मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य

Submitted by Hindi on Sat, 02/26/2011 - 15:36
Source
मीडिया फॉर राईट्स

स्वास्थ्य भौतिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण कुशलता की अवस्था है। मात्र रोग की अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य नहीं है। वर्ष 1979 में अल्मा् आटा के अंतराष्ट्रीय सम्मेलन ने स्वास्थ्य नीतियों के विकास में एक अहम् भूमिका निभाई है। इसी सम्मेलन में सभी लोगों तक स्वास्थ्य पहुंचाने की बात रखते हुये स्वास्थ्य को नई परिभाषा दी गई। यहीं से वर्ष 2000 तक 'सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता' पर पहल प्रारंभ की गई। आज 2006 के खत्म होते यह पहल कारगर क्यूं ना हो पाई, प्रतिबध्दताओं में कहां कमी रही या एक सवाल और भी है कि क्या इस मसले की व्यापकता को नहीं मापा गया? क्योंकि एकीकृत प्रयासों की तो भरमार रही परन्तु समग्रता पर प्रश्नचिन्ह आज भी है।

स्वास्थ्य की व्यापकता यानि संविधान की धारा-47 भी जिसकी वकालत करती है और वह यह कि 'सबके लिये स्वास्थ्य का अर्थ यह सुनिश्चित करना कि सस्ती व उत्तम् स्वास्थ्य सेवाओं, सुरक्षित पेयजल तथा स्वच्छता प्रबन्ध, पर्याप्त पोषण, वस्त्र, आवास तथा रोजगार तक हर किसी की पहुंच हो तथा वर्ग, जाति, लिंग या समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव ना हो। अर्थात् जब हम स्वास्थ्य की बात करेंगे तो वह महज रोग या रोग का प्रतिरोध तक सीमित ना रहने वाली चीजों के बजाये जुड़ी पूरक स्थितियों पर भी केन्द्रित होगी।

यहां एक और चीज में सूक्ष्म सी विभिन्नता है और वह यह कि 'स्वास्थ्य' और स्वास्थ्य सेवायें दो अलग-अलग भाग हैं परन्तु हम कभी-कभार इसे एक मानने की भूल कर बैठते हैं। क्योंकि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा होती है जो कि ऐसी विधियों व तकनीकों पर आधारित होती है जिन तक आम आदमी व साधारण परिवारों की पहुंच हो और जिसमें समाज की पूर्ण हिस्सेदारी हो, लेकिन जब हम स्वास्थ्य की बात करेंगे तो हम धारा- 47 के अंतर्र्गत, व्याख्यायित व्यापकता को आधार मानेंगे।

मध्यप्रदेश में आज स्वास्थ्य की स्थिति देखते हैं तो जहां एक ओर स्वास्थ्य संकेतक चीख-चीखकर प्रदेश की कहानी बयां कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश सरकार के प्रयास नाकाफी लग रहे हैं। शिशु मृत्यु दर के मामले में प्रदेश सरकार अव्वल स्थान पर है तो मातृ-मृत्यु के मसले पर द्वितीयक स्थान पर है। प्रतिदिन प्रदेश में 371 शिशु एंव 35 महिलायें प्रसव के दौरान या प्रसव में आई जटिलताओं के कारण दम तोड़ रही है, ऐसे में प्रदेश की स्थिति नाजुक जान पड़ती है। संस्थागत-प्रयास को बढ़ावा देने में लगी सरकार ने अधोसंरचना विकास की प्राथमिकता स्पष्ट नहीं की है और एक के बाद योजनायें लादकर वाहवाही लूट रही है।

संविधान की धारा-47 का व्यापक अर्थ 'सबके लिये स्वास्थ्य की दिशा में यह है कि 'यह सुनिश्चित करना कि सस्ती व उत्तम स्वास्थ्य सेवाओं, सुरक्षित पेयजल तथा स्वच्छता प्रबन्ध, पर्याप्त पोषण, आवास तथा रोजगार तक हर किसी की पहुंच हो। साथ ही वर्ग, जाति, लिंग या समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव ना हो।

स्वास्थ्य भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक सभी पूर्ण रूप से कुशलता की अवस्था है। मात्र रोग की अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य के विषय में आल्माआटा के इस घोषणा पत्र 1978 का यह वाक्य बड़ा ही उल्लेखनीय है।

आल्मा आटा घोषणा पत्र के इसी जुमले को स्वास्थ्य की व्यावहारिक परिस्थितियों में जांचने का प्रयास करते हैं।
 

स्वास्थ्य संकेतक –

 

प्रदेश

शिशु मृत्यु दर

कुल

ग्रामीण

शहरी

बिहार

61

63

47

उत्तरप्रदेश

72

75

53

मध्यप्रदेश

79

84

56

उड़ीसा

77

80

58

केरल

12

13

09

 


शिशु मृत्यु दर - प्रदेश शिशु मृत्यु के मामले में अव्वल स्थान पर है, यहाँ 79 बच्चे प्रति 1000 की जनसंख्या पर असमय काल के गाल में जाते हैं जिसमें से ग्रामीण क्षेत्रों के 84 तथा शहरी क्षेत्रों में 56 शिशु होते हैं। अन्य राज्यों से तुलना करें तो हम पाते हैं कि अन्य बीमारू कहे जाने वाले राज्यों यथा बिहार, उत्तरप्रदेश तथा उड़ीसा की स्थिति भी मध्यप्रदेश से बेहतर है। वर्ष 1993 में जहाँ प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 106 थी जो कि घटकर 2003 में 82 रह गई, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह कमी 1993 में 74 से घटकर 60 ही रह पाई । अतएव उपरोक्त अवधि में प्रदेश स्तर पर यह कमी 24 तथा राष्ट्रीय स्तर पर यह कमी 14 ही दर्ज की गई।

 

 

 

प्रदेश

मातृ मृत्यु दर

बिहार

452

उ.प्रदेश

707

मध्यप्रदेश

498

राजस्थान

670

तमिलनाडु

79

भारत

407

 


