मैले पानी का सुनहरा सच

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जल थल मल किताब से साभार

मछली पालन के लिये प्रसिद्ध कोलकाता झील स्थानीय स्तर पर भेरी के नाम से जाना जाता हैमछली पालन के लिये प्रसिद्ध कोलकाता झील स्थानीय स्तर पर भेरी के नाम से जाना जाता है कोलकाता भी दूसरे बड़े शहरों की तरह एक बड़ी नदी के किनारे बसा है। गंगा से निकली एक धारा ही है हुगली नदी। लेकिन दूसरे कई नगरों की तरह कोलकाता में नदी का बहाव एकतरफा नहीं है। हुगली ज्वारी नदी है और बंगाल की खाड़ी से उसका मुहाना 140 किलोमीटर की दूरी पर ही है। हर रोज ज्वार के समय समुद्र नदी के पानी को वापस कोलकाता तक ठेलता है। ज्वार और भाटे के बीच जल स्तर एक ही दिन में कई फुट ऊपर-नीचे हो जाता है।

शहर के पश्चिम में बहने वाली हुगली नदी में कोलकाता अपना मैला पानी बहाकर उसे भुला नहीं सकता। नीचे बह जाने की बजाय क्या पता ज्वार के पानी के साथ मल-मूत्र वापस शहर लौट आये? शहर के कुल मैले पानी का एक छोटा सा हिस्सा ही हुगली में बहाया जाता है, वह भी चोरी-छिपे इसका परिणाम यह है कि कोलकाता में हुगली वैसी दूषित नहीं है जैसी दिल्ली में यमुना या कानपुर में गंगा। लेकिन हर बड़े शहर को अपना मैला पानी फेंकने के लिये एक नदी चाहिए। तो फिर कोलकाता का मैला कहाँ जाता है?

हुगली से उल्टी दिशा में, शहर के पूरब में बहने वाली एक छोटी सी नदी कुल्टीगंग में। पर नदी तक पहुँचने के पहले इस मैले पानी के बड़े हिस्से का उपचार होता है। कुल्टीगंग में गिरने वाला मैला पानी उतना दूषित नहीं होता है जितना वह शहर से निकलते समय होता है। यहाँ मैले पानी की सफाई का तरीका भी दूसरे शहरों से निराला है। कोई 30,000 एकड़ में फैले तालाब और खेत कोलकाता के कुल मैले पानी का दो-तिहाई हिस्सा साफ करते हैं। यही नहीं, इससे कई हजार लोगों को रोजगार मिलता है मैले पानी से मछलियाँ, सब्जियाँ और धान उगा कर।

इसका एक कारण है यहाँ का अनूठा भूगोल, जो बना है गंगा के मुहाने पर होने वाले मिट्टी और पानी के प्राकृतिक खेल से। पता नहीं कब से गंगा की बड़ी धारा यहीं से बहकर बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होती थी। पर यह संगम केवल गंगा और बंगाल की खाड़ी भर का नहीं रहा है। छोटी-बड़ी कई नदियों की कई धाराएँ हिमालय की मिट्टी गाद या साद के रूप में लाकर यहाँ जमा करती रही हैं। कह सकते हैं कि यहाँ हिमालय और समुद्र मिलते हैं। इस गाद से ही यहाँ की जमीन ऊँची बनी रही है। वरना समुद्र इन नदियों के रास्ते बंगाल की खाड़ी से भीतर तक आ जाता। अगर गंगा और सिंधु जैसी नदियों से लाई हुई हिमालय की गाद न होती, तो समुद्र उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों को शायद लील जाता। फिर भारत हिंद महासागर में एक द्वीप बनकर रह जाता। पानी और मिट्टी का खेल कुछ ऐसा ही है।

जहाँ आज कोलकाता बसा है वहाँ का भूगोल आज से कोई 600 साल पहले बदलना शुरू हुआ। पानी और गाद के बदलते बहाव की वजह से गंगा का ज्यादातर पानी उसकी पश्चिमी धारा पद्मा की ओर जाने लगा। हुगली में तो पानी फिर भी आता रहा, लेकिन उसके पूरब में बहने वाली नदियों में बहाव कम हो गया। पानी की कमी से गाद की भी कमी रहने लगी। नतीजा यह हुआ कि हुगली के पाटों के ठीक बगल की जमीन तो गाद के जमने से ऊँची ही बनी रही, पर कोलकाता के पूरब की जमीन नीचे होती गई। इसकी वजह से यहाँ की ढाल उत्तर-पश्चिम से उतरते हुए दक्षिण-पूर्व की ओर हो गई।

हुगली के पूर्व तट पर तीन गाँव बसे हुए थेः सूतानुती, गोबिंदपुर और कालिकाता। सन 1690 में इंग्लैंड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पानी के जहाज सूतानुती गाँव के किनारे लगे थे। कुछ साल के भीतर ही यहाँ पर कम्पनी ने कब्जा कर लिया और उसके बाद वहाँ के जमींदार से उन्हें इस जमीन का पट्टा मिल गया। कालिकाता में कोई पक्की आबादी नहीं थी, सो वहीं पर कम्पनी ने एक किला बनाया और आगे चलकर इसी नाम पर कलकत्ता शहर बसा।

कोलकाता के बसने के समय शहर के पूरब में खारे पानी का विशाल दलदल था, जिसे अंग्रेजी में ‘साल्ट लेक’ कहा जाता था। सन 1950 के दशक में इसी दलदल के उत्तरी हिस्से को पाटकर साल्ट लेक सिटी और साल्ट लेक स्टेडियम बनाए गए। इन दलदलों के फैलने की कहानी भी 15वीं शताब्दी में शुरू हुई। गंगा के रास्ता बदलने से यहाँ मीठे पानी की कमी हो गई थी। समुद्र के पानी ने इस रिक्त को भर कर दलदल बना दिया। यह आदर्श था खारे पानी की मछलियों और कई तरह के पक्षियों के लिये, मच्छरों के लिये भी। मलेरिया जैसे रोगों के डर से अंग्रेजों ने अपनी बस्तियाँ इस दलदल से दूर ही बसाई। कालान्तर में यहाँ मछुआरे आने लगे।

जहाँ आज कोलकाता बसा है वहाँ का भूगोल आज से कोई 600 साल पहले बदलना शुरू हुआ। पानी और गाद के बदलते बहाव की वजह से गंगा का ज्यादातर पानी उसकी पश्चिमी धारा पद्मा की ओर जाने लगा। हुगली में तो पानी फिर भी आता रहा, लेकिन उसके पूरब में बहने वाली नदियों में बहाव कम हो गया। पानी की कमी से गाद की भी कमी रहने लगी। नतीजा यह हुआ कि हुगली के पाटों के ठीक बगल की जमीन तो गाद के जमने से ऊँची ही बनी रही, पर कोलकाता के पूरब की जमीन नीचे होती गई।शहर बसने के समय उसका मैला पानी हुगली में बहता था। पीने का पानी भी हुगली से ही आता था। सन 1803 में शहर के सीवर की नालियाँ हुगली में ही विसर्जित होती थीं। पीने के पानी के स्रोत का प्रदूषण हो रहा था। जैसे-जैसे शहर बढ़ता गया, एक विकराल समस्या खड़ी हो गई। बरसात के मौसम में बाढ़ आती तो हुगली में खुलने वाली नालियाँ उल्टी बहने लगती थीं।

