बांदा, उत्तर प्रदेश। प्रदेश भर में सरकारी अनुदान से बनाये गए शौचालयों के हाल, बेहाल हैं। इनमें किया गया भ्रष्टाचार अपने आप में इनके पारदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। बात चाहे केन्द्र सरकार के निर्मल भारत अभियान की हो या फिर सम्पूर्ण स्वक्छ्ता अभियान की। जिन गांवों को निर्मल गाँव की श्रेणी में चुना गया, सर्वाधिक घाल–मेल भी उन्हीं गांवों की सड़क और पगडण्डी में देखने को मिला। आप बुंदेलखंड के किसी भी नेशनल हाइवे से जुड़े गांव की सड़क पर सफ़र में सुबह निकलें तो सहज ही ‘मेरा भारत महान’ की बदबूदार तस्वीर से रूबरू हो जायेंगे। घरों में देहरी के अन्दर लम्बा सा घूँघट निकालने को बेबस महिला यहाँ आम सड़क के किनारे सबेरे-सबेरे और संध्या में एक अदद आड़ के लिए भी तरसती नजर आती है। इनके लिए यह ही कहना पड़ता है कि – “मैं नंगे पैर चलती हूँ, खेत की पगडण्डी पर लोटा लिए, कहीं तो आड़ मिल जाये, इज्जत छुपाने के लिए!“
सरकारी कार्यक्रम से इतर गाँव में शौचालय कि समस्या से निजात दिलाने की कवायद में कुछ कदम देश की बड़ी अनुदान (फंडिंग एजेंसी) संस्था ने उठाया है। मगर ये देशी–विदेशी फंडिंग एजेंसी स्थानीय स्तर पर जिन एनजीओ को इसके क्रियान्वयन के लिए चयनित करती हैं उनकी नीयत साफ नहीं होती है। बुंदेलखंड के अतर्रा में कार्यरत अभियान संस्था के संचालक अशोक श्रीवास्तव भी वाटरएड-इंडिया और जायका से लाखों रूपये कागजों पर खर्च कर चुके हैं। सूचना अधिकार में प्राप्त जानकारी से जो तथ्य हासिल हुये हैं, वह ‘अभियान’ के भ्रष्टाचार अभियान को पुख्ता करते से लगते हैं।
ग्राम पंचायत उदयपुर निवासी ब्रजमोहन यादव ने संस्था से गांव में संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत बनाये गये शौचालय, हैंडपंप व अन्य निर्माण के संबंध में जानकारी मांगी थी। जो सूचना दी गयी उसमें लिखा गया कि संस्था को वाटरएड-इंडिया से 2 करोड़ 99 लाख रूपये प्राप्त हुए। संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत संस्था ने गांव में कोई शौचालय नहीं बनवाया है जब कि सूचना से इतर संस्था के कार्य क्षेत्र में लगे हुये बैनर दर्शाते हैं कि वर्ष 2004 से 2007 के बीच 64 शौचालय बनाये गये हैं। प्रति शौचालय 2250 रुपये अनुदान राशि की जगह ग्रामीणों को 500 रुपये व दो बोरी सीमेंट व कुछ इंटें देकर मामला चलता कर दिया गया। उदयपुर में वाटरएड के सहयोग से बनाये गये किचन गार्डन, वर्मी कम्पोस्ट और संस्था द्वारा संचालित कर्मयोग विद्यापीठ संस्था के किये गये कारनामों की पोल खोलता है। कर्मयोग विद्यापीठ 2007 तक चलाया गया। इसके पश्चात संस्था के संचालक अशोक श्रीवास्तव के करीबी व्यक्ति का उसमें कथित कब्जा है। विद्यालय भवन के अंदर कटाई मशीन, गृहस्थी का सामान इस बात का प्रमाण है। बडा सवाल यह है कि यदि संस्था ने इस गांव में शौचालय नहीं बनवाये थे तो उसके कार्य क्षेत्र में बैनर व गांव वालों के बयानों को क्या समझा जाये। स्वयंसेवी संगठनों के बारे में बांदा जिले के समाजिक कार्यकर्ता उमाशंकर पांडेय (सूचनाअधिकारी श्री रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट) बेबाकी से कहते हैं कि इन संस्थाओं को राज और केन्द्र सरकार द्वारा अनुदान राशि जारी करने से पहले इनकी तफ्तीश करना चाहिये। आयकर और एफसीआरए में पंजीकृत एनजीओ को जो पैसा दिया जा रहा है वह धरातल पर क्यों नही खर्च किया जाता इसकी जांच होनी चाहिये। जांच एजेन्सी निष्पक्ष व राज्य व केन्द्र सरकार के दायरे से बाहर हो, सीबीआई जैसी एजेन्सी नहीं, जो केन्द्र सरकार के इशारे पर काम करती हो।
