देहरादून से आधे घंटे की ड्राइव के बाद हम एक ऐसी जगह पहुंचते हैं, जो चकित, विस्मित तथा विभोर कर देती है। वाहनों के शोर, धूल तथा धुएं से मुक्त यह जगह लोक विज्ञानी डॉ. अनिल प्रकाश जोशी की कर्मस्थली है। हिमालय पर्यावरण अध्ययन तथा संरक्षण संस्थान (हैस्को) पद्मश्री से सम्मानित डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का एक ऐसा स्वप्नलोक है, जहां विज्ञान की लोकमंगलकारी कल्पनाओं को साकार किया जाता है।करीब तीन दशक पूर्व वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर रहे डॉ. जोशी ने जमी-जमाई नौकरी छोड़कर तन और मन, दोनों पर गांधी लिबास पहन लिया। उत्तराखंड के एक सुदूर गांव धोलतीर को उन्होंने कर्मस्थली बनाया। उनके साथ थी कुछ पूर्व छात्रों की टीम। गांव में पहुंच कर विज्ञानियों के इस दल ने पेयजल संकट के समाधान के लिए प्राकृतिक जल स्रोतों के आस-पास झाड़ियों का रोपण शुरू किया और बारिश का पानी रोकने के लिए कई कृत्रिम तालाब बनाए। लोक अनुभवों तथा वैज्ञानिक प्रयोगों के फलस्वरूप वर्षों से सूख चुके जलस्रोतों में फिर से जलधारा फूट पड़ी। नाम मात्र के संसाधनों के दम पर हुए इस चमत्कार से अभिभूत प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार चिदंबरम खुद इस गांव में पधारे। बाद में डॉ. जोशी अपने काम को विस्तार देने के लिए देहरादून आ गए। जल को जीवन कहा जाता है, पर बिजली बनाने के लिए बने बड़े बांधों में कैद होकर वह मृत हो जाता है। कृत्रिम जलाशय में पानी की नैसर्गिक गुणवत्ता समाप्त हो जाती है। पानी से बगैर किसी ताम-झाम के बिजली कैसे पैदा हो, अब वह इस प्रयोग में जुट गए। बकौल डॉ. जोशी, ‘लोक अनुभवों में सब कुछ पहले से ही था। हम विज्ञान और तकनीकी के दंभ में उसे बिसरा बैठे थे। मैंने सिर्फ लोक विज्ञान व लोक तकनीकी के ऊपर जमी गर्द को हटाया है, कोई नया आविष्कार नहीं किया।’
आटा पीसने के लिए पानी से चलने वाले घराट (पनचक्की) की परंपरा पहाड़ों में पुरानी है। पर यह परंपरा लुप्त हो रही थी। डॉ. जोशी ने तकनीक के सहारे घराट में ‘बियर रिंग’ लगाकर उसकी गति बढ़ा दी। अब इसी घराट से गेहूं, दाल, मसाले के साथ रुई भी धुनी जाने लगी और जरूरतों के लायक बिजली भी पैदा की जाने लगी है। वह इसे गांधीवादी बिजली कहते हैं, जो किसी को विस्थापित किए बिना बनती है। इतना ही नहीं, लाखों एकड़ भूमि को बंजर बनाने वाली लैनटेर्ना की झाड़ी के तने से उन्होंने फर्नीचर बनाना शुरू किया, जो आज युवाओं के रोजगार का जरिया बन चुका है। यह जहर से दवा बनाने जैसा प्रयोग था। वह साइकिल या मोपेड का ही प्रयोग करते हैं और एक कुटिया में रहते हैं। आम बनने की यही ललक उन्हें खास बना देती है।
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हिमालय पर्यावरण अध्ययन तथा संरक्षण संस्थान (हैस्को)
गांव: शुक्लापुर, पो. - अम्बीवाला, वाया - प्रेमनगर, देहरादून, उत्तराखंड
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