस देश को शहरों के मरघट में तब्दील किया जा सके और ऐन उसी वक्त 1989 में बनारस में पहला ‘आधुनिक’ दंगा हुआ।

कोई नहीं जानता था कि तीन साल बाद क्या होने वाली है, लेकिन बनारस की फिजा में बदलाव को सूंघा जा सकता था। अचानक यहां के प्रवेश द्वार कैंट स्टेशन के बाहर गाजीपुर, मऊ, बलिया, गोरखपुर आदि की बसों के इकलौते खुले बस अड्डे पर बस मालिकों के बीच एक गोली चली और चुपके से बनारस में ‘शहर’ में प्रवेश कर गया। जब शहर कहीं आता है, तो पहले से मौजूद चीजें अपनी जगह बदलने लगती हैं। 1990 की गर्मियों में हुई इस घटना का असर आज भी बमुश्किल एक किलोमीटर दूर अंधरा के पुल पर देखा जा सकता है, जहां बसों के पहियों के निशान कभी कैंट के बाहर जमा पांच-पांच फुट कीचड़ में मचलती तूफान मेलों की याद दिलाते हैं।

कैंट स्टेशन के बाहर से बसों के हटने को अगर हम बनारस के बदलने की पहली निशानदेही मानें तो कहानी आगे बढ़ सकती है। अब, जबकि शहर से गांव तक ले जाने वाली बसें शहर की चौहद्दी पर खड़ी होना शुरू हुईं तो गांव से शहर तक लोगों को लाने वाली नई मिनी-बसों की एक खेप अचानक पैदा हुई, जिसे यहां ‘महानगरी’ कहा गया। इसी दौरान शहर में ‘बिक्रम’ आया, जो कुछ कम दूरियों को पाटता था लेकिन कहीं ज्यादा धुआं फैलाता था।

.बात 1991 के आसपास की है, जब चौबेपुर, धौरहरा, जंसां, जगतपुर, पड़ाव, बरथरा, बलुआघाट जैसी सुदूर इंसानी बस्तियों से लोगों के बनारस आने का एक सिलसिला शुरू हुआ। यह सैलाब अमूमन कैंट से सीधे लंका की तरफ बढ़ता जाता था। सबसे करीब काशी विद्यापीठ और सबसे दूर ‘बीएचयू’, जिसे आज भी पूर्वांचल की अधिकतर आबादी अस्पताल के तौर पर ही पहचानती है। कोई पढ़ने, कोई इलाज करवाने और कोई सिनेमा देखने आता।

दक्षिण की ओर नौ किलोमीटर लंबी यह पट्टी बनारस में शहर का स्वागत करने के लिए सबसे मुफीद थी क्योंकि इसी रास्ते में चंदुआ की सट्टी के बाद शुरू होने वाला इलाका सिंधियों, मारवाड़ियों, गुजरातियों, छिपपुट ईसाइयों, होटलों, चौड़ी सड़कों, नगरपालिका, धनकुबेरों की चरागाह था। सट्टी के बाद साजन सिनेमा, अशोक होटल, स्टेडियम, नटराज सिनेमा, रथयात्रा के अभिजात बाजार, विजया सिनेमा, साकेत कॉलोनी लगायत बीएचयू तक एक अलग दुनिया थी, जो खुद को बनारस का तो मानती ही, लेकिन जो बनारसी नही थी।

बनारस का सबसे पहला निजी बहुमंजिला अपार्टमेंट 1989 में सिगरा पर ही बनना शुरू हुआ था। यह संयोग नही है कि बनारस के शहर बनते जाने के इस सफर में सबसे पहला मॉल कुबेर कॉम्पलेक्स 1994 में रथयात्रा पर ही खुला और बनारस के अपने अपने अखबार ‘गांडीव’ ने लोकार्पण की खबर का शीर्षक लगाया, ‘काशी की संस्कृति को चरने आ गया कुबेर कॉम्पलेक्स’।

