प्रयाग शुक्ल
मुंबई जैसे महानगर की लकदक छवियां, और जगह-जगह बिखरी गंदगी, एक -दूसरी को मुंह चिढ़ाती हैं। आगरा, जहां ताजमहल है, वहां का हाल तो बेहद चौंकाने वाला है।
पिछले कुछ वर्षों में हमारे नगरों-महानगरों में नई चाल की बहुतेरी चीजें आ गई हैं : लकदक मॉल, शॉपिंग सेंटर और शोरूम खुले हैं। कुछ महानगरों में मेट्रो (रेल) पर काम चल रहा है। खान-पान के रेस्तरां-होटल भी बड़ी तादाद में चारों ओर देखे जा सकते हैं। पेट्रोल पंपों को नया रूप मिला है। पर, इन्हीं के बीच गंदगी या कूड़े के ढेर भी बढ़े हैं। यह निश्चय ही चिंता का विषय है। रेल-पटरियां हों या किसी सड़क का कोई डिवाइडर, पॉलीथीन के थैले आपको जगह-जगह फेंके हुए मिलेंगे। घर-दुकान साफ कर कूड़ा ऐन सामने डालने की प्रवृत्ति में कोई कमी नजर नहीं आती है। भोपाल हो या लखनऊ, या इलाहाबाद और पठानकोट, सब तरफ आप सफाई को लेकर उदासीनता पाएंगे।
छोटे शहरों का हाल तो और बुरा है। नगर पालिकाओं की ओर से गली-मुहल्लों, बाजारों में डस्टबिन या कूड़ेदान पर्याप्त संख्या में नहीं लगवाए गए। नालियां आज भी जगह-जगह खुली हुई मिलती हैं। मेन होल्स के कारण दुघüटनाएं आम हैं। मुंबई जैसे महानगर की लकदक छवियां, और जगह-जगह बिखरी गंदगी, एक -दूसरी को मुंह चिढ़ाती हैं। आगरा, जहां ताजमहल है, वहां का हाल तो बेहद चौंकाने वाला है। कुछ ही इलाके आपको ऐसे मिलेंगे, जहां गंदगी और कूड़े के ढेर न हों। राजनीतिक दल प्राय: इस मुद्दे को कोई मुद्दा नहीं मानते हैं। कभी-कभी कोई मंत्री या विधायक प्रतीकात्मक ढंग से हाथ में झाड़ू पकड़कर खड़ा जरूर दिखाई पड़ता है, पर इससे वास्तव में स्वच्छता बढ़ती हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इस सिलसिले में अकसर हमारे सिविक सेंस की गैर मौजूदगी या अपर्याप्तता का रोना रोया जाता है। यह बहुत हद तक सही है। क्या सोलन-शिमला या नैनीताल-रानीखेत जाती हुई गाçड़यों में बैठे लोगों को हम खाने-पीने की चीजों के खाली पैकेट्स या थैलियों को यों ही खिड़की से उछालते हुए नहीं देखते? पर सिविक सेंस न होने की दुहाई देकर, नगर-निगम, नगर पालिकाएं और प्रशासन, अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते।
अब जब गांवों की सफाई के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय और अन्य प्रशासनिक इकाइयों की ओर से इस संकल्प के साथ एक स्वच्छता अभियान छेड़ा जा रहा है कि वर्ष 2012 में स्वच्छता का सपना वहां पूरा कर लिया जाएगा, तब यह याद करना और याद दिलाना जरूरी लग रहा है कि यह सपना 2012 तक पूरा हो चाहे नहीं, पर गांवों और शहरों, दोनों की सार्वजनिक जगहों की सफाई में समूचे देश को सचमुच जुट जाना चाहिए। सुलभ शौचालयों के कारण जो सुविधा हुई है, उसमें अभी न जाने कितनी चीजें और जोड़नी जरूरी हैं। सड़कों पर फेंक दिए जाने वाले कूड़ा-करकट की समस्या तो है ही, स्वयं बहुतेरी सड़कें जिस हालत में हैं, वह स्थिति चौंकाती है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि तमाम शहरों-कसबों में भवन निर्माण की जो व्यावसायिक योजनाएं बिल्डरों द्वारा चलाई जा रही हैं, उनमें अपवाद स्वरूप ही कुछ बिल्डर यह ध्यान रखते हैं कि समय रहते भवन-निर्माण के सिलसिले में इकट्ठा हुआ मलबा ठिकाने लगा दिया जाए, अन्यथा वह इधर-उधर बिखरा रहता है।
विभिन्न राज्यों और शहरों के दैनिक समाचार पत्र प्राय: किन्हीं न किन्हीं इलाकों की गंदगी की खबरें छापते हैं, और प्रमाण स्वरूप ऐसी तसवीरें भी, जो उस गंदगी का अता-पता और भयावहता बताती हैं। इन तसवीरों और खबरों की बदौलत कहीं-कहीं नगर पालिकाएं चेतकर सजग होती हैं, पर देखा यह भी जाता है कि कई बार गंदगी को देखकर भी उसकी अनदेखी की जाती है। दरअसल, गंदगी को बड़े पैमाने पर राजनीतिक मुद्दा बनाए जाने की जरूरत है। पर अभी तो आलम यह है कि शायद ही कोई राजनीतिक दल अपने किसी चुनावी घोषणा पत्र में इसे एक चुनावी मुद्दा बनाता हो। बाढ़ और अन्य आपदाओं से विस्थापित होकर जो आबादी शहरों में पनाह लेती है, वह भी किसी न किसी तरह की गंदगी के बीच ही रहने को मजबूर होती है।
महात्मा गांधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत के समय से ही व्यक्तिगत जीवन से लेकर सार्वजनिक जगहों की सफाई तक पर जो जोर दिया था, उसके महत्व को नए सिरे से समझने-समझाने की जरूरत है। हमारे लगभग सभी शहरों में जहां आधुनिक सुख-सुविधाओं वाले बहुमंजिला फ्लैटों में बढ़ोतरी हुई है, वहीं झुग्गी-झोपड़ियां भी उसी तेजी से बढ़ी हैं। यह विरोधाभासी स्थिति या असमानता सचमुच दु:खदायी है। और यहीं आकर `उन्नत´ या `चमकीले भारत´ के दावे हमें मुंह बिराने लगते हैं, अगर हम उनकी `वास्तविकता´ में इन स्थितियों को भी शामिल कर लेते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि कई क्षेत्रों में हमने प्रगति की है, और देश में स्त्री-शक्ति का एक नया उभार देखने को मिला है। बहुतेरे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन सक्रिय हुए हैं, और पर्यावरण को लेकर एक नई चेतना जगह-जगह पैदा कर रहे हैं। पर सफाई को लेकर एक बड़ी मुहिम छिड़नी अभी बाकी है। इस मामले में हमने कमर पूरी तरह कसी नहीं है। उसकी प्रतीक्षा है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि निर्मलता और रचनात्मकता का संबंध बहुत गहरा है। कला-संस्कृति के विकास की कल्पना बिना स्वच्छता के नहीं की जा सकती।
(लेखक वरिष्ठ कवि एवं कला समीक्षक हैं)
साभार – अमर उजाला
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