मलबे से उठता प्रदेश

Submitted by birendrakrgupta on Mon, 08/04/2014 - 10:15
Source
कल्पतरु एक्सप्रेस, 28 जुलाई 2013
पुनर्निर्माण महज पांच अक्षर का शब्द नहीं है जिसे फट से बोलकर जमीन पर उतार दिया जाए। पुनर्निर्माण में तबाही से सैंकड़ों गुना ज्यादा समय, संसाधन और ऊर्जा लगती है। प्रकृति के विनाश से बेहाल उत्तराखंड आज उसी संसाधन, समय और ऊर्जा को व्यवस्थित करने में लगा है, पर असली सवाल यह है कि क्या वह इन सभी का ईमानदारी से इस्तेमाल कर पाएगा? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या वह त्रासदी से सबक लेकर विकास के ढर्रे को बदलेगा या फिर वही विनाश की राह पकड़ेगा?

गलतियों से सबक सीखे बिना कैसा पुनर्निर्माण!

उमाकांत लखेड़ा

आपदाग्रस्त केदारघाटी, पिंडर, अलकनंदा घाटी, उत्तरकाशी, टिहरी व पिथौरागढ़ क्षेत्र में भारी तबाही से लोगों को उबारने व पुनर्निर्माण की बात तो जोर-शोर से हो रही है...उत्तराखंड में भयावह आपदा के बाद राहत व बचाव कार्यों की मशक्कत को कई सप्ताह बाद भी जिस ढर्रे पर चलाया जा रहा है, उस पर आपदा प्रभावितों या तबाह हुए ज्यादातर लोगों को निराशा हाथ लगी है। सरकारी मशीनरी पर लोगों का भरोसा टूटा है इसलिए कि आपदा से बदहवास प्रशासनिक तामझम की तात्कालिक प्रतिक्रिया जिस तरह से बेनकाब हुई, इससे तीर्थाटन करने वालों के साथ ही प्रभावित लाखों लोगों का यह आरोप पुख्ता हुआ है कि भविष्य में सरकार के पास आपदाग्रस्त लोगों को बचाने की ठोस तैयारी नहीं हुई तो उनका अस्तित्व कैसे बचेगा। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में राहत व बचाव कार्य कितने दुष्कर हैं। अंदाजा लगता है कि पहाड़ों में आम लोगों का जीवन आने वाले दौर में भी कष्टप्रद होने वाला है।

आपदाग्रस्त केदारघाटी, पिंडर, अलकनंदा घाटी, उत्तरकाशी, टिहरी व पिथौरागढ़ क्षेत्र में भारी तबाही से लोगों को उबारने व पुनर्निर्माण की बात तो जोर-शोर से हो रही है, लेकिन आजादी के पहले और उसके बाद से पहाड़ों को शोषण व दोहन की जिन नीतियों ने यहां के लोगों को तबाही के कगार पर खड़ा किया, उनसे कड़ा सबक लेने की कोई बात सियासतदानों की जुबान से नहीं निकल रही।

इसके इतर पहाड़ों में, बड़े बांधों व बिजली परियोजना की जोरदार पैरवी हो रही है। आपदाग्रस्त राज्य की सरकार के कर्ताधर्ताओं की ओर से तर्क दिया गया कि टिहरी बांध न होता तो और बड़ी तबाही होती। आपदा जब आई तब टिहरी बांध के जलाशय में इतना पानी था ही नहीं कि उससे कोई खतरा होता। दशकों पहले ही विशेषज्ञों की चेतावनी है कि जिस दिन टिहरी बांध बहेगा, उस दिन अंदाजा भी नहीं होगा कि मिनटों में ही ऋषिकेश और हरिद्वार नक्शे पर कहां होंगे।

इस बात को सत्ता में बैठे लोग शायद भूल गए हैं कि मंदाकिनी नदी पर बनी दो छोटी निजी बिजली परियोजनाओं को बाढ़ की तबाही मिनटों में लील गई। आने वाले वक्त में अलकनंदा पर 320 मेगावाट की श्रीनगर परियोजना का क्या हश्र होगा।

पहाड़ों में जहां कहीं बांध बनाने की बात आती है तो सबसे पहले लोगों को यह झूठा झुनझुना थमाया जाता है कि इन योजनाओं में स्थानीय बेरोजगार युवकों को रोजगार मिलेगा। हकीकत यह है कि बांध बनाने वाली कंपनी के ठेकेदार 90 फीसदी से ज्यादा लोगों को अपने मूल जनपद से ही यहां काम पर लाते हैं। जिनके गांव को और खेतों को उजाड़ा जाता है, उन्हें काबिलियत के बावजूद दिहाड़ी मजदूरी या चौकीदारी के काम पर ही संतोष करना पड़ता है। जिस दिन काम पूरा होता है, स्थानीय नौजवान फिर बेरोजगारी में कहीं के नहीं रहते।