आज इसी कॉम्पलेक्स की पड़ोस में ‘सेवाश्रम’ नाम की शहर की सबसे महंगी सोसायटी बन गई है। ‘सेवाश्रम’ का बोर्ड ऐन उसी जगह पर लगा है जहां पहले होता था। अलबत्ता, इमारत खड़ी होने के बाद यहां से देश को बदलने की राजनीति चलाई जा रही है। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी का चुनाव प्रचार कार्यालय इसी इमारत में है, जिसके मालिक कांग्रेसी विरासत से संपन्न हैं।

समय बदला है, पीढ़ियां गुजर गईं और राजनीतिक विरासतों की पुरानी-धुरानी घड़ी के कांटों को पलट दिया गया। रथयात्रा चौराहे पर जहां एक पिंजरे में जगन्नाथ यात्रा वाला रथ खड़ा होता था, वहां एक शॉपिंग कॉम्पलेक्स है और रथ के सारथी काशी नरेश अभी जवान हुई पीढ़ी के परिचय के मोहताज हैं। गांडीव ने पला मॉल खुलने पर जो कुछ समझा था, वह समझ भी पुरानी पड़ चुकी है।

काशी की संस्कृति तब से अब तक कितनी चरी गई, इस पर ज्यादा ध्यान न भी दिया जाए तो एक बात साफ है कि जो कुछ भी जहां बदल रहा था, वह कम से कम बनारस नहीं था। न धारणा के स्तर पर, न कल्पना के। यह बनारस की चौहद्दी थी-डीएलडब्लू से कैंट, कैंट से बीएचयू और आशापुर तक वरुणापार। इन इलाकों को बनारस में कभी बाहरी अलंग के लिए इस्तेमाल किया जाता था। यहां लोग शौच के लिए आते थे, तांगे दौड़ाते थे और अपने क्षेत्र में लौट जाते थे।

यह पारंपरिक क्षेत्र संन्यास के बाहर का इलाका था। यह न तब काशी था, न अब है। बदलाव यहीं से चालू हुआ और भीतर घुसता चला गया। इसे इस तरह समझें कि गंगा के पाट के अर्द्धचंद्राकार किनारों पर करीब पचास फुट ऊपर तक बसा बनारस, वरुणा के इस पार चार समांतर सड़कों के बीच है। पहली, जीटी रोड जो कैंट से होकर गुजरती है। दूसरी, तेलियाबाग से मलदहिया होते हुए सिगरा से मिलने वाली रोड। तीसरी भेलपुरा से वाया गोला दीनानाथ दालमंडी को जोड़ने वाली और चौथी, गंगा के किनारे-किनारे लंका से मैदागिन तक जाने वाली रोड।

श्रद्धालुओं की प्रतीक्षा : बनारस में गंगा के एक घाट पर बंधी नावेंशुरूआती तीन सड़कों के इर्द-गिर्द बनारस शहर बना और आखिरी सड़क के दाएं और बाएं शहर बनने की न तो गुंजाइश थी, न कोई कल्पना। शहर जितना भी भीतर घुसा, वह मैदागिन से लंका को जोड़ने वाली सड़क के भूगोल और इतिहास को बदल नहीं पाया। जो नहीं बदला, वही हमारी धारणा का बनारस था और है। जो बदला, वह बदलने के लिए पहले से तैयार बनारस था, जो इतना बदला कि आज वाराणसी विकास प्राधिकरण का दायरा कैंट से बीस किलोमीटर दूर चौबेपुर तक जा पहुंचा है। जो बदला, वह इतना बदला कि अंग्रेजों के जमाने की स्थापत्य कला का नमूना मानी जाने वाली जल निगम की इमारत अब दोहरी चौड़ी हो चुकी सड़क से बमुश्किल ही दिखती है।

