कहलगाँव में एलसीडी और काली घाट के पास लगभग पाँच सौ परिवार है। इनका मुख्य रोजगार मछली मारना है, लेकिन इन लोगों को मछली मारने के लिये दबंगों का सामना करना पड़ता है। फेकिया देवी कहती हैं कि गंगा में मछली मारने जब लोग जाते थे तो दबंग लोग मारपीट करते थे। इसके साथ ही मछली छीन लेते थे। साथ ही पैसे माँगते थे। पैसा या मछली नहीं देने पर हत्या भी कर देते थे। तब फेकिया देवी ने 1982 से ही दबंगों की मनमानी मछली मारने और मारपीट करने का विरोध शुरू किया। उस समय किसी ने उनका साथ नहीं दिया। बिहार व पड़ोसी राज्य झारखण्ड में सबसे अधिक लम्बा प्रवाह मार्ग गंगा का है। शाहाबाद के चौसा से संथाल परगना के राजमहल और वहाँ से आगे गुमानी तक गंगा का प्रवाह 552 किलोमीटर लम्बा है। गंगा जब सबसे पहले बिहार की सीमा छूती है, तब वह बिहार और उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की 72 किलोमीटर सीमा बनाकर चलती है। जब वह केवल बिहार से होते हुए बीच भाग से हटने लगती है, तब बिहार-झारखण्ड में 64 किलोमीटर सीमा रेखा बनाकर गुजरती है।
416 किलोमीटर तक तो गंगा बिल्कुल बिहार एवं झारखण्ड की भूमि में ही अपना जल फैलाती है और उसकी भूमि शस्य श्यामला करती हुई बहती है। मछुआरों, किसानों, नाविकों एवं पंडितों की जीविका का आधार है गंगा। गंगा के किनारे बसे मछुआरों ने गंगा को प्रदूषित होते देखा है, उसकी दुर्दशा देखी है और उसे बनते देखा है। 1993 के पहले गंगा में जमींदारों के पानीदार थे, जो गंगा के मालिक बने हुए थे। सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी।
यह जमींदारी मुगल काल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाशय घोष की थी। बरारी से लेकर पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमशः मुर्शिदाबाद (पश्चिम बंगाल) के मुशर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी।
हैरत की बात तो यह थी कि जमींदारी किसी आदमी के नहीं, बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। और देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिव जी एवं अन्य। कागजी तौर पर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है। 1908 के आसपास दियारे की जमीन का काफी उलट-फेर हुआ। जमींदारों की जमीन पर लोगों ने कब्जा कर लिया। किसानों में आक्रोश फैला। संघर्ष की चेतना से पूरे इलाके में फैले जलकर जमींदार भयभीत हो गए और उन्होंने 1930 के आसपास इसे ट्रस्ट बनाकर देवी-देवताओं के नाम कर दिया।
जलकर जमींदारी खत्म करने के लिये 1961 में एक कोशिश की गई। भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इसे खत्म कर मछली बन्दोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी।
बिहार और झारखण्ड में सबसे अधिक लम्बा प्रवाह मार्ग गंगा का है। शाहाबाद के चौसा से संथाल परगना के राजमहल और वहाँ से आगे गुमानी तक गंगा का प्रवाह 552 किलोमीटर लम्बा है।
मई 1961 में जमींदारों ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की और अगस्त 1961 में उन्हें स्थगनादेश मिल गया। 1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाया कि जलकर जमींदारी मुगल बादशाह ने दी थी और जलकर के अधिकार का प्रश्न जमीन के प्रश्न से अलग है, क्योंकि यह जमीन की तरह अचल सम्पत्ति नहीं है। इसलिये यह बिहार भूमि सुधार कानून के अन्तर्गत नहीं आता। बिहार सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की और सिर्फ एक व्यक्ति मुशर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया।
