रोजगार गारण्टी कानून में मजदूर संगठन की संभावनायें

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 08:50
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मीडिया फॉर राईट्स

42 आय बढ़ने के कारण स्वयं सहायता समूहों को अब ज्यादा सक्रिय करने की कोशिशें की जायेगी और उन्हें ही मजदूरों के संगठन के रूप में परिभाषित किया जायेगा। हमें स्पष्ट रहना होगा कि मजदूरों का अपने हकों के संघर्ष के लिये संगठित होने की जरूरत है; जबकि बाजार अब तीस करोड़ नये उपभोक्ताओं का इंतजार कर रहा है।

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को आजीविका के हर तरह के अवसरों में शोषण का सामना करना पड़ा है। अगस्त 2005 में भारत सरकार ने देश के 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र के, मजदूरों को रोजगार के शोषण मुक्त अवसर उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया और 2 फरवरी 2006 से देश के सबसे जरूरतमंद और मानव विकास के नजरिये से पिछड़े हुए 200 जिलों में लागू किया। इस कानून के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले हर परिवार को वर्ष में एक सौ दिन शारीरिक श्रम आधारित रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यह एक मांग आधारित योजना है जिसमें न्यूनतम मजदूरी पर श्रम करने वाले हर व्यक्ति को उसके द्वारा मांग किये जाने पर रोजगार उपलब्ध कराया जायेगा। यदि रोजगार मांगने के 15 दिन के भीतर रोजगार नहीं दिया जाता है तो बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में पंचायत और प्रशासन के स्तर पर दायित्व और कर्तव्यों का स्पष्ट चित्रण किया गया है। इस योजना का मकसद केवल मजदूरी के अवसर उपलब्ध करवाना नहीं है बल्कि स्थाई विकास की संभावनाओं का उपयोग करते हुए जल-जंगल-जमीन की उन्नति के लिए योजनाएं बनाकर क्रियान्वित करना भी है। अब तक असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए संघर्ष का कोई कानूनी मंच उपलब्ध नहीं था पर यह कानून अब इस तरह के कानूनी मंच की उपलब्धता सुनिश्चित करता है।

मध्यप्रदेश में शुरूआती दौर में 18 जिलों में यह योजना लागू की गई है। उन जिलों में कुल 43.5 लाख ग्रामीण परिवार निवास करते हैं। इन सभी परिवारों का रोजगार गारंटी योजना के अन्तर्गत पंजीयन किया जा चुका है और रोजगार गारंटी कार्ड भी वितरित किए जा चुके हैं। दूसरे शब्दों में पंजीयन और रोजगार गारंटी कार्ड की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद अब मजदूरों के बीच संगठन निर्माण की संभावनायें भी बढ़ जाती हैं। हम सभी यह जानते हैं कि आदर्श कानून बन जाने के बाद भी व्यवस्थाओं में सुधार नहीं होता है क्योंकि उन कानूनी अधिकारों का राजनैतिक नजरिए से उपयोग ही नहीं किया जाता है। अब गुजरात के गोधरा जिले में मानो रोजगार गारण्टी कानून की आत्मा भी जन्म ले रही है। रोजगार को एक संवैधानिक हक के रूप में स्वीकार करने की वकालत करने वाले हमेशा से यह मानते रहे हैं कि इस कानून से न केवल रोजगार और मजदूरी का अधिकार मिलेगा वरन असंगठित क्षेत्र को संगठित करने के लिये भी यही कानून सबसे अहम भूमिका भी निभायेगा। गुजरात राज्य के छह जिले रोजगार गारण्टी कानून के अन्तर्गत चुने गये हैं। इस राज्य को हमेशा चमकते भारत का प्रतिनिधित्व करते देखा गया है। उदारवाद के समर्थक विशेषज्ञ इसे आधुनिक विकास के तीर्थक्षेत्र के रूप में पेश करते रहे हैं। गुजरात को ही सामने रखकर यह बताया जाता रहा है कि आलीशान इमारतें, सपाट सड़कें, भारी उद्योगों की स्थापना से गरीबी को मिटाया जा सकता है परन्तु वास्तव में इस विश्लेषण के इस यथार्थ को छिपाया गया कि पर्यावरण के विनाश और सामाजिक द्वेश भाव की जिस नई परम्परा को वहां जन्म मिला है उससे लोकतांत्रिक समाज के लिये नये संकट भी पैदा हुए हैं। दुखद तथ्य यह है कि यह संकट ज्यादा खतरनाक है।

