क्या महात्मा गांधी को 21वीं सदी का समसामयिक पर्यावरणविद कहा जा सकता है? हिंसा और नफरत के दौर से गुजर रही दुनिया को गांधी रास्ता दिखाते हैं। पर्यावरण के सम्बन्ध में की गई उनकी टिप्पणियाँ बताती हैं कि कैसे उन्होंने उन अधिकांश पर्यावरणीय समस्याओं का अनुमान लगा लिया था, जिनका वर्तमान में दुनिया सामना कर रही है। ऐसे वक्त में गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर गांधी के पर्यावरणविद का दक्षिण अफ्रीका में एक प्रोफेसर, एक गांधीवादी और एक समाजशास्त्री की नजर से डाउन टू अर्थ का आकलन
क्या महात्मा गांधी एक मानव पारिस्थितिकीविज्ञ थे? यदि हम भारत में पर्यावरण आन्दोलन से उत्पन्न विचारों को देखें, जिन पर गांधी जी का काफी प्रभाव रहा है, तो इसका उत्तर निश्चित रूप से ‘हाँ’ है। मानव पारिस्थिति में आमतौर पर मुख्य जोर पारिस्थितिकी तंत्र के महत्त्व और कार्यों तथा इस बात पर होता है कि समय के साथ इन तंत्रों को मनुष्य ने कैसे प्रभावित किया है। यह स्पष्ट रूप से एक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके मूल में अन्य मनुष्यों और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी की भावना तथा सभी प्रकार के जीवों के प्रति प्रेम है। मानव पारिस्थितिकी दृष्टिकोण पूर्णवादी है। गाँधी ने मानव जीवन के अलग-अलग पहलुओं के लिये अलग-अलग नियमों की पहचान नहीं की, बल्कि सभी पहलुओं को एकीकृत रूप से देखा जो मानव पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण को सर्वश्रेष्ठ रूप में दर्शाता है। इन्हीं कारणों से गांधी को विश्व विख्यात पारिस्थितिकीविज्ञ के रूप में माना जाता है, जिसमें हरित आन्दोलन और इसके विभिन्न रूप शामिल हैं।
हेनरी डेविड थोरु, जिनके नागरिक अनुज्ञा सम्बन्धी निबन्ध ने गांधी को प्रभावित किया था, का मानना था कि प्रकृति मानव के बिना रह सकती है, इस सम्भावना ने उन्हें आकर्षित और भयभीत किया जिसने बाद में उन्हें मनुष्यों और पर्यावरण के बीच सम्बन्ध पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये प्रेरित किया। |
कुछ लोग गांधी को पर्यावरणविद के रूप में पेश करने के विचार से असहमत हो सकते हैं। उनके पास निश्चित रूप से इसका तर्क है। वर्तमान में पर्यावरण विषय के तहत जिन मामलों पर चर्चा की जा रही है, वे उनके जीवनकाल के दौरान इतने महत्त्वपूर्ण नहीं थे। तथापि, ‘सात दिन के आश्चचर्य’ के रूप में आधुनिक (औद्योगिक) सभ्यता की उनकी व्याख्या में भविष्यवाणी और चेतावनी, दोनों शामिल हैं। प्रकृति के साथ मानव संयुक्तता के बारे में उनके विचार उनके अन्य विचारों की तरह ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं, तथा उनकी समृद्ध लेखनी को सावधानीपूर्वक पढ़कर इसका सही आकलन किया जा सकता है।पर्यावरण के सम्बन्ध में उनके द्वारा की गई कुछ सीधी टिप्पणियाँ दर्शाती हैं कि कैसे गांधी ने उन अधिकांश पर्यावरणीय समस्याओं का पूर्वानुमान लग लिया था जिनका आज हम सामना कर रहे हैं। उन्होंने इच्छाओं की सीमितता को केन्द्र में रखकर पारिस्थितकीय अथवा मूलभूत आवश्यकता आधारित मॉडल की परिकल्पना की, जिसमें समाज और प्रकृति के विभिन्न तत्वों के बीच एक प्रकार का तालमेल बनाने पर ध्यान दिया जाएगा, जो आधुनिक सभ्यता के विपरीत है जिसमें वस्तुगत कल्याण और लाभ को बढ़ाने के लिये एक-आयामी मार्ग को बढ़ावा दिया जाता है। गांधी ने कहा था “एक सीमा तक भौतिक तालमेल और आराम आवश्यक है, किन्तु एक सीमा के बाद यह सहायता के बजाय अवरोध बन जाता है, इसलिये असीमित इच्छाओं का सृजन व उन्हें पूरा करने की मानसिकता भ्रम और जाल प्रतीत होती है।”
