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सप्रेस/ डाउन टू अर्थ, मई 2012
मलेरिया की औषधियां एक के बाद एक प्रतिरोधक क्षमता खोती जा रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से प्राणघातक मलेरिया भी अपने पैर जमाता जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सक बजाए दवा विक्रेताओं या प्रतिनिधियों की सलाह के उपचार की प्रामाणिकता को सिद्ध करें और प्रत्येक मरीज को एक पृथक इकाई मानकर उसकी बीमारी का निदान करें। मलेरिया के विद्रोही तेवर के बारे में बताती अंकिता मलिक।
आर्टीमिसिनिन का प्रयोग प्लाज फाल्सीफेरम मलेरिया के उपचार में किया जाता है। वर्ष 1990 के दशक में एक चीनी संयंत्र में विकसित सम्मिलित उपचार जिसमें आर्टीमिसिनिन का प्रयोग होता है, ने मलेरिया से होने वाली मृत्यु में 30 प्रतिशत तक की कमी लाने में मदद की है। एक नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने थाईलैंड और म्यांमार की सीमा पर ऐसे परजीवी की उपस्थिति की पुष्टि की है, जिसमें कि आर्टिमिसिनिन प्रतिरोधी तत्व पाए गए हैं। गौरतलब है कि यह इलाका पश्चिमी कंबोडिया से आठ सौ किलो मीटर दूर है, जहां पर कि वर्ष 2005 से इस प्रतिरोधकता को पाया जा रहा है। क्लोरोक्वीन एवं सल्फाडॉक्सिन को लेकर भी सर्वप्रथम प्रतिरोधकता सबसे पहले पश्चिमी कंबोडिया में पाई गई थी और इसके बाद इसका फैलाव दक्षिण पूर्व एशिया और अफ्रीका की ओर हुआ।
आर्टिमिसिनिन के प्रति प्रतिरोधकता का अर्थ यह नहीं है कि इसके माध्यम से होने वाला उपचार पूर्णतया असफल हो जाएगा, लेकिन इसके परिणामस्वरूप मरीज के खून से मलेरिया फैलाने वाले परजीवी की निकासी धीमी पड़ जाएगी। थाइलैंड की शोक्लों मलेरिया शोध इकाई का एक दल सन् 1986 से थाइलैंड-म्यांमार सीमा पर मलेरिया की खोज खबर इसलिए रख रहा है क्योंकि यह इस इलाके में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। दल के मुख्य शोधकर्ता फ्रेकोइस हेनरी नोस्टन का कहना है कि दल वर्ष 1995 से लगातार ऐसे मरीजों की निगरानी कर रहा है, जिनमें कि परजीवी की संख्या अधिक हो क्योंकि ऐसे मरीजों की इस बीमारी से मृत्यु की अधिक आशंका होती है।
उन्होंने ऐसे तीन हजार मरीज जिनका कि आर्टीमिसिनिन के माध्यम से उपचार हुआ था, का इस उद्देश्य से गहन परीक्षण किया कि यह पता लगाया जा सके कि परजीवी के शरीर से निकलने की दर क्या है। शोधकर्ताओं ने पाया कि वर्ष 2001 से 2010 के मध्य ऐसे मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिनके शरीर से इस परजीवी के निकलने की गति/दर धीमी थी। इन नौ वर्षों में धीमे बाहर निकलने की दर 0.6 प्रतिशत से 20 प्रतिशत पर पहुंच गई। इतना ही नहीं परजीवी के बाहर निकलने का समय भी 2.6 घंटे से बढ़कर 3.7 घंटे हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जहां मरीज पर दो दिन में असर दिखने लगता था अब वह ठीक होने में चार से पांच दिन लगने लग गए हैं। उन्होंने थाईलैंड एवं म्यांमार के लोगों एवं कम्बोडिया के 119 व्यक्तियों में निरोग होने की दर की तुलना भी की। उन्होंने पाया कि वर्ष 2007 से 2010 के मध्य कंबोडिया में निरोग होने की दर 42 प्रतिशत थी।
नेस्टन का कहना था ‘इस नई परिस्थिति के निर्मित होने की वजह से मलेरिया उन्मूलन के विचार से निश्चित रूप से समझौता करना होगा। यदि वास्तव में प्रतिरोध फैल रहा है तो इससे म्यांमार, भारत और बांग्लादेश सर्वाधिक जोखिम में आ जाएंगे। ये बातें 5 अप्रैल 2012 के लांसेट के संस्करण में सामने आई हैं। परंतु प्रतिरोध उत्पन्न होने की वजह क्या है? इस पर अमेरिका के टेक्सास बायोमेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट के शोधार्थी टिम जे.सी. एंडरसन का कहना है ‘आर्टीमिसिनिन को अन्य मलेरियारोधियों के साथ मिश्रण के रूप में इस्तेमाल करने की अनुशंसा इसलिए की जाती है कि अनेक दवाईयों के मिश्रण के इस्तेमाल से परजीवी के पनपने की क्षमता सीमित होती जाती है। स्वयं भारत भी ऐसे क्षेत्रों में जहां पी. फाल्सीफेरम मलेरिया महामारी का स्वरूप लेता जा रहा है वहां बहुऔषधि चिकित्सा को अपना रहा है। जबकि पश्चिमी कंबोडिया एवं कुछ अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में व्यापक तौर पर केवल आर्टीमिसिनिन को एकमात्र (मोनोथेरेपी) उपचार के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है।
मलेरिया का बढ़ता प्रकोपक्षेत्र में मलेरिया परजीवी के गुणधर्म के अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं को इस प्रतिरोधकता के बारे में पता लगा होगा। टेक्सास इंस्टिट्यूट के जीव विज्ञानी इआन चीजमेन एवं उनके सहयोगियों ने कंबोडिया, थाईलैंड एवं लाओस के पी.फाल्सीफेरम जनसंख्या की तुलना आर्टीमिसिनिन उपचार के बाद अन्य स्थानों पर निरोगी होने वाली दर से की। इस अध्ययन से उनके सामने आया कि पी. फाल्सीफेरम मलेरिया के प्रजाति ने चयनित में से 33 क्षेत्रों में इस दवाई के विरुद्ध प्रतिरोधकता काफी मजबूती से उत्पन्न कर ली है। उन्होंने पाया कि दो समीपवर्ती इलाकों में 13 प्रजातियों के गुणधर्म बहुत कठोरता से औषधि प्रतिरोधकता को अपना चुके हैं। एंडरसन का कहना है यह अध्ययन इसलिए भी लाभकारी है क्योंकि हमें प्रतिरोध समाप्त करने के लिए एक अणु चिन्हित करने वाली पद्धति की तुरंत आवश्यकता है। इससे हम शीघ्रता से मलेरिया के मरीजों के खून की जांच कर पाएंगे और यह भी सुनिश्चित कर पाएंगे कि क्या उनमें प्रतिरोध उत्पन्न हो गया है। (दवाई ने असर करना बंद कर दिया है) इस अध्ययन से यह जानने में भी मदद मिलेगी की परजीवी किस प्रकार प्रतिरोधी बन गया। उनका कहना है कि तब हम दवाई में परिवर्तन कर इसकी प्रभावशीलता को पुर्नस्थापित कर पाएंगे।
उम्मीद की किरण अभी बाकी है। नोबल पुरस्कार विजेता सिडनी अल्टमेन की अध्यक्षता में हो रहे शोध में शोधार्थियों ने एक ऐसा यौगिक बना लिया है जो कि मलेरिया परजीवी पी. फाल्सीफेरम को बढ़ने से रोकता है। ये नई दवाई खून की लाल कोशिकाओं में गहरे तक जाती है और परजीवी के गुणधर्म को लक्ष्य करती है। अल्टमेन का कहना है हमें पी. फाल्सीफेरम के जीरेसी नामक जीन के विस्तार को रोकने में सफलता पा ली है जो कि इसके पुनः पनपने के लिए पूर्णतया अनिवार्य है। वहीं नोस्टन का कहना है कि औषधि प्रतिरोधकता को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। सर्वश्रेष्ठ तरीका यह है कि प्रतिरोधकता उभरने के पहले ही मलेरिया का उन्मूलन कर लिया जाए। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मलेरिया शोध संस्थान के संस्थापक निदेशक विनोद पी. शर्मा का कहना है ऐसे क्षेत्र जहां पर मलेरिया बड़े पैमाने पर फैल रहा है वहां अगर कार्यक्रम प्रभावकारी हैं तो इसके फैलाव को वायु के माध्यम से फैलने से रोकने, निगरानी, मामले की शीघ्र पहचान एवं त्वरित उपचार से नियंत्रण में लाया जा सकता है।
एक नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने थाईलैंड और म्यांमार की सीमा पर ऐसे परजीवी की उपस्थिति की पुष्टि की है, जिसमें कि आर्टिमिसिनिन प्रतिरोधी तत्व पाए गए हैं। गौरतलब है कि यह इलाका पश्चिमी कंबोडिया से आठ सौ किलो मीटर दूर है, जहां पर कि वर्ष 2005 से इस प्रतिरोधकता को पाया जा रहा है। क्लोरोक्वीन एवं सल्फाडॉक्सिन को लेकर भी सर्वप्रथम प्रतिरोधकता सबसे पहले पश्चिमी कंबोडिया में पाई गई थी और इसके बाद इसका फैलाव दक्षिण पूर्व एशिया और अफ्रीका की ओर हुआ।
औषधि प्रतिरोधी मलेरिया अपने शिकार की टोह में है। जिस परजीवी की वजह से मलेरिया फैलता है वह पहले से ही क्लोरोक्वीन एवं सल्फाडॉक्सिन-पायरिमेथामाइन के माध्यम से हो रहे उपचार का प्रतिरोधी हो चुका है। अब, यह बीमारी जिसकी वजह से प्रति मिनट एक व्यक्ति की मौत होती है, लगातार उपचार की अनूठी दवाई आटीमिसिनिन के प्रति भी प्रतिरोधी होती जा रही है। थाइलैंड-म्यांमार सीमा पर कार्य कर रहे शोधकर्ताओं का मत है कि दक्षिण पूर्व एशिया में प्रतिरोधक क्षमता की समाप्ति कर अब इसका फैलाव किसी भी समय भारत एवं बांग्लादेश को नुकसान पहुंचा सकता है। उनका सुझाव है कि औषधि प्रतिरोधी बीमारी को रोकने का एकमात्र तरीका है कि वेक्टर नामक मच्छर के फैलाव को रोका जाए। मलेरिया मूलतः दो प्रकार के परजीवियों प्लाजमोडियम वाइवेक्स एवं प्लाजमोडियम फाल्सीफेरम के माध्यम से फैलता है। हालांकि लोग वाइवेक्स से अधिक लोग प्रभावित होते हैं लेकिन मलेरिया से होने वाली 10 में से 9 मौतें फाल्सीफेरम की वजह से होती हैं।आर्टीमिसिनिन का प्रयोग प्लाज फाल्सीफेरम मलेरिया के उपचार में किया जाता है। वर्ष 1990 के दशक में एक चीनी संयंत्र में विकसित सम्मिलित उपचार जिसमें आर्टीमिसिनिन का प्रयोग होता है, ने मलेरिया से होने वाली मृत्यु में 30 प्रतिशत तक की कमी लाने में मदद की है। एक नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने थाईलैंड और म्यांमार की सीमा पर ऐसे परजीवी की उपस्थिति की पुष्टि की है, जिसमें कि आर्टिमिसिनिन प्रतिरोधी तत्व पाए गए हैं। गौरतलब है कि यह इलाका पश्चिमी कंबोडिया से आठ सौ किलो मीटर दूर है, जहां पर कि वर्ष 2005 से इस प्रतिरोधकता को पाया जा रहा है। क्लोरोक्वीन एवं सल्फाडॉक्सिन को लेकर भी सर्वप्रथम प्रतिरोधकता सबसे पहले पश्चिमी कंबोडिया में पाई गई थी और इसके बाद इसका फैलाव दक्षिण पूर्व एशिया और अफ्रीका की ओर हुआ।
फैलाव की खोज
आर्टिमिसिनिन के प्रति प्रतिरोधकता का अर्थ यह नहीं है कि इसके माध्यम से होने वाला उपचार पूर्णतया असफल हो जाएगा, लेकिन इसके परिणामस्वरूप मरीज के खून से मलेरिया फैलाने वाले परजीवी की निकासी धीमी पड़ जाएगी। थाइलैंड की शोक्लों मलेरिया शोध इकाई का एक दल सन् 1986 से थाइलैंड-म्यांमार सीमा पर मलेरिया की खोज खबर इसलिए रख रहा है क्योंकि यह इस इलाके में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। दल के मुख्य शोधकर्ता फ्रेकोइस हेनरी नोस्टन का कहना है कि दल वर्ष 1995 से लगातार ऐसे मरीजों की निगरानी कर रहा है, जिनमें कि परजीवी की संख्या अधिक हो क्योंकि ऐसे मरीजों की इस बीमारी से मृत्यु की अधिक आशंका होती है।
उन्होंने ऐसे तीन हजार मरीज जिनका कि आर्टीमिसिनिन के माध्यम से उपचार हुआ था, का इस उद्देश्य से गहन परीक्षण किया कि यह पता लगाया जा सके कि परजीवी के शरीर से निकलने की दर क्या है। शोधकर्ताओं ने पाया कि वर्ष 2001 से 2010 के मध्य ऐसे मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिनके शरीर से इस परजीवी के निकलने की गति/दर धीमी थी। इन नौ वर्षों में धीमे बाहर निकलने की दर 0.6 प्रतिशत से 20 प्रतिशत पर पहुंच गई। इतना ही नहीं परजीवी के बाहर निकलने का समय भी 2.6 घंटे से बढ़कर 3.7 घंटे हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जहां मरीज पर दो दिन में असर दिखने लगता था अब वह ठीक होने में चार से पांच दिन लगने लग गए हैं। उन्होंने थाईलैंड एवं म्यांमार के लोगों एवं कम्बोडिया के 119 व्यक्तियों में निरोग होने की दर की तुलना भी की। उन्होंने पाया कि वर्ष 2007 से 2010 के मध्य कंबोडिया में निरोग होने की दर 42 प्रतिशत थी।
नेस्टन का कहना था ‘इस नई परिस्थिति के निर्मित होने की वजह से मलेरिया उन्मूलन के विचार से निश्चित रूप से समझौता करना होगा। यदि वास्तव में प्रतिरोध फैल रहा है तो इससे म्यांमार, भारत और बांग्लादेश सर्वाधिक जोखिम में आ जाएंगे। ये बातें 5 अप्रैल 2012 के लांसेट के संस्करण में सामने आई हैं। परंतु प्रतिरोध उत्पन्न होने की वजह क्या है? इस पर अमेरिका के टेक्सास बायोमेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट के शोधार्थी टिम जे.सी. एंडरसन का कहना है ‘आर्टीमिसिनिन को अन्य मलेरियारोधियों के साथ मिश्रण के रूप में इस्तेमाल करने की अनुशंसा इसलिए की जाती है कि अनेक दवाईयों के मिश्रण के इस्तेमाल से परजीवी के पनपने की क्षमता सीमित होती जाती है। स्वयं भारत भी ऐसे क्षेत्रों में जहां पी. फाल्सीफेरम मलेरिया महामारी का स्वरूप लेता जा रहा है वहां बहुऔषधि चिकित्सा को अपना रहा है। जबकि पश्चिमी कंबोडिया एवं कुछ अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में व्यापक तौर पर केवल आर्टीमिसिनिन को एकमात्र (मोनोथेरेपी) उपचार के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है।
प्रतिरोध क्यों उत्पन्न हुआ?

बचने का रास्ता
उम्मीद की किरण अभी बाकी है। नोबल पुरस्कार विजेता सिडनी अल्टमेन की अध्यक्षता में हो रहे शोध में शोधार्थियों ने एक ऐसा यौगिक बना लिया है जो कि मलेरिया परजीवी पी. फाल्सीफेरम को बढ़ने से रोकता है। ये नई दवाई खून की लाल कोशिकाओं में गहरे तक जाती है और परजीवी के गुणधर्म को लक्ष्य करती है। अल्टमेन का कहना है हमें पी. फाल्सीफेरम के जीरेसी नामक जीन के विस्तार को रोकने में सफलता पा ली है जो कि इसके पुनः पनपने के लिए पूर्णतया अनिवार्य है। वहीं नोस्टन का कहना है कि औषधि प्रतिरोधकता को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। सर्वश्रेष्ठ तरीका यह है कि प्रतिरोधकता उभरने के पहले ही मलेरिया का उन्मूलन कर लिया जाए। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मलेरिया शोध संस्थान के संस्थापक निदेशक विनोद पी. शर्मा का कहना है ऐसे क्षेत्र जहां पर मलेरिया बड़े पैमाने पर फैल रहा है वहां अगर कार्यक्रम प्रभावकारी हैं तो इसके फैलाव को वायु के माध्यम से फैलने से रोकने, निगरानी, मामले की शीघ्र पहचान एवं त्वरित उपचार से नियंत्रण में लाया जा सकता है।