दसवीं पंचवर्षीय योजना के एप्रोच पेपर में सन् 2007 तक यह दर 45 प्रति हजार जीवित जन्म पर लाने का लक्ष्य रखा गया है परन्तु वर्तमान स्थिति और निपटने के प्रयासों से स्थिति पर काबू नहीं पाया जा सकता है। वर्तमान में प्रदेश में 371 शिशु प्रतिदिन खत्म हो जाते हैं। बाल मृत्यु दर 137 प्रति हजार है। राज्य शासन वर्तमान में संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देकर शिशु मृत्यु को रोकने का प्रयास कर रहा है, परन्तु अन्य पूरक स्थितियों को नजरअंदाज किये हुये है।

मातृ मृत्यु दर - प्रति एक लाख प्रसव पर प्रदेश की 498 महिलायें मौत के मुँह में चलीं जाती हैं, यह दर बहुत उच्च है जो कि अन्य प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेश को तीसरे स्तर पर लाती है। प्रदेश में प्रतिवर्ष 13,000 महिलायें प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं, यानि प्रतिदिन 35-36 महिलायें असमय काल का षिकार बन जाती हैं। ये वे महिलायें हैं जिन्हें बचाया जा सकता है।

हम देखते हैं कि प्रदेश में आज भी लगभग 70 प्रतिशत घरों में होते हैं। और उन घरों में होने वाले प्रसवों में से भी लगभग 72 प्रतिशत प्रसव दाई/अप्रशिक्षित महिलाओं द्वारा सम्पन्न कराये जसते हैं।

सरकार सन् 2011 तक मात् मृत्यु पर नियंत्रण के दावे कर रही है। 10वीं पंचवर्षीय योजना के एप्रोच पेपर में सरकार ने यह लक्षित किया है कि वह 2007 तक प्रति लाख प्रसव पर 298 मातृ मृत्यु का लक्ष्य प्राप्त कर लेगी। ग्यारहवीं पंचवर्ष के मुहाने पर खड़ें प्रदेश के लिये आज भी यह आंकडा जादुई ही है। हालांकि प्रदेश में टीकाकरण का अभाव, पोषणाभाव, बाल्यावस्था के दौरान सामान्य व चिकित्सकीय सहायता का ना मिलना, बालिकाओं की उपेक्षा, सुरक्षित पेयजल का अभाव तथा पर्याप्त सड़कों का अभाव आदि ऐसे कारक हैं जो कि प्रदेश में बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति व अत्याधिक शिशु व मातृ मृत्यु को बनाये रखने में मददगार हैं।

 

 

 

 

मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य केन्द्रों में ढांचागत स्थिति -


प्रजजन एंव शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रम (1997-2004) के अंतर्गत, किये गये प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आधार पर प्रदेश में स्वास्थ्य केन्द्रों में ढांचागत स्थिति का एक चित्र उभरा। यह चित्र प्रदेश में मातृत्व एवं शिशु स्वास्थ्य के लिये उठाये जा रहे प्रभावी कदमों की वास्तविकता परिलक्षित करता है। यदि हम पेयजल की स्थिति देखते हैं कि प्राथमिक, सामुदायिक व शहरी ईकाईयों में क्रमश: 58 प्रतिशत 58: एवं 21.73 प्रतिशत तथा 40 प्रतिशतए एवं स्वस्थ्य ईकाईयाँ में ही पेयजल की उपलब्धता है, मात्र 17.09, 10.86 तथा 17.77 प्रतिशत ईकाईयों में ही प्रसव कक्ष है तथा कुछ इसी तरह की स्थिति उपकरणों को लेकर है। चालू वाहन जो कि वह भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सबसे कम यानि 9.06 प्रतिशत है। इस सर्वेक्षण से उभरे चित्रों में एक बात स्पष्ट परिलक्षित है कि इन विसंगतियों के बीच में भी सर्वाधिक सुविधायें शहरी क्षेत्रों भी स्वास्थ्य सेवायें लगभग नगण्य ही हैं।

 

 

 

 

स्तर

प्रतिवर्ष सर्वेक्षण

पेयजल

प्रसव कक्ष

दूरभाष वाहन (चालू हालत में)

वाहन (चालू हालत में)

प्रसव कक्ष उपकरण

एससी

386

224 
(58.3 प्रतिशत)

66 
(17.09 प्रतिशत)

8 
(2.07 प्रतिशत)

35 
(9.06 प्रतिशत)

85 
(22.02 प्रतिशत)

सीएसी

46 

10 
(21.73 प्रतिशत)

5 
(10.86 प्रतिशत)

10 
(21.73 प्रतिशत)

31 
(67ण्39 प्रतिशत)

21 
(45.62 प्रतिशत)

एफआरयूएस

45 

18 
(40 प्रतिशत)

8 
(17.77 प्रतिशत)

20 
(44.44 प्रतिशत)

34 
(75.55 प्रतिशत)

29 
(64.44 प्रतिशत)

स्रोत : प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य सर्वेक्षण (1997-2004)

 


अतएव यह एक विडम्बना ही है कि सरकारें एवं और तो संस्थागत, प्रसव को बढ़ावा देने की बात कहती है और इल्ली और संस्थाओं को खस्ताहाल सर्वेक्षण से स्पष्ट है।

 

 

 

 

कालाबाजारी की भेंट चढ़ा दी गई लाख शिशुओं एंव 7 हजार प्रसूताओं की मौत


जैसा कि हम जानते हैं कि दर से किसी स्थिति की व्यापकता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। स्वास्थ्य विभाग कहता है कि विगत् वर्ष 2005-06 में कुल 1,71,6355 जन्म/प्रसव हुये और शासन के अनुसार 30,157 शिशुओं की मुत्यु हुई परन्तु भारत सरकार द्वारा जारी दर कहती है कि प्रति 1000 जन्म पर 79 शिशु मौत के मुँह में चले जाते हैं। इस दर को आधार मानकर विष्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि उपरोक्त अवधि में 1,35,591 शिशुओं की मृत्यृ हुई है। अर्थात् लगभग 371 शिशु प्रतिदिन प्रदेश में मरते हैं।