अब सवाल ऐसे में ये ही उठता है कि सरकारी और गैरसरकारी जब दोनों की नियत में खोट हो तो भला गांव के किसान, गरीब आदमी के हकदारी की बातें क्या मंजिल तक पहुँच पांयेंगी? आज बिना जाँच–पड़ताल के फंडिंगएजेंसियों के दिए गये पैसे संस्थाओं के निज-हित का संसाधन जुटाने वाले पैकेज मात्र रह गए हैं। जिस संस्था का इंफ्रास्ट्रक्चर जितना मजबूत है वो ही बड़ा दलाल। जाने क्यों दानदाता अथवा फंडिंग एजेंसियों के प्राथमिकता में नीयत शब्द नहीं आता।
सरकारी कार्यक्रम से इतर गाँव में शौचालय कि समस्या से निजात दिलाने की कवायद में कुछ कदम देश की बड़ी अनुदान (फंडिंग एजेंसी) संस्था ने उठाया है। मगर ये देशी–विदेशी फंडिंग एजेंसी स्थानीय स्तर पर जिन एनजीओ को इसके क्रियान्वयन के लिए चयनित करती हैं उनकी नीयत साफ नहीं होती है। बुंदेलखंड के अतर्रा में कार्यरत अभियान संस्था के संचालक अशोक श्रीवास्तव भी वाटरएड-इंडिया और जायका से लाखों रूपये कागजों पर खर्च कर चुके हैं। सूचना अधिकार में प्राप्त जानकारी से जो तथ्य हासिल हुये हैं, वह ‘अभियान’ के भ्रष्टाचार अभियान को पुख्ता करते से लगते हैं।
ग्राम पंचायत उदयपुर निवासी ब्रजमोहन यादव ने संस्था से गांव में संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत बनाये गये शौचालय, हैंडपंप व अन्य निर्माण के संबंध में जानकारी मांगी थी। जो सूचना दी गयी उसमें लिखा गया कि संस्था को वाटरएड-इंडिया से 2 करोड़ 99 लाख रूपये प्राप्त हुए। संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत संस्था ने गांव में कोई शौचालय नहीं बनवाया है जब कि सूचना से इतर संस्था के कार्य क्षेत्र में लगे हुये बैनर दर्शाते हैं कि वर्ष 2004 से 2007 के बीच 64 शौचालय बनाये गये हैं। प्रति शौचालय 2250 रुपये अनुदान राशि की जगह ग्रामीणों को 500 रुपये व दो बोरी सीमेंट व कुछ इंटें देकर मामला चलता कर दिया गया। उदयपुर में वाटरएड के सहयोग से बनाये गये किचन गार्डन, वर्मी कम्पोस्ट और संस्था द्वारा संचालित कर्मयोग विद्यापीठ संस्था के किये गये कारनामों की पोल खोलता है। कर्मयोग विद्यापीठ 2007 तक चलाया गया। इसके पश्चात संस्था के संचालक अशोक श्रीवास्तव के करीबी व्यक्ति का उसमें कथित कब्जा है। विद्यालय भवन के अंदर कटाई मशीन, गृहस्थी का सामान इस बात का प्रमाण है। बडा सवाल यह है कि यदि संस्था ने इस गांव में शौचालय नहीं बनवाये थे तो उसके कार्य क्षेत्र में बैनर व गांव वालों के बयानों को क्या समझा जाये। स्वयंसेवी संगठनों के बारे में बांदा जिले के समाजिक कार्यकर्ता उमाशंकर पांडेय (सूचनाअधिकारी श्री रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट) बेबाकी से कहते हैं कि इन संस्थाओं को राज और केन्द्र सरकार द्वारा अनुदान राशि जारी करने से पहले इनकी तफ्तीश करना चाहिये। आयकर और एफसीआरए में पंजीकृत एनजीओ को जो पैसा दिया जा रहा है वह धरातल पर क्यों नही खर्च किया जाता इसकी जांच होनी चाहिये। जांच एजेन्सी निष्पक्ष व राज्य व केन्द्र सरकार के दायरे से बाहर हो, सीबीआई जैसी एजेन्सी नहीं, जो केन्द्र सरकार के इशारे पर काम करती हो।
अब सवाल ऐसे में ये ही उठता है कि सरकारी और गैरसरकारी जब दोनों की नियत में खोट हो तो भला गांव के किसान, गरीब आदमी के हकदारी की बातें क्या मंजिल तक पहुँच पांयेंगी? आज बिना जाँच–पड़ताल के फंडिंगएजेंसियों के दिए गये पैसे संस्थाओं के निज-हित का संसाधन जुटाने वाले पैकेज मात्र रह गए हैं। जिस संस्था का इंफ्रास्ट्रक्चर जितना मजबूत है वो ही बड़ा दलाल। जाने क्यों दानदाता अथवा फंडिंग एजेंसियों के प्राथमिकता में नीयत शब्द नहीं आता।