महिलाएं और मनरेगा

Submitted by Hindi on Tue, 02/22/2011 - 15:34
Source
पर्यावरण डाइजेस्ट, 18 फरवरी 2011

जिन राज्यों में गरीबी अधिक है वहां उम्मीद की जा रही थी कि मनरेगा के अंतर्गत महिलाओं की भागीदारी में बढ़ोत्तरी होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि जिन राज्यों में अत्यधिक गरीबी है वहां पर महिलाएं मनरेगा में कम भागीदारी कर रही हैं। वहीं दूसरी ओर जिन राज्यों में वर्तमान में कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की संख्या कम है वहां पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा है।

ग्रामीण समुदाय को रोजगार देने वाले राष्ट्रीय कार्यक्रम में पुरूषों की बजाए महिलाएं ज्यादा तादाद में कार्य कर रही हैं। चालू वित्तीय वर्ष में अक्टूबर तक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में महिलाओं ने 50 प्रतिशत से अधिक रोजगार प्राप्त किया। इस कानून के 2006 से लागू होने के बाद से इसमें महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ी है। यह इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि सन् 2004-05 में हुए अंतिम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में काम करने वालों में महिलाओं की कुल भागीदारी मात्र 28.7 प्रतिशत ही है।

पूर्व में भी सार्वजनिक मजदूरी कार्यक्रमों में महिलाओं की भागीदारी उम्मीद से अधिक थी। सन् 1970 से 2005 के मध्य भारत में रोजगार या स्वरोजगार के 17 बड़े कार्यक्रम लागू किए गए थे। सन् 2000 तक लागू किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, भूमिहीन ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना और रोजगार आश्वासन योजना के अंतर्गत निर्मित कुल रोजगारों में से एक-चौथाई पर महिलाएं काबिज हुई थीं। वहीं आई.आर.डी.पी. (समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम) और ग्रामीण युवाओं को रोजगार हेतु प्रशिक्षण देने के उपक्रम में सन् 2000 तक महिलाओं की भागीदारी 45 प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी।

मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी कई बार अनूठे और अक्सर विरोधाभासी पक्षों की ओर इशारा करती है। पहला यह कि ऐसे राज्य जहां कि श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी कमोवेश कम दिखाई देती है वहां पर महिलाएं अधिक तादाद में इस कार्यक्रम में भागीदारी कर रही हैं। केरल का ही उदाहरण लें, यहां पर महिलाएं कुल श्रमशक्ति का मात्र 15 प्रतिशत ही हैं। परंतु इस कानून के अंतर्गत निर्मित कार्यों में से 79 प्रतिशत महिलाओं ने ही ले लिए।

तमिलनाडु और राजस्थान दो अन्य प्रदेश है। जहां कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी कम है लेकिन मनरेगा के अंतर्गत निर्मित कार्यों में इनकी भागीदारी क्रमश: 82 एवं 69 प्रतिशत है। दूसरी ओर उड़ीसा, उत्तरप्रदेश एवं बिहार जैसे गरीब राज्यों में जहां पर छुट्टी मजदूरी की अधिक संभावनाएं हैं वहां पर महिलाओं की भागीदारी बहुत कम अर्थात मात्र 22 से 23 प्रतिशत ही है। यह प्रवृत्ति उस धारणा की विरोधाभासी हैं कि गरीबी महिलाओं को छुट्टी या आकस्मिक मजदूरी के लिए बाध्य करती है। तीसरा यह कि ऐसा विश्वास है कि जहां धान की खेती जैसी मानव श्रम आधारित खेती होती है वहां पर महिलाएं श्रमिकों की संख्या अधिक होती है। परंतु मनरेगा के आंकड़े उड़ीसा ओर पश्चिम बंगाल में ठीक इसके उलट स्थिति प्रस्तुत करते हैं।

वैसे इस कानून के कुछ विशिष्ट पक्ष भी इस विरोधाभासी प्रवृत्ति में योगदान करते हैं। जैसे इस कानून के अनुसार एक परिवार को एक वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गारंटी है। सभी वयस्क सदस्य इस गारंटी में हिस्सेदारी कर सकते हैं और महिलाओं और पुरूषों के लिए मजदूरी दर एक सी है। इससे परिवार के स्तर पर मजदूरी का बजट बनाया जाने लगा। अब पुरूष नगरों और शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं और महिलाएं मनरेगा के अंतर्गत कार्य करने हेतु गांव में अपने घरों में रह जाती हैं। कानून के फलस्वरूप परिवारों की आय में वृद्धि भी हुई क्योंकि पहले तो महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले कम मजदूरी मिलती थी। महिलाओं ने इसे आर्थिक आजादी की तरह से लिया है।कानून में मजदूरी में समानता से भी अधिक ध्यान जल संरक्षण को दिया है। इससे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों को अपने ही खेतों में काम करने को मिला बल्कि उसके बदले में उन्होंने भुगतान भी प्राप्त किया। महिलाओं की भागीदारी से उनके अपने अनुपजाऊ खेतों का पानी एवं अन्य कार्यों के माध्यम से पुनरूद्धार भी संभव हो पाया। तमिलनाडु में हुए अनेक अध्ययनों ने इस प्रवृत्ति की पुष्टि की है । उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के अकाल पीड़ित बुंदेलखंड के कई जिलोंमें भी अनेक परिवारों ने इसी रणनीति को अपनाया गया है ।

देश में 90 प्रतिशत महिला श्रमिक या तो खेतिहर मजदूर हैं या कृषक हैं। उनके द्वारा किए गए कार्य में से अधिकांश का भुगतान भी नहीं होता क्योंकि वे अपने ही खेतों में कार्य करती हैं । मनरेगा ने इस स्थिति को बदला है । अब महिलाओं को भुगतान न किए जाने वाले कार्य जैसे भूमि का समतलीकरण और अपने ही खेतों में तालाब खोदने के लिए भी भुगतान किया जाता है । आंध्रप्रदेश के वारअंगल और महाराष्ट्र के अहमदनगर जैसे अकाल प्रभावित क्षेत्रों के समुदायों के सदस्यों का कहना है कि इससे महिलाएं इस कार्यक्रम की ओर आकर्षित हुई है ।

केरल, तमिलनाडु और राजस्थान में महिलाओं को इन योजनाओं हेतु एकत्रीकरण एवं अभियानों के इतिहास ने मनरेगा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की है । राजस्थान में सोशल आडिट अभियान, जिसमें महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, ने मनरेगा के अंतर्गत उनकी जागरूकता और भागीदारी बढ़ाने में योगदान किया है । राज्य में कार्यस्थलों पर महिलाओं और बच्चों के लिए अच्छी व्यवस्थाएं हैं । केरल में कार्यस्थलों और अन्य आवश्यकताओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी गरीबी निवारण मिशन कुडुम्बश्री के अंतर्गत महिला स्वयं सहायता समूह के हाथों में दे दी गई है ।

मनरेगा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को इसके मुख्य उद्देश्य स्थानीय पारिस्थितिकी के पुनुरूद्धार की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाया जा सकता है । अब पंचायत में भी महिलाओं की 50 प्रतिशत भागीदारी अनिवार्य कर दी गई है जो कि इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन, जिससे विकास योजना बनाना भी शामिल है कि लिए एकअधिकृत संस्था है । अतएव पंचायतों की निरीक्षक की भूमिका और श्रमिकों में समानता का भाव से उपस्थिति होगी तो यह गांव और कार्यक्रम दोनों के लिए ही बेहतर होगा ।
 

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