सुंदरकांड में दोहा संख्या 43 के बाद एक चैपाई की पंक्तियां हैं - निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा। इसके संदर्भ को एक बार छोड़ दें और इन पंक्तियों के भावार्थ पर ध्यान दें। इन पंक्तियों में भगवान श्रीराम कह रहे हैं कि जो मनुष्य निर्भल मन यानी मस्तिष्क का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यानी ईश्वर को पाने के लिए मन-मस्तिष्क का शुद्ध होना बेहद आवश्यक है। परमपिता परमात्मा को बाहरी आडंबर, छल-कपट बिल्कुल नहीं भाता।
भारतीय संस्कृति इस परंपरागत सिद्धांत को मानती है कि हमारा शरीर पंचतत्वों से निर्मित हुआ है और अंत में मृत्यु उपरांत उसी में विलीन भी हो जाता है। हमारी धरती नामक ग्रह पर जो कुछ भी मौजूद है, वह इन्हीं पंचभूतों से ही निर्मित हुआ है। ये पंचभूत तत्व हैं, आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। इसमें पृथ्वी से तात्पर्य है हमार शरीर और जल से तात्पर्य है मस्तिष्क। इसी तरह अग्नि को बुद्धिमत्ता, वायु को जागरुकता और आकाश को चेतना माना गया है। आपकी आंखें उतना ही देखी पाती हैं, जितना आपका मस्तिष्क जानता है। वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ न्यूरोलाॅजी ने ‘द वल्र्ड ब्रेन डे 2018’ के मौके पर न्यूरोलाॅजी एंड इनवायरनमेंट की थीम रखी थी। इस संदर्भ में शीर्षक दिया गया, ‘क्लीन एयर फाॅर हेल्दी ब्रेन’ (clean air for healthy brain) यानी स्वस्थ मस्तिष्क के लिए स्वच्छ हवा की जरूरत होती है। इसका एक परोक्ष अर्थ यह भी था कि मस्तिष्क का स्वास्थ्य खराब होने का मुख्य कारण प्रदूषण है। विशेष तौर पर बेहतर गुणवत्ता वाली स्वच्छ वायु की उपलब्धता मस्तिष्क के बेहतर स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य शर्त है।
आज जब देश की राजधानी नई दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र गंभीर पर्यावरण प्रदूषण (environment pollution) झेलने को बाध्य हैं और, देश के अन्य राज्यों के हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं। विशेषतौर पर उत्तर भारतीय राज्यों की स्थिति इतनी खराब है कि बड़ी संख्या में बच्चों व वयस्कों के लिए जहरीली हवा काल बनती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठता ही है कि आखिर शुद्ध व स्वच्छ पर्यावरण (clean environment) देश में कहीं अस्तित्व में है या यह केवल कल्पना भर है।
मेघालय की राजधानी शिलांग से करीब 86 किलोमीटर दूर जयंतिया पहाड़ियों के मध्य बहने वाली ‘डाॅकी’ नदी के प्रस्तुत चित्र में अविश्वसनीय रूप से स्वच्छ नीला हरा जल, मस्तिष्क मस्तिष्क की निर्मलता को ही दिखलाता है। यहां पानी इतना स्वच्छ और पारदर्शी है कि इसमें झांकने पर नदी का तल भी स्पष्ट दिखाई देता है। डाॅकी नदी भारत से बांग्लादेश की ओर बिना किसी भौगोलिक सीमा बाधा के बहती है। इस नदी से करीब 39 किलोमीटर की दूरी पर है, मावल्यन्नोंग गांव (mawlynnong village)। यह वह गांव है, जिसे ‘एशिया के स्वच्छतम गांव’ (Asia's cleanest village) का तमगा मिला हुआ है। स्वच्छ भारत अभियान की देश में शुरुआत से कहीं पहले यहां स्वच्छता को मिशन के तौर पर लागू किया गया था। गांव में पेड़ों की जड़ों से बने प्राकृतिक पुल, सीमेंट से बनी स्वच्छ सड़क, शानदार पाइपलाइनयुक्त ड्रेनेज सिस्टम, डस्टबिन, सोलर लाइटें, ऑर्गेनिक फार्मिंग (organic farming) आदि की व्यवस्था है। सभी तरफ केले व सुपारी के पेड़ दिखाई पड़ते हैं। खूबसूरत रंगीन तितलियां व चहुंओर उन्मुक्त घूमती चिड़ियों की चहचहाहट बरबस ही मन मोह लेती है। सही मायने में पंचतत्वों के सभी तत्वों को यहाँ पर संरक्षित किया गया है।
जल संरक्षित करना हमारी संस्कृति रही है। राजस्थान में तो कहावत भी है, ‘घी दुल्यां म्हारो जी बले।’ इसका अर्थ है कि घी व्यर्थ बह जाए तो मेरा कुछ नहीं जाता, पानी व्यर्थ बहता है तो मेरा जी यानी दिल जलता है। आज जरूरत इस बात की है कि जी जलाने से बचाने के लिए हमें पंचतत्वों को स्वच्छ व शुद्ध रखना होगा, ताकि हम भावी पीढ़ी के लिए स्वच्छ और स्वस्थ मस्तिष्क को सुनिश्चित कर सकें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि स्वच्छ और निर्मल मस्तिष्क ही ईश्वर को पाने का आवश्यक साधन है, जैसा कि संदरकांड में भी कहा गया है।
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