कम्पनी शासन ने सीवर की नई नालियाँ बनाना तय किया, जिनका मुँह पश्चिम में बहती हुगली नदी से दूसरी तरफ, ढाल के साथ-साथ बहता हुआ, माटला नदी में खुलता था। साल्ट लेक के दलदल के दक्षिण से होती हुई माटला जाकर मिलती थी विद्याधरी नाम की एक और नदी में, जो सुन्दरबन से होती हुई बंगाल की खाड़ी में बहती थी। कोलकाता का मैला इन दोनों नदियों में बहाने की योजना पर काम सन 1810 में शुरू हुआ। इसका पहला चरण 75 साल बाद पूरा हुआ, सन 1885 में। कई तरह की नालियाँ और नहरें बनाई गईं, नई इंजीनियरी के ‘स्लूस गेट’ भी।

इसका असर इन छोटी नदियों पर बुरा पड़ा। एक समय विद्याधरी बड़ी नदी थी। आज से 2,300 साल पहले मौर्य काल में चंद्रकेतूगढ़ नाम का शहर इसके किनारे ही बसा हुआ था। लेकिन विद्याधरी में पानी तो तभी से कम रहने लगा था जब गंगा की बड़ी धारा हुगली को छोड़ पद्मा की ओर बहने लगी थी। धीरे-धीरे लोगों ने बरसाती पानी के रास्ते पाट कर बस्तियाँ बनानी शुरू कर दीं। इससे नदी में बहकर आने वाला बारिश का पानी घटने लगा। पानी-मिट्टी के खेल की कमी की वजह से नदी के मुहाने की संकरी खाड़ी भी पट गई थी, जिससे ज्वार का पानी भीतर तक आना बन्द हो गया था। अब नदी में मैला पानी और मलबा ही रहता था। सन 1928 तक विद्याधरी मृत घोषित की जा चुकी थी। पूरी तरह सूख चुकी नदी में इतना बहाव भी नहीं बचा था कि मैला पानी आगे धकेल सके।

खारे पानी की कमी से इन नदियों के उत्तर में और कोलकाता के पूरब में दलदल का निचला इलाका भी वीरान हो चला था। खारे पानी में रहने वाली मछलियाँ गायब होने लगी थीं। पर खारे पानी के अभाव में यहाँ से जीवन मिटा नहीं। बारिश का थोड़ा-बहुत पानी इकट्ठा होता ही था, जिसमें धीरे-धीरे मीठे पानी की मछलियाँ पैदा हो उठीं। फिर मछुआरे भी यहाँ आ जमे। वे मछली पालने के लिये कहीं-कहीं उथले पानी के टाँके बनाते थे, जिन्हें बांग्ला भाषा में ‘भेरी’ कहते हैं।

बहुत ठीक पता नहीं है कि मछुआरों को यह कब समझ आया कि सीवर की नाली के मैल को एक खास मात्रा में भेरी में छोड़ने से मछलियाँ तेजी से फलती-फूलती हैं। सन 1929 में ऐसा होने का संकेत मिलता है। यहाँ से यह जानकारी दूसरे मछुआरों तक कैसे पहुँची यह भी पता नहीं है, लेकिन 15 साल के भीतर ही यहाँ एक अजब तरह का मछलीपालन होने लगा था। यह केवल प्रकृति के इशारे से नहीं हुआ। जिस नहर से मैला पानी इन भेरियों तक पहुँचने लगा था उसे 1940 के दशक में बनवाने वाले थे कोलकाता महानगर पालिका के मुख्य इंजीनियर बीरेंद्रनाथ डे।

मछली पालन के लिये सीवेज का पानी इन्हीं नालों से झील में जाता हैश्री बीरेंद्रनाथ मछलीपालन में मैले पानी के उपयोग के बारे में जानते थे या नहीं यह हमें नहीं पता। पर मैले के निकास के लिये उनकी बनाई योजना सन 1945 में पूरी हो चुकी थी। सीधे दक्षिण-पूर्व की ओर जाकर विद्याधरी में खुलने की बजाय उनकी बनाई नहर पूरब की ओर कुल्टीगंग नदी में बहती थी। पर नदी तक नहर के पहुँचने के पहले ही उन्होंने एक स्लूस गेट बनाकर मैले पानी का स्तर ठीक वैसे उठा दिया जैसे किसी बाँध में उठाया जाता है। इस बाँध के बगल का दरवाजा खोलकर मैले पानी को एक नहर में डालकर मनचाही दिशा में गुरुत्वाकर्षण के सहारे भेजा जा सकता था। इसमें किसी पम्पिंग स्टेशन की जरूरत नहीं थी, न ही बिजली की मोटर की।

इस प्रणाली के बाद खारे पानी के दलदल की जगह मछुआरों की भेरियाँ लेती गईं। यहाँ से निकाले हुआ पानी से धान की सिंचाई होने लगी। पूरा इलाका एक बेहद उपजाऊ जलमग्न भूमि में बदल गया। श्री बीरेंद्रनाथ की योजना में मैला पानी साफ करने का एक कारखाना भी था जो बानताला गाँव में बनाया गया। पर इसका इस्तेमाल न के बराबर ही हुआ क्योंकि जिस मैले पानी को शहर घृणा से नाली में बहा देता है वह मछली और मछुआरों के लिये बहुत अच्छा होता है। आखिर स्वादिष्ट भोजन ही तो कुछ घंटों में हमारे शरीर से होता हुआ मल में बदलता है। जो हमारे लिये खाद्य होता है वह हमारे शरीर से निकलने के बाद दूसरे प्राणियों के लिये खाद बन जाता है।

पूर्वी कोलकाता के मछुआरे और किसान यह बात काफी पहले जान गए थे। किसी किताब या किसी स्कूली पढ़ाई से नहीं, व्यवहार और जीवन से। कई बरसों के प्रयोग से उन्होंने मैले पानी के उपयोग के ऐसे सुगम तरीके खोज लिये जिन्हें विज्ञान की आँख से समझना बहुत ही जटिल होता है। इन भेरियों में एक विशेष संसार है जिसमें कई तरह की लीला रची जाती है, जिसके कई तरह के पात्र हैं। मल-मूत्र से लैस कोलकाता का मैला पानी इस कहानी का पहला सिरा ही है।

