लौटना ही होगा जैविक खेती की ओर

Submitted by Hindi on Mon, 08/24/2015 - 13:44

भारत में जैविक खेती की अवधारणा नई नहीं है। हमारे यहाँ परम्परा से इसी तरह से ही खेती होती रही है। स्वतन्त्रता मिलने के बाद देश की खाद्यान स्थिति में आत्म निर्भर बनने के लिए साठ–सत्तर के दशक में हरित क्रान्ति के तहत खेती के परम्परागत तरीकों में तब्दीलियाँ की गई। इससे कृषि उत्पादन में भले ही हमने अपेक्षाकृत उपलब्धियाँ हासिल कर ली हो पर लम्बे समय बाद इसके बुरे परिणाम भी हमारे सामने हैं।

इन बुरे प्रभावों ने भारत ही नहीं दुनियाभर के विकासशील देशों को इस पर फिर से सोचने पर विवश कर दिया है। एक तरफ जहाँ महँगे रासायनिक खादों और कीटनाशकों ने खेती की लागत को कई गुना बढ़ा दिया है वहीं दूसरी ओर रासायनिक खादों और कीटनाशकों की वजह से जमीन के साथ–साथ इस तरह की खेती के उत्पादों से मानव शरीर को भी कई तरह की बीमारियाँ होने लगी हैं। डॉक्टरों के मुताबिक इनका विषैले प्रभाव कैंसर तक का कारण बन रहा है। खेतों में जमीन की सेहत भी बिगड़ती जा रही है। किसानों की आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने लगी है। फसलों की लागत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, वहीं उत्पादन घटता जा रहा है। इस स्थिति की चुनौतियों से लड़ने का एक ही विकल्प है– अपनी जड़ों की ओर लौटना। हमें फिर से अपनी परम्परागत खेती के त्रिकोण को अपनाना पड़ेगा। जैविक खेती अब नारा नहीं जरूरत बनती जा रही है।

खेती की जमीन की बात करें तो हरित क्रान्ति के बाद से अब तक किसानों ने अधिक उत्पादन की चाह में इस बेहिसाबी ढँग से हमारे यहाँ रासायनिक खादों का लगातार इस्तेमाल किया गया है कि जमीन में लवण की मात्रा काफी बढ़ गई है। कई जगह तो ऊपरी करीब एक फीट तक की जमीन की सतह बुरी तरह खराब हो चली है। हालात इतने खराब हैं कि इनकी वजह से खेतों में बारिश के दौरान प्राकृतिक रूप से होने वाला पानी का रिसाव भी नहीं हो पाता। लगातार रसायनों के इस्तेमाल से खेतों की जमीन पर एक तरह की कड़ी परत बन गई है, जो पानी को जमीन में रिसने से रोकती है और हजारों गैलन पानी व्यर्थ बहकर निकल जाता है। बारिश का पानी व्यर्थ बह जाता है और बाद में सिंचाई के लिए महँगी बिजली या डीजल खर्च करके भूजल का दोहन करना पड़ता है। इससे आस-पास का जल स्तर भी प्रभावित होता है।

हर साल फसलों को कीटों, फफूँद और कीड़ों से बचाने के नाम पर बड़ी तादाद में जहरीले रसायन से बने कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। इसका रसायन भी अब लगातार जहरीला करना पड़ रहा है क्योंकि साल दर साल कीट अपने शरीर में इससे प्रतिरोध बढ़ा लेते हैं और उस स्तर तक की दवाई का असर उन पर नहीं हो पाता। इसका बड़ा नुक्सान यह होता है कि इससे कृषि के लिए जरूरी मित्र कीट भी मर जाते हैं और उनका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। यहाँ तक कि अब खेतों में केंचुए भी कहीं नजर नहीं आते। केंचुआ को कृषि वैज्ञानिक जमीन की आंत जैसा जरूरी मानते हैं क्योंकि ये मिटटी खाकर ह्यूमस बनाते हैं जो जमीन की उर्वरा शक्ति को बढाता है। कीटनाशकों का सबसे बड़ा नुक्सान यह हो रहा है कि इसका विषैला प्रभाव अब हमारी थाली में पहुँच चुका है। इधर के सालों में चिकित्सा के क्षेत्र में हुई रिसर्च बताती हैं कि मानव शरीर पर इसका सबसे बुरा असर पड़ रहा है। ये शरीर में कैंसर फैलाने वाले रोगाणुओं सहित कई गम्भीर और घातक किस्म की बीमारियों का कारण बन रही है। हालाँकि अब आम लोगों तक भी यह धारणा पहुँची है कि खेतों में इस्तेमाल किया जाने वाला कीटनाशक कुछ दिनों के अन्तराल के बाद न्यूनतम रूप में ही सही, हमारी ही थाली में पहुँच रहा है। इससे बचने के लिए कई जगह लोगों ने वैकल्पिक संसाधन भी विकसित किए हैं लेकिन फिलहाल ये बहुत कम हैं और इन्हें बड़ी तादाद में बढ़ाने की जरूरत महसूस की जा रही है।