भारत के अन्य राज्यों की ही तरह गुजरात में भी 2 फरवरी 2006 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून लागू हुआ और पांच माह की अवधि में ही वहां विकास के रंगीन पर्दे के पीछे छिपी गरीब मजदूरों के शोषण की कहानी सामने आने लगी। यहां व्यापक रूप से मजदूरों को रोजगार गारण्टी कानून और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के उल्लंघन के कारण शोषण का सामना करना पड़ा। साबरकांठा जिले के बलिसाना गांव में 700 मजदूरों ने 14 फरवरी से 18 दिन तक हाड़तोड़ मजदूरी की। राज्य में रोजगार गारण्टी कानून के अन्तर्गत काम करने वाले मजदूरों को यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें 35 रुपए रोज मजदूरी मिलेगी किन्तु जब मई के अंतिम सप्ताह में अलग-अलग कार्य स्थलों पर भुगतान किये गये तब मजदूर अचंभित रह गये क्योंकि उन्हें केवल चार से सात रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी जा रही थी। इतना ही नहीं व्यापक स्तर पर रोजगार कानून के सबसे अहम् प्रावधानों (जैसे सात से पन्द्रह दिन के भीतर अनिवार्य रूप से मजदूरी का भुगतान, महिलाओं को समान मजदूरी, बच्चों के लिये झूलाघर और मजदूरों के काम की सही माप करना) का हर कदम पर उल्लंघन किया गया। केन्द्र सरकार द्वारा बनाये गये कानून का प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि मजदूरों को दी जाने वाली न्यूनतम मजदूरी 60 रुपए प्रतिदिन से कम नहीं होगी परन्तु राज्य सरकार ने यहां भी तुगलकी रवैया अख्तियार किया और मजदूरों के कानूनी हक छीने। ऐसे में पहले मजदूरों ने कानून और राज्य की योजना के प्रावधानों के अनुसार व्यक्तिगत स्तर अपने हकों की मांग की परन्तु जल्दी ही वे समझ गये कि संगठित हुये बिना उन्हें अधिकार नहीं मिल पायेंगे। तब इन जिलों में मजदूरों ने आपस में चर्चा करना शुरू की। अंतत: गोधरा में लगभग साढ़े पांच हजार मजदूर इकट्ठा हुये और यहां राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना मजदूर यूनियन का निर्माण हुआ।

मूलत: रोजगार गारण्टी कानून के सार्थक क्रियान्वयन के लिये ईमानदार राजनैतिक प्रतिबद्धता होना एक जरूरी शर्त है। यह शर्त समाज में बेरोजगारी की परिस्थितियों में बदलाव लाने में क्या भूमिका निभा सकती है इसे मध्यप्रदेश और गुजरात का तुलनात्मक विश्लेषण करके महसूस किया जा सकता है। मध्यप्रदेश की ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में 18 जिलों के 43 लाख परिवार शामिल हैं और इन सभी परिवारों का पंजीयन भी हो चुका है और रोजगार कार्ड भी जारी किये जा चुके हैं। यहां प्रयास कागजी कार्रवाई तक सीमित नहीं हैं प्रदेश में 18 लाख से ज्यादा मजदूरों को 61.37 रुपए की दर पर मजदूरी तो मिल ही रही है साथ ही 20 हजार से ज्यादा सड़कों, तालाबों और अन्य सामुदायिक संरचनाओं का काम पूरा हो चुका है। राज्य में पलायन में 40 प्रतिशत की कमी आई है और खुले बाजार में होने वाला शोषण भी कम हुआ है। परन्तु वहीं दूसरी ओर गुजरात में रोजगार योजना के छह जिलों में बसे लगभग 70 लाख परिवारों में से केवल सवा सात लाख परिवारों का ही पंजीयन हो पाया है और इनमें से भी कुछ को ही रोजगार कार्ड जारी किये गये हैं। राज्य में अब तक योजना के सम्बन्ध में पुख्ता दिशा-निर्देश जारी नहीं हुये हैं न ही सम्बन्धित अधिकारियों- जनप्रतिनिधियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम हुये हैं।

