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नई दुनिया, 8 जुलाई 2011
जून से सितंबर के बीच बारिश कम होने का सीधा अर्थ है इस मौसम की फसलों पर असर पड़ना। इस मौसम में आमतौर पर धान, गन्ना, कपास, दाल और तिलहन की फसलें उगाई जाती हैं। कम बारिश के कारण इन फसलों के उत्पादन पर असर पड़ सकता है। अपने देश में अब भी खेती के लिए वर्षा का होना कितना जरूरी है, इससे हम सभी वाकिफ हैं।
तीन सालों में दूसरी बार भारत में मानसून के कमजोर रहने की आशंका ने सबकी चिंता बढ़ा दी है। मानसून के दौरान बारिश अच्छी हो तो देशवासियों के चेहरे पर अच्छी मुस्कान की उम्मीद की जाती है क्योंकि तब देश में अनाज का उत्पादन बेहतर होता है और महँगाई पर लगाम लगे रहने की संभावना बनी रहती है लेकिन जब मानसून कमजोर हो तो अनाज उत्पादन पर असर पड़ता है जिससे महँगाई को बेलगाम हो जाने का माकूल माहौल मिलता है। इस साल ऐसी ही स्थिति बनती दिखाई पड़ती है। मौसम विभाग ने घोषणा की है कि इस साल देश में मानसून सामान्य से थोड़ा कम 95 प्रतिशत के करीब रहेगा। कहीं-कहीं तो यह 90 प्रतिशत तक भी हो सकता है। यानी देश में जून से सितंबर के बीच सामान्य से कम बारिश होगी जो कि चिंता बढ़ाने का कारण बन सकती है। हालाँकि अप्रैल में मौसम विभाग ने घोषणा की थी कि इस साल मानसून सामान्य रहेगा और देश में बारिश की कोई कमी नहीं होगी लेकिन जून आते-आते मानसून की जो स्थिति उभरकर आई, वह थोड़ी चिंताजनक है। आमतौर पर सामान्य मानसून 98 से 104 प्रतिशत तक कहा जाता है। जून से सितंबर के बीच बारिश कम होने का सीधा अर्थ है इस मौसम की फसलों पर असर पड़ना। इस मौसम में आमतौर पर धान, गन्ना, कपास, दाल और तिलहन की फसलें उगाई जाती हैं।कम बारिश के कारण इन फसलों के उत्पादन पर असर पड़ सकता है। हमारे देश में अब भी खेती के लिए वर्षा का होना कितना जरूरी है, इससे हम सभी वाकिफ हैं। देश में 60 प्रतिशत से अधिक खेती वर्षा पर निर्भर है। बारिश कम हो तो अनाज का कम उत्पादन और फिर अकाल की काली छाया का पसर जाना मामूली बात है और फिर पहले से बढ़ी हुई महँगाई और किस कदर सताएगी, इसकी कल्पना से भी देश का सिहर जाना स्वाभाविक है। हालाँकि मौसम विभाग और सरकार के नुमाइंदे इस संभावना को नकार रहे हैं और बार-बार कहा जा रहा है कि मानसून कमजोर जरूर होगा लेकिन बारिश में कोई कमी नहीं होगी। पूरे देश में खेती के लायक पर्याप्त वर्षा हो जाएगी और अनाज का उत्पादन भी ठीक-ठाक हो जाएगा। भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर ने भी अपने बयान से इस डर को कम करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि कम बारिश से अनाज का उत्पादन कम हो जाएगा, इसकी आशंका अधिक नहीं है क्योंकि देश के मध्यवर्ती इलाकों में अच्छी बारिश की संभावना है। देश के इन्हीं इलाकों में अनाज का उत्पादन अधिक होता है, इसलिए बारिश कम होने का असर अनाज के उत्पादन पर ज्यादा नहीं पड़ेगा।
हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि अभी इस बारे में ठोस रूप से कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। साथ ही उनका यह भी कहना था कि रिजर्व बैंक अनाज के उत्पादन की स्थिति पर गहरी नजर रखे हुए हैं। देश के शीर्ष बैंक के उच्चाधिकारी के इस बयान में डर कम करने की कोशिश तो अवश्य है लेकिन इस बयान से डर पूरी तरह खत्म हो जाएगा, ऐसा भी नहीं लगता। इस साल मानसून समय से दो-तीन दिन पहले आया है। केरल में इसने 29 मई को दस्तक दी थी और इसके बाद कई इलाकों में सक्रिय हुआ। 20 जून तक देश के विभिन्ना इलाकों में अच्छी बारिश हो चुकी है। कपास की फसल का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले गुजरात और कुछ उत्तरी-पूर्वी इलाकों को छोड़कर देश में अब तक सामान्य से 11 प्रतिशत अधिक बारिश हो चुकी है लेकिन चिंता की बात अब शुरू होती है क्योंकि मानसून की चाल धीमी हो गई है और संभावित समय से देरी से कुछ इलाकों में पहुँचने की आशंका बढ़ती जा रही है। मौसम विभाग का कहना है कि मानसून देश के आधे हिस्से में पहुँच चुका है और जुलाई के पहले सप्ताह में पूरे देश में इसके पहुँच जाने की संभावना है लेकिन मानसून की गति कमजोर हो गई है जिसका अर्थ है कि जिस तारीख को उसे जहाँ होना चाहिए था, वहाँ नहीं पहुँच पाया है।