खेतों में कीटनाशकों या खरपतवारनाशक छिड़कते समय कई हादसे भी होते रहते हैं। इन दवाइयों में इतने घातक रसायन मिले होते हैं कि इनके छिड़काव में थोड़ा सा भी ध्यान नहीं रखें तो किसानों की मौतें तक हो जाती है। ऐसे कई हादसे बीते सालों में हमारे सामने आ चुके हैं हालाँकि आज तक कभी इसके आँकड़े कहीं नहीं मिलते, यहाँ तक कि कृषि विभाग के पास भी ऐसे आँकड़े मौजूद नहीं है।

अब रासायनिक खाद और कीटनाशकों की जगह जैविक खादों और कीटनाशकों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। कई किसान केंचुआ खाद, कम्पोस्ट खाद आदि का इस्तेमाल कर रहे हैं तो कुछ किसान कीटनाशकों के लिए नीम और तम्बाकू से बने वैकल्पिक दवाइयों का भी इस्तेमाल करते हैं। इसके सुखद परिणाम भी अब हमारे सामने आने लगे हैं। इससे खेतों की जमीनी सेहत सुधरी है तो जैविक उत्पादों की माँग भी कई गुना बढ़ी है। लोग महँगे दामों में भी जैविक उत्पाद खरीद रहे हैं। केंचुआ खाद भी एक बेहतर विकल्प हो सकता है। इससे खेतों के आस-पास के व्यर्थ सामग्री से बनाया जा सकता है। सूखे पत्ते, खरपतवार, घास–फूस, गोबर और कूड़ा-कचरा मिलाकर इसे एक खास तरह के गड्ढे में इकट्ठा किया जाता है। यह गड्ढा करीब दो फीट गहरा, छह फीट लम्बा और चार फीट चौड़ा बनाया जाता है और इसकी सतह और आस-पास की दीवारें पक्की बनाई जाती है। इसमें कुछ केंचुए डाल दिए जाते हैं और उसके साथ अधपका गोबर, कूड़ा कचरा, पत्तीयाँ, घास भी डाल दी जाती है। साथ ही कुछ गोबर का घोल भी। इस तरह गड्ढे में धीरे–धीरे केंचुए बढ़ने लगते हैं पहली बार डाले गए केंचुए करीब तीन महीने में ही दोगुने तक हो जाते हैं।

यह प्रक्रिया निरन्तर दोहराई जाती है। और इस तरह बड़ी तादाद में केंचुए बनने लगते हैं। इसमें ध्यान यह रखा जाता है कि केंचुए खास प्रजाति डेट्रीटी व्होसा ही होने चाहिए क्योंकि जीव विज्ञानी मानते हैं कि इस प्रजाति के केंचुए खेती के लिए बहुत उपयोगी साबित होते हैं। अन्य प्रजातियों के मुकाबले ये जमीन को अधिक ऊर्वरा बनाते हैं। जिस गड्ढे में खाद बनाया जाता है उसे झोपड़ी की छत की तरह छत बनाकर ढँक दिया जाता है ताकि सूरज की रौशनी उसमें नहीं जा सके। अँधेरे में ही केंचुए पनपते हैं। केंचुए अपना आहार सड़ी–गली पत्तियों और गोबर आदि से लेते हैं। केंचुए की खाद जमीन के लिए बहुत उपयोगी होती है। बताते हैं कि बाँझ हो चुकी जमीन को भी ये फिर से उपजाऊ बनाने में समर्थ हैं। यह बहुत सस्ती और आसान है। इसके अलावा भी कई विकल्प हमारे सामने मौजूद हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अब किसानों को भी इस बात का यकीन होता जा रहा है कि अब खेती में रसायनों का उपयोग बहुत हुआ। अब इसे रोकने का समय आ गया है। यह हमारे जमीन और स्वास्थ्य दोनों के लिए नुक्सान दायक तो है ही, पैसों की बर्बादी भी है।

मध्यप्रदेश में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर जैविक खेती को लेकर काफी काम किया जा रहा है। इसके लिए अब भी बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है।