मछुआरे इसमें बरसाती पानी मिलाकर तीन से चार फुट गहरी भेरियों में छोड़ते हैं। ये भेरियाँ केवल पानी के टाँके भर नहीं होती हैं, इनकी सतह का एक और रूप होता हैः कई सौ एकड़ में फैले सौर ऊर्जा पटल, जो सूरज के प्रकाश को संजोते हैं। इन्हें किसी भी सरकार के किसी भी ‘नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय’ ने नहीं बनाया है और इनकी सौर ऊर्जा क्षमता को नापा तक नहीं गया है।

सूरज की रोशनी, ऊष्मा और खड़े पानी में वो खास परिस्थिति बनती है जिसमें बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवाणु और शैवाल एक-दूसरे का भोजन बनाने में सहारा देते हैं। यह आपसदारी कुछ ऐसी है कि एक के बिना दूसरे का गुजर-बसर नहीं होता। अपना भोजन बनाने के लिये इन्हें कच्चा माल चाहिए होता है। वह है सीवर के पानी का मैला, यानी कोलकाता के लोगों का मल-मूत्र। आधुनिक विज्ञान ने यह सम्बन्ध सन 1951 में ही समझाया, पर इन भेरियों के मछुआरों ने इसे खुद ही समझ लिया, अपने प्रयोगों से। आखिर मछली के बच्चों को तैरना कौन सिखाता है? हाल के सालों में हुए वैज्ञानिक परीक्षणों में पता चला है कि मैले में मौजूद रोगाणु भेरियों में सहज ही शैवाल और बैक्टीरिया की दावत बन जाते हैं। इनका भोजन पकाती हैं सूरज की किरणें। देखते-देखते शहर का मैला चट करके शैवाल और बैक्टीरिया फलने-फूलने लगते हैं।

है तो यह प्रकृति का खेल, पर अपने आप नहीं चल सकता। इतनी तेजी से इतने सारे, इतने गाढ़े मैले पानी को शैवाल और जीवाणु चट नहीं कर सकते। इन भेरियों को बनाने और चलाने वाले मछुआरे बहुत जतन और सूझबूझ से ऐसी परिस्थितियाँ बनाते हैं कि तेजी से कुदरत अपनी लीला बहुत बड़े इलाके में रचने लगती है। जैसे भेरियों की गहराई तीन-चार फुट से ज्यादा नहीं रखी जाती, ताकि सूरज की रोशनी भेरी की तल तक पहुँच पाये। ताजा पानी और मैले पानी का अनुपात ध्यान से तय करना पड़ता है। मैला पानी अधिक होने से रोशनी उसमें पहुँचती नहीं है और भेरी में प्राणवायु भी कम पड़ जाती है। पानी में जरूरत से ज्यादा शैवाल होने से भी यही होता है, इसलिये भेरी में शैवाल के अनुपात की सावधानी रखनी होती है।

प्राणवायु से भरा और शैवालयुक्त पानी का एक हिस्सा वापस सीवर से आये मैले पानी में डाला जाता है, ताकि मैले पानी में उनके बीज पड़ जाएँ। शैवालयुक्त पानी को बड़ी भेरी में छोड़ने के पहले उसमें ताजा पानी मिलाया जाता है। साफ में मिलकर मैल का गाढ़ापन कम हो जाता है। जब मछलियाँ शैवाल खाना शुरू करती हैं तो पानी सहज ही साफ होने लगता है। जब सारे शैवाल मछलियाँ खा लेती हैं तब साफ पानी ढाल के सहारे धान और सब्जी के खेतों की ओर छोड़ा जाता है।शैवाल को मछली खाती है पर मछली के अंडों को सीधे शैवाल वाले या मैले पानी में डालने से वे पनप नहीं सकते। इसीलिए मछुआरे छोटे ताल अलग रखते हैं मछली की नर्सरी के तौर पर। मछली जब अँगुली बराबर हो जाती है तो उसे एक और छोटे टाँके में डाला जाता है। शैवाल से भरपूर बड़ी भेरी में मछलियों को तभी डाला जाता है जब मैला पानी शैवाल के सौजन्य से उनके लायक साफ हो जाता है। जैसे मछली के आकार-प्रकार के हिसाब से अलग टाँके रखे जाते हैं, ठीक वैसे ही मैले पानी और शैवाल की अवस्था के हिसाब से उन्हें एक भेरी से दूसरी भेरी में चलाया जाता है। ठीक समय पर ही मछली को शैवाल से भरे तालाब में डाला जाता है।

भेरियों के इस जाल में छोटे-बड़े टाँके आपस में जुड़े होते हैं। लेकिन एक से दूसरे में पानी तभी जाता है जब उसकी नाली खोली जाये। मैले पानी को तीन हफ्ते तक उथली भेरियों में खड़ा रखा जाता है। सूरज की रोशनी और ऊष्मा से उसमें प्राणवायु बढ़ती जाती है। जल्दी ही शैवाल, प्लवक और जीवाणु जी उठते हैं और मैले पानी की सफाई करने के लिये पिल पड़ते हैं।

प्राणवायु से भरा और शैवालयुक्त पानी का एक हिस्सा वापस सीवर से आये मैले पानी में डाला जाता है, ताकि मैले पानी में उनके बीज पड़ जाएँ। शैवालयुक्त पानी को बड़ी भेरी में छोड़ने के पहले उसमें ताजा पानी मिलाया जाता है। साफ में मिलकर मैल का गाढ़ापन कम हो जाता है। जब मछलियाँ शैवाल खाना शुरू करती हैं तो पानी सहज ही साफ होने लगता है। जब सारे शैवाल मछलियाँ खा लेती हैं तब साफ पानी ढाल के सहारे धान और सब्जी के खेतों की ओर छोड़ा जाता है।

कुछ वैज्ञानिक परीक्षण भी हुए हैं यहाँ से निकलने वाले पानी पर। पानी निर्दोष पाया गया है, उसमें प्रदूषण की मात्रा निर्धारित स्तर के नीचे निकली। इसकी तुलना उस पानी से की जा सकती है जो मैला पानी साफ करने के कई कारखानों से बाहर निकलता है। यहाँ रोगाणु तो लगभग खत्म ही हो जाते हैं। जो थोड़ा मैला शैवाल और मछलियों से छूट जाता है वह धान की उर्वरता ही बढ़ाता है। पानी छोड़ने के बाद भेरियों का तल फिर से मैले पानी में मछली पालन के लिये तैयार किया जाता है क्योंकि कोलकाता का मैला पानी तो आता ही रहता है।

इन भेरियों का काम चलता है प्रकृति की अनेक लीलाओं को समझ कर, उसमें से अपने काम की प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने से। छोटे से छोटा निर्णय सोच-समझ कर लेना होता है। मैले पानी को गलत समय चलाना महीनों की मेहनत देखते-देखते बर्बाद कर सकता है। यह बारीक निर्णय सुन्दर तरीके से, बिना किसी तकनीकी सलाहकार समिति के कैसे लिये जाते हैं इसकी एक मिसाल है घोंघों का इस्तेमाल।

