जब पलायन करके जाने वाले मजदूरी की संख्या में भी गिरावट आई है और रोजगार गारंटी योजना में काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या में भी गिरावट आई है, तब पूरा का पूरा मजदूर वर्ग कहां गायब हो गया है। यदि इस मामले को गौर से देखा जाए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि रोजगार गारंटी योजना आने के बावजूद मजदूर वर्ग की स्थिति में कोई व्यापक सुधार नहीं आया है और न ही पलायन रुका है।
राष्ट्रीय मीडिया में इस बात को लेकर लगातार चर्चा हो रही है कि पंजाब एवं हरियाणा में खेतीहर मजदूर नहीं मिल रहे हैं। गुजरात को लेकर भी कुछ ऐसी ही खबरें आ रही हैं कि सूरत, अहमदाबाद या अन्य शहरों में नियमित आने वाले परदेशी मजदूरों की संख्या में गिरावट आई है। इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह दिया जा रहा है कि जबसे देश में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को लागू किया गया है, तबसे मजदूरों का पलायन रुक गया है और वे अब गांव में ही काम करना पसंद कर रहे हैं। पंजाब एवं हरियाणा के कुछ बड़े किसानों के वक्तव्य को प्रकाशित करते हुए यह बताया जा रहा है कि उन्हें अब बहुत ही महंगी मजदूरी पर मजदूर लेने पड़ रहे हैं। कुछ इस तरह की अतिशयोक्ति भरे बयान भी आ रहे हैं कि बड़े किसान अपनी कुल खेती में से एक बड़े हिस्से में खेती नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें मजदूर नहीं मिल रहे हैं।बात यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे आगे यह भी है कि कई बड़े किसान रेलवे स्टेशन एवं बस स्टैंड के चक्कर लगा रहे हैं, ताकि कम संख्या में आने वाले मजदूरों को वे लुभा सकें एवं अपने यहां काम पर ले जा सकें। इसी तरह उन शहरों की स्थिति भी देखने को मिल रही हैं, जहां बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर आकर जीवनयापन कर रहे हैं। उक्त स्थितियों को देखते हुए सवाल यह उठता है कि यदि मजदूरों का प्रवास रुक गया है, तो गांवों की स्थिति में सुधार आना चाहिए एवं गांव के लोग गांव में ही मिलने चाहिए एवं सबसे बड़ी बात तो यह है कि बड़ी संख्या में मजदूर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम की मांग भी करें एवं काम भी करें। तो क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? कम से कम ऐसा दिख तो नहीं रहा है और न ही सरकारी आंकड़ें इस बात की गवाह बन रहे हैं कि पहले की तुलना में काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
मध्यप्रदेश की बात करें, तो यहां यह साफ दिख रहा है कि गांवों में रोजगार गारंटी योजना के तहत काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या में बड़ी गिरावट आई है। यहां तक कि अधूरे पड़े कामों को लेकर भी सरकारी अधिकारियों द्वारा यह टिप्पणी की जा रही है कि मजदूर नहीं मिल पाने एवं रोजगार गारंटी के तहत काम नहीं मांगने के कारण काम अधूरे पड़े हैं। मध्यप्रदेश में पिछले साल मात्र 890 परिवारों को ही 100 दिन का रोजगार मिल पाया था, जबकि प्रदेश में 11842097 परिवार को जॉब कार्ड जारी किए गए हैं। इससे यह पता चलता है कि गांवों में रोजगार गारंटी के तहत सभी को काम नहीं मिल पा रहा है या फिर लोग काम नहीं मांग रहे हैं। रोजगार गारंटी योजना में काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या में आई गिरावट को लेकर यह बात की जा रही है कि चूंकि योजना के तहत औसतन 130 रुपए (अलग-अलग राज्यों में कुछ विभिन्नताएं हैं) मजदूरी दी जा रही है, जबकि मजदूरों को अन्य जगहों पर काम करने से लगभग 200 रुपए मजदूरी मिल रही है।
जब पलायन करके जाने वाले मजदूरी की संख्या में भी गिरावट आई है और रोजगार गारंटी योजना में काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या में भी गिरावट आई है, तब पूरा का पूरा मजदूर वर्ग कहां गायब हो गया है। यदि इस मामले को गौर से देखा जाए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि रोजगार गारंटी योजना आने के बावजूद मजदूर वर्ग की स्थिति में कोई व्यापक सुधार नहीं आया है और न ही पलायन रुका है। चूंकि बड़े शहरों में रियल स्टेट में ज्यादा उफान आया हुआ है, इसलिए पलायन कर जाने वाले मजदूर खेत मजदूर बनने के बजाय निर्माण मजदूर बनना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। इसके अलावा पलायन कर जीवनयापन करना पहले की तुलना में कठिन हो गया है। आए दिन क्षेत्रवाद के कारण हिंसा एवं वाक्युद्ध ने मजदूरों पर नकारात्मक असर डाला है। ऐसे मजदूर गांवों में रुक तो रहे हैं, पर वहां भी उन्हें रोजगार गारंटी से राहत नहीं मिल पा रही है।
रोजगार गारंटी योजना की विभिन्न समस्याओं - मांग के आधार पर काम नहीं मिलना, बेरोजगारी भत्ता नहीं मिलना, मुआवजा नहीं मिलना, समय पर भुगतान नहीं होना एवं अन्य कई धांधलियां होने के कारण मजदूरों का योजना से मोह भंग हो रहा है। ऐसे में अधिकांश मजदूर रोजगार गारंटी योजना के तहत काम करने के बजाय खुले में काम करना पसंद कर रहे हैं। इसके अलावा मजदूरों का एक बड़ा वर्ग स्थानीय शहरों में पलायन करना पसंद कर रहा है, क्योंकि इन शहरों में भी निर्माण श्रमिकों की मांग बढ़ी है। ऐसी स्थिति में न तो यह कहा जा सकता है कि रोजगार गारंटी के कारण मजदूरों का पलायन रुक गया है और न ही यह कहा जा सकता है कि रोजगार गारंटी से मजदूरों को व्यापक स्तर पर लाभ मिला है। प्रति परिवार औसत 30 से 40 दिन की मजदूरी यदि ग्रामीण परिवारों को मिल भी जा रही है, तो उससे उनके जीवन स्तर में ज्यादा सुधार आने की संभावना नहीं है। गांवों में बहुत बड़ी संख्या में लोग बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं।
उक्त स्थितियों को देखने के बावजूद यह कहा जा सकता है कि रोजगार गारंटी योजना में यदि पारदर्शी तरीके से कार्य किया जाए और मांग के आधार पर काम, समय पर मजदूरी का भुगतान, बेरोजगारी भत्ता एवं मुआवजा मिलने के साथ-साथ सामाजिक अंकेक्षण पर जोर दिया जाए, तो शायद परिस्थितियां कुछ बदली हुई नजर आएगी। पंचायत स्तर पर समुदाय की भागीदारी को बढ़ाते हुए गायब मजदूरों को रोजगार गारंटी योजना से जोड़ा जा सकता है।