भारत सरकार द्वारा जारी दर (498 प्रति लाख) के आधार पर किया गया विश्लेषण कहता है कि उपरोक्त अवधि में 8547 महिलायें मरीं।

अतएव प्रदेश में लगभग 1 लाख शिशुओं की तथा 7139 माताओं की मौत कागजों में दबा दी गई।

 

 

 

 

जन स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति –

 

 

 

जन स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति 

संस्थायें

मानक के अनुरूप आवश्‍यकता

2001 की स्थिति

कमी

वर्तमान स्तर

कमी

उप स्वास्थ्य केन्द्र

10524

8835

1689

8835

1689

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र

1691

1194

497

1152

539

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र

428

229

199

285

199

जिला चिकित्सालय

48

36

9

47

1

 


प्रदेश में जन स्वास्थ्य सुविधायें किस हद तक प्रभावी हैं और वर्तमान में इनको लेकर किस हद तक लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं, यह विश्लेषण का विषय है। मानक के अनुरूप ही देखे तो प्रदेश में जिला सामुदायिक, उपस्वास्थ्य केन्द्रों की आवश्य कता क्रमश: 48, 428, 1691 तथा 10,542 है लेकिन वर्तमान में यह संख्या 47,265 1152 तथा 8835 है जो कि क्रमश:1,99,539 तथा 1689 की है। अत: प्रदेश में हम जनस्वास्थ सुविधाओं की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। एक अध्ययन के अनुसार प्रदेश में अभी भी एक व्यक्ति को उपस्वास्थ्य स्तर की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिये 8 कि.मी. तक पैदल चलना पड़ता है।

 

 

 

केन्द्र का स्तर 

सामान्य क्षेत्र

आदिवासी एवं  पिछड़े क्षेत्र

प्रा. स्वास्थ्य केन्द्र

30000

20,000

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र

1,20,000

80,000

उप स्वास्थ्य केन्द्र

5000

3000

जिला अस्पताल

जिला मुख्यालय प

 


तालिका को देखने से स्पष्ट है कि वर्ष 2001 में जहां 1194 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की कमी थी वह कमी 2006 में घटकर 1152 हो गई, अर्थात् 42 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की और कमी हो गई। यह कहा जा सकता है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को प्रोन्नत किया गया लेकिन जब पूर्व से ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की कमी है तो फिर यह सवाल ही नहीं उठता। ऐसे ही उप स्वास्थ्य केन्दों की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं हुआ है। इसका मतलब अभी भी प्रदेश की स्वास्थ्य की सबसे निचली संस्थागत सामुदायिक ईकाई भी स्वास्थ्य सेवाओं से मरहूम है। दसवीं पंचवर्षीय योजना के एप्रोच पेपर में भी इनको पाने का लक्ष्य रखा गया था। परन्तु वर्तमान स्तर अपनी कहानी कहता हैं ग्वालियर जिले में जिला अस्पताल का ना होना चौकाने वाला है।

पेयजल की उपलब्धता - मध्यप्रदेश का लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग कहता है कि मध्यप्रदेश की 6754 बसाहटें ऐसी हैं जो कि आज भी जलस्रोत विहीन हैं यानि एक बड़ी जनसंख्या आज भी स्वच्छ पेयजल प्राप्त नहीं कर सकी है। यहां पर पूर्णत:, सुविधा प्राप्त गांवा से आषय 40 लीडर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता से है।

 

 

 

 

कुल बसाहटों की संख्या

126172

40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता

98225

40 लीटर से कम या अधिक

2193

स्रोतविहीन

6754

स्रोत - लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी बेवसाईट 1.4.06

 


जबकि आंशिक सुविधा प्राप्त गांवों की श्रेणी में दो तरह के गांव आते हैं एक तो वे जिसमें 10 लीटर प्राति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता हो और दूसरी श्रेणी किसमें 10-40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता हो और इसी प्रकार स्रोत विहीन/अछूते गांव याने पूर्णरूप सुरक्षित पेयजल की पहुंच से दूर गांव अतएव जब हम तालिका क्र.-1 देखते हैं कि तो हम पाते हैं कि यहां पर यह विश्लेषित नहीं किया गया है कि आंशिक सुविधा युक्त गांवों में 10 लीटर या उससे कम व 40 लीटर व उससे कम वाले गांव अलग-अलग कितने हैं। और यदि हैण्डपम्प ही सुरक्षित पेयजल उपलबध कराने की गारंटी देते हैं तो फिर हैण्डपम्पों की वर्तमान स्थिति पर विचार करते हैं। वर्तमान में प्रदेश में 36,331 हैण्डपम्प बंद हैं तो यह किस बात का सूचक है। इसके अलावा जो हैण्डपम्प चालू हैं उनसे किस तरह का पेयजल उपलब्ध हो पा रहा है यह भी काबिलए गौर है। क्योंकि म.प्र. का मानव विकास प्रतिवेदन (2002) लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के हवाले से कहता है कि शासन जिन ग्रामों में पेयजल उपलब्ध करा भी रहा है उनमें से भी मात्र 79.44 प्रतिशत, गांवों में ही शुध्द पेयजल उपलब्ध है। यहां यह भी देखना होगा कि ये हैण्डपम्प किन बसाहटों में सर्वाधिक है क्योंकि देखा गया है सामंती क्षेत्रों में वंचित वर्गों की पेयजल स्रोतों तक पहुंच ही नहीं है। अतएव सुरक्षित पेयजल, बेहतर स्वास्थ्य की दिशा में एक महत्वपूर्ण सूचक है और जिसकी कमी यानि बेहतर स्वास्थ्य की कमी है।

