महिलाओं ने बदली गांव और खेतों की किस्मत

Submitted by Hindi on Fri, 02/04/2011 - 09:39
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सीमांचल ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम


उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर में लालगंज क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं ने जिले के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। दरअसल यहां पर इन महिलाओं ने तीन किलोमीटर लंबी नहर खोदकर गांव-घर और खेतों तक पानी पहुंचा दिया है। जगलों में बेकार बह रहे पानी की धारा का रूख बदलने से यहां ना केवल पेयजल की समस्या से निजात मिली है बल्कि इलाके का जल स्तर भी बढ़ चला है। भू जलस्तर ऊपर आने से बंजर पड़ी जमीनों में जान लौट आयी है और इससे खेतों में खड़ी फसलें लहलहाने लगी है। महिलाओं की इस नायाब कोशि‍शों के बदौलत क्षेत्र के किसानों में मुस्कान लौट आई है और लोग खुशी के गीत गाने लगे हैं।

 

सूखे से बेहाल जिंदगी में पानी की फुहार


जिला मुख्यालय से महज 30 किलोमीटर की दूरी पर है लालगंज ब्लॉक, विन्ध्याचल की तलहटी में बसा होने के नाते यहां पर सालोंभर जलस्तर सामान्य से नीचे ही रहता है। सूखा प्रभावित क्षेत्र होने की वजह से हर साल यहां गर्मी का मौसम एक आफत बनकर आती है और लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाते हैं। सूखे से सबसे ज्यादा त्रस्त आदिवासी बाहुल्य गांव सेमरा आराजी के लोग होते हैं। वर्षों से पानी की कमी का सामना कर रहे ग्रामीणों ने अब इस समस्या का हल ढूंढ निकाला है और यह कारनामा गांव की महिलाओं ने कर दिखाया है।

 

बेकार बह रहे पानी को गांव तक पहुंचाया


महिलाओं ने पहाड़ की तलहटी से निकल रहे पानी की धारा को गांव तक पहुंचाने में सफलता पाई है। तीन किलोमीटर लंबी नहर खोदकर जंगल में बेकार बह रहे पानी की धारा का रूख गांव की ओर मोड़ दिया है। नहर के जरिये खेतों और गांव को पानी मिलने से लोगों को पानी की समस्या से पूरी तरह से निजात मिल गई है। पर्याप्त मात्रा में पानी मिलने से लोग खेती के अलावा दैनिक कार्यों को भी बखूबी अंजाम देने लगे हैं। बेहतर खेती होने से लोगों को भले दिन लौट आने की उम्मीद है। इलाके में हरियाली और खुशहाली लौटाने का श्रेय यहां की मेहनत मजूरी कर दिन गुजारा करने वाली महिलाओं को जाता है। जिन्‍होंने पिछले तीन सालों से अथक प्रयास कर सफलता की इस कहानी को गढ़ने में कामयाबी हासिल की है। यही वजह है आज यहां हर मर्द अपनी जीवन संगिनियों की मिसाल देते नहीं थकते हैं। इलाके में जारी गुनगान से महिलाओं के हौसले बुलंद है।

 

बंजर जमीनों में हरियाली लौटाने की चाहत


बंजर पड़ी जमीनों में हरियाली लौटाने की चाहत इन लोगों के मन में शुरू से ही थी। क्योंकि पानी की मार का सबसे ज्यादा सामना यहां महिलाओं को ही करनी पड़ती थी। वैसे भी पारंपरिक तौर जल संग्रह करने का जिम्मा इन्हीं लोगों के सिर पर होता था। मर्दों की बेरुखी और रोज-रोज की झंझट से महिलाएं आजिज आ चुकी थी। इसलिए महिलाएं इस समस्या का स्थायी हल चाहती थीं। महिलाओं को पहाड़ की तलहटी से निकलने वाली इस अमृत जलधारा के बारे में पहले से ही पता था। महिलाएं चाहती थी कि पानी का रुख अगर गांव की ओर मोड़ दिया जाए तो शायद गांव की तस्वीर बदल सकती है और इस समस्या से हमेशा के लिए निजात मिल सकता है, हुआ भी ऐसा ही। हांलाकि इन लोगों को पता था कि यह चुनौती भरा कार्य होगा पर इन लोगों ने अपनी जिद के सामने हार नहीं मानी और नहर खुदाई के काम लग गई।

 