कहते हैं कि सड़क विकास का पर्याय है टेलीविजन पर ऐसी बातें रोज होती है। बनारस में सड़कें बदली हैं, और बेहतर हुई हैं, इमें कोई शक नहीं है लेकिन जो भीतर घुसा है, संकुचित हुआ है, टूटा है, वह विकास की कीमत को भी दिखाता है। लोग फिलहाल ऐसी कीमत को चुकाना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग हैं जिन्होंने इस कीमत को अलग-अलग जगहों पर महसूस किया है, लेकिन फिलवक्त यहां उनकी आवाज बाहरी है।

जो हिस्सा पक्के महाल का है, यानी गंगा के किनारे वाला इलाका, वहां अब तक न तो कुछ संकुचित हुआ है, न टूटा है, न ही सड़कों पर कोई अतिरिक्त काम हुआ है। सबसे ज्यादा जाम भी वहीं लगते हैं। सबसे ज्यादा अलग-अलग किस्म के वाहन और पशु भी वहीं पाए जाते हैं। अलबत्ता, न किसी के माथे पर शिकन है, न ही कोई शिकवा। यही वह पट्टी है, जिसे विकास के मायने समझाने की कोशिशें रोजना ‘आज का विचार’ नामक पोस्टर लगाकर इस देश के प्रधानमंत्री पद के इकलौते घोषित उम्मीदवार द्वारा की जा रही है।

विडंबना यह है कि चौक पर लक्ष्मी चाय वाले, केशरी चाट वाले, पान वाले पहलाद चौरसिया और राजू से लेकर अस्सी पर पप्पू की दुकान तक ऐसे पोस्टर यकसां चस्पा है और वे नहीं जानते कि इस सपने की कीमत उनका अपना वजूद है। उन्हें समझाने वाले फिलहाल सिर्फ ‘बाहरी’ हैं।

दरअसल, बदलाव के दो विरोधी छोर मिलकर आज का बनारस बनाते हैं। कभी सिंहद्वार कहा जाने वाला बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का प्रवेश द्वार आज लंका पर सिर उठाए दो बहुमंजिला इमारतों के सामने बौना पड़ चुका है। लंका पर बरसों से समाजवादियों को चाय पिलाने वाले टंडनजी और उससे कुछ दूर आगे कचौड़ी वाली चाची अब नहीं रहीं, सो यह बदलाव ही है और आगे बढ़े तो बंगाली टोला से लेकर लंका तक मोमो बिक रहे हैं।

चौखंबा पर जाने कैसे कुछ बरस पहले एक बेढंगा शपूरी मॉल खड़ा हो चुका है और मैदागिन पर टिक्की से ज्यादा चाउमिन के ठेले नजर आते हैं। बुलानाला पर भगवानों के पोर्ट्रेट के बीच निर्मल बाबा की भी एक तस्वीर टंगी है। अभय सिनेमा, सुशील सिनेमा, नटराज, विजया सब खत्म हो गए। कन्हैया चित्र मंदिर अब केसीएम मॉल है। जहां नटराज सिनेमा था, आज वहां एक बड़ा सा गड्ढा है जिस पर किसी भी पल एक मॉल खड़ा हो सकता है। जिन्हें नटराज की याद है, शायद उन्हें भी पता नहीं कि यह जगह गोपीनाथ कविराज की जन्मस्थली है।

पूछ सकते हैं कि फिर बनारस को बनारस बनाने वाला तत्व क्या है? एक कवि से उधार लेकर पूंछें तो क्या बनारस में बनारस बचा भी है। जवाब देने से पहले इस सवाल को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। चूंकि बनारस ‘होमोजीनियस नहीं है, न कभी था, इसलिए इस सवाल को कुछ ऐसे रखा जा सकता है : क्या गोदौलिया में गोदौलिया बचा है, क्या लंका में लंका बचा है, क्या चौक में चौक बचा है, क्या मछोदरी में मछोदरी बचा है, ऐसे लिखे जा सकने वाले सारे सवालों के जवाब फिलहाल हां में ही होंगे। इसकी एक ऐतिहासिक वजह है। जिसे हम बनारस कहते-समझते हैं, वह इसलिए ऐसा है क्योंकि उसका भूगोल और इतिहास एक ही है। यह बात दुर्लभ और अद्वितीय है, लेकिन बनारस के संदर्भ में यही है और सही है। संभव है कि बेजिंग या मक्का जैसे पुराने नगरों को जानने वाले भी इसकी ताकीद करें।