 

 

 

 

नलजल प्रदाय योजनाएं

चालू

बंद

6885

15071

 

 

 

 

राज्य के नीतिगत प्रयास


राज्य की स्वास्थ्य नीति और उसमें महिलाओं को खोजने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले यह जान लेना बहुत जरूरी है कि प्रदेश की नीति बनाने यानी अपनी क्षमताओं का विश्लेषण कर लक्ष्य तय करने का काम करने की क्षमता भी मध्यप्रदेश शासन में नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार की स्वास्थ्य नीति सरकार ने स्वयं नहीं बनाई है बल्कि यह स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने आई डेनमार्क की संस्था 'डेनिडा' ने बनाई थी। वर्ष 2002 में इसमें कोई फेरबदल किये बिना सरकार ने इसे ज्यों का त्यों अपनी वेबसाईट पर प्रकाशित कर दिया। अभी भी (फरवरी 2006 मे) इसे राज्य की स्वास्थ्य नीति का प्रारूप (ड्राफ्ट) ही माना गया है। इस प्रारूप में न तो नया विश्लेषण किया गया न ही चार साल में कोई आंकड़े ही बदले गये।

यह नीति राज्य में खराब स्वास्थ्य की स्थिति के लिये आम लोगों यानी नागरिकों को ही दोशी ठहराती है। सरकार मानती है कि हमने तो अपनी तरफ से सबसे अच्छे प्रयास किये हैं पर लोगों का काम तो असंतुष्ट रहना ही है। नीति में यह कहा गया है कि देश के अन्य राज्यों से हमें अपनी तुलना करना चाहिये, इससे पता चलता है कि आंकड़ों के मामले में हम बहुत बेहतर हैं। प्रदेश में जहां स्वास्थ्य पर 100 रूपये खर्च होते हैं, वहीं यह देखना भी जरूरी है कि इसमें से 75 रूपये निजी स्रोतों से आते हैं। एक दूसरे नजरिये से स्वास्थ्य पर होने वाले पूरे खर्च में से तीन चौथाई व्यय तो निजी स्तर पर ही होता है। राज्य के बजट के स्तर पर देखा जाये तो स्थिति कुछ अलग ही नजर आती है।

महिलाओं की खाद्य असुरक्षा मानवीयता पर सवाल खड़ा करती है। ऐसा नहीं है कि परिवार या सरकार के अनाज भण्डार खाली हैं। अनाज तो है परन्तु उस पर पितृसत्ता का नियंत्रण है। ऐसे में ही सोनीपुरा गांव की 20 वर्षीय सोमवती ने एक बच्चे को जन्म दिया। तमाम बंधनों के बाद भी मां और बच्चा जीवित तो रह गये परन्तु सोमवती में खून और लौह तत्वों की इतनी कमी थी कि उसके स्तनों में दूध रहा ही नहीं। उसके स्तन भी सिकुड़ गये। सोमवती को अपने घर पर भी गर्भावस्था के दौरान हर रोज खाना नसीब नहीं हुआ। क्योंकि उसका पति उसे छोड़कर जा चुका था। कभी भी उसकी स्वास्थ्य जांच नहीं हुई, उसे कभी लौह तत्वों वाली दवायें भी नहीं मिली, कभी भी उसने टीके की चुभन भी महसूस नहीं की।

मध्यप्रदेश सरकार स्वास्थ्य पर कुल 865 करोड़ रूपये खर्च करती है जबकि प्रदेश की जनसंख्या सवा छह करोड़ है। इसके मायने यह है कि सरकार एक व्यक्ति को स्वास्थ्य सुविधायें देने के लिये वर्ष में 143 रूपये व्यय कर रही है। स्वास्थ्य पर हो रहे इस व्यय के दूसरे पक्ष का विश्लेषण करना भी जरूरी है। वह पक्ष महत्वपूर्ण इसलिये है क्योंकि सरकार इस 143.29 रूपये प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष के कुल बजट में से 86.7 फीसदी हिस्सा तो केवल वेतन बांटने और स्वास्थ्य विभाग के वाहनों पर ही खर्च कर देती है और वास्तव में एक व्यक्ति को वर्ष भर में नसीब होते हैं 24 रूपये या एक माह में दो रूपये। आखिर किस नजरिये से यह संभव है कि राज्य में वंचित समुदायों और महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधाओं का अधिकार मिल पायेगा।

जैसे कि हमने पहले उल्लेख किया है कि सरकार मानती है कि उनके प्रयास तो संतोषजनक रहे हैं पर लोग ही संतुष्ट नहीं होते हैं तो ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर दिया जाना चाहिये। इस मान्यता पर बहस होना चाहिये कि स्वास्थ्य के क्षेत्र के बाजारीकरण से ही गुणवत्तापूर्ण सेवायें दी जा सकती हैं। यह कैसे संभव है कि निजी क्षेत्र संविधान में दर्ज जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा को सुदूर बसे गांवों तक लेकर जायेगा। निजी क्षेत्र यानी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्वाभाविकत: रूचि फायदे में होती है सेवा में नहीं। यह भी एक गंभीर मसला है कि स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकार के दायित्व से राज्य मुंह मोड़ रहा है। बजाये इसके कि स्वास्थ्य संरचना में निगरानी की व्यवस्था कर जवाबदेहिता का मूल्यांकन किया जाये।

एक संस्था द्वारा बनाई गई जिस स्वास्थ्य नीति को मध्यप्रदेश सरकार ने अपनाया है, उसमें भी न तो कोई दिशा नजर आती है न ही प्रतिबध्दता। बहरहाल औपचारिक रूप से जो लक्ष्य उसमें तय किये गये हैं उन्हें भी पूरा होते देखना शायद इस पीढ़ी को नसीब न होगा। इन लक्ष्यों पर हम बिन्दुवार नजर डाल सकते हैं :-