इसका एक अर्थ यह भी है कि जिस समय जिस अनाज की बुवाई मुकम्मल होनी चाहिए थी, वह नहीं हो पाएगी और इसका असर पैदावार पर पड़ सकता है। इसलिए विशेषज्ञ बारिश के कम होने की आशंका से उतने चिंतित नहीं हैं जितने कि इसकी चाल धीमी होने से हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अगले दो-तीन सप्ताह फसलों की बुवाई की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यदि मानसून की धीमी चाल में सुधार नहीं होता है और इसके खेती के लिए महत्वपूर्ण इलाकों में पहुँचने में देरी होती है तो यह चिंता की बात है। तब फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। अभी स्थिति यह है कि फसलों का कटोरा कहे जाने वाले उत्तर भारत में पर्याप्त बारिश नहीं हुई है। अब तक सिर्फ उत्तर प्रदेश के कुछ बाहरी इलाकों में अच्छी बारिश हुई है। शेष इलाकों को अब भी बारिश का इंतजार है। यह इंतजार जितना लंबा होगा, दिक्कतों की गठरी उतनी भारी होगी। देश में सिंचाई की सुविधा वाले इलाके बहुत थोड़े हैं। शेष इलाकों में बारिश के भरोसे ही खेती होती है। ऐसी स्थिति में यदि बारिश जरूरत के हिसाब से कम हुई तो फसलों की पैदावार कम होगी। फसलों की पैदावार कम होने का सीधा अर्थ है महँगाई के पंजे को मजबूती देना। महँगाई पहले से ही विकराल बनी हुई है और सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद काबू में नहीं आ रही है।
महँगाई से परेशान सरकार भी नई फसल के इंतजार में है ताकि बढ़ती कीमतों पर लगाम लग सके लेकिन यदि बारिश कम हुई तो सरकार के मंसूबों पर पानी फिर सकता है और पूरे देश को महँगाई का नया दंश झेलने पर मजबूर होना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘ऑर्गेनाइजेशन फॉर फूड एंड एग्रीकल्चर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले 10 वर्षों तक दुनिया में फसलों की उपज में कमी आने की आशंका है जिससे खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि जारी रहने वाली है। 17 जून को जारी अपनी रिपोर्ट में इस संगठन ने साफतौर पर यह चेतावनी दी है। फसलों की कम पैदावार महंगाई बढ़ाने के साथ-साथ देश को कमाई के अवसर से वंचित भी करेगी। कम पैदावार होने से देश की जरूरतें पूरी करने के लिए चीनी और अन्य चीजों के निर्यात पर भी ब्रेक लग जाएगा जिससे देश को कमाई के मौके गंवाने पर मजबूर होना पड़ेगा।
मानसून देश की अर्थव्यवस्था का एक ऐसा मेहमान है जिसके इंतजार में हम पलकें बिछाए रहते हैं। यह जब समय पर आता है तो पूरा देश खुश हो जाता है और जब खुलकर बरसता है तो पूरा देश खुशी से झूमने लगता है लेकिन यह एक ऐसी खुशी है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। प्रकृति की मर्जी पर निर्भर है यह खुशी। कभी मिलती है तो कभी नहीं मिलती। मिल जाए तो बहुत अच्छा, न मिले तो हम कुछ नहीं कर सकते। आखिर इस अनिश्चितता की स्थिति में हमारा देश कब तक फंसा रहेगा। एक ओर तो हम चांद पर अपने निशां छोड़ने के मंसूबे बांध रहे हैं और दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण धुरी कृषि को अनिश्चय की ऐसी स्थिति से निकालने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं। आखिर देश के तमाम किसानों को सिंचाई की ठोस सुविधा कब तक मिलेगी। आखिर खेती कब तक भगवान भरोसे होती रहेगी।