अब ‘आनंद सूचकांक’ नामक एक नया सूचकांक विकसित किया जा रहा है। इस सूचकांक की विशेषताओं में से एक यह है कि वस्तुगत विकास का उच्च स्तर आनंद का उतना ही उच्च स्तर नहीं दर्शाता है। गांधी ने सन्तुष्टि विषय पर जोर दिया था और उन्हें ‘आनंद सूचकांक’ विशेष रूप से उपयोगी लगता होगा। गांधी कहते थे कि जो व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं को कई गुना बढ़ाता है वह सादा जीवन, उच्च विचार के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता।
बीसवीं शताब्दी के पर्यावरणशास्त्र के सम्बन्ध में गांधी की आवाज कोई अकेली नहीं थी। रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी कविताओं और कार्यों में प्रकृति को प्रदर्शित किया। उनके द्वारा स्थापित संस्था शांति निकेतन प्रकृति-अनुकूल अध्ययन और रहन-सहन का एक अन्य उदाहरण है। गांधी ने अनेक पश्चिमी विचारकों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो यद्यपि आधुनिकतावादी परियोजनाओं के विरुद्ध नहीं थे, तथापि स्वच्छन्द रूप से पूर्व-औद्योगिक व्यवस्था का पोषण करते थे। उदाहरण के लिये, जॉन रस्किन ने औद्योगीकरण की आलोचना की जिसने मानव की संवेदनशीलता को बिगाड़ दिया है तथा प्रकृति के साथ मानव के सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध को नष्ट कर दिया है। हेनरी डेविड थोरु, जिनके नागरिक अनुज्ञा सम्बन्धी निबन्ध ने गांधी को प्रभावित किया था, का मानना था कि प्रकृति मानव के बिना रह सकती है, इस सम्भावना ने उन्हें आकर्षित और भयभीत किया जिसने बाद में उन्हें मनुष्यों और पर्यावरण के बीच सम्बन्ध पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये प्रेरित किया। जॉन रस्किन और हिन्दू रहस्यवाद से प्रभावित एडवर्ड कारपेंटर भी ऐसा जीवन जीना चाहते थे जो साधारण हो और प्रकृति के नजदीक हो।
इन सभी विचारकों की विशेषता प्रकृति के बारे में इनकी एक प्रकार की स्वच्छन्दता और औद्योगिक सभ्यता तथा शहरीकरण के प्रति सामान्य अरुचि है। हमारे पास गांधी के ऐसे ही स्वच्छन्दतावादी वक्तव्य भी हैं। उन्होंने कहा था “मुझे प्रकृति के अतिरिक्त किसी प्रेरणा की आवश्यकता नहीं है। उसने कभी भी मुझे विफल नहीं किया है। वह मुझे चकित करती है, भरमाती है, मुझे आनन्द की ओर ले जाती है।”
भीखू पारेख के अनुसार, “गांधी ने इस मानवतावादी विचार को चुनौती दी कि मनुष्य गैर-मानव दुनिया पर पूर्ण सत्तात्मक श्रेष्ठता और इसके फलस्वरूप वर्चस्व का अधिकार प्राप्त करता है।” यह मनुष्य को उसकी जड़ों से दूर करता है और मानवरूपी अहंकारी साम्राज्यवाद का शिकार बन जाता है। इसके विपरीत, गांधी का महान वैज्ञानिक मानव-शास्त्र उसकी (मनुष्य की) मौलिक जड़ों को पुनः स्थापित करता है, उनके और प्राकृतिक दुनिया के बीच अधिक सन्तुलित और सम्मानित सम्बन्ध स्थापित करता है, पशुओं को उनका उचित स्थान दिलाता है तथा अधिक सन्तोषजनक और पारिस्थितिक रूप से जागरूक दार्शनिक मानव-शास्त्र का आधार प्रदान करता है। गांधी ने कहा था “मैं अद्वैत में विश्वास करता हूँ, मैं मनुष्य की अनिवार्य एकता में विश्वास करता हूँ और उस मामले के लिये सभी जीवों की एकता में।”
उत्तरजीविता से पारिस्थितिकी तक