1. यह सुनिश्चित किया जायेगा कि मध्यप्रदेश की पूरी जनसंख्या तक भौगोलिक और आर्थिक पक्षों को ध्यान में रखते हुये गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक एवं द्वितीयक स्वास्थ्य सेवाओं की 5-7 वर्ष की अवधि में पहुंच हो। यह पहुंच निम्न आधारों पर होगी -

• यह सेवायें लैंगिक भेदभाव से मुक्त और संवेदनशील होंगी।
• स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग स्वास्थ्य के विस्तार, रोकथाम, उपचार और पुनर्वास के लिये होगा।
• स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के लिये स्वैच्छिक संगठनों और निजी क्षेत्र का उपयोग किया जायेगा।
• सार्वजनिक राशि का उपयोग शहरी एवं ग्रामीण गरीबों के लिये होगा।
• साथ ही सबसे ज्यादा ध्यान क्षय रोगों, प्रजनन स्वास्थ्य, सतत रोगों जैसे हृदय, दिमाग, मधुमेह और हायपर टेंशन के इलाज पर केन्द्रित किया जायेगा।
• दुर्घटनाओं और अन्य तरह की चोटों के इलाज पर ध्यान दिया जायेगा।

2. महामारियों की रोकथाम (यथा संभव) और महामारी की स्थिति आने पर उससे निपटने की तैयारी।
3. मातृत्व मृत्यु की दर को 2011 तक 498 से घटाकर 220 तक लाना।
4. शिशु मृत्युदर को 2011 तक 97 से घटाकर 62 तक लाना।
5. बच्चों की जन्म दर 2011 तक 2.1 प्रति परिवार तक लाना।
6. एचआईवी एवं एड्स की नीचे के स्तर पर ही रोकथाम कर उसमें कमी लाना।
7. मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटना।

ऐसा लगता है कि सरकार को समस्याओं की सूची मिली और उस सूची में सरकार ने यह जोड़ दिया कि हम इन समस्याओं को नियंत्रित करेंगे या खत्म करेंगे। यह लक्ष्य अभी सरकार से बहुत दूर है। शायद इसीलिये स्वास्थ्य नीति को अंतिम रूप नहीं दिया गया है। कहा तो गया है कि हर व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच होगी परन्तु यह भी सच है कि आज गांवों से स्वास्थ्य केन्द्र की औसतन दूरी 25 किलोमीटर है। जहां स्वास्थ्य केन्द्र हैं वहां डॉक्टरों की मौजूदगी ही नहीं हैं और दवाओं की उपलब्धता उनके लिये है जो राजनैतिक या सामाजिक रूप से प्रभावशाली हैं। जहां तक महामारियों की रोकथाम का सवाल है यह उल्लेखनीय है कि आज भी बैतूल जिले में हर साल बरसात के मौसम में 600 लोगों की मलेरिया के कारण मौतें होती हैं। वर्ष 2004 में वहां साढ़े तीन करोड़ रूपये खर्च किये गये पर नियंत्रक महालेखाकार की रिपोर्ट कहती है कि इससे एक व्यक्ति की भी जान नहीं बचाई जा सकी। मध्यप्रदेश विधानसभा में कभी भी इस मुद्दे पर बहस नहीं हुई कि हर साल 16 हजार महिलाओं की मातृत्व अधिकार न मिलने के कारण मौतें होती हैं, इस पर नीति बनाना चाहिये। इसी राज्य में बच्चों में कुपोषण का स्तर देश में सबसे ज्यादा है। जहां 55 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हों वहां यदि राज्य सरकार पोषण आहार पर केवल 49 पैसे खर्च करती हो वहां किसी दुश्मन या दैवीय आपदा की जरूरत ही नहीं है।

सरकार चाहती है कि मानसिक स्वास्थ्य पर हमें ध्यान देने की जरूरत है परन्तु अब भी मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा स्वास्थ्य विभाग के अन्तर्गत न आकर चिकित्सा शिक्षा विभाग के अन्तर्गत आता है। बजट की बात को भी यहां नकारा नहीं जा सकता है। यह तय है कि एक महिला पर वर्ष भर में 15 रूपये खर्च करके उसे सुरक्षित मातृत्व का अधिकार नहीं दिया जा सकता है।

मध्यप्रदेश शासन की इसी नीति के मुताबिक यदि जनसंख्या को मापदण्ड बनाया जाये तो 13 हजार की जनसंख्या पर एक डॉक्टर हैं और प्रदेश के कुल सरकारी डॉक्टरों में से 70 फीसदी यानी 3500 डॉक्टर 94 गांवों और कस्बों के लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल कर रहे हैं। इनमें से 900 डॉक्टरों को पिछले सवा साल में सरकार ने नौकरी से हटाया है क्योंकि वे सालों से अपना दायित्व निभाने गांव गये ही नहीं। अचंभों की यह श्रृंखला यहीं समाप्त नहीं होती है बल्कि हर आठ में से सात स्वास्थ्य कर्मचारी निजी स्तर पर काम करते हैं।

 

 

 

 

मध्यप्रदेश की कुल जनसंख्या

6,03,85,118 (जनगणना 2001)

मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य का बजट

8652744000 रूपये

मध्यप्रदेश के कुल बजट का हिस्सा

2.5 प्रतिशत

स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च

143.29 रूपये

मध्यप्रदेश के अस्पतालों में बिस्तरों की कुल संख्या

26000

ग्रामीण अस्पतालों में बिस्तरों की कुल संख्या

9300(हर 5.6 गांव पर 1 बिस्तर )

शहरी अस्पतालों में बिस्तरों की कुल संख्या

16300

 

 

 

 