ऐसी परिस्थितियों में विश्लेषण के बहुत सारे पक्ष हो सकते हैं परन्तु सबसे अहम पक्ष यह है कि क्या वास्तव में देश के असंगठित क्षेत्र में काम करके हर रोज शोषण का शिकार होने वाले मजदूर संगठित होकर अपने हकों को हासिल और इस्तेमाल कर पायेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि कभी भी कोई भी अधिकार तब तक बेमानी है जब तक कि उसे उसकी मूल भावना के साथ उपयोग न लाया जाये। जब रोजगार गारण्टी कानून के लिये जनसंघर्ष चल रहा था तब उसके संघर्ष का सबसे अहम् आधार वक्तव्य यही था कि देश की कुल कार्यशील जनसंख्या का 93 फीसदी हिस्सा असंगठित मजदूर वर्ग के लिये न तो सरकारी संरक्षण है न ही किसी कानून का सहारा और चूंकि ये असंगठित हैं इसलिये राजनैतिक संघर्ष के अवसर भी शून्य ही हो जाते हैं। अपेक्षा यही थी कि रोजगार गारण्टी कानून से लोक आधारित विकास सही दिशा मिलेगा और यदि इस कानून के क्रियान्वयन की दिशा भटकेगी तो मजदूरों को संगठित होकर कानूनी रूप से इसे सही दिशा देने का अधिकार भी मिलेगा। गुजरात में यही हुआ भी है। यह सही है कि कानून स्पष्ट रूप से न्यूनतम मजदूरी की परिभाषा, कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारण्टी, बेरोजगारी भत्ते, कार्यस्थल पर पीने के पानी, बच्चों के लिये झूलाघर, प्राथमिक चिकित्सा के अधिकार की बात करता है परन्तु हमारी सामाजिक व्यवस्था में वंचितों का शोषण बिना फायदे के भी किया जाता है ताकि ताकतवर का भय बना रहे और इसी भय के वातावरण को बनाये रखने के लिये सरकारी तंत्र, राजनीति के नेता और समाज के दबंग इन प्रावधानों को नहीं लागू होने देना चाहते हैं। वे स्पष्ट हैं कि मजदूर को सशक्तिकरण का अहसास नहीं होना चाहिए।

इतना ही नहीं पहली मर्तबा कोई कानून जनसंघर्ष की महत्ता को न केवल स्वीकार कर रहा है बल्कि सामाजिक अंकेक्षण और पारदर्शिता के प्रवधानों के रूप में उसे वैधानिक रूप भी प्रदान करता है। बहरहाल कानून तो बन गया किन्तु कानून बन जाना इस बात की गारण्टी नहीं है कि मजदूरों को उनका हर हक थाली में सजाकर परोस दिया जायेगा। सामाजिक अंकेक्षण केवल भ्रष्टाचार को नियंत्रित नहीं करेगा बल्कि गांव में सामाजिक सत्ता के समीकरण को भी पलट कर रख देगा। जब कानून यह कर सकता है तो इसका साफ मतलब यह है कि बिना संगठित हुये कानून को मूल भावना के साथ लागू कर पाना संभव नहीं है। हम बेरोजगारी भत्ते का साधारण सा उदाहरण ले सकते हैं। कानून कहता है कि व्यक्ति के रोजगार मांगने की तारीख से 15 दिन की अवधि में यदि सरकार ने रोजगार नहीं दिया तो अगले दिन से उसे बेरोजगारी भत्ता देना होगा। यह बहुत स्पष्ट रूप से लिखा गया है परन्तु जब नियम बने तो 11 ऐसी बाधायें खड़ी कर दी गई जिनके कारण बेरोजगारी भत्ता पाना लगभग असंभव हो गया है। सरकार भी कहती है कि यदि पूरे गांव को काम नहीं मिला और वे बेरोजगारी भत्ता चाहते हैं तो सरकार स्वप्रेरणा से बेरोजगारी भत्ता नहीं देगी बल्कि उन्हें इसके लिये भी आवेदन देना होगा और भत्ते की पात्रता सिद्ध करना होगा। इतना ही नहीं पूरा गांव इसके लिये एक साथ संगठित होकर आवेदन नहीं करेगा बल्कि हर व्यक्ति को अपना अलग आवेदन देना होगा। एक-एक व्यक्ति यदि एक-एक स्वार्थ को पूरा करने की प्रक्रिया में जायेगा तो इस कानून के कोई मायने नहीं होंगे। निजी हकों को संगठित हकों में और निजी प्रयासों को संगठित रूप देने का सिद्धांत ही समाज में बदलाव ला पायेगा।