गांधी ने अपने एकीकृत दृष्टिकोण का विकास प्रकृति और इसके कार्यों पर मौलिक दृष्टि से नहीं किया था। बल्कि वह यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि अन्य मनुष्यों तथा प्रकृति को कम-से-कम हानि पहुँचाकर किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है।
चिपको आन्दोलन के चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा अथवा यहाँ तक कि नर्मदा आंदोलन के मेधा पाटकर और बाबा आम्टे ने अपने सक्रिय जीवन की शुरुआत समाज के पिछड़े वर्गों के जीवनयापन के मुद्दों से सम्बन्धित प्रश्नों से की थी। जीवनयापन के संसाधन को बचाने के उनके संघर्ष ने समय के साथ पर्यावरणविद का रूप ले लिया जिसके कारण उनके लिये पर्यावरण, विकास, उत्तरजीविता, सततता और शान्ति के बीच अन्तःसम्बन्धों को देखना सम्भव हो सका।
गांधी ऐसे पर्यावरणविद नहीं थे जो सभी प्रकार के जीवन के बीच अन्तःसम्बन्धों को मानते हुए भी मानव जातियों की उत्तरजीविता के प्रति उदासीन थे। वास्तव में, पारिस्थितिकीय मामले उनके सामाजिक व्यवस्था के मूल्य आवश्यकता मॉडल पर ध्यान केन्द्रित करने से उभरे हैं जो प्रकृति का दोहन अल्पकालीन लाभों के लिये नहीं करेगा बल्कि इससे केवल वही लेगा जो मानव का अस्तित्व बनाए रखने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। गांधी को स्वीकार करना पड़ा कि न चाहते हुए भी प्रकृति के प्रति कुछ मात्रा में हिंसा करनी पड़ती है। हम बस यह कर सकते हैं कि जहाँ तक हो सके इसे कम-से-कम करें।
गांधी ने चेताया था “ऐसा समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अन्धी दौड़ में लगे लोग अपने किए को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया?” यदि हम जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी वर्तमान वाद-विवाद को देखें तो जिस व्यग्रता से पश्चिमी देश उभरते हुए देशों को अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिये समझा रहे हैं और विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने के लिये अरबों डॉलर खर्च किए जा रहे हैं, उससे गांधी की भविष्यवाणी सच होती दिख रही है। यद्यपि ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ और ‘लिमिट्स टू ग्रोथ’ जैसी किताबों के जरिए सत्तर के दशक में हमें पर्यावरणीय संकट के बारे में जागरूक किया जा चुका था, तथापि दुनिया को इसकी गम्भीरता को समझने में एक दशक से अधिक का समय लग गया।
पारिस्थितिकीय विचारधारा पर गांधीवादी प्रभाव को किसी और ने नहीं बल्कि अर्ने नेस ने स्वीकार किया जिन्हें सामान्यतः गहन पारिस्थितिकी आन्दोलन का जनक माना जाता है। नेस ने एक सतही पारिस्थितिकी आन्दोलन को पहचाना जिसने मानव केन्द्रित कारणों के लिये प्रदूषण और संसाधन की कमी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। प्रदूषण और संसाधन की कमी गलत थे क्योंकि उन्होंने मनुष्य के स्वास्थ्य और प्रभाव के लिये खतरा उत्पन्न किया था। इसके विपरीत गहन पारिस्थितिकी आन्दोलन पर्यावरणीय कार्यों के दिशा-निर्देशों के रूप में कुछ प्रकार के जैव केन्द्रित समतावाद का पक्ष लेता है।
गहन पारिस्थितिकी के केन्द्र में मानव केन्द्रित और जैव केन्द्रित पर्यावरणशास्त्र के बीच अन्तर है। इस प्रकार गहन पारिस्थितिकी इस सामान्य मत की समीक्षा है कि प्राकृतिक दुनिया का महत्त्व तभी तक है जब तक वह मनुष्य के लिये उपयोगी है। गांधी का प्रयोग करने के अलावा नेस ने गीता का भी उपयोग किया जो सभी जीवों के बीच आपसी सम्बन्ध के विचार के बारे में बताती है। इसका तात्पर्य है कि किसी भी जीव का सुख हमारे अपने सुख के बराबर ही है।