मध्यप्रदेश में महिलाओं का स्वास्थ्य


अगर आप यह जानना चाहते हैं कि समाज के वंचित तबके को सरकारी स्वास्थ्य सेवायें न मिलने का क्या मतलब होता है तो आपको बड़वानी जिले के आदिवासी बहुल सेंधवा विकासखण्ड के बलवाड़ी स्वास्थ्य केन्द्र तक जाना होगा। इस स्वास्थ्य केन्द्र के दायरे में 30 गांवों की 21 हजार की जनसंख्या आती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि यहां तीन साल से कोई चिकित्सक नहीं है, दवाओं का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। और परिणाम यह है कि इस केन्द्र के अन्तर्गत पिछले एक वर्ष में 13 बच्चों और 34 महिलाओं की प्रसव के दौरान चिकित्सा सुविधा न मिल पाने के कारण मृत्यु हो गई। अब भी यहां के 16 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं।

यह केवल बलवाड़ी का ही दृश्य नहीं है बल्कि मध्यप्रदेश राज्य की एक समग्र सच्चाई है जिसमें वंचितों को सवास्थ्य का बुनियादी अधिकार न मिलने के कारण अपने जीवन से समझौता करना पड़ता है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अब तक सरकारें समाज को स्वास्थ्य की सेवायें देने के लिये संवैधानिक रूप से बाध्य नहीं है। वे केवल प्रयास कर सकती हैं, ऐसे प्रयास जिनको सफल करने की कोई राजनैतिक इच्छा शक्ति नहीं है। वास्तव में लोग अब बीमारी की पीड़ा के साथ-साथ सरकारी योजनाओं के प्रपंची चक्रव्यूह में फंसते जा रहे हैं जहां कागजों पर आंकड़े रंगीन हैं पर मामूली बीमारियों से हर साल 4.21 लाख लोगों की जिन्दगी स्याह हो रही है।

वह सात दिन बहुत ही गहमा-गहमी वाले दिन रहे जब मध्यप्रदेश में सत्ता का नहीं बल्कि सत्ता संचालक का परिवर्तन हो रहा था। शहर की सड़कों, अखबार और टेलीविजन के माहौल से यही लग रहा था मानों समाज के हर व्यक्ति के जीवन की दिशा अब निर्धारित हो रही है। जहां यह माना जा रहा है कि बिना पद हासिल किये विकास और विकेन्द्रीकरण संभव नहीं है। सत्ता के इस संघर्ष से समाज को एक समता मूलक नजरिये से देखने वाले समूह के सामने बहुत सारे सवाल विश्लेशण के लिये खड़े होना स्वाभाविक है।

वर्ष 2005 के जिन तीन महीनों से लगातार प्रदेश में नेतृत्व बदलेगा, इस विषय पर विश्लेषण-बहस हो रही थी, उन्हीं तीन महीनों में से अक्टूबर महीने, में कटनी के रीठी विकास खण्ड में बहुत दर्दनाक घटना घट रही थी। इस विकासखण्ड की 56 पंचायतों को स्वास्थ्य सुविधायें देने वाले अस्पताल में 32 बच्चों में से 20 बच्चे पूरी आखें खोलकर जीवन के रंगों को एक नजर भर कर भी देख न सके और उनकी मृत्यु हो गई। इस विकासखण्ड में एक भी प्रसूति एवं महिला रोग विशेषज्ञ नहीं है। यहां के अस्पताल में शल्य चिकित्सा आपातकालीन व्यवस्था और दवाईयों का अस्तित्व कहीं नजर नहीं आता है। इन परिस्थितियों में एक महिला चिकित्सक विकलांग होने के बावजूद भरसक कोशिश करते-करते हार रही है; पर सुविधायें और विशेषज्ञ न होने की स्थिति में उसे भी किसी चमत्कार का ही इंतजार है। इतना होने के बावजूद भी न तो स्थानीय स्तर पर कोई हलचल हुई न ही राज्य स्तर पर आपदा को महसूसने की कोशिश की गई। बच्चों की लगातार मौतों को देखते हुये भी समाज ने अपने जिन्दा होने का अहसास नहीं कराया। पर वही दूसरी ओर सत्ता हासिल करने और करवाने के संघर्ष में हर कोई यूं जुट गया मानों अब कभी रीठी में बच्चों को मरना नहीं पड़ेगा या मानों बच्चे को जन्म देते हुये होने वाले दर्द को अब नया नेतृत्व अपनी बाहों में भर लेगा, परंतु हकीकत में ऐसा होता नही है।

सबसे गंभीर मसला तो बच्चों और महिलाओं के साथ जुड़ा हुआ है। पिछले साल ही मध्यप्रदेश सरकार ने समाज के 22.05 लाख अति विपन्न और वंचित वर्गों के लोगों को स्वास्थ्य का अधिकार देने के लिये दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना शुरू की। जिसके अन्तर्गत राजनेताओं के चित्र वाला कार्ड भी जारी किया गया। इस योजना मे गरीब परिवारों को वर्ष भर में बीस हजार रूपये तक मुफ्त स्वास्थ्य सेवायें दिये जाने का प्रावधान है। जिसके लिए केवल डेढ़ करोड़ रूपये का बजट आवंटित किया गया है। इन्हीं आंकड़ों के संदर्भ में यदि सरकार की उपलब्धियों का विश्लेषण किया जाये तो पता चलता है कि इस बजट में से 1.09 करोड़ रूपये का ही व्यय हो पाया। इस राषि में 14365 गरीब व्यक्तियों का इलाज हुआ। यानी वे 758 सरकारी रूपयों से स्वस्थ हो गये। यहां सवाल यह उठता है कि समाज के वंचित वर्गों को मिलने वाले बुनियादी हकों के संरक्षण के लिए बजट का आवंटन किन मापदण्डों के आधार पर होता है? वास्तव में डेढ़ करोड़ रूपये के बजट का आवंटन करना अपने आप में ऐसे समुदायों का माखौल उड़ाने जैसा है। बहरहाल यह अलग बात है कि सरकारी डॉक्टर बीमार हो चाहे न हो उसे ही वर्ष भर में 14 हजार रूपये स्वास्थ्य-स्वच्छता और बुनियादी सुविधाओं के नाम पर मिलते हैं। इस योजना का लाभ भी राजनैतिक प्रभुत्व की शर्त पर मिलता है। सेन्टर फॉर एडवोकेसी द्वारा कराये गये राज्य स्तरीय अध्ययन से पता चलता है कि 51 फीसदी लोगों ने इस योजना के बारे में सुना तो है परन्तु लाभ केवल 0.2 फीसदी को ही मिला है। सरकारी प्रचार में क्रियान्वयन की सच्चाई का कोई स्थान नहीं होता है। दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना के लिए वर्ष 2006-07 में केवल 19 करोड़ रूपये का बजट आवंटित किया गया है।