पुनर्निर्माण की चुनौतियों में सबसे अहम बात यह है कि आपदा के बाद हजारों लोगों का ऊपरी और असुरक्षित इलाकों से पलायन हो रहा है। सरकार का सारा तामझम देहरादून में सिमटा हुआ है। उसकी देखा-देखी में अभावों से ग्रस्त आपदा पीड़ित परिवार भी पहाड़ों में अपने घर गांव छोड़कर देहरादून व दूसरे मैदानी इलाकों में बसने आ रहे हैं।

आम लोगों के मन में असुरक्षा जिस तरह से घर कर गई, उसे दूर तभी किया जा सकता है, जब प्रभावित लोगों को पक्का भरोसा हो कि उनके घर-गांव के पुनर्निर्माण व पुनर्वास के साथ सरकार के पास दूरगामी व ठोस आपदा प्रबंधन उनके आसपास हमेशा सजग हालात में रहे। यह सच्चाई स्वीकार करनी होगी कि भले जो हालात पहाड़ों में बन चुके हैं, उन्हें देखते हुए अब आपदाओं की आफत को तो रोका नहीं जा सकता लेकिन सरकारी मशीनरी मुस्तैद रहे तो असर जरूर कम किया जा सकता है।

लोगों का गुस्सा ‘बादल’ की तरह फटेगा

स्वतंत्र मिश्र

उत्तराखंड में आई तबाही को एक महीना बीत गया। इस त्रासदी की वजह से लापता हुए लोगों को मृतक मान लिया गया। मरने वालों का कोई पुख्ता आंकड़ा नहीं है। एक संगठन 15 हजार बता रहा है तो एक हिंदूवादी राजनीतिक पार्टी 10 हजार से ज्यादा लोगों के मरने की बात कर रही है। वहीं खुद को ‘विजय’ बताने वाले उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा संकोचवश कभी 500 लाशों के देखे जाने की बात कर रहे थे पर धीरे-धीरे संकोच कम हुआ तो उन्होंने भी 4000 लोगों के इस विपदा में जान गंवाने की बात स्वीकार ली। लाश देखने की बात वे इसलिए कर रहे थे क्योंकि उन्होंने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी की तर्ज पर विपदाग्रस्त इलाकों का हवाई दौरा ही अब तक किया है। उन्हें डर था कि लाशों से उठती बदबू और घायलों के बजबजाते मवादों से उड़कर कोई जीवाणु और विषाणु उन्हें संक्रमित न कर दे।

उन्हें डर था कि लाशों से उठती बदबू और घायलों के बजबजाते मवादों से उड़कर कोई जीवाणु और विषाणु उन्हें संक्रमित न कर दे।सूबे के मुख्यमंत्री ‘विजय’ इस मामले में भी ‘पराजित’ साबित हुए, अन्यथा घर के सदस्य किसी संक्रमण वाली बीमारी के शिकार हो जाएं तब कुछ सावधानी बरत कर उनकी सेवा की जाती है, उन्हें मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता।एक नई घोषणा मुख्यमंत्री ने की है कि एक-एक लाश को मलबे के भीतर से निकाल कर उसकी अंत्येष्टि करेंगे। 25-30 फीट भीतर मलबे में धंसी हुई लाशें किस इच्छाशक्ति और किस तकनीक के बलबूते पर मुख्यमंत्री निकलवा पाएंगे, ये तो वही बता सकेंगे।सेना के कमांडो जंगलों में घूम-घूमकर लाशों को एसिड से जला रहे हैं ताकि लाशों की गिनती कम ही रहे। बाद में जब स्थितियां थोड़ी सामान्य होंगी तब जंगल के संसाधनों पर बहुत ही मामूली तरीके से गुजारा करने वाले लोगों का इन कंकालों से वास्ता पड़ेगा और वे अपने खोये लोगों को इनमें ढूंढ़ने की भावनात्मक और स्वाभाविक भूल भी करेंगे।

काफी पहले से उत्तराखंड में संसाधनों के दोहन का सिलसिला तेजी से चल रहा है।पशु ‘कल्याण’ वाले भी लापता