पुण्य लाभ : गंगा में डुबकीमसलन, हर बार की तरह बीते साल भी बाढ़ में गोदौलिया से गंगा तक एक नदी सी बन गई थी। हर बार वह नदी बनती है और दाहिने वाले रास्ते पर ही, जबकि गोदौरिया से नए वाले दशाश्वमेध घाट तक जाने के दो रास्ते हैं। कभी भी बाएं रास्ते पर नावें नहीं तैरतीं। काशी खंड के पौराणिक तथ्य कहते हैं कि यहां गोदावरी नदी हुआ करती थी। इसी से गोदौलिया नाम पड़ा। उस लीक पर बारिश में नदी उभर आती है। वैसे ही मणिकर्णिका घाट की पौराणिक झील है, जिसे आज लोहे के रॉड से घेर दिया गया है और जहां मुर्दे जलते हैं। हर बारिश में उस जगह पानी भर जाता है।

मछोदरी का पुराना नाम मत्स्योदरि था और मैदागिन का मंदाकिनी। इनकी भी ऐसी ही कहानी है। गर्ज यह है कि जो पौराणिक इतिहास है, उसी से भूगोल तय हो रहा है और इतिहास की निशानदेही वर्तमान में भी की जा रही है। बनारस को जानने वाले जेम्स प्रिंसेप से लेकर डायना एल एक्क तक तमाम विद्वानों का संकट यह है कि इस पौराणिक इतिहास का कोई ठोस ऐतिहासिक विकल्प उनके पास मौजूद नहीं। इस वजह से काशी का महात्म्य ही यहां का इतिहास और भूगोल दोनों बन जाता है।

पंडों-ब्राह्मणों की गढ़ी इस कहानी को हम किस सिरे से देखें? देखें भी या नहीं, यह तय करना हमारे ऊपर है। लेकिन ऐसे हजारों तथ्य पुराने ग्रंथों में बनारस के बारे में हैं, जिनकी इस शहर में पैदल चलकर ताकीद की जा सकती है। इस च्क्कर में, हालांकि, होता यह है कि सुना-सुनाया और देखा-दिखाया, दोनों तरह से-बनारस एक कपोलकथा की निर्मित बन जाता है। आप बनारस में हों या उसके बाहर, उसका आकर्षण मानने को जरूर मजबूर हो जाते हैं। यह आकर्षण दरअसल जिस धारणा से पैदा होता है, वह अपने आप में किसी ठोस जमीन की मोहताज नहीं। आप उस जमीन को खोज भी नहीं सकते। स्रोतों का संकट है यहां, इसीलिए बनारस एक काल निरपेक्ष भौगोलिक-ऐतिहासिक स्पेस बनकर उभरता है, जहां हर गति एक सनातन ठहराव में जमी जान पड़ती है।

इसके बावजूद किताबों, पुराणों, ऐतिहासिक आख्यानों से इतर चलता-फिरता बनारस सबके लिए अपने-अपने तौर से अपना ही बनारस है। बीएचयू में पढ़ने वालों का बनारस अस्सी घाट पर है। पांडेपुर और कचहरी से शहर में आने वालों का बनारस मिंट हाउस की कचौड़ी से शुरू होकर गोदौलिया की ठंडई तक जाता है। पूर्वांचल निवासियों का बनारस शीतला घाट, तिलभांडेश्वर, महाकाल या ज्यादा से ज्यादा इलाज के लिए ‘बीएचयू’ तक फैला है, तो घाट किनारे रहने वाले पंडों-मल्लाहों का बनारस विदेशी पर्यटकों की जेब में बसता है।