इसी तरह महिलाओं को मातृत्व स्वास्थ्य का हक दिलाने के लिये प्रसव हेतु परिवहन एवं उपचार योजना का रंग सरकार ने विज्ञापनों में बिखेर रखा है। इस योजना में 150 रूपये से 300 रूपये तक की राशि गर्भवती महिला को स्वास्थ्य केन्द्र तक ले जाने के लिये दिये जाने का प्रावधान है परन्तु कुल बजट केवल 1.03 करोड़ रूपये का है। जिसमें से मात्र 32.12 लाख रूपये ही मध्यप्रदेश में खर्च हो पाये जबकि मातृ मृत्युदर के मामले में यह सबसे गंभीर मुकाम पर खड़ा हुआ है। इस योजना का अध्ययन बताता है कि 53.7 प्रतिशत वास्तविक हितग्राही इसके बारे में जानते नहीं हैं और जो जानते हैं उनमें से 0.8 फीसदी को ही लाभ मिल पाया। वे मानते हैं कि योजना का फायदा कैसे मिले इसके बारे में उन्हें कोई प्रक्रियागत मदद ही नहीं कर पाता है।

सामाजिक शांति, राजनैतिक स्थिरता और प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने के बावजूद अब भी मध्यप्रदेश में मातृ मृत्यु दर बहुत आगे है। यहां हर एक लाख में से 498 महिलायें बच्चों को जन्म देते हुये मर जाती हैं। मध्यप्रदेश में 63 प्रतिशत प्रसव अस्पतालों के बाहर और 48 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित हाथों से होते हैं। इसका परिणाम यह है कि 70.97 प्रतिशत महिलायें खून के बहाव, संक्रमण, असुरक्षा और उच्च रक्तचाप के कारण मरती हैं। इस योजना के बारे में अब भी 35 फीसदी लोग ही जानते हैं और 6 फीसदी को ही इसका लाभ मिला है।

समाज ने पितृसत्ता के हितों को ध्यान में रखते हुये एक दमनकारी व्यवस्था का निर्माण किया है। इस व्यवस्था में लड़की या महिला कभी भी इंसान नहीं होती है वह या तो एक जिम्मेदारी होती है, एक दायित्व होती है या फिर एक दासी होती है। जिसे कभी भी अपनी मर्जी से भ्रमण करने, मर्जी का खाना खाने, मर्जी से सोने या सम्पत्तिा में हक पाने का नैसर्गिक या सामाजिक अधिकार नहीं है। जैसे-जैसे स्त्री की उम्र बढ़ती जाती है उसकी भूमिकायें बदलती जाती हैं। उसका सार्वजनिक दायरा तो बढ़ता जाता है परन्तु निजी दायरा सीमित होता जाता है। वह फिर केवल एक व्यक्ति नहीं रह जाती है। वह कई रिश्तों के जाल में उलझा दी जाती है। बेटी से लेकर बहन, मां, भाभी, सास आदि भूमिकायें उसकी स्वतंत्रता को बंधन में बांधती जाती हैं। शुरूआती दौर में तो वह कर्तव्यों की पालनकर्ता होती है पर फिर वह उन कर्तव्यों की संरक्षक होती जाती है। बहुत ही आश्चर्यजनक लगता है यह जानकर कि एक लड़की अपनी कम उम्र में जब लगातार अपनी मां को ऐसी सामाजिक-पारिवारिक भूमिकायें निभाते हुये देखती है तो वह मन-मस्तिष्क में एक निश्कर्ष पर पहुंचती है कि यही उसका जीवन है और उसे भी इसी तरह अपने भविष्य का ताना-बाना बुनना है। और शुरू हो जाता है असंतुलन का एक नया अध्याय।

औरत के जीवन का वह चित्र किसी भी समुदाय या प्रदेश में रंग नहीं बदलता है जिसमें उसे सबसे बाद में बचा-खुचा भोजन खाते हुये दिखाया जाता है, पोषण महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि वह बासी भोजन को व्यर्थ जाने से बचायेगी। जिस सामाजिक और पारिवारिक पर्यावरण में वह रहती है, वह पर्यावरण उसके दुखदायी भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। पोषण, सुरक्षा, मनोरंजन और स्वतंत्रता के अभाव में एक बीमार जीवन पनपने लगता है। यही जीवन वृध्दावस्था में हर तरह से असुरक्षित होता है। प्रजनन अपने आप में प्रकृति की सबसे सार्थक और रचनात्मक विशेषता है और स्त्री उस विशेषता की वाहक है किन्तु वास्तविकता यह है कि यही विशेषता उसके लिये सबसे ज्यादा पीड़ादायक क्षण पैदा करती है। शरीर का दर्द हो चाहे मन की पीड़ा या फिर समाज की शंकायें; सब कुछ प्रजनन से ही जुड़ा हुआ है। और सच यह है कि 43 फीसदी महिलाओं का प्रसव ही प्रशिक्षित दाई करवाती हैं और 77 प्रतिशत को किसी तरह की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने की जरूरत महसूस नहीं की जाती। हर दस हजार महिलाओं में से 54 महिलायें प्रसव के दौरान जीवन त्याग देती हैं और हर 48 में से एक महिला की मृत्यु का कारण भारत में गर्भावस्था या प्रजनन से जुड़ी समस्यायें होती हैं। माहवारी का मामला हो चाहे प्रजनन का, उसके जीवन का तीस फीसदी भोजन परम्परा, मान्यताओं और रूढ़ियों से तय होता है; जिनके मानवीय होने पर बहुत बड़े सवाल हैं। यह स्थिति बहुत गंभीर है क्योंकि उसे पोषण का अधिकार नहीं है।