चार अप्रैल, 1982 को अनिल प्रकाश के नेतृत्व में कहलगाँव के कागजी टोला में जल श्रमिक सम्मेलन हुआ और इसी दिन जलकर जमींदारों के खिलाफ संगठित आवाज उठी। साथ ही सामाजिक बुराइयों से भी लड़ने का संकल्प लिया गया। पूरे क्षेत्र में शराब बन्दी लागू की गई। धीरे-धीरे यह आवाज उन सवालों से जुड़ गई, जिनका सम्बन्ध गंगा और उसके आसपास बसने वालों की आजीविका, स्वास्थ्य एवं संस्कृति से था।
जमींदारों ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिये कई हथकंडे अपनाए, लेकिन आन्दोलनकारी अपने संकल्प-हमला चाहे कैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा पर अडिग होकर निरन्तर आगे बढ़ते रहे। नतीजा यह हुआ कि 1988 में बिहार विधानसभा में मछुआरों के हितों की रक्षा के लिये जल संसाधनों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का प्रस्ताव लाया गया। गंगा मुक्ति आन्दोलन के साथ समझौते के बाद राज्य सरकार ने नदियों-नालों और सारे कोल-ढाबों को जलकर से मुक्त घोषित कर दिया।
पूरे बिहार में दबंग जल माफिया और गरीब मछुआरों के बीच जगह-जगह संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी। गंगा एवं कोशी में बाढ़ का पानी घट जाने के बाद कई जगह चौर बन जाते हैं। ऐसे स्थानों को मछुआरे मुक्त मानते हैं, जबकि भू-स्वामी अपनी सम्पित्त। जिनकी जमीन जल में तब्दील हो जाती है, उन्हें सरकार की ओर से मुआवजा नहीं मिलता। इसलिये भू-स्वामी उसका हर्जाना मछुआरों से वसूलना चाहते हैं। राज्य के कटिहार, नवगछिया, भागलपुर, मुंगेर और झारखंड के साहेबगंज में दो दर्जन से ज्यादा अपराधी गिरोह इस कार्य में सक्रिय हैं, जिनकी कमाई हर साल करोड़ों में है।
गंगा मुक्ति आन्दोलन लगातार प्रशासन से दियारा क्षेत्र में नदी पुलिस की तैनाती और मोटर बोट द्वारा पेट्रोलिंग की माँग करता रहा है, लेकिन ऐसा अभी तक सम्भव नहीं हो सका. भागलपुर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक केएस बिलग्रामी एवं जेएस दत्ता मुंशी के अध्ययन से पता चलता है कि बरौनी से लेकर फरक्का तक 256 किलोमीटर की दूरी में मोकामा पुल के पास गंगा नदी का प्रदूषण भयानक है। गंगा एवं अन्य नदियों के प्रदूषित होने का सबसे बड़ा कारण है, कल-कारखानों के जहरीले रसायनों को नदी में गिराया जाना।
कल-कारखानों, थर्मल पावर स्टेशनों का गर्म पानी और जहरीला रसायन नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता नष्ट कर देता है। उद्योग प्रदूषण के कारण गंगा एवं अन्य निदयों में कहीं आधा किलोमीटर, कहीं एक किलोमीटर, तो कहीं दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं. कटैया, फोकिया, राजबम, थमैन, झमंड, स्वर्ण खरैका, खंगशी, कटाकी, डेंगरास, करसा गोधनी एवं देशारी जैसी 60 देसी मछलियों की प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं।