पशुपालन निदेशालय में बने आपदा प्रबंधन नियंत्रण कक्ष के मुताबिक विभिन्न जनपदों में 12 हजार से अधिक पशुओं की मौत हुई और 697 पशु घायल हुए हैं। पशुपालन विभाग के संयुक्त निदेशक एके सच्चर ने बताया कि मारे गए पशुओं में 449 गायें हैं। इनमें सबसे ज्यादा 222 गायें टिहरी जिले में आपदा की शिकार हुईं हैं। हैरत की बात है कि राज्य में पशुओं की देखभाल के लिए 17 पंजीकृत संस्थाएं हैं। इनके अलावा भी बहुत सारी गैरसरकारी संस्थाएं भी संचालित की जा रही हैं, जो राज्य और केंद्र सरकार से पशुओं की देखभाल के नाम पर ‘मदद’ लेती हैं, लेकिन आपदा के बाद से ये सभी संस्थाएं गायब हैं।

नफा हमारा नुकसान तुम्हारा

उत्तराखंड की आपदा के बारे में विमर्श करते हुए इसे ‘मानवीय भूल’ बताया जा रहा है। दरअसल, ऐसा कहकर जाने-अनजाने पूंजीवादी विकास के मॉडल के अपराध को कम करने की कोशिश की जा रही है। काफी पहले से ही उत्तराखंड में संसाधनों के दोहन का सिलसिला तेजी से चल रहा है। यहां की नदियों पर ऊर्जा पैदा करने के लिए लगभग छोटे-बड़े 550 बांध बनाए जा चुके हैं।

पूंजीपति घरानों के अलावा ऊर्जा उत्पादन के लिए टरबाइन खरीदने के लिए सिनेमा जगत से जुड़े लोग भी यहां मुनाफा कमाने के आकर्षण में खिंचे चले आते हैं। इससे इतर यहां पैदा की गई ऊर्जा का अधिकांश हिस्सा यूपी और दूसरे प्रदेश को स्थानान्तरित कर दिया जाता है। सच्चाई है कि पहाड़ों के बहुत से गांव आज भी अंधेरे में हैं।

लगातार बारिश और भूस्खलन के चलते ऊर्जा वितरित करने वाले विद्युत स्टेशन और उपविद्युत स्टेशन भी खतरे की जद में हैं। ऊखीमठ स्थित उप-विद्युत स्टेशन भी खतरे की जद में आ गया है। वहीं दूसरी ओर मनेरी भाली स्टेज-टू 16 जून से ही ठप पड़ा हुआ है। जिससे हर रोज 60 लाख यूनिट बिजली का नुकसान हो रहा था इसलिए ‘नफा हमारा और नुकसान तुम्हारा’ के दर्शन को आधार बनाकर अपना घाटा पाटने के लिए जल विद्युत निगम ने ज्ञानसू बस्ती को खतरे में डालकर बिजली उत्पादन शुरू कर दिया है।

जेपी की उत्तराखंड में दो जल विद्युत परियोजनाएं हैं। जाहिर है कि इन कंपनियों को बाढ़ के खतरों को देखते हुए कम-से-कम दो-तीन महीने अपनी विद्युत परियोजनाएं बंद करनी पड़ेगी या उत्पादन कम करना पड़ेगा। बीके चतुव्रेदी समिति ने इन परियोजनाओं के भविष्य को लेकर 2012 में चिंता जताई थी कि गंगा में आने वाली बाढ़ और भूस्खलन की वजह से इन परियोजनाओं को नुकसान झेलना पड़ सकता है।

पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद यहां नई विद्युत परियोजनाएं शुरू करने की बात हो रही है।

रोटी छीन रहा इएसजे

देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘इको सेंसिटिव जोन’ बनाए जा रहे हैं। यह काम बड़ी उदारता के साथ उत्तराखंड में भी हुआ है। गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक ‘सेंसिटिव जोन’ घोषित किए जाने की वजह से सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 88 गांव प्रभावित हो रहे हैं।

उत्तराखंड के चमोली में ‘फूलों की घाटी’ एक जगह है, जहां एक किस्म की घास पनपती है जो इस इलाके की भेड़-बकरियों के लिए सहज उपलब्ध चारा हुआ करती थी। इस इलाके को ‘इको सेंसिटिव जोन’ के अन्तर्गत डाल दिया गया। कहीं मगरमच्छ, डॉल्फिन, बाघ, कहीं हाथी बचाने के नाम पर खिलवाड़ किया जा रहा है। सूबे में भू-माफियों का प्रकोप बहुत ज्यादा है। अपने मुनाफे के लिए पर्यावरण बचाने के सभी नियमों को ताक पर रख रहे हैं। वहीं जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के विलुप्त होने की भी खबरें हैं। मुनाफे के इस खेल पर अगर लगाम लगनी जरूरी है। नहीं तो राज्य के आम लोगों में राज्य सत्ता के प्रति पनप रहा असंतोष कभी भी ‘बादल फटने की घटना’ की तरह ही फट जाएगा।

गांवों को बर्बाद होने से बचाने की चिंता किसको है?

मुनाफाखोर व्यवस्था ने प्रकृति द्वारा दी जा रही चेतावनियों की लगातार उपेक्षा की है। पिछले ही साल उत्तरकाशी के पास असी गंगा में आई बाढ़ की वजह से सैंकड़ों लोग मारे गए थे। अलकनंदा घाटी का भूस्खलन (1978), भागीरथी घाटी का कनोरिया गाद भूस्खलन (1978), काली और मध्यमेश्वर नदी घाटी का मालपा और ऊखीमठ भूस्खलन (1978), उत्तरकाशी का वरुणावत पर्वत भूस्खलन (2003), मुनस्यारी भूस्खलन (2009) आदि घटनाएं आगाह करती रहीं कि केंद्र और राज्य सरकार उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक बनावट का गंभीर अध्ययन करवाए और आधुनिक विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल केवल पहाड़ और जल संसाधनों के दोहन भर के लिए न हो बल्कि लोगों के जीवन को ज्यादा से ज्यादा आसान और सुरक्षित बनाने के लिए भी हो। हैदराबाद की नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसीने अपनी 2005 की रिपोर्ट में कहा था कि यहां के 1200 गांव आपदा संभावित भूस्खलन क्षेत्र में पड़ते हैं, इसके बावजूद सूबे की सरकार अमन-चैन की नींद सोती रही है और गांव बर्बाद होते रहे हैं।



जिम्मेदारियों से भागती अफसरशाही

यादवेन्द्र पांडेय

अभी पिछले दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की तस्वीरें हिंदी के अखबारों में सबसे ज्यादा प्रमुखता देकर छापी गईं, जिसमें उन्हें फावड़ा लेकर केदारनाथ मंदिर के अन्दर (अधिकृत तौर पर स्थान के बारे में बताया यही गया) से मलबा हटाते हुए दिखाया गया। साथ में छपी खबर पाठकों की आंख में अंगुली डालकर यह दिखलाने की कोशिश करती है कि ‘हिमालयी सुनामी’ की विभीषिका के एक महीने के बाद अगर मुख्यमंत्री यह बीड़ा अपने कन्धों पर न उठाते तो मंदिर में पूजा अर्चना दोबारा न शुरू हो पाती।

जनता को आपदा से खुद ही रूबरू होने के लिए छोड़ अपने-अपने कामों में लग गएइस तस्वीर को देखते ही महात्रासदी के हफ्ते दस दिन बाद जब अखबार सरकारी मशीनरी की ढिलाई की घटनाओं से भरे पड़े थे तब उत्तराखंड के सभी हिंदी अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपी वह फोटो स्मृति में कौंध गयी, जिसमें गढ़वाल के आईजी संजय गुंज्याल (आपदा के बाद जिस तेजी से वरिष्ठ अधिकारियों के बार-बार तबादले हुए हैं उसको देखते हुए अब मालूम नहीं वे इस पद पर हैं या नहीं) किसी घायल यात्री को बिल्कुल फिल्मी शैली में सहारा देते हुए दिखाए गए थे। जाहिर है दोनों अपने-अपने आकाओं की नजर में अपने नंबर बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे और फोटो शूट कर जनता को आपदा से खुद ही रूबरू होने के लिए छोड़ अपने-अपने कामों में लग गए।

अब जब इस त्रासदी का मामला धीरे-धीरे दबता चला गया, तब उत्तराखंड की शीर्ष नौकरशाही की जनपक्षधरता और कर्त्तव्यपरायणता की बखिया उधेड़ने वाली एक से बढ़कर एक संगीन खबरें आ रही हैं। ये खबरें अनायास अखबारों की सुर्खियां नहीं बन रही हैं बल्कि इसमें भी आपसी खींचतान और एक दूसरे का भेद खोलने की प्रवृत्ति काम कर रही होगी।

एक बड़े अखबार ने खबर छापी है कि उत्तराखंड के तीन वरिष्ठ आईएएस अधिकारी सरकारी नियमों की अनदेखी करके मध्य जून की केदारघाटी की विभीषिका से पल्ला छुड़ाकर भाग चुके हैं।