भूख और गरीबी का जुड़ाव केवल आर्थिक पहलू से ही नहीं है। वास्तव में इसका सबसे अहम् पक्ष तो राजनैतिक सत्ता से जुड़ा हुआ है। सत्ता का अर्थ केवल मंत्री, मुख्यमंत्री, या प्रधानमंत्री बनना नहीं है बल्कि सत्ता का अर्थ है हम अपना समाज कैसा बनाना चाहते हैं, इसका सपना देखना, इस सपने को पूरा करने की इच्छा पैदा कर पाना, सपने को हासिल करने के लिये कदम बढ़ाना, निर्णय लेना, उसे क्रियान्वित करना और हर परिणाम की जिम्मेदारी लेना।

सत्ता वास्तव में हमें अपनी जरूरत को महसूस करके उन्हें पूरा करने के लिये कोशिश करने की आजादी देती है और चूंकि औरत को सत्ता की तरफ कदम नहीं बढ़ाने दिये गये हैं इसीलिये आज वह भरपेट रोटी भी हासिल नहीं कर पाती है। फिर महिला स्वास्थ्य का मुद्दा सरकार की प्राथकिता मे नही है।

यह तर्क बेमानी है कि गरीबी के कारण अनाज न होने से औरत भूखी रहती है। यदि ऐसा होता तो 90 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की शिकार नहीं होती। वास्तविकता यह है कि वर्ग कोई सा भी हो, उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग; सभी वर्गों की औरतों को उनकी जरूरत के अनुरूप पोषणयुक्त पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिलता है। मध्यप्रदेश का मानव विकास प्रतिवेदन, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण के हवाले से बताता है कि प्रदेश में 20.3 फीसदी महिलायें ही हर रोज दूध या दही पाती हैं जबकि 43 फीसदी को ही दाल मिलती है। इस स्थिति में जब हम फलों पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि केवल 5 फीसदी महिलाओं को फल खाने को मिलते हैं। और 0.9 प्रतिशत को अण्डे और आधा फीसदी औरतों को मांसाहार करने का मौका मिलता है।

यह आंकड़े केवल अर्थव्यवस्था की कोख से पैदा नहीं हुये हैं बल्कि सच यह है कि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था औरत को शरीर और मन से इतना कमजोर बना देना चाहती है कि वह राजनैतिक सत्ता के लिये संघर्ष न कर सके और पुरूष का यौनिकता पर नियंत्रण बन रहे।

औरतों के साथ बच्चे अब भी इंतजार में हैं कि सरकार का हाथ उनके ललाट पर रखा जायेगा। वे यह भी विश्ले्षण कर पाने में अक्षम हैं कि उन्हें केवल आंकड़ों के फेर में क्यों उलझा दिया जाता है। अब यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिये कि राज्य अब स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति समाज को नाउम्मीद कर देना चाहता है ताकि चिकित्सा क्षेत्र को बाजार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले किया जा सके। यही कारण है कि बजट का आवंटन भी सतत सीमित होता गया है। हाल की स्थिति में स्वास्थ्य सेवाओं के ममाले मे मध्यप्रदेश सरकार हर व्यक्ति पर वर्ष भर में 200 रूपये खर्च करती है। परन्तु वह यह बताना भूल जाती है कि इसमें से 150 रूपये तो केवल तनख्वाह, वाहन और प्रशासनिक खर्च की धारा में ही बह जाते हैं, एक आदमी पर वास्तव में सरकार 50 रूपये ही खर्च करती है। यानी 4 रूपये प्रतिमाह और 13 पैसे प्रतिदिन। क्या इन परिस्थितियों में सरकार की प्रतिबध्दता पर सवाल खड़ा नहीं होता है, क्या यह जरूरत महसूस नहीं होती है कि स्वास्थ्य को राजनैतिक बुनियादी अधिकार का दर्जा मिलना चाहिये और हर लापरवाही पर सजायाफ्ता जिम्मेदारी तय होना चाहिए ?

 

 

 

 

भविष्‍य की संभवनाओं पर नजर

बीमारियो - स्वास्थ्य की स्थिति

रोग प्रकरणों की वर्तमान स्थिति - वर्ष 2005 / लाख

रोग प्रकरणों की संभावित स्थिति - वर्ष 2015 / लाख

क्या बदलाव आयेगा ?

तपेदिक - टीबी

85 (1000)

उपलब्घ नहीं

पता नहीं

एचआईवी-एड्स

51 (2004)

190

बढ़ेगा

डायरिया / वर्ष

760

880

बढ़ेगा

मलेरिया-रोगवाहक

20.37 (2005)

उपलब्घ नहीं

पता नहीं

कुष्ठरोग

3.67 (2004)

संभवत: समाप्त हो जायेगा

संभवत: समाप्त हो जायेगा

शिशु मृत्यु दर

63 (2002)

53.14

बहुत घीमी गति

ओटिटिस मीडिया

3.57

4.18

बढ़ेगा

प्रसव मृत्यु

440

उपलब्घ नहीं

पता नहीं

केंसर 

8.07 (2004)

9.99

बढ़ेगा

मधुमेह

310

460

बढ़ेगा

मानसिक स्वास्थ्य

650

800

बढ़ेगा

अंधत्व

141.07 (2002)

129.96

कम होगा

हृदयरोग

290 (2000)

640

बढ़ेगा

अस्थमा

405.20 (2001)

596.36

बढ़ेगा

चोट से मौतें

9.8

10.26

बढ़ेगा

 

 

 

 

इस खबर के स्रोत का लिंक: