मानसखण्ड में नैनीताल

Submitted by Shivendra on Wed, 10/16/2019 - 10:49
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नैनीताल एक धरोहर

फोटो-nainital.info

व्यास उवाच :-

शेषस्य दक्षिणे भागे पुण्यो गर्गागिरि: स्मृत:। लतापादपंकीर्णो नानाधातुविराजित:।।1।।
कूजत्कोकिलसंघैश्च यत्र तत्र प्रणादितम्। रजताकरसंयुक्तो राजते रजतोपम:।।2।।
गौरी पद्मा शची मेगा साबित्री विजया जया। तुष्टि-प्रभृतयो दैव्यो राजन्ते यत्र वै द्विजा।।3।।
चित्रक: सत्येनश्च तथा गार्ग्यो महातपा:। यत्र सिद्धा विराजन्ते सत्यव्रतपरायण:।।4।।
कान्ता कान्तिमती पुण्या वेणुमुद्रा तथा नदी। सुवाहा देवहा चैव भद्रा भद्रवती तथा।।5।।
सुभद्रा कालभद्रा च काकभद्रा तथा नदी। पुण्यभद्रा सरिच्छेष्ठा मानसी मानसा तथा।।6।।
एतास्तु बहवो नद्यो तस्मिन् सम्भूय सुव्रता:। पूर्णपश्चिमवाहिन्यो याम्योत्तरगगतास्तथा।।7।।
विराजन्ते महानद्यो यस्मिन्पर्वतनायके। यासु स्नात्वा च मुनयो गता: स्वर्गप्रति द्विजा:।।8।।
षटषष्टीति च विख्याता यस्मिन्वै हृदनायका:। निमज्य तेषु वै विप्रा विनश्यन्त्यघकोटय:।।9।।
मां यजन्तु महाभागा यज्ञै: सुबहुदक्षिणै:। माँ निमज्जन्तु तीर्थेषु माँ कथां प्रवदन्तु हि।।10।।
पुण्यं गर्गगिरिं विप्रा: समारोहन्तु मानवा:। यत्र गर्गो महातेजास्तपस्तेपे सुदुष्करम्।।11।।
सुपुण्यं पर्वतं मत्वा लोकानां हितकाम्यया। तस्मात्रान्यतम: पुण्य: पर्वतो मनिसत्तमा:।।12।।
यत्र कीटा: पतंगाद्या: मशकाश्च। मता: शिवपुरं पुण्यं यान्ति वै मुनिसत्तमा:।।13।।
यो हिमाद्रिं प्रणम्याशु संस्थितो गिरिनायक:। तस्य व्याख्यापनं विप्रा: कथं वै कथयाम्यहम्।।14।।
तस्य वै शिखरे पुण्ये गार्ग्येशो नाम शंकर:। पूज्यते देवगन्धर्वेमनिवैश्च तपोधना:।।15।।
तत्र गार्ग्याश्रमादुत्था गार्गी नाम शंकर:। पूज्यते देवगन्धर्वेमनिवैश्च तपोधना:।।16।।
तत्र गार्ग्याश्रमादुत्था गार्गा नाम सरिद्वरा। पुण्यतोयवहा पुण्या विद्यते मुनिसत्तमा:।।17।।
वामे तस्या महाभीमो हद: संख्यायते द्विजा:।त्रिभिर्यो ऋषिभि: पुण्य: पूरितस्तर्षिसंज्ञक:।।18।।
 
ऋषय ऊचु :- 

कथं वै ऋषयो विप्र त्रय: परमधार्मिका:। हदं सम्पूरयामासु: के ते ख्यातास्तपोधना:।।19।।
 
