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आई.एम. फॉर चेंज
जो सरकारी परिभाषा के अनुसार किसान थे, उनके लिए सरकारी मदद पर्याप्त साबित नहीं हो रही क्योंकि एक तो उनका कर्ज सरकारी मदद से ज्यादा है, दूसरे पारिवारिक सदस्य की आत्महत्या के बाद की स्थितियों में यह मदद खास कारगर नहीं हो पा रही।
क्या सरकारी प्रयासों के बावजूद किसानों की आत्महत्या के ना थमने वाले सिलसिले का एक पहलू दलित और महिला अधिकारों की अनदेखी से भी जुड़ता है। सेंटर फॉर ह्यूमन राइटस् एंड ग्लोबल जस्टिस (सीएचआरजीजे) द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट की मानें तो- हां। सीएचआरजीजे और द इंटरनेशनल ह्यूमन राइटस् क्लीनिक की तरफ से जारी इस रिपोर्ट में आशंका व्यक्त की गई है कि खेतिहर संकट से जूझ रहे भारत में किसानों की आत्महत्या की समस्या को जातिगत और लैंगिक भेदभाव की सामाजिक सच्चाई और गंभीर बनाएगी क्योंकि भारत सरकार ने इस दिशा में समाधान के लिए ढांचागत बदलाव के कदम ना उठाकर सिर्फ आर्थिक राहत देने की नीति अपनायी है जो अपर्याप्त साबित हो रही है।एवरी थर्टी मिनटस्- फार्मर स्यूसाइड, ह्यूमन राइटस् एंड द एगरेरियान क्राइसिस इन इंडिया नामक इस दस्तावेज(पूरी रिपोर्ट के लिए देखें लिंक संख्या-1 और प्रेस विज्ञप्ति के लिए- 2) में कहा गया है कि किसानों की आत्महत्या का एक पहलू जातिगत और लैंगिक भेदभाव से जुड़ा हुआ है। भारत में उदारीकरण की नीतियों के बाद खेती (खासकर नकदी खेती) का पैटर्न बदल चुका है। सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के कारण “नीची जाति” के किसानों के पास नकदी फसल उगाने लायक तकनीकी जानकारी का अक्सर अभाव होता है और बहुत संभव है कि ऐसे किसानों पर बीटी-कॉटन आधारित कपास या फिर अन्य पूंजी-प्रधान नकदी फसलों की खेती से जुड़ी कर्जदारी का असर बाकियों की तुलना में कहीं ज्यादा होता हो।
रिपोर्ट के अनुसार “नीची जाति” के किसान और उनका परिवार जमीन की मिल्कियत के मामले में भी भेदभाव भरी नीतियों का शिकार होता है। जिन किसानों के पास अपनी जमीन की मिल्कियत नहीं होती उन्हें आधिकारिक आकलन में किसान नहीं माना जाता और परिवार के मुखिया की आत्महत्या की दशा में उसका परिवार किसान ना माने जाने के कारण सरकारी मुआवजे और राहत से वंचित हो जाता है। रिपोर्ट में यह कहते हुए कि भारत में तकनीकी तौर पर मिल्कियत से वंचित किसानों की एक बड़ी तादाद(मसलन महिला, दलित और आदिवासी) रहती है और भारत सरकार के नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े किसान-आत्महत्या की सामाजिक सच्चाइयों को छुपाते हैं, किसान-आत्महत्या से जुड़े जातिगत-लिंगगत भेदभाव के पहलू की तरफ ध्यान दिलाते हुए भारत सरकार से अपील की गई है कि वह अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का हस्ताक्षरी होने के नाते इस मामले में रोकथाम, जांच और समाधान के लिए समुचित कदम उठाये।
खेती-किसानी के संकट के बीच कर्जदारी के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को सामाजिक भेदभाव के कारण सरकारी राहत योजनाओं का फायदा नहीं पहुंच पाता- इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए रिपोर्ट में कई मिसालें दी गई हैं। इन्हीं मिसालों में एक है कलावती की कहानी। महिलाओं को भारत का पितृ प्रधान समाज जमीन का मालिक स्वीकार करने में भेदभाव से काम लेता है, और खेतिहर संकट के बीच इस भेदभाव के असर बड़े मारक हो सकते हैं, इस तथ्य की पुष्टि में रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र सरकार आत्महत्या करने वाले किसान के परिवार को 1 लाख का मुआवजा देती है। यह मुआवजा तीन शर्तों के अधीन दिया जाता है। पहली शर्त यह कि किसान के पास अपनी मिल्कियत की जमीन हो, दूसरे कि आत्महत्या करते वक्त किसान कर्जदार रहा हो और तीसरे कि कर्जदारी ही उसकी आत्महत्या का प्रधान कारण हो। इन तीन कारणों से आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिवार मुआवजे से वंचित हुए।
कलावती बंदारकर की कहानी कुछ ऐसी ही है। साल 2007 में उसके किसान पति ने आत्महत्या की। कलावती नौ बच्चों की मां और पाँच बच्चों की दादी है। दूसरों के खेतों में मजदूरी करने के अतिरिक्त वह 9 एकड़ की एक जमीन पर खेती-बाड़ी भी करती है। पति की मृत्यु के बाद कलावती को महाराष्ट्र सरकार ने मुआवजा नहीं दिया क्योंकि जिस 9 एकड़ जमीन पर यह परिवार खेती करता है, वह उनका अपना नहीं बल्कि पट्टे (लीज) पर लिया हुआ है।