भविष्य बतायेगा कि जिस प्रान्त की जनता की सेवा करने का संकल्प लेकर ये अधिकारी आये हैं वे संकट के समय अपना दायित्व निभाने में कितने सक्षम और जिम्मेदार साबित हुए और नहीं भी हुए तो क्या, जैसा जुगाड़, आपदा राहत की युद्ध भूमि छोड़ कर पलायन कर जाने वाले आला अफसरों का हुआ वैसे ही उनका भी हो जाएगा।

उत्तराखंड के चीफ सेक्रेटरी रहे डॉ. आरएस टोलिया ने हालिया त्रासदी की पृष्ठभूमि में प्रान्त की अफसरशाही की अच्छी बखिया उधेड़ी हैं। उन्होंने इलाकाई भेदभाव का मसला उठाते हुए कहा कि सरकारी अमला गढ़वाल को तवज्जो देता रहा और कुमाऊं के पिथोरागढ़ के मुनस्यारी जैसे सीमावर्ती गांव के निवासियों को बगैर किसी राहत के भूखों मरने को विवश होना पड़ा।

केदारनाथ में मलबा उठाने और किसी यात्री को सहारा देने की फोटो छपवाने से न तो मुखिया और युद्ध भूमि छोड़कर पलायन कर गए आला अफसर इन नैतिक सवालों से नहीं भाग सकते हैं। अकारण मृत लोगों की आत्मा पिशाच बन कर उन्हें आधी रात में उठा-उठाकर सवाल पूछती रहेगी।

विपदा में नहीं तो कब और क्यों हो राजनीति?

कृष्ण प्रताप सिंह

उत्तराखंड में जिस महाविपदा ने जनधन की इतनी हानि की है कि उसके सही आंकड़े हम शायद कभी नहीं जान पायें, उसका सबसे बड़ा सच यह है कि न सिर्फ उस प्रदेश या केंद्र की वर्तमान बल्कि पिछली कई सरकारों की कर्तव्यहीनताएं उसके आगे-आगे चलती रही हैं। वह दरअसल, हिमालय की नहीं, राजनीति की लाई सुनामी थी।

शब्दों की आड़ में अभी भी विपदा से बचने की कोशिशें ही परवान चढ़ी हुई हैं।अभी भी संवेदना, सहायता और सांत्वना जैसे शब्दों की आड़ में विपदा की जिम्मेदारी लेने से बचने की राजनीतिक कोशिशें ही परवान चढ़ी हुई हैं। कांग्रेस व भाजपा, जो इन सरकारों की जननी रही हैं, आज भी विश्वास नहीं दिला रहीं कि आगे विकास की वैकल्पिक नीतियों पर अमल करके विपदा की पुनरावृत्ति रोकेंगी। वे अभी भी वैसी ही उखाड़-पछाड़ व आरोप प्रत्यारोप वाली गैरजिम्मेदाराना राजनीति कर रही हैं।

विपदा के समय भी विदेश दौरे को उद्यत जो मुख्यमंत्री पूर्वसूचनाओं व चेतावनियों पर भी नहीं चेते थे, जब विपदा आई तो कई दिनों तक उसके सामने हाथ बांधे हक्के-बक्के खड़े रहे। उनसे उसकी भयावहता का वस्तुनिष्ठ आकलन भी संभव नहीं हुआ और बाद में सेना व आइटीबीपी के प्रशंसनीय राहत कार्यों के बीच समन्वय करने में भी विफल रहें। अब उन्हें उत्तराखंड के पुनर्निर्माण से ज्यादा चिंता इसकी है कि वहां बने बांधों को लेकर कोई असुविधाजनक सवाल न उठा दे। इसलिए उन्होंने निहायत चतुराई से कह दिया है कि टिहरीबांध नहीं होता तो विपदा और बड़ी होती।

ऐसे में क्यों नहीं पूछना चाहिए कि जनता के रोष व क्षोभ को व्यक्त करने और उसकी आकांक्षाओं व अरमानों को पूरा करने वाली राजनीति के किसी भी समय सक्रिय होने में बाधा क्यों होनी चाहिए? क्या इसलिए कि इसके बगैर राजनीतिक वर्ग के सुविधापूर्वक सत्तासेवन और असुविधाजनक सवालों से बचने के ‘अधिकार’ पर आंच आती है? तब उन्हें बिना हुज्जत के मान लेना चाहिए कि आम दिनों में राजनीति के नाम पर जो कुछ करते रहते हैं, वह राजनीति न होकर उसका विद्रूप है। इसलिए कि उसमें घोर जनविरोध और सारे स्टेट्समैनों को पॉलिटीशियंस में बदल देने की साजिश है। इस साजिश के कारण ही इधर वह खुद एक बड़ी विपदा बनती जा रही है।