गांधी को दृढ़ विश्वास था कि पारिस्थितिकीय आन्दोलन को अहिंसात्मक होना चाहिए। उन्होंने कहा था “हम तब तक प्रकृति के विरुद्ध हिंसा को रोकने वाला पारिस्थितिकी आन्दोलन नहीं बना सकते जब तक अहिंसा का सिद्धान्त मानव संस्कृति की नीति का केन्द्र नहीं बनता।” गांधी का सभी साथी प्राणियों के लिये नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण उन सभी जीवों की पहचान के आधार पर स्थापित किया गया है जहाँ इसका गहन आधुनिक पारिस्थितिकी आन्दोलन की चिन्ताओं के साथ विलय हो गया। उनके लिये अहिंसा परिकल्पित अथवा सभी जीवों की अन्तर्निर्भरता की जागरूकता को समाहित करने वाली है। अहिंसा केवल अनुशासित माहौल में उभर सकती है जिसमें एक व्यक्ति आध्यात्मिक सुख की तलाश में शारीरिक सुखों का त्याग करता है।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि गांधी का पर्यावरणशास्त्र भारत और विश्व के लिये उनके इस समग्र दृष्टिकोण के अनुरूप है कि मनुष्य का अस्तित्व बने रहने के लिये जो अत्यंत आवश्यक है वही प्रकृति से मांगा जाए। पर्यावरण के सम्बन्ध में उनके विचार राज्य व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और विकास से सम्बन्धित उनके सभी विचारों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। उनके वैराग्य और सादा जीवन, ग्रामीण स्वायत्तता और स्वावलम्बन पर आधारित ग्राम केन्द्रित सभ्यता, हस्तशिल्प और कला केन्द्रित शिक्षा, मानव श्रम पर जोर और शोषक सम्बन्धों को हटाने में पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण का तत्व शामिल है। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य “धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिये पर्याप्त है, किन्तु किसी के लालच के लिये नहीं” समकालीन पर्यावरणीय आन्दोलनों के लिये नारा बन गया है।
(लेखक दक्षिण अफ्रीका के डर्बन स्थित यूनिर्वसिटी ऑफ कवाजुलु-नाटाल के हार्वर्ड कॉलेज में स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स विभाग के प्रोफेसर हैं।)
“गांधी ने विकास शब्द का इस्तेमाल नहीं किया” महात्मा गांधी ने कभी पर्यावरण संरक्षण शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने अपने लेखों में औद्योगिक समाज के बारे में काफी कुछ लिखा है। यही लेख और विचार उन्हें पर्यावरणविद बनाते हैं। राजनीतिक समाजशास्त्री एवं सामाजिक विश्लेषक आशीष नंदी ने गांधी पर बहुत कुछ लिखा है। डाउन टू अर्थ ने गांधी को समझने के लिये उनसे बात की : विकास और दर्शन को समझने के लिये हम महात्मा गांधी के विचार और नेहरू के विचार के बारे में बहुत बातें करते हैं। दोनों के विचारों में क्या मौलिक अंतर है? नेहरू का विचार विकास का प्रभावी सिद्धान्त है। गांधी ने कभी विकास शब्द का प्रयोग नहीं किया। इस शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन ने 1949 में किया था। फिर भी लोग विकास के गांधी के सिद्धान्त की बात करते हैं। अगर यह सच में शुद्ध गांधीवादी सिद्धान्त है तो यह विकास के बारे में नहीं है। अगर यह विकास के बारे में है तो हम गांधी के विचारों को समझ ही नहीं पाए हैं। बिना विकास के भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव है। विकास का विचार आने से पहले भी समाज ने बदलाव नहीं छोड़ा था। बहुत से कार्यकर्ता गांधीवादी दृष्टिकोण के मुताबिक विकास की बड़ी परियोजनाओं को सही नहीं मानते। इस पर आपकी क्या राय है? ऐसे लोग विकास के प्रभावों का विरोध करने के लिये गांधी से