अब तक लगातार जंग लड़ी है और उसे जीता है। इस बार भी हम एक होकर निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे और गंगा की अविरलता नष्ट नहीं होने देंगे। यह कहना है, बिहार के भागलपुर जिले के कहलगाँव स्थित कागजी टोला की फेकिया देवी का। वह पिछले दिनों गंगा पर बैराज बनाने की साजिश के विरोध में भागलपुर जिला मुख्यालय में गंगा मुक्ति आन्दोलन के प्रदर्शन में हिस्सा लेने आई थीं। फेकिया देवी उस आन्दोलन की गवाह हैं, जिसने दस वर्षों तक अहिंसात्मक संघर्ष करके गंगा को जलकर जमींदारी से मुक्त कराने में कामयाबी हासिल की।
दुनिया में कोई कार्य कठिन नहीं है। यदि इंसान ठान ले तो बड़ा-से-बड़ा काम कर लेता है। बस शुरू करने और उसे पूरा करने की इच्छाशाक्ति होनी चाहिए। अगर ऐसी इच्छाशिक्त किसी महिला में हो तो वह अपने मुकाम तक जरूर पहुँचती है। कुछ इसी तरह की इच्छाशाक्ति कहलगाँव की 60 वर्षीय फेकिया देवी के पास है। उन्होंने बिना किसी के मदद के अपने बदौलत गंगा में न सिर्फ फ्री फिशिंग शुरू करवाई, साथ ही मछली मारने पर लगने वाले टैक्स से भी गंगा को मुक्त करवाया। फेकिया देवी पिछले 23 सालों से महिलाओं के कई मुद्दों पर आन्दोलन कर चुकी है।
एक समय गंगा में मछली मारने पर सिर्फ दबंगों का कब्जा था। कहलगाँव में एलसीडी और काली घाट के पास लगभग पाँच सौ परिवार है। इनका मुख्य रोजगार मछली मारना है, लेकिन इन लोगों को मछली मारने के लिये दबंगों का सामना करना पड़ता है। फेकिया देवी कहती हैं कि गंगा में मछली मारने जब लोग जाते थे तो दबंग लोग मारपीट करते थे। इसके साथ ही मछली छीन लेते थे। साथ ही पैसे माँगते थे।
पैसा या मछली नहीं देने पर हत्या भी कर देते थे। तब फेकिया देवी ने 1982 से ही दबंगों की मनमानी मछली मारने और मारपीट करने का विरोध शुरू किया। उस समय किसी ने उनका साथ नहीं दिया। उनके पति योगेंद्र साहनी ने भी उन्हें रोकने की कोशिश की। लेकिन फेकिया देवी ने किसी की नहीं सुनीं। उन्होंने अपना विरोध जारी रखा। वह कहती हैं कि शुरू में मुझे लेकर कुल पाँच महिलाएँ थीं जो इस विरोध में शामिल थीं। लेकिन हमलोगों ने हार नहीं मानी। हमारा आन्दोलन चलता रहा।
हमारे इस आन्दोलन की वजह से 22 फरवरी 1988 को गंगा को टैक्स मुक्त किया गया। इससे 500 परिवारों को रोजगार मिला। फेकिया देवी के इस प्रयास से बिहार सरकार ने गंगा को कर मुक्त किया। इसके अलावा बिहार गजट में फ्री फिशिंग को शामिल किया गया। इससे उस इलाके मे रहने वाले परिवारों को रोजगार भी दिलाया। मछली मारने और उसे बाजार तक ले जाने की सारी बाधाओं को खत्म किया। इसको लेकर प्रत्येक वर्ष एलसीडी व काली घाट के लोग 22 फरवरी को दीप दान करते हैं। इस दिन 121 दीपों का दान गंगा में किया जाता है। इस दिन को त्योहार के रूप में मनाया जाता है।
2007 के बाद बदल सी गई तस्वीर। फेकिया देवी के बेटे अमृत साहनी ने कहा कि 2007 में होली का दिन था। बस्ती के दस लोग मछली मारने गंगा में गए। हम लोग उनका इन्तजार कर रहे थे। शाम तक हम लोग इन्तजार करते रहे, लेकिन कोई वापस नहीं आया हम लोग परेशान हो गए। फिर मेरी माँ और बस्ती के कुछ लोग गंगा नदी में खोजने को गए। उन लोगों ने खूब खोजा, फिर पता चला कि दबंगों ने उन्हें मार कर बालू में गाड़ दिया। इसके बाद बस्ती में सन्नाटा छा गया। आन्दोलन के लिये फेकिया देवी को आज भी लोग याद कर रहे हैं।
आन्दोलन यदि अच्छे कार्य व लोगों के कल्याण के लिये किये जाएँ तो सभी को एकजूट होना चाहिए। तभी इसका परिणाम मिल सकता है।