यूंही बनता गया कारवां


काम शुरू करने से पहले इन लोगों ने गांव की महिलाओं का एक संगठन बनाया। इन लोगों को पता था कि इस कठिन चुनौती को अकेले पार नहीं पाया जा सकता है। नहर खोदने वाली महिलाओं की इस संगठन का राजकली नाम की एक महिला ने नेतृत्व किया। सबसे पहले आम बैठक कर सभी सदस्यों को गांव की समस्या और उसके निदान के बारे में जानकारी देकर उत्साहित किया गया। काम के बारे में सभी महिलाओं को पहले से ही पता था। योजना के मुताबिक मेहनत मजदूरी करने के बाद जो भी वक्त मिलता था महिलाएं नहर खुदाई के काम में लग जाती थी। यहां पर खुदाई के दौरान किसी भी सदस्य पर दबाव नहीं होता था। जो जब चाहे और जैसे चाहे काम कर सकती थी। बस ध्यान इस बात पर थी की नहर का रुख गांव की ही ओर होनी चाहिए।

 

3 साल में 3 किलोमीटर का शानदार सफर


झाड़- झंकार, चटटान व पत्थर तोड़कर नहर निकालने का ये सिलसिला करीब तीन वर्षों तक यूं हीं चलता रहा। दिनोंदिन राहें आसान होती गई और नहर निर्माण का कार्य पूरा होता गया। आखिरकार नतीजा यही हुआ कि जलधारा भी जंगल छोड़कर नहर के जरिये गांव तक पहुंच गया। गांव में नहर का प्रवेश होते ही लोगों में उम्मीद की एक किरण जगने लगे। नतीजतन मर्दों ने भी महिलाओं के इस काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। मर्दो का साथ मिलने से महिलाएं उत्साहित थीं और इसी उत्साह के साथ नहर खुदाई का काम जल्द से जल्द पूरा कर लिया गया।

 

बहती धारा से सीखी जल प्रबंधन का तरीका


महिलाओं की इस प्रयास के बदौलत गांव और खेतों तक किसी ना किसी तरह से पानी तो पहुंच गया। लेकिन ठोस प्रबंधन की अभाव में पानी बर्बाद होने लगी। इससे इन लोगों को गहरा आधात लगा। लेकिन इस समस्या का भी इन लोगों ने हल ढूंढ निकाला। पानी को पहले सूखे पड़े कुंए में डाला गया। इससे कुएं का जलस्तर बढ़ने लगा। जब कुआं भी भर गया तो इसे बावड़ियों में छोड़ा गया। तालाबों के जलमग्न होने से मवेशि‍यों को पीने का पानी पर्याप्त मात्रा में मिलने लगा और बच्चों को पानी में खेलने का बहाना भी मिल गया। इसके अलावा जल का संचयन होने से खेतों में पानी पहुंचाने में आसानी भी हुई। इन बावड़ियों के बाद पानी को सूखे खेतों में डाला गया। इससे खेतों में नमी लौटने लगी और घास उगने लगे। इससे मवेशि‍यों को भरपेट चारा भी मिलने लगा। धीरे धीरे यहां पर पशुपालन का दौर लौट आया। कुएं और बावड़ियों में पानी भरने के बाद इन लोगों ने सिंचाई कार्य के लिए फाटक प्रणाली को अपनाया। खेतों में सिंचाई के लिए लोग विवेकानुसार फाटक खोलते थे और सिंचाई होते ही फाटक को बंद कर दिया जाता था। इस तरह जल की बर्बादी पर पूरी तरह से अंकुश लग गया।

 

जज़्बे को सबका सलाम


इन महिलाओं की अथक प्रयासों के बदौलत तीन किलोमीटर लंबी नहर की खुदाई के बाद गांव तक पानी पहुंच ही गया। महिलाओं की इस कामयाबी से खुश होकर जिला प्रशासन ने भी भरपूर मदद का आश्‍वासन दिया और नहर के पक्कीकरण के लिए आर्थिक मदद भी दी। अब इस नहर में बह रहे पानी की धारा के साथ मेहनत और खुशहाली की गाथा गूंजने लगी है। इन महिलाओं के चेहरे पर अब मुस्कान लौट आई ही। बेहतर खेती होने से इनके भी सपने अब साकार होने लगेंगे। इन आदिवासी महिलाओं ने कामयाबी की जो मिसाल पेश की है वो वाकई काबिल ए तारीफ है। उनके जज्बे को हम सलाम करते हैं। उम्मीद करते है देश का हर नागरिक खुद के विकास में अगर इतना योगदान दे तो गावों का विकास वाकई संभव है तभी इन गावों में गांधीजी के ग्राम स्वराज्य के सपने साकार होने लगेंगे।

 

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