प्रेरणा लेते हैं। यह गांधी के विचारों से मेल नहीं खाता। इस तरह वे गांधी का मानवीकरण कर रहे हैं। सभी तरह का सामाजिक बदलाव विकास नहीं है। विकास के मूलभूत पहलू जैसे औद्योगीकरण, शहरीकरण और उपभोग को खत्म न करना गांधीवादी मार्ग नहीं है। बहुत से गांधीवादियों ने विकास की अहम मान्यताओं पर ध्यान दिया है। जब मेधा पाटकर बांधों के खिलाफ प्रदर्शन करती हैं तो वह गांधीवादी तरीका अपनाती हैं। जो लोग विकास के प्रमुख पहलुओं को चुनौती देते हैं वे हमारी सेवा कर रहे हैं। वे उस ढाँचे का विरोध कर रहे हैं जिसमें हम फँसे हुए हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो औद्योगीकरण के बजाय दूसरे रास्तों पर जोर देते हैं। क्या गांधी के दर्शन में इसका कोई विकल्प है? बहुत से उद्यमी औद्योगिकीकरण के विकल्प दे रहे हैं। इस तरह के आन्दोलन 1980 में शुरू हुए। आज के दौर में कोई भी महान गांधीवादी भारत में नहीं है। हमारे समय में महान गांधीवादियों ने भी गांधी को बहुत ध्यान से नहीं पढ़ा। उन्होंने शायद गांधी को तब पढ़ा जब लोग उन्हें गांधीवादी कहने लगे। पोलैंड शिपयार्ड ट्रेड यूनियन के नेता और बाद में गैर साम्यवादी सरकार की अगुवाई करने वाले लेक वालेसा भी ऐसे ही शख्स थे। उन्होंने गांधी को तब पढ़ा जब लोग उन्हें गांधीवादी के नाम से पुकारने लगे। बेनितो एक्विनो के साथ भी ऐसा ही हुआ। गांधीवाद उस प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है जो औद्योगीकरण का विकल्प पेश करता है। मार्क्सवादियों और उदारवादियों की तरह ही गांधीवादियों की भी कई श्रेणियाँ हैं। गांधी समकालीन हीरो हैं और सब जगह उनकी पहुँच है। वह धार्मिक नेता नहीं हैं। हालांकि धर्म उनकी राजनीति में गहराई तक था। वह बहुत संयमी और खुले विचारों के थे। बहुत से ऐसे आन्दोलन चल रहे हैं जो मानते हैं कि आर्थिक विकास के बिना भी तरक्की सम्भव है। वे गाँधी से प्रेरणा लेते हैं। इस पर आपका क्या कहना है? मैं तरक्की शब्द का इस्तेमाल नहीं करूँगा क्योंकि यह एक प्रदूषित शब्द है। साम्राज्यवादियों ने इस शब्द का प्रयोग किया था। लेकिन यह सच है कि बिना आर्थिक विकास के भी सकारात्मक सामाजिक बदलाव हो सकता है। गांधी ऐसे आन्दोलनों की प्रेरणास्रोत रहे हैं। हमें इस पर भी गौर करना पड़ेगा कि ऐसे बहुत से आन्दोलनों ने उस समाज में जगह बना ली है जो अत्यधिक उपभोग और शोषण पर यकीन करता है। इन समाजों से अच्छी जिन्दगी की उत्पत्ति नहीं होती। मुझे नहीं लगता कि वैश्विक पूँजीवाद से जुड़ा अति सुखवाद मानवीय भलाई में सहायक है। बहुत से समाज गरीबी में जी रहे हैं लेकिन अभाव में नहीं है। और इस बात का उन्हें मलाल भी नहीं है। बहुत से विचार विकल्प तो रहे हैं लेकिन वे कुछ जमीनी संगठनों के अलावा कहीं प्रयोग में नहीं है। आपको क्या कहना है? ये विचार प्रयोग में इसलिये नहीं आ पाए हैं क्योंकि हम तकनीक से दक्ष समय में रह रहे हैं। तकनीक ही समाधान है। तकनीक के जानकार विकास के पाठ्यक्रमों की देन हैं। वे विकल्प को जगह नहीं देना चाहते। यह भी सच है कि बहुत से वैकल्पिक विचार पार्टी आधारित व्यवस्था के कारण अमल में नहीं लाए जाते लेकिन वे राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। मुझे लगता है कि अरविंद केजरीवाल पार्टी व्यवस्था का हिस्सा बने बिना अच्छा कर सकते थे। राजनीतिक दलों से इतर ऐसे समूहों की हमें जरूरत है जो दलों और उनके प्रतिनिधियों की ईमानदारी को आँक सकें। इसके लिये पक्षपात रहित एजेंसी की हमें जरूरत है। |