परीक्षा की निगाह से देखें तो इस रिपोर्ट में व्यक्त की गई आशंका सच्चाई से ज्यादा दूर नहीं लगती। जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं तो किसानों की कब्रगाह के नाम से कुख्यात हो चुके महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके से चार और किसानों की आत्महत्या की खबर के साथ इस माह कर्ज, आर्थिक तंगहाली और खेती-किसानी के संकट के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद 28 तक पहुंच चुकी है। (देखें लिंक संख्या-3) अकेले इसी साल अब तक कुल 203 किसानों ने आत्महत्या की है और यह तथ्य उस सरकारी दावे की पोल खोल देता है जिसमें कहा गया है कि 5050 करोड़ की दो बड़ी राहत योजनाओं के बाद किसानों की आत्महत्या में कमी आई है।
खुद भारत सरकार के अद्यतन आंकड़ों (नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी) में माना गया है कि साल 2009 में देश में प्रतिदिन 348 लोगों ने आत्महत्या की इसमें किसान-आत्महत्याओं की संख्या प्रतिदिन 48 रही। साल 2004 के बाद से प्रतिदिन औसतन 47 किसानों ने आत्महत्या की है यानी हर 30 मिनट पर एक किसान आत्महत्या।(देखें नीचे दी गई लिंक)
रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण अंश—
1 आधिकारिक आकलन के अनुसार साल 2009 में कुल 17,638 किसानों ने आत्महत्या की यानी हर 30 मिनट पर एक किसान-आत्महत्या। यह आंकड़ा सच्चाई से थोड़ा दूर हो सकता है। अक्सर महिलाओं की गणना किसान-आत्महत्या के आंकड़ों में नहीं की जाती क्योंकि उनके नाम से जमीन की मिल्कियत नहीं होती जबकि जमीन की मिल्कियत का होना किसान कहलाने के लिए सरकारी नीतियों और आंकड़ों में जरुरी है।
2 ठीक इसी तरह आत्महत्या करने वाले दलित और आदिवासी किसानों के आंकड़े भी सरकारी आकलन में ठीक-ठीक पता नहीं किए जा सकते क्योंकि उनमें से ज्यादातर के पास जमीन की मिल्कियत साबित करने वाले सक्षम दस्तावेज नहीं होते। इसके अतिरिक्त किसान-परिवार का मुखिया अगर आत्महत्या करता है तो इसका असर पूरे परिवार पर पड़ता है। कर्ज की विरासत ढो रहे उसके परिवार का कोई अन्य सदस्य अगर आर्थिक तंगहाली की सूरत में आत्महत्या करे तो भी इसकी गणना सरकारी आंकड़े में नहीं होती। ठीक इसी तरह नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े में बंटाईदारी पर खेती करने वाले किसानों की आत्महत्या कृषक-आत्महत्या के रुप में दर्ज नहीं की जाती।
3 भारत सरकार ने इस संकट के समाधान के लिए मूलत कर्ज से सीमित छुटकारा दिलाने की नीति अपनायी है। यह नीति संकट की व्यापकता और उसके अंतर्निहित कारणों के समाधान में असफल रही है।
4 बरसों की निष्क्रियता के बाद किसान-आत्महत्या को लेकर समाधान की दिशा में राजनीतिक कदम केंद्र और राज्य स्तर पर उठाये गए। ये समाधान कर्जमाफी और मुआवजे की रकम के रुप में थे। इन समाधानों का लक्ष्य था किसानों की आत्महत्या के सर्वाधिक संभावित कारण यानी कर्जदारी से उन्हें छुटकारा दिलाना। लेकिन, चूंकि किसानी के संकट से जूझ रहे कई परिवार किसान की सरकारी परिभाषा से बाहर पड़ते है, इसलिए वे सरकार की राहत-योजना का लाभ पाने से वंचित रहे। जो सरकारी परिभाषा के अनुसार किसान थे, उनके लिए सरकारी मदद पर्याप्त साबित नहीं हो रही क्योंकि एक तो उनका कर्ज सरकारी मदद से ज्यादा है, दूसरे पारिवारिक सदस्य की आत्महत्या के बाद की स्थितियों में यह मदद खास कारगर नहीं हो पा रही।
5 सरकार की राहत नीति कारगर नहीं हो रही। किसान इस आशा में कि उनकी दुर्दशा देखकर सरकार नीतियाँ बदलेगी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक को अपने स्यूसाइड नोट में इसका आग्रह कर रहे हैं। साल 2010 में महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में आत्महत्या करने वाले किसान रामचंद्र राऊत ने बड़ी कीमत चुकाकर सरकारी स्टांप पेपर खरीदा और लिखा कि दो साल लगातार फसल मारी गई तो भी बैंक के अधिकारी कर्ज चुकाने के लिए बार-बार तंग कर रहे हैं, इसलिए मैं आत्महत्या कर रहा हूं।
6 भारत में खेती उदारीकरण की नीतियों के बाद गुजरे दो दशक से वैश्विक बाजार की शक्तियों के असर में है। खेती का खर्चा बढ़ा है लेकिन किसान की आमदनी कम हुई है। छोटे किसान आर्थिक तंगहाली की सूरत में कर्ज के दुष्चक्र में पड़े है। जिस साल फसल मारी जाती है, उस साल उन्हें खेती की लागत भी वसूल नहीं हो पाती, कर्ज चुका पाना मुश्किल होता है।
7 हर किसान आत्महत्या की अलग-अलग कहानी है। किसान की आत्महत्या के बाद पूरा परिवार उसके असर में आ जाता है। बच्चे स्कूल छोड़कर खेती-बाड़ी के कामों में हाथ बंटाने लगते हैं, परिवार को कर्ज की विरासत मिलती है और इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि बढ़े हुए पारिवारिक दबाव के बीच परिवार के कुछ अन्य सदस्य कहीं आत्महत्या ना कर बैठें।
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