घोंघे भी मैले पानी में वही खाते हैं जो मछली का भोजन होता है। इससे मछलीपालक का नुकसान होता है। इसलिये मछुआरों को भेरियों की जमीन तैयार करते वक्त गहरी जुताई करनी होती है, ताकि मिट्टी सूख पाये और घोंघे जम न पाएँ। जब भेरी में पानी वापस छोड़ा जाता है तब समय-समय पर उसमें उतर कर मिट्टी और पानी को जाँचा जाता है, यह जानने के लिये कि परिस्थिति मछलियों के लिये अनुकूल है कि नहीं। इस समय घोंघों की भी जाँच की जाती है और उन्हें इकट्ठा करके बतख को खिलाया जाता है। बतख की बीट से मछली के भोजन में बढ़ोत्तरी होती है।

कई बरसों के प्रयोग से उन्होंने मैले पानी के उपयोग के ऐसे सुगम तरीके खोज लिये जिन्हें विज्ञान की आँख से समझना बहुत ही जटिल होता है। इन भेरियों में एक विशेष संसार है जिसमें कई तरह की लीला रची जाती है, जिसके कई तरह के पात्र हैं। मल-मूत्र से लैस कोलकाता का मैला पानी इस कहानी का पहला सिरा ही है। मछुआरे इसमें बरसाती पानी मिलाकर तीन से चार फुट गहरी भेरियों में छोड़ते हैं। ये भेरियाँ केवल पानी के टाँके भर नहीं होती हैं, इनकी सतह का एक और रूप होता हैः कई सौ एकड़ में फैले सौर ऊर्जा पटल, जो सूरज के प्रकाश को संजोते हैं।एक नुकसान करने वाले प्राणी को प्राकृतिक तरीके से फायदेमन्द बना लिया जाता है। घोंघों से छुटकारा पाने के लिये महंगे और जहरीले कीटनाशक नहीं इस्तेमाल किये जाते हैं, प्रकृति और बतख का सहारा लिया जाता है। खाद से फिर खाद्य बनता है। लेकिन अब ज्यादातर मछुआरों के पास भेरी को खाली करने के साधन नहीं होते हैं। ऐसा करने से कुछ समय के लिये पैदावार चली जाती है और कुछ नुकसान भी उठाना पड़ता है, हालांकि दीर्घकाल में यह भेरी के स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है।

भेरियों के किनारे जलकुम्भी लगाना भी ऐसा ही एक और कुदरती तरीका है। यह पौधा पानी से तेल और ग्रीस जैसी चिकनाई तो सोखता ही है, पारा जैसी भयानक जहरीली धातु भी पानी से निकाल लेता है। लेकिन मछुआरे इसे केवल भेरियों के किनारों पर ही उगाते हैं, जहाँ यह मछलियों को तेज धूप से छाया भी देता है। अगर इसे भेरी के बीच में उगने दें तो यह मछलियों के पलने में बाधा बन जाता है।

इस बारीकी से काम करने का नतीजा यह है कि यहाँ पैदा की गई मछली हमारे देश भर में श्रेष्ठ तो है ही, इसे पैदा करने की लागत भी सबसे कम है। मछली पूरब में रहने वालों के भोजन, स्वाद और पोषण का अहम हिस्सा रही है और कोलकाता की आधी मछली उसके पूरब की भेरियों से ही आती है। यहाँ मछली की वही किस्में पाली जाती हैं जो तेजी से बढ़ती हैं और जल्दी से बिकती हैं। यह बाजार में सबसे सस्ती मछली होती है और इसे खरीदने वाले ज्यादातर वही लोग होते हैं जो बाहर से लाई हुई दूसरी महंगी मछलियाँ खरीद नहीं सकते। ये भेरियाँ गरीब लोगों के रोजगार का साधन तो हैं ही, शहर के साधारण लोगों के पोषण का साधन भी हैं।

इस जलभूमि का ठीक सर्वेक्षण और आकलन हुए काफी समय गुजर गया है। माना जाता है कि यहाँ 30,000 एकड़ की जमीन में कोई 10,000 एकड़ में भेरियाँ फैली हुई हैं और 15,000 एकड़ में खेत हैं। हर साल ये भेरियाँ औसतन 10,000 टन मछली पैदा करती हैं। इनके पास ही धापा नाम का गाँव है, जहाँ कचरे को खाद बनाकर उसमें सब्जी उगाई जाती है। कोलकाता में बिकने वाली हरी सब्जी का 40 प्रतिशत यहीं उगाया जाता है। लगभग 30,000 लोगों को इस इलाके में रोजगार मिलता है।

मैले पानी से सोना निकालने की इस कहानी का हर पक्ष चमकदार नहीं है। शहर के सीवर में केवल शरीर से निकला मल-मूत्र और साबुन-तेल ही नहीं आता। इसमें कई तरह की दूसरी अशुद्धियाँ भी मिली होती हैं। कई कारखाने तरह-तरह के बनावटी रसायनों और जहरों का निस्तार नगर निगम के सीवर में करते हैं, क्योंकि इन्हें साफ करने का खर्चा उनके मुनाफे को काटता है। वैसे तो इसे रोकने के लिये कानून हैं, पर इनका उल्लंघन करने वालों को पकड़ने में सरकार की रुचि नहीं होती क्योंकि ऐसा करना उद्योग के विकास में अड़चन करार दिया जाता है। इसलिये कारखाने मनमर्जी से जहरीले रसायन नालियों में या भूजल में छोड़ देते हैं।

कोलकाता से निकले ऐसे जहर भेरियों तक भी पहुँचते हैं, जहाँ से इनकी कुछ मात्रा मछलियों के शरीर में प्रवेश करती है। जाहिर है, वहाँ पैदा की गई मछली के द्वारा ये खाने वालों के शरीर में भी पहुँचते हैं। हमारे शरीर को ऐसे विष साफ करने का अभ्यास नहीं होता है। शरीर के भीतर ये कैंसर जैसे कई तरह के घातक रोगों का कारण बनते हैं। इनका सबसे गम्भीर असर होता है बच्चों पर, जिनके शरीर और दिमाग को ये बढ़ने से रोकते हैं। गर्भनाल से होते हुए ये अजन्मे शिशु तक भी पहुँच जाते हैं।हमारा पर्यावरण इतना दूषित हो चुका है कि इन जहरों से कहीं भी निजात नहीं है। कारखाने ही क्या, हमारे घर और स्कूल और अस्पताल भी कई तरह के बनावटी रसायनों से अटे हुए हैं। इनमें कीटनाशक और दवाइयाँ तो आती ही हैं, इनमें बड़ा खतरा होता है। ऐसी धातुओं से जो एकदम सूक्ष्म मात्रा में भी भारी नुकसान पहुँचाती हैं। इन्हें अंग्रेजी में ‘हेवी मेटल’ कहते हैं। इनमें संखिया, पारा और सीसा जैसे तत्व आते हैं। इनका इस्तेमाल कई तरह के कारखानों में होता है लेकिन इनके निस्तार के सुरक्षित तरीके हमारे देश में अपनाए ही नहीं जाते। इन जहरीले पदार्थों के परिणाम एकदम से सामने नहीं आते, बल्कि धीरे-धीरे, कई सालों के बाद उजागर होते हैं। इसलिये इनके खतरों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है।

कोलकाता से निकले ऐसे जहर भेरियों तक भी पहुँचते हैं, जहाँ से इनकी कुछ मात्रा मछलियों के शरीर में प्रवेश करती है। जाहिर है, वहाँ पैदा की गई मछली के द्वारा ये खाने वालों के शरीर में भी पहुँचते हैं। हमारे शरीर को ऐसे विष साफ करने का अभ्यास नहीं होता है। शरीर के भीतर ये कैंसर जैसे कई तरह के घातक रोगों का कारण बनते हैं। इनका सबसे गम्भीर असर होता है बच्चों पर, जिनके शरीर और दिमाग को ये बढ़ने से रोकते हैं। गर्भनाल से होते हुए ये अजन्मे शिशु तक भी पहुँच जाते हैं।

इन्हीं सब खतरों को ध्यान में रखते हुए कई संस्थाओं ने पूर्वी कोलकाता की भेरियों में पैदा की गई मछलियों का प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया, यह जानने के लिये कि इन रसायनों की मात्रा मछलियों में कितनी है।

अलग-अलग परीक्षणों के अलग-अलग नतीजे हैं। कुछ में विष की मात्रा खतरे से नीचे थी, कुछ में ऊपर। लेकिन अब तक इस नायाब प्रकार के मछलीपालन को रोकने के कारण सरकार को नहीं मिले हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि शहर भर का मैला और जहर इन मछलियों के शरीर में टिकता नहीं है?

यह जानने के लिये कोलकाता के ही एक दूसरे इलाके तक जाना जरूरी है, क्योंकि इस इलाके में मछलीपालन शहर के मैले पानी से नहीं, सीधे कारखानों से निकले झागदार स्राव से होता है। इसे ‘मुदिअली कोऑपरेटिव’ के नाम से जाना जाता है और यहाँ की भेरियाँ 82 एकड़ में फैली हैं। शहर के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर ये इलाका कोलकाता बन्दरगाह की जमीन पर स्थित है। इसके पास ही है कारखानों का वह पुराना इलाका जहाँ भारतीय उद्योग के सबसे बड़े नाम शुरू से मौजूद रहे हैं। हर रोज इन भेरियों की ओर 2.5 करोड़ लीटर मैला पानी आता है, जिसमें ज्यादातर उद्योग के निस्तार का प्रदूषित पानी होता है और बचा हुआ घरों की नालियों का मैला पानी।

इस जहर-बुझे पानी से मुदिअली के मछुआरे ऐसा क्या करते हैं कि हुगली नदी में जाने से पहले यह मैला पानी काफी साफ तो हो ही जाता है, ढेर सी साफ-सुथरी मछली भी पैदा करती है? अनपढ़ मछुआरे ऐसा क्या करते हैं जो पढ़े-लिखे आला अफसरों के बनाए मैले पानी के कारखाने भी कई जगहों पर नहीं कर पाते? पिछले 40-50 साल से मुदिअली के मछुआरे यह बता रहे हैं कि अगर प्रकृति को अवसर दिया जाये तो वह थोड़े ही समय में हमारे कई तरह के पाप धो देती है और इसके लिये गंगा में ही डुबकी लगानी पड़े ऐसा नहीं है। मुदिअली की भेरियाँ भी कोलकाता के पाप धोती है। इसका शास्त्र चाहे कितना भी चमत्कारी क्यों न लगे, समझने में बहुत मुश्किल नहीं है।

मैले पानी को एक-एक कर के छह भेरियों से निकाला जाता है। हर चरण में उसका एक तरह का संस्कार होता है। इसमें सबसे गूढ़ कला है पानी का स्वभाव समझना, ताकि उसे ठीक समय पर ठीक भेरी में भेजा जा सके। पहले मैले पानी को एक संकरे नाले में डालकर खड़ा रखा जाता है और उसमें चूना मिलाया जाता है। पानी अगर बहुत दूषित हो तो उसमें मछली साँस नहीं ले सकती। इसलिये इस पहले हिस्से में ऐसी ही मछलियाँ छोड़ी जाती हैं जो भगवान शिव की तरह गरल सहने की ताकत रखती हैं। जब पानी में जानलेवा जहर की मात्रा बढ़ती है या प्राणवायु कम हो जाती है तो ये मछलियाँ गलफड़े से साँस लेने की बजाय मुँह सतह के ऊपर निकाल कर सीधे हवा से साँस ले सकती हैं। जब तक मछली ऊपर से साँस लेती है तब तक पानी आगे नहीं छोड़ा जाता।

मछली पकड़ते किसानपानी की गुणवत्ता परखने का यह तरीका अचूक है। जब तक मछलियों के व्यवहार से यह सिद्ध न हो जाये कि पानी में सुधार हुआ है तब तक उस पानी को अगली भेरी तक नहीं भेजा जाता है। जब मछली पानी के भीतर साँस लेने लगती है तब पता चल जाता है कि पानी में पर्याप्त प्राणवायु घुल चुकी है। इस मैले पानी को ऐसी भेरी में डाला जाता है जिसमें जलकुम्भी जैसे पौधे होते हैं, जो कई तरह का विष सोख लेते हैं। एक भेरी से दूसरी भेरी के रास्ते में फिर वही मछलियाँ रखी जाती हैं जो उसकी गुणवत्ता के संकेत देती हैं।

इतनी सावधानी बरतने की वजह से यहाँ मछलियाँ खूब तेजी से पलती हैं। उनका स्वास्थ्य भी दूसरी भेरियों की मछलियों से बेहतर पाया गया है क्योंकि यहाँ मछुआरे ढेर सारे चिड़ियों को रहने देते हैं। इनमें से कई पक्षी मछली खाते हैं और इनके रहने से मछली की पकड़ में थोड़ी कमी भी आती है। लेकिन फिर भी इस नुकसान को मुदिअली के मछुआरे सहते हैं क्योंकि इन पक्षियों की चोंच से बचने के लिये मछलियों को दम लगाकर तैरते रहना पड़ता है। वर्जिश उन्हें तन्दुरुस्त रखती है। फिर पक्षियों की बीट से मछलियों को खाद भी मिलती है। पूर्वी कोलकाता की भेरियों में घोंघे खाने वाली बतख की बीट को आप एक बार फिर याद कर सकते हैं।

चिड़ियों को घोंसला बनाने के लिये ढेर से पेड़ चाहिए होते हैं। सो मुदिअली के मछुआरों ने एक लाख से ज्यादा पेड़ लगाए हैं अपनी भेरियों के पाट पर। इन पर पक्षी घोंसले बनाते हैं। यहाँ पेड़ भी सूझ-बूझ से चुने गए हैं। सुबबूल जैसे पेड़ हवा से नाइट्रोजन खींचकर मछलियों को भोजन भी देते हैं। नीम जैसे पेड़ पानी की सफाई में मदद देते हैं। कई फलदार पेड़ भी लगाए गए हैं, जो तरह-तरह के प्राणियों को भोजन देकर पालते हैं और उनकी उपस्थिति से लाभ भी पाते हैं। नतीजा?

यहाँ 30 से ज्यादा प्रजातियों की मछलियाँ हैं और 140 से ज्यादा पक्षियों की। इन पक्षियों के पास शहर और उसके आसपास रहने की जगह कम ही बची है। यहाँ 27 प्रजातियाँ प्रवासी पक्षियों की हैं, जो दूर देशों से आते हैं और जिनके दर्शन को दुनिया तरसती है। यहाँ ये सहज ही विचरते हैं। प्रकृति के रास का अभिन्न अंग तितलियाँ भी यहाँ अनेक हैं। इनकी 84 प्रजातियाँ यहाँ गिनी गई हैं। कोलकाता की दम घोंटने वाली भीड़ के बीच यहाँ का अरण्यक वातावरण किसी मलहम से कम नहीं लगता।

कोलकाता शहर यहाँ के मछुआरों को इस दृष्टि से नहीं देखता। उनका किसी तरह से मान नहीं किया जाता, कोई श्रेय नहीं मिलता उन्हें, उनकी सेवाओं का ठीक मुआवजा देना तो बहुत दूर की बात है। कोलकाता बन्दरगाह के अफसर तो उनकी भेरियाँ पाट कर, उन्हें बेदखल करना चाहते हैं। यह जमीन बन्दरगाह ट्रस्ट की ही है पर बेकार पड़ी रहती थी। कोई 50 साल पहले मुदिअली के मछुआरों ने इसे पट्टे पर लेकर यहाँ भेरियाँ बनाईं। उस समय बन्दरगाह वालों को उजाड़ जमीन का यह अच्छा उपयोग दिखा। अब जमीन की कीमत आसमान छू रही है।इतने तरह के प्राणियों के महारास से वातावरण में कल्लोल और रंग सदा ही रहता है। हर रोज कोई 600 से अधिक लोग यहाँ 10 रुपए का टिकट लेकर वह शान्ति ढूँढने आते हैं जो उन्हें कोलकाता की भीड़ में कहीं और नहीं मिलती है। हजारों पक्षियों की ही तरह यहाँ कई प्रेमी युगल भी देखे जा सकते हैं जिन्हें दो मीठी बात करने की जगह शहर नहीं दे सकता। उद्योग के जहरीले कचरे को ग्रहण कर मुदिअली के मछुआरे हर रोज अपने पौरुष से अपना रोजगार तो कमाते ही हैं, उससे कई तरह का रस और सौन्दर्य निकालने का ऋषि कर्म भी करते हैं। पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि समुद्र मंथन से निकला विष पीने वाले भगवान शिव तरह-तरह के प्राणियों के साथ शान्त वातावरण में रहना पसन्द करते हैं। भोलेनाथ का अगर कैलाश या काशी काठमाण्डू में आने वाले भक्तों और पर्यटकों से जी उकता जाये, तो मुदिअली उनके रहने योग्य जगह है। यह पशुपतिनाथ का सजीव मन्दिर है, भले ही उनकी मूर्ति यहाँ हो या न हो।

लेकिन कोलकाता शहर यहाँ के मछुआरों को इस दृष्टि से नहीं देखता। उनका किसी तरह से मान नहीं किया जाता, कोई श्रेय नहीं मिलता उन्हें, उनकी सेवाओं का ठीक मुआवजा देना तो बहुत दूर की बात है। कोलकाता बन्दरगाह के अफसर तो उनकी भेरियाँ पाट कर, उन्हें बेदखल करना चाहते हैं। यह जमीन बन्दरगाह ट्रस्ट की ही है पर बेकार पड़ी रहती थी। कोई 50 साल पहले मुदिअली के मछुआरों ने इसे पट्टे पर लेकर यहाँ भेरियाँ बनाईं। उस समय बन्दरगाह वालों को उजाड़ जमीन का यह अच्छा उपयोग दिखा। अब जमीन की कीमत आसमान छू रही है।

बन्दरगाह अपनी भूमि अब वापस चाहता है। इसके लिये कचहरी में सालों से एक अभियोग चल रहा है क्योंकि बाजार में कीमत केवल जमीन की होती है, उन सेवाओं की नहीं जो इन भेरियों से शहर को सहज ही मिलती हैं।

ऐसी ही एक सेवा के बिना कोलकाता बर्बादी के कगार पर पहुँच सकता है। मुदिअली और पूर्वी कोलकाता की भेरियाँ शहर को चौमासे की बाढ़ से भी बचाती हैं। कोलकाता में तो बारिश हमारे दूसरे शहरों से ज्यादा ही होती हैः साल में 1,800 मिलीमीटर की औसत से। फिर भी कोलकाता में बाढ़ का खतरा जरा कम ही रहा है क्योंकि शहर का पानी ढलान के साथ-साथ पूर्व की जलभूमि में विलीन हो जाता है। बरसों से कोलकाता का सहज बाढ़ राहत कार्यक्रम इन्हीं भेरियों के रूप में चलता रहा है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जब कोलकाता बसाया तब इस इलाके को बाढ़ से बचाने के लिये खाली छोड़े रखा। तेज बारिश के बावजूद पुरंदर कोलकाता को मिटा नहीं पाया।

जो दूसरे शहरों में हो रहा है उससे कोलकाता भी आज आज अछूता नहीं है। पूर्वी कोलकाता का बहुत तेजी से आधुनिक विकास हुआ है। कई तालाबों और भेरियों को पाटकर इमारतें बनाई गई हैं, कालोनियाँ काटी गई हैं। इनमें ज्यादातर निर्माण अवैध कब्जे से हुआ है। खासतौर से पूर्वी महानगर बाइपास बनने के बाद कोलकाता का सम्बन्ध अपनी पूर्वी भेरियों से बिगड़ा है। पानी की आवाजाही के रास्ते रुक गए हैं। बाढ़ का पानी ज्यादा देर तक उन इलाकों में रुका रहता है, जहाँ से पहले वह आसानी से बह जाता था। बिल्डरों की ताकत अथाह है और उनके साधनों से सारे रास्ते खुल जाते हैं। उनके हाथ में होता तो शायद यहाँ की भेरियाँ और खेत बहुत पहले ही पट जाते। लेकिन जैसे इस इलाके में मैला पानी पहुँचाने में श्री बीरेंद्रनाथ डे जैसे सरकारी अफसर का हाथ था वैसे ही यहाँ की भेरियाँ बचाने में एक और सरकारी अफसर का हाथ रहा।

ध्रुबोज्योति घोष पश्चिम बंगाल के मुख्य पर्यावरण अधिकारी के पद से सन 2005 में सेवानिवृत्त हुए। जवानी में ही वे छात्र आन्दोलनों में चले गए थे। वहाँ से मोहभंग हुआ तो इंजीनियरी पढ़ी और पहली नौकरी एक ठेकेदार के लिये की, जो सीवर की नालियाँ बना रहा था। 1972 में वे सरकारी नौकरी में आ गए। यहाँ उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा, उन्हें काम नहीं दिया जाता था। खाली समय का सदुपयोग करने के लिये उन्होंने एक अमेरिकी विश्वविद्यालय से ‘पारिस्थितिकी’ या ‘इकोलॉजी’ में डाक्टरेट की पढ़ाई की। उनके शोध प्रबन्ध का निरीक्षण करने वाले प्रोफेसर की अपनी विधा में प्रसिद्धि दुनिया भर में थी। वे खुद अपने खर्च पर कोलकाता आकर अपने छात्र का शोध जाँचते थे।

झील के किनारे अवैध निर्माणसन 1981 में श्री ध्रुबोज्योति का तबादला हुआ राज्य की योजना परिषद में। यहाँ उनके हिस्से आया सीवर व्यवस्था का काम। उन्हें कहा गया कि वे देश भर में घूम कर मैले पानी के सदुपयोग पर जानकारी इकट्ठी करें। उनकी यात्रा का टिकट भी कट चुका था। अचानक उन्हें लगा कि अगर किसी ने यात्रा के दौरान उनसे पूछ लिया कि कोलकाता में सीवर के पानी का क्या होता है तो क्या जवाब देंगे। उन्होंने आसपास इस बारे में लोगों से पूछताछ की तो पता लगा कि सरकार में किसी को अन्दाजा ही नहीं था कि शहर अपने सीवर के पानी का क्या करता है।

तो एक दिन वे शहर से मैला पानी निस्तारने वाली नहर के किनारे पहुँचे और पैदल चलने लगे। भेरियों का एक अजब नजारा उनके सामने आ गया। उन्हें एक पूरी व्यवस्था, एक पूरी दुनिया दिखी, जो खुद से ही चल रही थी। जो शहर के मैले से ही मछली, धान और सब्जी उगाकर वापस शहर भेज रही थी। सरकार और कोलकाता शहर इस संसार से बिलकुल बेखबर थे। यही नहीं, सरकार चाहती थी कि वे देश भर घूम कर वही जानकारी इकट्ठी करें जो उन्हें एक पैदल यात्रा में मिल गई थी। शहर के मैले का इससे अच्छा उपयोग क्या हो सकता था?

वे अचम्भित थे। उन्होंने अपने शोध निरीक्षक को सब समझाते हुए एक पत्र लिखा। उनके निरीक्षक ने जवाब में लिखा कि अगर वे अपने पाँच साल इस इलाके को समझने में लगा दें तो इतिहास रचा जाएगा। श्री ध्रुबोज्योति ने इसे गुरुमंत्र मान लिया, इसकी गाँठ बाँध ली और जवाब में कहा कि वे पाँच क्या, दस साल लगाने को तत्पर हैं।

वे इस इलाके में नियम से जाने लगे, लोगों से परिचय बनाया, सम्बन्ध गढ़े, मित्रता बढ़ाई। धीरे-धीरे यहाँ के रहस्य उनके सामने खुलने लगे और उनकी रुचि अपने खुद के शोध या नौकरी की बजाय इस अद्भुत इलाके और इसके लोगों को समझने में बढ़ती गई। इस जलमग्न भूमि का उत्तरी हिस्सा तो 1960 के दशक में ही साल्ट लेक सिटी बनाने के लिये पाटा जा चुका था। उन्हें दिख गया था कि बचा हुआ इलाका भी आगे-पीछे बिल्डरों के विकास की भेंट चढ़ेगा। इसलिये उन्होंने यहाँ के अध्ययन के लिये सरकार से एक योजना पक्की करा ली और इस इलाके का एक कानूनन नाम रखवा दियाः ‘ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स’, यानी पूर्वी कोलकाता की जलभूमि।

इस जमीन की मिल्कियत का अता-पता नहीं था और इस इलाके का सर्वे या नक्शा बना नहीं था। ये सारे काम श्री ध्रुबोज्योति ने खुद किये या दूसरे विभागों से सरकारी देखरेख में कराए। 1987 तक उन्हें समझ आ गया था कि बिल्डर बहुत तेजी से यहाँ का ‘विकास’ करने आने लगे हैं और सरकार उनका साथ दे रही है। वे इसके संरक्षण के कानूनी तरीके ढूँढने लगे। अदालतों में कई अभियोग चले और उनका नतीजा भेरियों के पक्ष में रहा। फिर कई साल के उनके अथक प्रयासों के बाद इस जलभूमि को सन 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘रामसर अनुबन्ध’ की मान्यता मिली। इस अन्तरराष्ट्रीय अनुबन्ध की वजह से अब यह राज्य और केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी बन चुकी है कि यह अनूठा इलाका जैसा है वैसा ही बना रहे। अब तो इन भेरियों की विशेषताओं पर कई तरह के वैज्ञानिक पर्चे लिखे जाते हैं, कुछ डॉक्टरेट की उपाधियाँ भी यहाँ के मिट्टी-पानी से जन्मी हैं। यहाँ की जमीन गाँठना अब बिल्डरों के लिये आसान नहीं रहा। फिर भी उनकी आँख हमेशा लगी रहती है। शहर अब इस इलाके के बगल तक बढ़ गया है। राजनेताओं के संरक्षण में बिल्डर हमेशा कोशिश करते रहते हैं इस जमीन को हथियाने की।

सन 2005 में रिटायर होने के बाद भी श्री ध्रुबोज्योति इन भेरियों और इनके मछुआरों के गुणगान में लगे रहते हैं। उन्हें कोलकाता के बाशिन्दों पर अचरज होता है, जो इस इलाके का मोल जानकर इसका मान करने की बजाय इसकी उपेक्षा ही करते हैं। आजकल मूल्य रुपयों में ही समझा जाता है, इसलिये सन 2005 में उन्होंने इस इलाके की कीमत धन में आँकने की कोशिश की। आँकड़े जानने लायक हैं, हालांकि श्री ध्रुबोज्योति बार-बार कहते हैं कि इस इलाके की हमारी शास्त्रीय समझ अधूरी है, जानकारी भी कम ही है। आकलन करने वाले की आँख और मूल्यों से ही आकलन की दिशा तय होती है। वे मानते हैं कि इस इलाके का ठीक मोल समझने की दृष्टि अभी हमारे पास है ही नहीं। इतनी सावधानी के बाद उन्होंने कुछ आँकड़े तैयार किये हैं।