व्यास उवाच:-


अत्रि: पुलस्त्य: सुलह: ऋषयो गर्गपर्वतम समाजग्मुर्महाभागास्तपस्तप्तुं सुदुष्करम्।।20।।
तत्र चित्रशिलां दृष्टवाअरुरुहु: पर्वतोत्तमम् आरुह्यमाणा ऋषय: सूर्यरश्मिप्रपीड़िता:।।21।।
तृषिता चाभवन्विप्रा: परिम्लानमुखश्रिय:। तत्र ते तृषिता: सर्वे खनयामासु: भूधरम्।।22।।
खनित्वा भूधरं सर्वे स्मरन्तो मानसं सरम् स्मृतमात्रस्तु ऋषिभिमानसोमुनिसत्तमा:।।23।।
जलेन पूरयामास ह्दं तं भीमसंमितम् तत्र ते पूरितं दृष्ट्वा ह्दं तं तृषिसंज्ञकम। पीत्वाअप: सुचिरं स्थित्वा ययुर्विप्रा यथागतम्।।23।।
येंनिमज्जन्ति मनुजा: सरे वै तृषि- संज्ञिते। मानसस्नानजं पुण्यं प्राप्नुवन्ति न संशय:।।24।।
इति श्री स्कन्दपुराणे मानसखण्डे गर्गाद्रिमहात्म्यं एकचत्वारिशोअध्याय:।।

अर्थात -

व्यास जी ने कहा शेषगिरि के दक्षिण भाग में पवित्र 'गर्गाचल' है। वह लताओं, वृक्षों तथा विभिन्न धातुओं से संयुक्त है। कोयलों के मधुर स्वर से निनादित एवं चाँदी की खानों से संयुक्त यह पर्वत चाँदी के समान शुभ है। हे ब्राह्मणों ! उस पर्वत पर गौरी, पद्मा, शची, मेघा, सावित्रि, विजया, जया तथा तुष्टि आदि  मातृकायें विराजमान हैं। चित्रक, सत्यसेन, तपस्वी गार्ग्य एवं सत्यव्रती सिद्धगण भी वहाँ विद्यमान हैं। कान्ता, पवित्र कान्तिमती, वेणुभद्रा, सुवाहा, देवहा, भद्रा, भद्रवती, सुभद्रा, कालभद्रा, पुष्पभद्रा, श्रेष्ठनदी, मानसी, मानसा आदि बहुत सी नदियाँ वहाँ से निकल कर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर की ओर बहती हुई विराजमान हैं। जिनमें स्नान करने से अनेक मुनि स्वर्ग को गए। इसी पर्वतमाला में 66 सरोवर (श्रेष्ठ ह्द) विख्यात हैं। इनमें स्नान करने से पाप विनष्ट हो जाते हैं। मानव चाहे बहुदक्षिणा-सम्पन्न अनेक यज्ञ, तीर्थस्थान, कथाश्रवण आदि भले ही न करे, किन्तु केवल लोकहितार्थ गर्ग ऋषि के तपस्थल गर्गाचल पर आरुढ़ हो जाए, तो उससे बढ़कर दूसरा पुण्य कार्य नहीं है। हे व्रती ऋषियों ! वहाँ रहकर कीड़ों-मकोड़ों और मच्छरों आदि ने भी मुक्ति पाई है। जो पर्वतश्रेष्ठ गर्गाचल उसके शिखर पर पवित्र गार्ग्येश शिव का पूजन होता है। मुनिश्रेष्ठो ! वहीँ गर्गाश्रम से गार्गी नदी प्रादुर्भूत होती है। गर्गाचल के वाम भाग में बहुत बड़ा ताल है। उसे तीन ऋषियों ने भरा था। अत: वह "तृषि" (त्रिऋषि) सरोवर  नाम से प्रसिद्ध है। (1-17)

(इस बीच) ऋषियों ने पूछा - ब्रह्मर्षे ! परम धार्मिक तीन ऋषि वे कौन थे ? इन्होंने इसे किस प्रकार भरा ? (18)

वेदव्यास ने उत्तर दिया - मुनिवरो! अत्रि, पुलह, और पुलस्त्य ये तीन ऋषि कठोर तप करने हेतु गर्गाचल पर आए। मार्ग में चित्र शिला को देख, वहाँ से उन्होंने चढ़ाई आरम्भ की। पहाड़ पर चढ़ते हुए धूप की तेजी से उन्हें प्यास लग गई। उन्होंने सरोवर का स्मरण कर पर्वत को खोदना आरम्भ किया। स्मरण करते ही मानसरोवर ने उस स्थान को जल से भर दिया। उस ताल को जल से भरा देख उन सब ऋषियों ने जल पिया। बहुत दिनों तक रहने के पश्चात वे ऋषि अपने निश्चित स्थान को चले गए। जो इस तृषि (त्रिऋषि) सरोवर में स्नान करते हैं, वे नि:सन्देह मानसरोवर में स्नान करने का फल प्राप्त करते हैं। (16-24)

 

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