ये अलग-अलग छवियां और परिभाषाएं हैं जो बनारस से किसी को बांधती हैं, जिस वजह से बनारस को ‘अविमुक्त’ भी कहा गया है। तमाम कर्मकांडों और ब्राह्मणवादी ढकोसलों से इतर एक बनारस यह भी है जिसके बारे में खुद-पुराण कहते हैं कि यहां खाना, सोना और पैदल चलना ही मुक्ति के लिए पर्याप्त है क्योंकि यहां का हर कदम एक इतिहास और भूगोल को खुद में समाए हुए है।

इस पैदल नापे जा सकने वाले बनारस को घेरता दूसरा बनारस गाड़ियों की डरावनी गतियों और पेट्रोल पंपों से बना शहर है, जो लगातार फैल रहा है, घुस रहा है और पहले से ही अतीत में गले तक धंसे बनारस को और अतीतजीवी बना रहा है। ऐसा लगता है कि एक शहर है जो अपने कुछ बाशिंदों को समेटे हुए मरने को अभिशप्त है। एक हिस्सा बदलाव को रोक कर मरे जा रहा है, दूसरा बदलाव को अपना कर। बीच का कुछ भी नहीं है इस शहर में और यहीं पैदा होता है भ्रम। स्थिरता और गति के बीच का भ्रम। आप स्थिर है तो भी भ्रम होगा। गतिमान हैं तब भी। बीती 23 अप्रैल की आधी रात संकटमोचन संगीत समारोह में जब एक सौ छह बरस के उस्ताद राशिद खान मंच पर सहारा देकर लाए गए थे, तो मंदिर प्रांगण में उपस्थित करीब हजार रसिकों ने एक स्वर में हर-हर महादेव का नारा गुंजाया था। यह वह भीड़ थी जिसमें इस शहर के रिक्शेवाले, ठेलेवाले, पानवाले, पटरीवाले, बेहद सामान्य लोग होते हैं। इन्हें संगीत का ज्ञान नहीं है, लेकिन ये उसकी तारीफ करना जानते हैं।

आज से तेरह साल पहले 2001 की घटना है, जब रात साढ़े तीन बजे पंडित जसराज इसी समारोह में ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ का गायन कर रहे थे और उनके टेक पर आते ही पीछे से एक रिक्शेवाले की आवाज आई थी, ‘गइला त गुरू’। ये आवाजें इस जगह का इंजन हैं। ये वे आवाजें हैं जो इस बनारस में अमजद अली खान से लेकर सुनंदा पटनायक तक का स्वागत महादेव के संबोधन से करती हैं और छन्नूलाल मिश्र को ताने भी देती हैं।

यही आवाजें 23 अप्रैल को समारोह की अंतिम रात प्रांगण से बाहर निकलते ही ‘हर-हर मोदी’ भी कर रही थीं। यह नया नारा है, लेकिन प्रांगण का लिहाज शेष है। नए नारे में एक सनक है, लेकिन उसका संदर्भ अब तक नहीं बना है। पूराने नारे का ताना बाना बेहद प्राचीन है। इन दोनों के बीच एक भ्रम है जो इस शहर को फिलहाल अपनी आगोश में जकड़े हुए हैं।

यह भ्रम अनायास नहीं है। इसे गढ़ा गया है। देश में और कहीं भी नगर के बीचोबीच मुर्दे नहीं जलाए जाते, अकेले बनारस में ऐसा है। यहां मरना जीवन से अलग होना नहीं है। जीवितों से अलग होना नहीं है। ठीक वैसे ही जीना या जीवित होना मुर्दों से श्रेष्ठ होना नहीं है। जीवन और मृत्यु एक निरंतरता के दो हिस्से हैं। फिर दोनों का उत्स्व अलग-अलग जगहों पर भला क्यों मने? दूसरे शहर न ऐसा मानते हैं, न बरतते हैं, इसलिए वे बनारस नहीं हो सकते। मतलब, कोई भी शहर बनारस नहीं हो सकता है। गर्ज यह कि बनारस धीरे-धीरे एक शहर बन रहा है। गर्ज यह कि बनारस धीरे-धीरे एक मर बन रहा है।

ईमेल : guru.abhishek@gmail.com