रोजगार गारंटी योजना में मजदूरी के सवाल पर शोषणकारी व्यवस्था बनने की व्यापक संभावनायें हैं। अनुभव यह सिद्ध कर रहे है कि लक्ष्य आधारित (टास्क आधारित) मजदूरी निर्धारण होने के कारण मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल पा रही है। अभी एक-एक मजदूर अपनी मजदूरी का सवाल बहुत ही निजी स्तर पर उठाकर शांत हो जाता है। भ्रष्टाचार और शोषण करने वाले जानते हैं कि मजदूरों की आवाज संगठित नहीं है। इसलिये वे थोड़ा जोखिम उठाने से पीछे नहीं हटते हैं, किन्तु ऐसी स्थिति में जब मजदूरी का सवाल हर मजदूर का सवाल बनेगा तो यह तय है कि उस आवाज को दबाया नहीं जा सकेगा। सामाजिक अंकेक्षण न केवल सवाल-जवाब करके जांच-पड़ताल करने की एक प्रक्रिया है बल्कि एक तरह की न्यायिक प्रक्रिया है जिसमें भ्रष्टाचार और विकास की परिभाषा को विकृत करने वालों की जवाबदेही तय करने के साथ-साथ उन्हें दण्डित किये जाने की भी व्यवस्था है। सीधी सी बात है कि भ्रष्टाचार वह करता है जिसका प्रक्रिया पर नियंत्रण होता है और प्रक्रिया पर नियंत्रण ताकतवर का होता है। यह ताकत राजनीति की हो सकती है, जाति की हो सकती है या धन-बल की। जब हम यह अपेक्षा करते हैं कि ग्रामसभा और मजदूरों की निगरानी समिति सामाजिक अंकेक्षण को भ्रष्टाचार को रोकें; तब सवाल यह उठता है कि क्या बिना संगठन के सामाजिक अंकेक्षण के कानूनी प्रावधान को भी लागू किया जा सकता है। निश्चित रूप से संगठनों के निर्माण से सामाजिक संघर्ष के प्रयासों को एक ठोस आधार मिलेगा। लोक निर्माण विभाग से एक मजदूर मस्टररोल की कॉपी चाहकर भी हासिल नहीं कर सकता है परन्तु मजदूरों की यूनियन संगठित रूप से तमाम दस्तावेज हासिल कर सकती है। एक तरह से संगठन सत्ता के समीकरण बदल देता है।

मजदूर यूनियनों का दायरा केवल मजदूरी या बेरोजगारी भत्ते तक ही सीमित रखकर नहीं देखा जाना चाहिए। मसला रोजगार गारंटी योजना के अन्तर्गत निर्मित होने वाली स्थाई सम्पत्तियों पर समुदाय के अधिकार का भी नहीं है। संभवत: ग्रामसभा और पंचायतें वहां बनने वाली सम्पत्तियों की मालिक होंगी और संगठन इस मालिकाना हक को हासिल करने के लिये ग्रामसभा की मदद कर पायेंगे। भविष्य में संगठन निर्माण की संभावनाओं को ट्रेड यूनियन के रूप में चरितार्थ किया जा सकता है। हमें यह भी देखना होगा कि कहीं स्वयं सहायता समूहों की अवधारणा के जाल में मजदूरों के समूह न जा फंसे। आय बढ़ने के कारण स्वयं सहायता समूहों को अब ज्यादा सक्रिय करने की कोशिशें की जायेगी और उन्हें ही मजदूरों के संगठन के रूप में परिभाषित किया जायेगा। हमें स्पष्ट रहना होगा कि मजदूरों का अपने हकों के संघर्ष के लिये संगठित होने की जरूरत है; जबकि बाजार अब तीस करोड़ नये उपभोक्ताओं का इंतजार कर रहा है।