जितना मैला पानी यहाँ साफ होता है उसके लिये अगर कारखाने लगाए जाएँ तो 11 साल तक उनका सालाना खर्च होगा 101 करोड़ रुपए। फिर मैल से मछली का भोजन अगर न मिले तो उसे बाजार से खरीदने का सालाना खर्च 6 करोड़ रुपए होगा। खेतों में सिंचाई के लिये छोड़े जाने वाले साफ किये पानी की कीमत 2.6 करोड़ रुपए होगी। यही कुल 110 करोड़ बनता है। बाढ़ नियंत्रण जैसी सेवाएँ, जो यह इलाका मुफ्त में देता है, उन्हें भी जोड़ दें तो यह आँकड़ा 177 करोड़ रुपए से ऊपर चला जाता है।जितना मैला पानी यहाँ साफ होता है उसके लिये अगर कारखाने लगाए जाएँ तो 11 साल तक उनका सालाना खर्च होगा 101 करोड़ रुपए। फिर मैल से मछली का भोजन अगर न मिले तो उसे बाजार से खरीदने का सालाना खर्च 6 करोड़ रुपए होगा। खेतों में सिंचाई के लिये छोड़े जाने वाले साफ किये पानी की कीमत 2.6 करोड़ रुपए होगी। यही कुल 110 करोड़ बनता है। बाढ़ नियंत्रण जैसी सेवाएँ, जो यह इलाका मुफ्त में देता है, उन्हें भी जोड़ दें तो यह आँकड़ा 177 करोड़ रुपए से ऊपर चला जाता है। यह सब गणित सन 2005 की कीमतों के आधार पर था। महंगाई का हिसाब लगाएँ तो यह आँकड़ा कहाँ पहुँचेगा, कौन कह सकता है? इस जलमग्न भूमि की वजह से कोलकाता दूसरे शहरों की तुलना में काफी सस्ता शहर है।

पूर्वी कोलकाता और मुदिअली की भेरियाँ नगर के गुर्दे की तरह काम करती हैं। वे शहर के खून से अशुद्धि तो निकालती ही हैं, बेशकीमती उर्वरकों को फिर से इस्तेमाल लायक बनाती हैं। इतनी सेवाएँ पानी के लिये कोलकाता नगर निगम या राज्य सरकार को कोई खर्च नहीं करना पड़ता, ये अनमोल सेवाएँ शहर को मुफ्त में मिलती हैं। अगर शहर ढेर सा रुपया खर्च कर आधुनिक मैला साफ करने के कारखाने लगा भी ले तो उनका हश्र क्या होगा? जानना हो तो राजधानी एक्सप्रेस से वापस दिल्ली आएँ और 36 कारखानों की प्रभावशीलता के लिये यमुना नदी के पानी को जाँच लें।

यहाँ के मछुआरे और किसान जिस सूझ-बूझ से अपना काम करते हैं। उसकी बौद्धिक सम्पदा का अधिकार वे किसी और पर जमाते नहीं हैं। यह सारा ज्ञान उन्होंने खुद, पीढ़ी-दर-पीढ़ी की साधना और प्रयोगों से जुटाया है। किसी कॉलेज में दाखिला पाने के लिये उन्होंने आन्दोलन नहीं चलाए। उनके मैला साफ करने के तरीके में कोई बिजली नहीं लगती और वे किसी तरह का तकनीकी प्रशिक्षण भत्ता नहीं माँगते, शोध एवं प्रौद्योगिकी विकास कार्यक्रम के लिये अनुदान भी नहीं। हमारे किसी भी महंगे कारखाने से बेहतर, मैले पानी का उपचार करने के लिये वे सरकार से तकनीकी श्रेष्ठता का पुरस्कार भी नहीं माँगते। खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के आगे जा कर खाद्य सुरक्षा का कोई नारा नहीं लगाते। जल मंत्रालय से भूजल संवर्धन का प्रशस्ति पत्र नहीं माँगते हैं। बाढ़ नियंत्रण का चालान भी सरकार को नहीं भेजते हैं। कुपोषण दूर करने के लिये बेशकीमती प्रोटीन किफायती दाम में पहुँचाने का श्रेय स्वास्थ्य मंत्रालय से भी नहीं माँगते।

आपको कोलकाता के सामाजिक साहित्य में यह सब जानने को नहीं मिलेगा। पुरानी भेरियाँ पाटकर उस जमीन पर बनाए गए दुनिया के दूसरे सबसे बड़े स्टेडियम, ‘साल्ट लेक स्टेडियम’ का चर्चा आप खूब सुन सकते हैं। लेकिन कोलकाता के भद्रलोक में इस निर्मल कथा की भनक तक नहीं मिलती है कि कैसे उसके मैले पानी के उपयोग से शहर के पूरब में एक अद्वितीय लोक उभर आया है।

पिछले 70-80 साल में खारे पानी के दलदल में मीठे पानी की मछली पालने से खारापन तो गया ही है, जीवन के कई नए रूप यहाँ खिल उठे हैं। छह साल पहले एक वैज्ञानिक शोध दल ने धापा गाँव के कचरे में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं का अनुमान लगाया। उन्हें कई ऐसे जीवाणु मिले, जो कचरे में पाये जाने वाले रसायनों को सहज ही पचा जाते हैं। कई परीक्षणों ने यह भी दिखाया ही है कि 30,000 एकड़ में फैली इस जलभूमि के पानी में रोगाणु बचते ही नहीं हैं। जिस शैवाल पर मछलियाँ पलती हैं उसके पनपने के लिये कई तरह के मित्र बैक्टीरिया का होना तो जरूरी है। पर नुकसान करने वाले बैक्टीरिया यहाँ टिक नहीं पाते हैं।

वैज्ञानिकों को अभी यह ठीक से समझ नहीं आया है कि ये जीवाणु काम कैसे करते हैं। इनमें कुछ की उपयोगिता कई उद्योगों में है, जैसे दवा बनाने वाली कम्पनियों में और डिब्बाबन्द खाद्य वस्तुओं को तैयार करने में। आजकल वैज्ञानिक उपयोगी जीवाणुओं को वैसे ही खोजने लगे हैं जैसे एक समय लोग सोना खोजते-फिरते थे, क्योंकि औद्योगिक प्रक्रियाओं में इनकी माँग लगातार बढ़ती ही जा रही है। फायदेमन्द जीवाणुओं के खजाने की वजह से शायद अब इन भेरियों का ठीक मूल्यांकन हो।

यहाँ के मछुआरे तो न जाने कब से मैले पानी के इस सुनहरे सच को जानते हैं।